Sunday, 28 August 2011

किक मारू भद्र मर्द



कुल मिलाकर यह कहना गलत नहीं है कि पति वह है, जिसको सलाह दो तो जताएगा, आप चढ़ाई करती हो। ना दो तो कुछ बोलती नहीं-दिमाग नहीं चलता। उनकी हर ‘हां’ में ‘हां’ मिलाओ तो तुम प्यारी हो, नहीं तो तुमको कोई समझ ही नहीं- बेवकूफ हो। वे बार-बार फोन करें तो केयर कर रहे हैं, तुम करो तो डिस्टर्ब बहुत करती हो। वे तुम्हारे कपड़ों पर टांग अड़ाएं तो ड्रेसिं ग सेंस सिखाते है- तुम बोलो तो मीन-मेख सीख लिया। वे सवाल दागें तो उनका अधिकार, तुमने कुछ पूछताछ की तो बीच में घुस गई- हस्तक्षेप करती हो। उनकी केयर अपनापन, आपकी केयर पजेसिवनेस। वे आपकी बचत में तांक-झांक करें तो अधिकार, आपने पूछ दिया तो सेल्फिशनेस

नये दौर में कंपनियों ने मुनाफा कमाने के जो शोशे अपनाये हैं, उनमें कुछ काफी हास्यास्पद होने के बावजूद अहितकर तो कतई नहीं हैं। एसएमएस की बात करूं तो युवाओं को इसका चस्का है, नकारात्मकता भरे इस समाज में जोक्स तो हैं ही, बेशकीमती विचार और पॉजिटिव थिंकिंग को लेकर बहुत उम्दा बातें भी बांटी जा रही हैं। ऐसे ही एसएमएसबाज मित्र ने पुरुषों की सोच पर बेहतरीन हकीकत भेजीं। लिखा- 16 से 25 की लड़की- फुटबॉल होती है (एक के पीछे 22 लगे होते हैं), 26-35 क्रिकेट बॉल- (एक के हाथ आती है, बाकी ताली बजाते हैं), 36-45 टेबल-टेनिस की बॉल, (एक कहता है तू रख-दूसरा बोलता है तू ही रख ले), इसके बाद तो फिर वह गोल्फ की बॉल रह जाती है (जितनी दूर जाए, उतनी अच्छी लगे)। गेंद का स्त्रीकरण इससे रचनात्मक तो नहीं हो सकता। यह बड़ी बेबाकी से पुरुषों की वह मनोवृत्ति बता रहा है, जिसके बारे में वे बेचारे खुद कुछ नहीं जानते।

 हालांकि हमेशा से उनका दावा रहा है कि वही औरतों को ढंग से जानते हैं। दिलखुश करने को यह ख्याल अच्छा तो है पर हकीकत से कोसों दूर भी। पुरुषों को बरगलाने में औरतें तब भी पीछे नहीं हैं, जबकि वे उनको हर क्षण सताते, धकियाते हैं और यह बताने से नहीं चूकते कि वे औरतों की तुलना में महान टाइप के हैं। स्त्रीत्व की बातें तो खूब होती हैं पर पुरुषत्व पर कोई चर्चा नहीं होती। एक तो उनमें ऐंठ के सिवाय कुछ होता नहीं। दूसरे संवेदनाओं के मामले में लगभग शुष्क ही होते हैं। उनका कोई भी संबंध लोभ और लाभ के दायरे में ही बंधा रहता है। लोलुपता उनको प्रकृति ने तोहफे में दी है। जब वे लड़कियों के पीछे भाग रहे होते हैं तो भी यह जताने से नहीं चूकते कि उनके पास कई च्वाइसें हैं। 

हालांकि लड़की यह जानती है कि उसके सपनों के राजकुमार और हकीकत में इतना फर्क तो होना ही था। जब वह किसी एक की हो चुकती है (क्रि केट बॉल) तो भी ताली मारने वालों की औकात समझते हुए ही कदम उठाती है। उसको अपनी बाउंड्रीज बहुत अच्छे से पता होती हैं। वह कितनी ही तुनकमिजाज या साधारण क्यों ना हो, अपने पति की कमजोरियां बेहतर जानती है। उसका बड़प्पन यह है कि वह उन पर कभी खुल कर बोलती नहीं। लड़ाई-झगड़ों में थो ड़ा छेड़ने के बाद भी हकीकत को सामने नहीं लाती। यही खूबी उसको जन्म-जन्मान्तर का साथी बनाये रखने में मददगार होती है । निखट्टू से निखट्टू आदमी को भी सरताज बताने की उसकी अदा लाजवाब होती है।

 जब वह पुरुष की नजर में टेबिल-टेनिस की बॉल हो जाती है तो भी अपनी स्थिति बरकरार रखने में वह कोई हथकंडा अपनाना नहीं भूलती। उसको अपनी तमाम लिमिट्स हमेशा पता होती हैं। यह सब उसने पीढ़ियों में सीखा है। मिनटों में किसी स्मार्ट-बुक से टिप्स नहीं मारे हैं। सादगी और कोमलता के भरोसे ही उसने किक किये जाने के चकल्लस से खु द को बचा कर रखा है। वह बेहद बेतकुल्लफी से उन खतरनाक हथियारों का इस्तेमाल कर डालती है, जिनके बारे में सोचना भी पुरुष के वश का नहीं है। जब पुरुष नयी-नवेली लड़की के ख्वाबों में फिर रहा होता है, तब भी स्त्री के बनाये पारिवारिक झंझटों से मुक्त नहीं होता। वह जानती है, बेवकूफों को कैसे उलझा कर रखना है। ये वही हैं, जो खुद को बड़ा तीसमार खां समझते हैं। आपके लिए जब वह गोल्फ की बॉल हो जाती है, तब भी उसकी मुट्ठी में घर की चाबी होती है। उसके पास वे टोटके सुरक्षित हैं, जिनकी भनक भी विद्वान नहीं लगा पाये। फुसलाने, बरगलाने और बेवकूफ बनाने के बेहतरीन नुस्खों को चाशनी में लपेट कर परोसना उसकी अदा में आता है। लड़के खुदा की बनायी बेहतरीन कृति कभी नहीं कहलाये, जबकि समाज ने उनको हमेशा पलकों पर ही बिठाये रखा। खुद को औरतों की बनिस्पत ‘स्पेशल’ समझने का उनका भ्रम बेहद बचकाना और दोयम दज्रे का है क्योंकि अपने परिवारों में बचपन में ही जाने-अनजाने उनको यह घुट्टी पिलाई जाती है कि वे जो भी करते हैं, वह उचित है। कुल मिला कर, यह कहना गलत नहीं है कि पति वह है, जिसको सलाह दो तो जताएगा, आप चढ़ाई करती हो। ना दो, तो कुछ बोलती नहीं- दिमाग नहीं चलता। उनकी हर ‘हां में हां’ मिलाओ तो तुम प्यारी हो, नहीं तो तुमको कोई समझ ही नहीं- बेवकूफ हो। वे बार- बार फोन करें तो केयर कर रहे हैं, तुम करो तो डिस्टर्ब बहुत करती हो। वे तुम्हारे कपड़ों पर टांग अड़ाएं तो ड्रेसिंग सेंस सिखाते हैं- तुम बोलो तो मीन-मेख सीख लिये। वे सवाल दागें तो उनका अधिकार, तुमने कुछ पूछताछ की तो बीच में घुस गई-हस्तक्षेप करती हो। उनकी केयर अपनापन, आपकी केयर पजेसिवनेस। वे आपकी बचत में तांक- झांक करें तो अधिकार, आपने पूछ दिया तो सेल्फिशनेस। वे कैटरीना को देखकर आहें भरें तो सौन्दर्यप्रियता, आप सलमान के डोलों की तारीफ कर दें तो तमीज नहीं है। उनको किसी गंभीर विषय की कोई जानकारी ना हो तो इन्ट्रेस्ट नहीं, आपको ना मालूम हो तो फूहड़ता। वह बच्चों से प्रेम जतायें तो लाड़, आप करें तो बिगाड़। वे चिड़चिड़ायें-झगड़ें और झल्लायें तो काम का बोझ, आपने ऐसा ही कर दिया तो आप झगड़ालू और सिरफिरी। ..बड़ी लंबी है यह परिभाषा। तमाम दिक्कतों और उलाहनों को समेट कर पतियों ने बीवियों के खिलाफ फेहरिस्त बना रखी है। उनका दावा होता है कि यह तो वही हैं, जो उसके साथ निभा ले रहे हैं, कोई और होता कब का छोड़ कर भाग गया होता। उनसे कोई पूछे, जहां भागने की संभावनाएं होती हैं, वहां से भाग नहीं पाये कभी! जो साहस कहीं नहीं दिखा पाते, उस सबके लिए घर वाली तो है ही।

 बातें बनाने से लेकर, हांकने और फैंटेसी तक में उनकी एकमात्र श्रोता (शिकार कहें तो बेहतर) बीवी ही होती है। जो यह अदाकारी करते कभी नहीं थकती कि जो कुछ तुम फेंक रहे हो, वह सब हकीकत से कोसों दूर है। उसको बहुत अच्छी तरह पता होता है कि रणक्षेत्र बस इन चारदीवारों के भीतर ही है । व्यावसायिक तौर पर करारे झटके खाने वाले मेरे एक मित्र काफी भावनात्मक होकर कहते हैं कि मेरी बीवी ने बुरे से बुरे वक्त में भी मेरा साथ नहीं छोड़ा। वह हर क्षण साथ थी। वे भूल जाते हैं कि वह जाती भी तो कहां? जो दीवालिया हो जाते हैं, पागल हो जाते हैं, खतरनाक बीमारी की चपेट में आ जाते हैं, उनको भी बीवियां नहीं छोड़तीं। छोड़कर भागना तो पुरुषवादी प्रवृत्ति है। छोड़ने वाली औरत तो मर्दाना है। भागना, छिपना, घबराना, छल करना, झूठ बोलना, धोखा देना सब पुरुषाना काम हैं। साहस का ढोंग करके वह बहादुर नहीं बन सकता। ना ही सीमा पर दुनाली लिये गश्त करने वाले को साहसी माना जा सकता है। वह तो मात्र जिम्मेदारी है, फर्ज निभाने की प्रक्रिया। फौज में हैं, तो यह तो करना ही होगा। पुलिस में हैं तो जनता-जनार्दन को धमकाना ही है। इतने से वे बहादुर नहीं हो जाते। ‘साहस’ अपने आपमें पूरी जीवन-शैली है। पुरुषों ने जानबूझकर इस पर अतिक्रमण किये रखा। भीतर से खोखले पुरुषों की यह घटिया सी चाल रही है, जिसके भ्रम ने औरत को और भी कमजोर करके रख दिया। झूठी शेखी बघार-बघार कर वे औरतों पर दबाव बनाते रहे और अपने प्रपंचों के बल पर जताते रहे कि सारा साहस सिर्फ पुरुषों की बपौती है। मासूमियत में औरतों ने इसको स्वीकार भी लिया जबकि असल दुस्साहस का काम वही करती हैं। चुपचाप, मौन, गुमसुम सी बनी रह कर। किक करो, फिर लौट आती है। अपना वजूद मिटा देती है। परिवार की बेदी पर सबकुछ कुर्बान कर देती है। अपनी हस्ती ही मिटा देती है। असल में, तो भगोड़ा पुरुष ही होता है। रीढ़हीन, कमजोर मन वाला, सहनशक्तिहीन और आत्मप्रशंसक हमेशा से पुरुष ही रहा है, औरतें तो मासूमियत से उनका मुंह ही ताकती रही हैं। जीवन हो या प्रेम, भागते तो पुरुष ही हैं कहीं से कर तो कहीं से धोखा मार कर। बीवी की गलती उनके गले नहीं उतरती, जबकि बीवियां उनकी कमियां ढांकते ही जीवन काट देती हैं। अस्पतालों से मिले आंकड़े बताते हैं कि गुर्दे दान कर पति को जीवन देने वाली स्त्रियां ही होती हैं। बीवी की जान बचाने को कोई पति अपना गुर्दा नहीं निकलवाता। अस्पतालों में पति की सेवा में जुटी स्त्री और पुरुष का अनुपात ही कभी देख लीजिए। घरों में विक्षिप्त पति को संभालने की जिम्मेदारी हो या दीवालिया पति के साथ जीवन काटने की, पुरुष यह सब नहीं करते। पत्नी पगला जाए तो मायके धकेल आएंगे या सुधारगृह भेज कर संतुष्ट हो लेंगे। यह कह कर झेंप भी मिटा लेंगे कि घर देखें या काम। चतुर पुरुष कुछ भी बात बना सकता है। भावनाओं का ढोंग करना हो या मतलब साधना, पुरुष अपनी किसी भी गुस्ताखी को न्यायोचित ठहराने से बाज नहीं आते ।

 वे दांपत्य के रसहीन-शुष्क-प्रेमहीन होने के बहाने ठोंक लेते हैं। काम का दबाव या बिला-वजह की सिरफिरी बातों के ढोंग करने में माहिर होते हैं। घर पर बीवी-बच्चों से बनाये जाने वाले उकताऊ बहाने दफ्तर में तोड़-मरोड़ कर दूसरे ढंग में परोस दिये जाते हैं। अपनी ज्यादातर ऊर्जा वे इन्हीं उकताऊ चीजों में तबाह करके ही सीना फुलाते हैं। जो मौके-बे-मौके यह हांकते नहीं थकते कि वे दरअसल जोरू के गुलाम हैं, हकीकत यह है कि वे थकेले हैं, अपनी नकारात्मकता और असफलताओं का इससे आसान कोई बहाना नहीं खोज सकते। बीवी के पल्लू को वे निराशा से बचने वाली छतरी मान बैठते हैं। उन्होंने जो कुछ र्ढे बना लिये हैं, उनको पुरुषपने से इस कदर जोड़ चुके हैं कि अब उनके बिना, सहजता से जीना भी उनके लिए मुश्किल है। पीढ़ियों से औरतों को छल-छद्म और भ्रम से बरगलाने में माहिर पुरुषजात के लिए अब अचानक सहज/सामान्य हो जाना मुश्किल है। यह झमेला काफी तकनीकी हो चुका है। स्वाभाविक और भावनात्मक जीवन से वे बहुत भटक चुके हैं। उनको भ्रम है कि यह दुनिया उनकी मर्दानगी ने बनायी है और इसको चलाने का बोझ उसी के कंधों पर है। इसीलिए पुरुषों का यह दावा हास्यास्पद होने के बावजूद कि उनके बिना परिवार नहीं टिक सकते, अपने कमाऊपन के गुरूर में यह भूला चुका है कि पैसों से घर चलता है, परिवार नहीं।

16 से 25 की लड़की फुटबॉ ल होती है (एक के पीछे 22 लगे होते हैं) 26-35 क्रिकेट बॉल- (एक के हाथ आती है, बाकी ताली बजाते हैं) 36-45 टेबल-टेनिस की बॉल, (एक कहता है तू रख-दूसरा बोलता है- तू ही रख ले)

बीवी की जान बचाने को कोई पति अपना गुर्दा नहीं निकलवाता। अस्पतालों में पति की सेवा में जुटी स्त्री और पुरुष का अनुपात ही कभी देख लीजिए। घरों में विक्षिप्त पति को संभालने का मुद्दा हो या दीवालिया पति के साथ जीवन काटने का, पुरुष यह सब नहीं करते। पत्नी पगला जाए तो मायके धकेल आएंगे या सुधारगृह भेज कर संतुष्ट हो लेंगे। यह कह कर झेंप भी मिटा लेंगे कि घर देखें या काम


साभार :- 

मनीषा
खरी-खरी

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