Tuesday 17 December 2013

सवाल आधी आबादी की सुरक्षा का....

कुछ समय पहले की ही बात है. एक महिला किसी से मेरा पता पूछते पूछते मेरे घर पहुँचीं. एक लम्बी यात्रा के बाद मैं उसी दिन लौटी थी. मुझे लगा कि संस्था से किसी प्रकार की मदद की ज़रूरत होगी. लेकिन जहाँ उन महिला ने अपने जीवन के पन्ने उलटे पलटने शुरू किये, उनकी आपबीती ने  मेरे अन्दर सिहरन पैदा कर दी. 25 सालों से अपने पति द्वारा सताई जा रही ये महिला अब मदद इसलिए ढूंढ  रही थी क्योंकि उसके बर्दाश्त करने की सीमा खत्म हो चुकी थी.  खुद शारीरिक हिंसा की शिकार इस महिला ने बताया कि इसका पति अपनी ही दोनों बेटियों का यौन उत्पीडन कर चुका है. इसमें से छोटी बेटी तो उस वक़्त कुछ महीनो की ही थी. दहशत में आई बेटी एक बार चीखी और बिस्तर से गिर गयी जिससे आज भी वो मानसिक रूप से असामान्य है. बड़ी बेटी के मन में डर इस क़दर बैठा कि आज भी वो उससे जूझ रही है. पति माँ और दोनों बेटियों को छोड़कर कहीं और रहता है और उन्हें खर्च भी नहीं देता है. कहीं से पता चलने पर एक संस्था की मदद से कोर्ट तक पहुंची तो लेकिन एक लम्बे अरसे के बाद भी अभी तक कुछ हाथ नहीं लगा. अब यहाँ ये बताना ज़रूरी हो जाता है कि ये किसी गरीब, ग्रामीण घर की कहानी नहीं है. पति एक बैंक में ऊंचे पद पर कार्यरत है और वो महिला खुद जादवपुर यूनिवर्सिटी की मनोविज्ञान में ऑनर्स है. अब एक दूसरी संस्था की मदद से उनकी छोटी बेटी को ख़ास बच्चों के स्कूल में निः शुल्क दाखिला मिल गया है और दबाव बनाने पर  केस की सुनवाई में भी तेज़ी आई है. यह सच है कि यह घटना बहुत आम घटना नहीं है लेकिन ऐसी घटनाएं होती हैं. और ये उस मुद्दे की बस बानगी है जिस पर  आगे इस लेख में बात होगी.
  
पिछले कुछ समय में सोया हुआ पूरा मुल्क अचानक जाग उठा. बड़ी तादाद में लोग सड़कों पर उतर आये. हर तरह का मीडिया सक्रिय हो गया और काफी लम्बे से सोया हुआ प्रशासन, राजनीतिक दल, पुलिसिया तंत्र और और कुछ हद तक हमारी न्यायप्रणाली भी इस रोष के चलते जाग उठी. मुद्दा कोई नया नहीं और न ही इसके लिए किसी भी समाज या संस्था की उदासीनता नयी है. महिला सुरक्षा, महिलाओं के प्रति बढती हिंसा, सामाजिक गैरबराबरी, हमारे समाज के हर स्तर पर जमी हुई पित्रसत्ता और इन मुद्दों पर चल रहे आन्दोलन भी कोई नए नहीं हैं.  लेकिन हाँ इन सबको जिस घटना ने हवा दी वो बेहद क्रूर, बर्बर, अमानवीय और जघन्य अपराध थी. इस देश की राजधानी व यहाँ के दिल कहे जाने वाले शहर दिल्ली के सभ्रांत इलाके में चलती बस में एक युवती के साथ सामूहिक दुष्कर्म ने इस देश में महिलाओं की स्थिति की पोल पट्टी खोल दी. राजधानी दिल्ली में महिला सुरक्षा को लेकर हो रहे सारे दावे हवा हो गए. युवा, नारीवादी संगठन, बुज़ुर्ग सड़कों पर उतर आये, ज़ाहिर बात है ये स्थिति  उनके लिए स्वीकार्य नहीं थी. सरकार ने भरोसा दिलाया कि दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा लेकिन साथ ही शांतिपूर्ण ढंग से प्रदर्शन कर रहे प्रदर्शनकारियों पर पानी की तेज़ बौछारें हुई, आंसू गैस के गोले छोड़े गए, लाठीचार्ज किया गया और प्रदर्शन रोकने के लिए धारा 144 लगाने के अलावा 9 मेट्रो स्टशन बंद कर दिए गए.  अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर इससे बड़ा सवाल और क्या हो सकता था. लेकिन मुद्दा इससे कहीं ज्यादा बड़ा और उसकी जडें कहीं ज्यादा गहरी हैं. 

शायद कुछ सवाल खुद से पूछें जाएँ तो थोडा आसानी हो. क्या बलात्कार की ये एकमात्र घटना है या देश की राजधानी में यह पहली बार हुआ है ?? क्या महिलाओं के प्रति हो रही हिंसा, छेड़छाड़ से लेकर यौन शोषण या दहेज़ हत्या कोई नयी बात है ?? क्या महिलाएं इस देश के किसी भी हिस्से में, किसी भी संस्था में, घर से लेकर सड़क, दफ्तर तक, कहीं भी खुद को पूरी तरह सुरक्षित महसूस करती हैं ?? क्या महिलाओं को अपने जीवन से जुड़े फैसले खुद लेने का अधिकार है ?? क्या महिलाएं पुलिस प्रशासन या न्यायपालिका पर पूरा भरोसा कर सकती हैं?? क्या इस देश में बच्चियां सुरक्षित हैं ?? क्या हमारे राजनीतिक दल, हमारे नेता, हमारे जनप्रतिनिधि, हमारी सरकार  या हमारा राज्य महिलाओं से जुडी समस्याओं और मुद्दों को लेकर संवेदनशील है ??  क्या यह सब मिलकर अपनी ज़िम्मेदारी निभा रहे हैं ?? और क्या हमारे देश में कानूनों की कोई कमी है ?? 


कुछ आंकड़े शायद स्थिति को थोडा स्पष्ट करें. 2010 में जागोरी संस्था द्वारा आई रिपोर्ट ने बताया कि अकेले दिल्ली शहर में 44% महिलाएं मौखिक उत्पीडन का शिकार हुई हैं जिसमें छीटाकशी और सीटी बजाकर छेड़ना शामिल है. 13% महिलाओं ने शारीरिक उत्पीडन का सामना किया है. राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की 2011 की रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं के खिलाफ हुए अपराधों में 2010 की तुलना में 2011 में 7.1% की बढ़ोत्तरी हुई है और 2007 से 2011 तक इनमें 23.4% की वृद्धि हुई है. भारतीय दंड संहिता के तहत आने वाले महिलाओं के खिलाफ हुए अपराध पिछले 5 सालों में 8.8% से बढ़कर 2011 में 9.4% तक पहुँच गए हैं. 2011 में महिलाओं के खिलाफ हुए अपराधों की संख्या 228650 थी जिसमे 24206 बलात्कार, 8618 दहेज़ हत्याएं, 35565 अपहरण , 42968 छेडछाड, 8570 यौनिक हिंसा, 99135 पति या अन्य रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता, 80 लड़कियों के व्यापार की घटनाएं शामिल हैं. इन अपराधों के आधार पर सबसे अधिक घटनाएं पश्चिम बंगाल में हुई हैं व उत्तर प्रदेश इस सूची में 22639 घटनाओं (जिसमें 2042 बलात्कार शामिल हैं) के साथ तीसरे स्थान पर है. अपहरण व दहेज़ हत्या की घटनाओं के मामले में उत्तर प्रदेश इस सूची में 7525 अपहरणों और 2322 दहेज़ हत्याओं के साथ सबसे ऊपर है. यहाँ पर ये कहना बेहद ज़रूरी है कि यह सिर्फ वो संख्या है जो कि दर्ज होती है. अधिकांशत: तो तो कई कारण पीड़ित महिलाओं की हिम्मत तोड़ने का काम करते हैं जैसे पारिवारिक दबाव, किसी भी प्रकार का सहारा न होना, कभी डर तो कभी शर्म, सामाजिक दबाव, पुलिस का असंवेदनशील रवैया या न्यायपालिका की कमरतोड़ लम्बी प्रक्रिया. आज भी हमारे समाज में दोयम दर्जे पर जी रही औरत आमतौर पर पुलिस या कोर्ट का दरवाज़ा तब खटखटाती है जब उसके बाकी सारे विकल्प बंद हो चुके होते हैं क्योंकि इन जगहों पर पहुँचने  को भी परिवार की इज्ज़त से जोड़कर देखा जाता है जिसकी ज़िम्मेदारी उसी औरत के कन्धों पर होती है. इज्ज़त और शान के नाम पर होने वाली हत्याएं हम रोज़ ही अखबारों में पढ़ते हैं. दिल्ली बलात्कार कांड के बाद न्यूज़ चैनलों पर चल रही चर्चाओं से पता चला कि बलात्कार के लगभग 1 लाख मुक़दमे हमारी न्यायपालिका में लंबित पड़े हैं, उसी के कुछ दिन बाद हिंदुस्तान अखबार के माध्यम से पता चला कि कुछ पीड़ित 36, 37 सालों से उत्तर प्रदेश में न्याय की बाट जोत रहे हैं. राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की 2011 की रिपोर्ट के अनुसार ही बलात्कार की घटनाओं में सजा की दर मात्र 26.4 है.       

तो यह तो साफ़ है कि देशभर में जो रोष फैला वो एक बलात्कार की वजह से नहीं है. यह हर उस बच्ची, युवती या महिला की बात है जो हर 22वे मिनट देश के किसी कोने में बलात्कार का शिकार होती है. यह सिर्फ राजधानी दिल्ली की नहीं बल्कि बुंदेलखंड, झारखंड, गुवाहाटी और इस मुल्क के दूर दराज़ में ऐसी हिंसा का शिकार हो रही हर महिला के बारे में है. यह दिल्ली के सिर्फ उन शोहदों के बारे में न होकर अपने रुतबे, कद, पैसे, जाति, पदवी के नशे में चूर नेताओं, रईसजादों, पुलिसवालों, नौकरशाहों या सेना के जवानों के बारे में भी है.  लेकिन यहाँ यह कहना भी ज़रूरी है कि बात बलात्कार के अलावा होने वाली घटनाओं की भी है. बात उस अजन्मी अबोध बच्ची की भी है जिसे सिर्फ इसलिए मार दिया जाता है या कूड़े के ढेर में फेंक दिया जाता है क्योंकि वो एक लड़की है. बात पैदा होने के बाद हर दिन बढती उस लड़की की भी है जो हर रोज़ भेदभाव को एक नए रूप में देखती और महसूस करती है और ऐसा करते करते वो कब इस दोयम दर्जे को खुद में आत्मसात कर लेती है उसे पता ही नहीं चलता. उसके खेल, खिलौने, कपडे, काम, अगर कर सकी तो पढाई और थोडा और आगे बढ़ सकी तो उसका करियर वरना शादी  कुछ भी तय करने की आजादी या हक आज भी उसके पास नहीं है. बड़े होने की प्रक्रिया में कब उसे बचपन के खेल छोड़कर खुद को अपने ही परिवार के सदस्यों की नज़रों से बचाकर रखना होता है, जिसमें ज़्यादातर वो सफल नहीं हो पाती है, यह भी ज़िम्मेदारी उसी की होती है. 

अगर स्कूल जा पाती  है तो वहां एक ओर पढने की ललक या लालच वहीँ दूसरी ओर अपने ही सहपाठियों, अध्यापकों से खतरा, काम के लिए बाहर निकले तो सड़क पर चलते लोगों, यातायात के साधनों पर सवार लोगों की बेचैन कर देने वाली नज़रों और फब्तियों को झेले, कार्यस्थल में यौन शोषण से खुद को बचाए, शादी करे तो उस घर में कभी शारीरिक तो कभी मानसिक हिंसा का शिकार हो.यह  सच है कि शायद हर लड़की के साथ ये स्थिति न आई हो लेकिन इनमे से कोई भी न आई हों ये संभव नहीं.  तस्वीर बदली है लेकिन ये भी सच है कि अगर एक बड़े फलक पर देखें  तो तस्वीर अब भी बड़ी कुरूप है.  एक लड़की के जीवन में उसे बचपन से ये बता देना कि शर्म ही उसका गहना है, उसे धीरे बोलना चाहिए, धीरे हँसना चाहिए, कैसे चलना चाहिए और उसके लिए उसका शरीर ही उसकी और न सिर्फ उसकी बल्कि पूरे घर भर की इज्ज़त है, ऐसा करके उसकी अस्मिता को महज़ उसके शरीर के दायरे में समेट देना कहाँ तक सही है यह बड़ा सवाल है.

रास्ते चलते छेड़खानी करते, सीटी बजाते लड़कों के खिलाफ जब लड़की खुलकर आवाज़ उठाती है, उसी जगह उसका सामना करती है तो अच्छा लगता है लेकिन ऐसा करने की हिम्मत कम ही लड़कियां जुटा पाती हैं और अगर बात बढ़ जाती है तो अक्सर उन्हें ही चुप हो जाने की हिदायत या सलाह दी जाती है. ऐसी कुछ हिम्मती लड़कियों को आगे अलग किस्म की मुश्किलें भी झेलनी पड़ जाती हैं. जैसे राह चलते उनके चेहरे पर तेजाब फेंक देना, अपहरण करके बलात्कार करना. लखनऊ की ही एक सामाजिक संस्था, साझी दुनिया के सार्वजनिक यातायात के साधनों का इस्तेमाल कर रही महिलाओं के साथ किये गए एक ताज़ा सर्वेक्षण के नतीजे कहते हैं कि 93.72% महिलाओं के साथ छेड़खानी होती है. 62.99% महिलाओं का मानना है की ड्राइवर और उसके साथी भी छेड़खानी करते हैं. और 68.40% महिलाओं का कहना था कि ऐसी स्थिति में आस पास के लोग कोई मदद नहीं करते. तो असल में समस्या कहाँ है, दोषी कौन है और इस स्थिति में क्या किया जा सकता है. 

शायद ज़्यादातर लोगों के लिए यह बात पुरानी हो चुकी हो लेकिन हमारा सामाजिक ढांचा जिसका कई रुढ़िवादी लोग दंभ भरते हैं इसका मुख्य कारण है.  जो हमारे समाज की हर संस्था, वो चाहे परिवार हो, शिक्षा हो, विवाह हो या और भी कोई ; हर जगह एक गहरी पैठ बना चुका है. साथ ही ज़िम्मेदार है हमारी कथित रूप से महान संस्कृति जो कभी भी महिलाओं को बराबरी का दर्जा नहीं दे पाई. एक लड़की के जीवन में उसको व उसकी पहचान को एक पुरुष पर ही आश्रित दिखाया गया है, पहले पिता, फिर पति और फिर बेटा. कई लोग इस बात से कतई सहमत नहीं होंगे और मुझे कई वेद पुराणों, धार्मिक ग्रंथों  व मनुस्मृति का हवाला भी देंगे. लेकिन मैं फिर भी यह बात जोर देकर कहूँगी कि ये सभी धार्मिक ग्रन्थ कहीं न कहीं औरत को दोयम दर्जे में धकेलने का काम ही करते हैं. संस्कृति को यह कहकर महान बताने कि आवश्यकता नहीं कि यहाँ औरत देवी होती है क्योंकि आये दिन ऐसी देवियाँ इस देश में या तो कोख में मार दी जाती हैं, राह चलते सड़क से उठाकर किसी आदमी की हैवानियत का शिकार होती है, दहेज़ के लिए जला दी जाती है या ज़ुल्म न सहने की सूरत में घर से निकाल दी जाती है. देवियों की ऐसी कल्पना करना मेरे लिए तो मुश्किल है. मैं और मेरे जैसी तमाम लड़कियां एक आम इंसान की ज़िन्दगी जीना चाहती हैं और अपने हक का इस्तेमाल करना चाहती हैं. 

यह हमारे समाज के हर हिस्से में घर कर चुकी पित्र्सत्ता का ही परिणाम है कि लड़की के साथ कुछ गलत होने की सूरत में हम उसे चुप रहना सिखाते हैं. यह बताने कि ज़रुरत नहीं कि किस प्रकार हमारे समाज में बलात्कार पीडिता और उसके परिवार को सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता है जबकि दोषी शान के साथ घूमता है. और ऐसी स्थितियां होने पर हर तरह की सलाह लड़की को ही दी जाती है कि वो कैसे खुद को बचाए. मैंने आजतक ऐसी चर्चाएं कहीं भी होते नहीं देखी जहाँ लड़कों को ये बताया जाये कि उन्हें महिलाओं के साथ कैसे पेश आना चाहिए या उन्हें हिंसा नहीं करनी चाहिए. यह सोच किसी एक वर्ग विशेष तक सीमित नहीं है. पिछले कुछ समय में पश्चिम बंगाल, गुजरात, मध्य प्रदेश, दिल्ली में बैठे प्रबुद्धजनों की लड़कियों के लिए हिदायत भरी टिप्पणियां हमे शायद याद होंगी. साथ ही शायद यह भी याद होगा कि महान संस्कृति की मशाल लेकर चलने वाले बड़े धार्मिक संगठनों के ठेकेदारों से लेकर आध्यात्मिक गुरुओं तक के इस विषय पर क्या विचार थे. 

यहाँ एक बार फिर मैं सरकारी आंकड़ों का ही हवाला दूंगी और यह खासतौर पर उनके लिए है जिन्हें लगता है कि परिवार में ऐसी घटनाएं होती नहीं हैं और ऐसी घटनाओं के लिए लड़कियां छोटे कपडे पहन कर खुद ही घटना को निमंत्रण देती हैं. राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की 2011 की रिपोर्ट के अनुसार इन्सेस्ट रेप  की कुल 267 घटनाएं दर्ज हुई हैं जिनमें 20 घटनाओं में पीडिता की उम्र 10 वर्ष तक और 48 घटनाओं में 10-14 वर्ष थी. साथ ही बलात्कार की अन्य घटनाओं में 855 पीड़ितों की उम्र 10 वर्ष तक व 1659 पीड़ितों की उम्र 10-14 वर्ष के बीच थी.  एक अन्य रिपोर्ट का उल्लेख भी यहाँ करना चाहूंगी. वात्सल्य संस्था द्वारा उत्तर प्रदेश में एक छोटे स्तर पर किये गए एक ताज़ा अध्ययन में ये पाया गया कि 5-10 वर्ष की उम्र की 33.2% बच्चियां किसी न किसी प्रकार की यौनिक हिंसा का शिकार हुई हैं. इस उम्र में एक बच्ची क्या निमंत्रण दे सकती है इसका विचार ज़रा खुद करें. 

कुछ लोगों का यह भी कहना है की लड़कियां देर रात घर से बाहर न निकलें, दिल्ली के स्कूलों में तो नसीहत भी होर्डिंगों में लगा दी गयी की लडकियां स्कूल के बाद सीधे घर जाएँ. ऐसे में बस कुछ  सवाल यह कि राज्य की क्या ज़िम्मेदारी है?? क्या एक लड़की या किसी अन्य  व्यक्ति को भी सुरक्षित माहौल देना राज्य की ज़िम्मेदारी नहीं?? यह कौन सुनिश्चित  करेगा कि मैं अपने घर से किसी भी वक़्त बेख़ौफ़ होकर निकल सकूँ और सुरक्षित वापस भी पहुँच सकूँ. 

ऐसी विषम परिस्थिति में जन आन्दोलन एक हद तक बदलाव तो ला सकता है लेकिन ज़रूरत और बहुत ज्यादा होने की है. ज़रूरत बदलाव को खुद से शुरू करने की है. इस समाज के हर स्तर पर, हर संस्था को संवेदनशील होने की ज़रूरत है. हमारे व्यवहार से पाठ्यपुस्तकों तक, हमारी भाषा से कार्यशैली तक, नेताओं के वादों से नियम बनाने तक, हर जगह बैठी गैरबराबरी को बाहर करना बहुत ज़रूरी है. और इस सबके लिए ज़रूरी है एक मज़बूत इच्छाशक्ति का होना. पित्र्सत्ता या मौजूदा ढांचा ऐसा कभी नहीं चाहेगा लेकिन अब राज्य, न्यायपालिका, प्रशासन तंत्र के साथ सरकार को भी सिर्फ कहने के लिए नहीं बल्कि वास्तविकता में संवेदनशील होना ही होगा. इस तंत्र को अब ये सुनिश्चित करना होगा कि ऐसी घटनाएं बर्दाश्त नहीं की जाएँगी. उन्हें ये भी सुनिश्चित करना होगा कि महिलाएं अपनी बात उन तक बेख़ौफ़ होकर पहुंचा सकें और उनकी शिकायतों का निस्तारण भी जल्दी हो. जिस पूर्ण असहिष्णुता (zero tolerance) की बात को सिर्फ कागजों तक या अपने भाषणों तक सीमित करके रखा गया है उस पर समाज के हर दर्जे में अमल किया जाए.  राजनीतिक  पार्टियों की इसपर मज़बूत इच्छाशक्ति हो और सबसे ज़रूरी बात, इसे महज़ महिलाओं का मुद्दा न समझकर मानवता का मुद्दा समझा जाए. पिछले 7 वर्षों से अगर महिलाओं के प्रति यौन हिंसा से संरक्षण पर बने बिल को मंजूरी नहीं मिली है तो यह हमारी सरकार और इस गंभीर मुद्दे पर अन्य दलों की उदासीनता को ही दिखाता है. आज यह बेहद ज़रूरी हो गया है कि हम अपनी बेटियों को सहना नहीं बल्कि कहना सिखाएं. हम उन्हें वो माहौल दें जिसमें वे खुलकर अपनी परेशानी हमसे साझा कर सकें बिना इस डर के कि इस घटना का ज़िम्मेदार उन्हें ही ठहराया जायेगा या उन पर तमाम तरह की पाबंदियां लगा दी जायेंगी. आज यह ज़रूरत निश्चित तौर पर है कि हमारे देश में सख्त कानून हों लेकिंग उससे भी बड़ी ज़रूरत है कि उनका क्रियान्वयन सुनिश्चित हो क्योंकि कानूनों की कमी देश में आज भी नहीं है.   
और इन सब के साथ एक बड़ी ज़रूरत है दायरे तय करने की खासतौर पर हमारे मीडिया को, हमारी फिल्मों, टीवी सीरियलों को और हम सबको भी. कहा जाता है कि अब स्थितियां बदलीं हैं, हाँ बदली तो निश्चित तौर पर हैं लेकिन इसमें भी कोई दो राय नहीं कि पित्रसत्ता अब और ज्यादा भयावह रूप से गुप चुप तरीके से काम कर रही है और इससे मजबूती देने का काम बाज़ार ने बखूबी किया है. शीला, मुन्नी, फेविकोल जैसे गानों की भूमिका  औरत को सिर्फ एक  उपभोग की वस्तु दिखाने भर की रह गयी है. साथ ही टीवी सीरियलों से लेकर विज्ञापनों ने जहाँ अपने उत्पादों के लिए खरीदार खड़े कर लिए हैं वहीँ इन्होने भी औरत को उपभोग की वस्तु बनाकर ही प्रस्तुत किया है. सीरियलों ने करवाचौथ, छठ, तीज, अक्षय तृतीया जैसे त्योहारों को क्षेत्र के दायरे से बाहर निकाल दिया है, और हर त्यौहार का अपना मज़बूत बाज़ार है. साथ ही इन कार्यक्रमों ने 'अच्छी' और 'बुरी' औरतों की जो अवास्तविक छवि बनायीं हैं वो कहीं न कहीं पित्रसत्ता और रूढ़ीवाद को ही मज़बूत करती हैं. आज की नायिकाओं और फिल्मकारों  को यह समझने की ज़रूरत है कि समाज में अपने स्तर पर ज़िम्मेदारी वे भी निभा सकते हैं. एक बड़ी तादाद में लोग उनका काम देखते, सुनते और काफी हद तक उससे प्रभावित होते हैं ऐसे में इन आइटम गानों की प्रासंगिकता समझ से परे है. शायद मुनाफा कमाने के अलावा थोडा कुछ और भी सोचा जा सकता है. हमारे पास अश्लील और घटिया गानों से प्रसिद्धि बटोर रहे हनी सिंह  के क्या और कोई विकल्प नहीं हैं. उसको पसंद करने वाले लोग हमारे बीच से ही आते हैं और क्यों ऐसे घटिया गाने लिखने और गानेवाले व्यक्ति के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती. हमारी फिल्म और म्युज़िक इंडस्ट्री को कहीं ज्यादा समझदार होने की ज़रूरत है .

ये सच है ये बदलाव एक दिन में नहीं  आएगा लेकिन अगर इच्छाशक्ति हो तो तस्वीर बहुत जल्द बदल ज़रूर सकती है. मैंने अपने जीवन में पहली बार महिला मुद्दों पर इतनी बड़ी तादाद में पुरुषों, लड़कों और युवाओं को सड़क पर उतरते देखा है. इनकी तरफ से यह पहल स्वागतयोग्य है व इसे सहेज कर रखना ज़रूरी है.  लेकिन हाँ यहाँ पर ये ज़रूर कहना चाहूंगी कि जनता का ये रवैया महज़ चार दिन के मौन जुलूस, मोमबत्ती प्रदर्शन तक सीमित नहीं होना चाहिए. आज अपनी इंसानियत के जज्बे को जिंदा रखने की ज़रूरत है. ये समाज  हम सबसे ही मिलके बना है इसलिए इसमें बदलाव लाने की शुरुआत खुद से ही करनी होगी. ज़रूरत ये हैं कि हमारे आस पास जब भी कोई घटना हो तो हम उस वक़्त मूकदर्शक न बनें और अपनी चुप्पी तोडें क्योंकि हमारी और आपकी ख़ामोशी ही ऐसे अपराधियों के हौसले बढाती है. अगर ये नहीं कर सके तो 4 दिन के प्रदर्शन मात्र का कोई मतलब नहीं रह जाता. इस दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए इससे ज्यादा शर्मनाक बात और कुछ नहीं हो सकती कि उसकी आधी आबादी असुरक्षित है और आज भी हर एक पल गैरबराबरी और अमानवीयता का सामना कर रही है. एक नसीहत सालों पहले मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी दे गए थे....आज उसका ज़िक्र प्रासंगिक हो चला है: 

कद्र अब तक तिरी तारीख ने जानी ही नहीं 
तुझमें शोले भी हैं बस अश्कफिशानी ही नहीं 
तू हकीकत भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं 
तेरी हस्ती भी है एक चीज़ जवानी ही नहीं 
अपनी तारीख़ का उनवान बदलना है तुझे 
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे 

साभार :- प्रस्तुतकर्ता Rमेरा पन्ना ब्लॉग से  )

आधी बात पूरी बात ..





ई बार परिवार में जब लड़के-लड़कियों के झगड़े होते हैं, तो लड़का शेखी बघारता है कि वह अधिक बलशाली है और लड़की छुईमुई है। कहता है, लड़कियां हर बात पर आंसू बहाती हैं, कमजोर होती हैं। कभी कहता है, वह साइंस पढ़ेगा और लड़की आर्ट्स के क्षेत्र में जाएगी, क्योंकि दिमाग तो लड़कों के पास होता है। इतना ही नहीं, लड़कियां गाड़ी चलाना नहीं जानतीं और उनको खेल-कूद में भी आसानी से हराया जा सकता है। अधिकतर माता-पिता इस बहस को भाई-बहन के बीच नोक-झोंक कह कर टाल देते हैं, क्योंकि उनके मन में भी ऐसी ही बातें भरी होती हैं और वे अपनी बेटियों के जीवन की जद्दोजहद को समझ ही नहीं पाते। किशोरावस्था में लड़कियां अपने परिवार के लड़कों से दूरी बना लेती हैं और उनकी दुनिया अलग हो जाती है। भाई का बहन से औपचारिक-सा रिश्ता रह जाता है, जो रक्षक-सा होता है। पिता के बाद उसकी इज्जत का रखवाला। तब तक, जब तक उसका विवाह न हो जाए और पति उसका नया रक्षक न बन जाए। शायद यही कारण है कि 21वीं सदी में भी स्कूल-कॉलेज में को-एजुके शन (सहशिक्षा) को लेकर इतना विवाद रहा है। अभिभावकों के खास हिस्से का कहना है कि लड़के-लड़कियों के मेलजोल से लड़कों की पढ़ाई पर नकारात्मक असर पड़ेगा और लड़कियां बिगड़ जाएंगी तो उनकी शादी नहीं होगी। माना जाता है कि प्राकृतिक दबाव को कोई रोक नहीं सकता और समय से पूर्व बच्चों की यौनिकता जागृत हो जाएगी। सहशिक्षा को कई अन्य कारणों से भी पसंद नहीं किया जाता, मसलन को-एड संस्थानों में लड़कियां अधिक खुलकर नहीं रह पातीं और उनका विकास अवरुद्ध होता है। दूसरी ओर, सहशिक्षा के पक्ष में मजबूत तर्क यह है कि समाज और परिवार में जब लड़के-लड़कियों को अलग नहीं किया जाता और वे आपस में मर्यादित दूरी या नजदीकी बरकरार रखते हैं तो सहशिक्षा संस्थानों में क्यों नहीं? उन्हें कृत्रिम रूप से विभाजित करने की क्या आवश्यकता है? मनोवैज्ञानिक तो कहते हैं कि लड़कियों के साथ पढ़ने से लड़कों में गंभीरता और सौम्य आचरण का सृजन होता है। उनके हुड़दंग कम होते हैं और वे लड़कियों में प्रतियोगी मानसिकता पैदा करने और पुरुषों के समकक्ष खड़ा होने में मदद करते हैं। जब एक ही पाठ्यक्रम, एक ही शैक्षिक वातावरण और एक ही क्षमता वाले अध्यापक छात्राओं को भी मिलते हैं तो वे बराबर शैक्षिक मापदंडों को हासिल कर पाने की स्थिति में पहुंचती हैं। एकल जेंडर वाले संस्थानों में छात्राओं के लिए हल्के पाठ्यक्रम होते हैं और शिक्षा की जेंडर स्टीरियोटाइपिंग हो जाती है। इसके कारण महिलाओं को कुछ खास किस्म के रोजगार ही चुनने पड़ते हैं यानी जॉब स्टीरियोटाइपिंग का खतरा बढ़ जाता है तो सहशिक्षा क्यों नहीं? परंतु विश्व इतिहास में लड़कियों की शिक्षा को घरों से बाहर निकालने में काफी संघर्ष का सामना करना पड़ा था क्योंकि उन्हें घरेलू काम सिखाने पर अधिक जोर दिया जाता था- जैसे सिलाई-कढ़ाई, चित्रकला, संगीत, बच्चे संभालना, खाना पकाना और साफ-सफाई रखना आदि। उन्हें धार्मिक ग्रंथ पढ़ाए जाते थे ताकि वे स्वयं नैतिकता का पालन करें और अपने बच्चों को भी सिखाएं। यह भी संभ्रांत परिवार की युवतियां ही कर पाती थीं। बाकी महिलाओं को शिक्षित करने की बात ही नहीं होती। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद महिलाओं को औपचारिक शिक्षा दी जाने लगी और उद्योगों में काम करने के लिए उन्हें कुछ वृत्तिक कौशल प्राप्त करवाने पर बल दिया गया। 1833 में अमेरिका के ओहायो राज्य का ओबर्लिन कॉलेज, जो निजी संस्थान था, सबसे पहले महिलाओं और अश्वेतों को प्रवेश देने लगा। सरकारी संस्थानों में आयोवा स्टेट विश्वविद्यालय ने 1855 में महिलाओं को प्रवेश दिया पर कैथोलिक र्चच हमेशा महिला शिक्षा का प्रबल विरोधी रहा। विकसित देशों में जापान महिला सहशिक्षा में सबसे पीछे था, जबकि रूस, स्कैन्डिनेवियाई क्षेत्र, क्यूबा और चीन में महिलाओं को पुरुषों के साथ शिक्षा के बराबर अवसर दिये गए। अफ्रीका और अरब देशों में अब तक भी महिला शिक्षा में काफी भेदभावपूर्ण नजरिया देखने को मिलता है और सहशिक्षा वर्जित रही है। इस्लामिक देशों में मध्ययुग में महिलाओं को अनौपचारिक और धार्मिक शिक्षा दी जाती थी। भारत में भी शिक्षा की गुरुकुल पद्धति में लड़कियों को बहुत कम संख्या में लिया जाता था क्योंकि शिक्षा धर्म और युद्ध-कला से अधिक सरोकार रखता था और निम्न जाति के लोगों को शिक्षा नहीं दी जाती थी। बाद में, बौद्ध धर्म में महिलाओं की शिक्षा के लिए बहुत सख्त नियम-कानून बनाए गए ताकि भिक्षुणियों को हमेशा भिक्षुओं से दूर रखा जा सके, क्योंकि महिलाओं को बुरे प्रभाव डालने वालों के रूप में देखा जाता था।
कहा जाता है कि गौतम बुद्ध स्वयं महिला शिक्षा के विरोधी थे और उनके शिष्य आनंद के प्रयासों से सर्वप्रथम 500 महिलाओं को संस्था में दाखिला दिया गया। 1852 में सावित्रीबाई फुले भारत की सबसे पहली महिला शिक्षिका बनीं और उन्होंने अपने पति ज्योतिबा फुले के सहयोग से पहला महिला विद्यालय खोला। पर इसके लिये उन्हें काफी विरोध और पथराव जैसे हमले का सामना करना पड़ा। 1878 में पहली बार कलकत्ता विश्वविद्यालय ने महिलाओं को डिग्री कोर्स के लिए प्रवेश की अनुमति दी थी, जबकि उसी समय ब्रिटेन के विश्वविद्यालयों में महिलाओं को पुरुषों के साथ उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रवेश नहीं मिल रहा था। 1947 तक महिला साक्षरता 6 प्रतिशत थी पर इसके बाद विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग ने अपनी रिपोर्ट में महिला शिक्षा के विरोध में लिखा और कहा कि यह उनके जीवन से कोई सरोकार नहीं रखता। काफी समय बीतने के बाद 1958 में महिला शिक्षा के लिए राष्ट्रीय आयोग का गठन हुआ। पर हमें यकीन नहीं होगा कि वर्जीनिया जैसे विश्वविद्यालय में 1920 में भी महिलाओं की कक्षा में प्रवेश करते ही पुरुष सहपाठियों से पैर पटककर विरोध का सामना करना पड़ता और नार्थ कैरोलिना विश्वविद्यालय में छात्राओं को पर्दे के पीछे बैठना पड़ता था ताकि पुरुष विद्यार्थी पढ़ाई पर ध्यान दे सकें। आज विश्व में बहुत सारे को-एड विद्यालय हैं, क्योंकि वे आर्थिक तौर पर अधिक व्यावहारिक साबित हो रहे हैं और कामकाज के क्षेत्र में भेदभाव काफी हद तक कम हुआ है। फिर भी नैतिकता और सामाजिक कारणों से सहशिक्षा पर बहस जारी है। शायद यह समझने की जरूरत है कि बचपन से लैंगिक भेदभाव को खत्म करने के प्रयास होने चाहिए, वरना यह कभी समाप्त नहीं होगा। लड़कों को लड़कियों से भद्रता और करुणा सीखनी चाहिये और लड़कियों को लड़कों से दावेदारी और शारीरिक क्षमता का विकास। दोनों को एक-दूसरे को सम्मान और बराबरी का दर्जा देने का अभ्यास शिक्षण संस्थानों में सीखना चाहिये ताकि बाद में भी उनके आपसी संबंध सामान्य और दोस्ताना हो सकें। यह समाज को अधिक समतावादी बनाने में मदद करेगा।


साभार  :- डॉ. कुमुदिनी पति

Sunday 1 December 2013

कार्यस्थल पर लैंगिक समानता

कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न रोकने के कानून विशाखा निर्देशिका
सर्वोच्च न्यायालय का 1997 में विशाखा मामले में दिया गया फैसला मील का पत्थर बन गया है। इसके तहत न्यायालय ने सभी सरकारी और गैर सरकारी संगठनों को निर्देर्शित किया कि वे अपने यहां महिलाओं के साथ यौन र्दुव्‍यवहार या उत्पीड़न रोकने और उनके निबटारे के लिए एक समिति का गठन करे, जिसमें महिलाओं का अनुपात अधिक हो। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में यौन उत्पीड़न को परिभाषित भी किया, जिसके अंतर्गत शारीरिक सम्पर्क और इसके लिए की जाने वाली कोशिश यौन सम्पर्क के लिए की गई मांग या अनुरोध कामुक प्रतिक्रियाएं अश्लील चित्र दिखाना अन्य कोई भी अवांछित कामुक प्रकृति का शारीरिक, मौखिक और अ-मौखिक व्यवहार या आचरण हालांकि इस परिभाषा के दार्यो में आने वाले यौन उत्पीड़न के मामलों के निबटारे के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कोई समय सीमा नहीं तय की। दोष साबित होने पर दंड के प्रावधानों को भी समिति के ही विवेक पर छोड़ दिया इसके लगभग 16 साल बाद, 16 दिसम्बर 2012 को दिल्ली में सामूहिक बलात्कार की विदारक घटना और उसके विरुद्ध में उठ खड़े देश ने समूचे परिदृश्य को एकदम से बदल कर रख दिया। इसने महिलाओं के विरुद्ध होने वाली हिंसा की तरफ पूरे अवाम का ध्यान खींचा और नतीजतन, यौन उत्पीड़न की परिभाषा को और व्यापक करते हुए जुर्मो की संगीनता के मुताबिक सख्त सजा के प्रावधान वाले कानून की जरूरत महसूस की गई।

कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (बचाव, रोकथाम और निबटान) कानून-2013 
इस नये कानून में विशाखा मामले में यौन उत्पीड़न के पांच प्रकारों को बढ़ाते हुए निम्नलिखित आचरणों को भी शामिल किया गया- कार्यस्थल पर प्रकट या अप्रकट पक्षपातपूर्ण या हानिकारक वादे महिलाकर्मी की मौजूदा या भविष्य की हैसियत के बारे में प्रकट या अप्रकट दी गई धमकी महिलाकर्मियों के काम में अनुचित दखल अथवा कार्यस्थल के वातावरण में डर, शत्रुता और हमले के प्रति भय पैदा करना ऐसा अपमानजनक व्यवहार जिससे कि महिला सहकर्मियों की सेहत और उनकी सुरक्षा पर प्रतिकूल असर पड़े अन्य प्रावधान यह कानून जम्मू -कश्मीर समेत देश के सभी राज्यों में समान रूप से लागू इसके विस्तृत दार्यो में असंगठित क्षेत्र को भी लाया गया ‘कार्यस्थल’ की परिभाषा को व्यापक करते हुए इसमें खेल संस्थान, स्टेडियम आदि को भी समाहित किया गया। यहां तक कि घरेलू कामगारों के लिए घरों तक को उनका कार्यस्थल माना गया उन जगहों को भी ‘कार्यस्थल’ के रूप में परिभाषित किया गया, जहां कोई कर्मी अपने काम के सिलसिले में जाता है कार्यस्थलों पर यौन र्दुव्‍यवहार के मामलों के निबटारे के लिए दो संस्थाएं गठित करने का प्रावधान किया गया; एक नियोक्ता के लिए. दूसरा, असंगठित क्षेत्रों में हस्तक्षेप के अधिकार के साथ एक जिला शिकायत समिति का गठन विशाखा निर्देशिका के विपरीत, इस नये कानून में शिकायतों पर सुनवाई 90 दिनों के भीतर पूरी करने की ताकीद की गई है मजबूत कानूनी कवच तहलका के संस्थापक व सम्पादक तरुण तेजपाल पर उनके सहकर्मी के साथ बलात्कार के प्रयास का आरोप है। वहीं इसके पहले, सर्वोच्च न्यायालय के अवकाशप्राप्त न्यायाधीश पर दो प्रशिक्षु महिला वकीलों के यौन उत्पीड़न का आरोप है। दो नामी-गिरामी शख्सियतों पर कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के इन दोनों मामलों ने मसले को बहस का विषय बना दिया है। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। अगर ये घटनाएं 2013 के पहले हुई रहतीं तो इन पर सुनवाई विशाखा मामले में 13 अगस्त 1997 को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तय की गई निर्देशिका के मुताबिक की जाती। लेकिन माननीय न्यायालय ने तभी तय कर दिया था कि इसकी जगह कोई सक्षम कानून लेने के पहले तक ही विशाखा निर्देशिका के तहत मामलों को निबटारा किया जा सकेगा। चूंकि कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न ( बचाव, रोकथाम और निबटान) कानून-2013 बन चुका है, लिहाजा, अब इसी के मुताबिक शिकायतों की सुनवाई और उसमें सजा का प्रावधान किया जा सकेगा। कानूनविदें की राय में नया कानून सम्पूर्ण और यौन र्दुव्‍यवहारों-उत्पीड़नों के विरुद्ध ज्यादा सख्त है।
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शासन व्यवस्थाओं ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को गंभीरता से लेना शुरू किया है। ऐसे कानून बनाए जो कार्यस्थल पर महिलाओं के लिए सुरक्षित कामकाजी माहौल सुनिश्चित करते हैं। भारत में सुप्रीम कोर्ट ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ कानून होने की जरूरत को महसूस करते हुए 1997 में विशाखा दिशा-निर्देश तय किए थे। सोलह साल बाद संसद ने कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (बचाव, रोकथाम और समाधान ) कानून-2013 पारित किया।
 कानून के तहत शारीरिक सम्पर्क समेत कोई अप्रिय कार्य या बर्ताव और इस प्रकार के प्रयास करने, यौन संबंध बनाने को कहने या इस बाबत मांग करने, कामुकता दर्शाते रंगीन चिह्न बनाने, अश्लील चित्र दिखाने; या कामुक प्रवृत्ति का कोई अप्रिय शारीरिक, वाचिक या गैर-वाचिक व्यवहार करने के खिलाफ कार्रवाई किए जाने के प्रावधान उल्लिखित हैं।
शिकायत समिति कानून में व्यवस्था की गई है कि नियोक्ताओं को ‘लिखित आदेश जारी करते हुए’
क आंतरिक शिकायत समिति का गठन करना चाहिए। इसका अध्यक्ष किसी वरिष्ठ महिला कर्मी को बनाया जाना चाहिए। समिति में कम से कम दो ऐसे कर्मचारी शामिल किए जाने चाहिए जो ‘महिलाओं के मुद्दों को लेकर प्रतिबद्ध रहे हों’ या जिन्हें कानूनी जानकारी और सामाजिक कार्य का अनुभव हो। समिति में एक सदस्य किसी गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) या महिलाओं संबंधी कार्यकलाप में सक्रिय किसी संगठन से संबद्ध या ‘यौन उत्पीड़न से संबंधित मुद्दों की जानकारी रखने वाला व्यक्ति’ होना चाहिए। कमेटी में एक तिहाई सदस्य महिलाएं होनी चाहिए। इस कानून की धारा 6 के मुताबिक, जिलों में स्थानीय शिकायत समितियां गठित की जानी चाहिए। उन्हें उन प्रतिष्ठानों से शिकायत प्राप्त करने का दायित्व सौंपा जाना चाहिए; जहां दस से कम कामगार कार्यरत हैं और महिला कामगार भी नियोजित हैं। यह व्यवस्था इसलिए की गई है क्योंकि ऐसे प्रतिष्ठान अपने स्तर पर आंतरिक समिति का गठन नहीं कर सकते। जिला स्तरीय समिति को ऐसी शिकायत प्राप्त करने का दायित्व भी सौंपा गया जिनमें खुद नियोक्ता के खिलाफ कुछ बात कही गई हो या आरोप लगाया गया हो। इस प्रकार, संगठित और असंगठित क्षेत्र, दोनों जगहों पर महिला कामगार अब सुरक्षित हैं।
कम से कम कागजों पर तो सुरक्षित हैं ही। तो फिर जज द्वारा उत्पीड़ित किए जाने पर लॉ इंटर्न शिकायत दर्ज कराने का साहस क्यों नहीं बटोर पाई? आखिर उसकी तरह ही तमाम महिलाएं चुपचाप अपने साथ होने वाले गलत बर्ताव को क्यों झेलती हैं? इनमें से अधिकतर तो हमेशा ही उत्पीड़न का शिकार होती रहती हैं। पक्की बात है कि एक मामला प्रकाश में आता है तो उसके साथ ही सैकड़ों मामले ऐसे होते हैं जिनकी कोई शिकायत नहीं मिलती। कहा जाता है कि सबूत का अभाव कतई भी अभाव का सबूत नहीं होता। समाज का नजरिया महिलाएं शिकायत करने से क्यों बचती है ? इसका जवाब पाने के लिए जरूरी है यह जानना कि एक कामकाजी महिला को समाज किस नजरिए से देखता है। असंगठित क्षेत्र में नियोजित या एक-अकेली महिला आर्थिक रूप से समस्या से घिरी रहती है। ऐसी ज्यादातर महिला कामगारों को कानूनों की जानकारी नहीं होती। उनके नियोक्ता और पुरुष सहकर्मी जानते हैं कि वे बेरोजगार होने का जोखिम नहीं उठा सकतीं। दुकानों, सुपर मार्केट्स, निजी स्कूलों, अस्पतालों और सेल्स गर्ल के तौर पर काम करने वाली महिलाओं की हालत भी कोई खास अलग नहीं है। यदि वह हालत सहन करने योग्य नहीं रहती या कहें कि पानी सिर से ऊपर चढ़ने लगे तो वे जॉब छोड़ देती हैं। जो नहीं छोड़ पातीं वे अपने स्थानांतरण का प्रयास करती हैं या फिर उत्पीड़न के साथ ही रहना सीख जाती हैं। कटु सत्य यह है कि जरूरत उनकी सहन शक्ति को बढ़ा देती है। अनेक महिलाएं खुद को समझा लेती हैं कि दुनिया ऐसे ही चलती है। दुनिया की यही रीत है और उनके पास कोई चारा नहीं है। किन्हीं दुर्लभ हालात में महिलाएं शिकायत करती भी हैं तो उन्हें अपने सहकर्मियों से समर्थन नहीं मिल पाता। नियोक्ता कभी भी ‘दिक्कत’ वाली महिला कामगार को लेकर सहज नहीं होते। वे कहीं गहरे पैठी इस धारणा के बल पर उसे नौकरी छोड़ने को प्रेरित करते हैं कि पुरुष को नौकरी की कहीं ज्यादा जरूरत होती है। समाज की धारणा यह धारणा समाज में चहुंओर फैली है कि पुरुष अपनी आजीविका अर्जित करता है जबकि महिला ऐसा अपने परिवार की आय में बढ़ोतरी करने के लिए करती है। चूंकि ज्यादातर कॉरपोरेट कार्यालयों में अधिकतर कर्मचारी पुरुष होते हैं, इसलिए वे अपने वर्चस्व को ईष्र्या की हद तक बचाए रखने में जुटे रहते हैं। यहां तक कि यह जानते हुए भी कि उनके पुरुष सहकर्मी का अपनी महिला सहकर्मी के साथ व्यवहार उचित नहीं है, वे खुलकर सामने आने में हिचकते हैं। इस प्रकार उत्पीड़न का शिकार महिला अकेले पड़ जाती है। एक ऐसे समाज में जहां महिला की सुरक्षा उसकी खुद की जिम्मेदारी है-उसे ‘सिखाया’ जाता है कि कपड़े इस प्रकार पहने कि पुरुष ‘उकसा’ न पाएं और लम्पट फब्तियों को ‘अनदेखा’ करे-कामुक चिह्नों या कही गई कामुक बातों को शायद ही उत्पीड़न जैसा काम माना जाता है।
कोई महिला इन बातों की शिकायत करती भी है तो उस पर तिल का पहाड़ बनाने का आरोप जड़ दिया जाता है। इसलिए ताज्जुब नहीं कि तेजपाल ने कहा है कि नशे में ‘हल्की-फुल्की मस्ती’ को उनकी सहयोगी समझ नहीं पाई-जैसे कि नशे में किसी व्यक्ति द्वारा कुछ भी गलत-सलत किया जाना सिरे से ठीक है। नहीं बदली स्थिति जाहिर है कि 1988 के बाद से कुछ भी नहीं बदला है जब एक आईएएस अधिकारी खुद से र्दुव्‍यवहार किए जाने पर पुलिस अधिकारी केपीएस गिल को अदालत तक खींच ले गई थीं। गिल को आईपीसी की धारा 354 (किसी महिला के साथ छेड़छाड़) और धारा 509 (बोलकर, भाव-भंगिमा या कार्यकलाप से किसी महिला का अपमान करना) के तहत दोषी माना गया। उन्हें मामूली सजा-प्रोबेशन (ऐहतियाती बर्ताव रखने) और आर्थिक दंड-दी गई। दूसरी तरफ, उस महिला अधिकारी की मीडिया ने यह कहते हुए खासी आलोचना की कि उन्होंने ‘बात का बतंगड़’ बना दिया। जब कोई महिला यौन उत्पीड़न की शिकायत लेकर आती है तो ज्यादातर नियोक्ता मामले को बातचीत से सुलझाने की कोशिश करते हैं, आरोपित का स्थानांतरण कर देते हैं या उसे माफी मांगने को कहते हैं। आईएफएफआई के दौरान घटी घटना में यही सब हुआ। आरोपित अधिकारी को ‘बिना शर्त माफी मांगने’ के बाद दिल्ली भेज दिया गया। अधिकतर मामलों में पीड़ित महिलाओं के लिए आरोपों को साबित करना आसान नहीं होता। यही बड़ा कारण है कि ज्यादातर महिलाएं पुलिस से शिकायत नहीं करतीं और आंतरिक समिति के फैसले से ‘संतुष्ट’ हो जाती हैं।

दिल्ली में रेप मामले एक साल में दोगुने बीते साल दिसम्बर माह में 23 वर्षीय फीजियोथेरेपी की छात्रा के साथ लोकल बस में हुए बलात्कार और हत्या के बाद से भारत की राजधानी दिल्ली में महिलाओं के साथ बलात्कार के मामले करीब-करीब दोगुने हो गए हैं छात्रा के रेप और हत्या के बाद देश भर में फैले आक्रोश के बावजूद लगता है कि राजधानी दिल्ली में अपराधियों के मन में डर नहीं समाया सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, बीते दस माह में जनवरी के बाद से दिल्ली में रेप के 1,330 मामले प्रकाश में आए बीते वर्ष 2012 की इसी अवधि के दौरान इनकी संख्या 706 दर्ज की गई थी यौन हमलों की संख्या में भी खासा इजाफा दर्ज किया गया। जनवरी, 2012 के बाद की दस माह की अवधि के दौरान यौन हमलों के 727 मामले दर्ज किए गए थे, जो इस वर्ष इसी अवधि के दौरान तीन गुना बढ़कर 2844 हो गए सरकार की ओर से ये आंकड़े सुप्रीम कोर्ट में पेश किए जाने पर शीर्ष अदालत ने महिलाओं के प्रति बढ़ती हिंसा के मामलों पर गहरी चिंता जताई थी महिला अधिकारों की अग्रणी कार्यकर्ता रंजना कुमारी के मुताबिक, ये आंकड़े महिलाओं की सुरक्षा की लचर स्थिति को उजागर करते हैं उनके मुताबिक, सामाजिक और पुरुषवादी मानसिकता में बदलाव आने में अभी समय लगेगा। तब तक इस प्रकार के अपराध करने वालों को कड़ा दंड देने की जरूरत है महिला हिंसा के दोषियों को सख्त दंड दिए जाने से उन तक यह संदेश जाएगा कि महिलाओं के खिलाफ हिंसा बर्दाश्त नहीं होगी।

मैथिली सुंदर , वरिष्ठ पत्रकार 

छिछोरेपन से त्रस्त कामकाजी महिला


पुरुषों को यह बात साफ हो जानी चाहिए कि यौन उत्पीड़न कोई मौज-मस्ती की क्रिया नहीं है। ऐसी भी नहीं हैं कि जिनसे किसी को नुकसान न होता हो बल्कि यह एक आपराधिक कृत्य है। महिलाएं इस प्रकार के विरोध से यह बात स्पष्ट कर रहीं हैं कि वे महिला-पुरुष के बीच रचनात्मक सहकार की हामी हैं। महिलाएं यह नहीं कह रहीं कि महिला-पुरुष के बीच संवाद ही न रहे। लेकिन कार्यस्थल में स्वस्थ माहौल न हो तो ऐसी स्थिति से भी उन्हें कोई गुरेज नहीं। वे चाहती हैं कि कार्यस्थल बेहद पेशेवराना अंदाज का परिचायक बनें। कार्यस्थल चंचलमना लोगों के अधकचरे व्यवहार का मंच तो कतई नहीं हों

सुनिये। क्या आप सुन रही हैं? हवाओं में तैर रही यह धीमी बुदबुदाहट, तेजी से पास आते में ऊंची हुए जाती है। और यह सिलसिला अपनी सारी हदें पार कर देता है। महिलाओं की चुप्पी के चलते यह सिलसिला सुखद नहीं बल्कि शरारती अट्टहास प्रतीत होता है, जिसे हद दज्रे की लम्पटता कहा जा सकता है। महिलाओं के सामान्य बने रहने की कोशिशों के चलते उनके साथ हिंसक व्यवहार तक देखने को मिलता है। द्विअर्थी यौनिक वार्तालाप पर दांत फाड़ना, नारी-विरोधी परिहास और कंधों व हाथों को मोड़े जाने वाली सर्वविदित भंगिमा। इतना ही नहीं स्पष्ट इनकार के बावजूद बार-बार रोमांटिक या यौनिक रुचियों का बेताबी से इजहार किया जाना। शारीरिक छेड़छाड़, अवांछित चूमा-चाटी, शहर से बाहर कार्य संबंधी दौरे जिनका हश्र शारीरिक या यौन उत्पीड़न के रूप में सामने आता है। और देखने के मिलती है निहित स्वार्थो वाली लल्लो-चप्पो। इन सबसे रौब-रुतबों का घालमेल उजागर होता है। किसकी-किसकी सुनाएं हम वाह! आप क्या खूब लग रहे हैं सर। रिटायरमेंट तो आपको रास आ गई है। यह बातें एक युवा महिला सहयोगी ने अपने उस पूर्व प्रोफेसर से कही जो सेवानिवृत्ति के बाद अपने पुराने संस्थान में डोलने-फिरने पहुंचे थे। सुनकर, प्रोफेसर ने खींसें निपोरते हुए कहा-वाकई। दो और लोगों ने मुझे यह बात कही है। वे दोनों महिलाएं हैं। बताइए कि इन सबसे क्या समझूं? वह युवा महिला सहयोगी फीकी-सी मुस्कान के साथ परेशान हालत में वहां से निकल ली। उस मौके पर संस्थान के पुरुष मुखिया भी मौजूद थे। एक साठोत्तरी प्रोफेसर अपनी एक शिष्या को रोमांटिक कविताएं लिखता है। एक के बाद दूसरी। उस समय तक लिख भेजता रहा जब तक शिष्या संस्थान को छोड़ नहीं गई। एक अधेड़ महिला शिक्षाविद् का एक बैठक में पूर्व पुरुष शिक्षक ने इस अंदाज में स्वागत किया कि देखने वाले दंग थे। महिला के बढ़े हाथ को अनदेखा करते हुए उस पुरुष शिक्षक ने महिला शिक्षाविद् को बाहों में भरते हुए उसका माथा चूम लिया। महिला शिक्षाविद् कभी उस पुरुष के करीबी नहीं रही थी, सो बेमन से मुस्करा भर सकी। बैठक में मौजूद लोग मूकदर्शक बने थे। एक हाई प्रोफाइल आयोजन में आमंत्रित करने की गरज से एक युवा महिला पत्रकार को उसकी महिला बॉस किसी प्रभावशाली व्यक्ति पर ‘डोरे डालने’ को कहती है। जब महिला पत्रकार इस प्रकार के शब्दों पर विरोध जताती है तो महिला बॉस उसे ज्यादा मासूम न बनने की ताकीद करती है। कहती है कि ज्यादा सीरियस होने की जरूरत नहीं। कुछ सेंस ऑफ ह्यूमर तो होना ही चाहिए। एक शिष्या देर से क्लास में पहुंचती है तो पुरुष शिक्षक कहता है, समय से आने की मेहरबानी किया करो। तुम्हारे देर से आने से मेरा ध्यान बंटता है। तुम्हें इतना सुंदर नहीं होना चाहिए था। एक महिला आईएएस अधिकारी के पुट्ठे पर एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी चिकौटी काट लेता है। बरसों मामला अदालत में चलता है। फैसला इतना देर से आता है कि वरिष्ठ पुलिस अधिकारी की सेवानिवृत्ति की बेला आ पहुंचती है। घटना को अंजाम दे चुकने के बाद के तमाम सालों में वह बड़े सुकून से अपना पदभार संभाले रहता है। और फिर बड़ी शान से रिटायर भी हो जाता है। हर जगह है महिला का उत्पीड़न कार्यस्थल-क्लासरूम से लेकर न्यूजरूम तक-कहें कि हर जगह बुरी तरह से यौन उत्पीड़न से आक्रांत है। और यह यौन उत्पीड़न पुरुषवादी और नारी-विरोधी है। कार्यस्थल का माहौल यौन उत्पीड़न भरा हो गया है। महिला को यौन वस्तु मान लिया गया है। महिलाएं ऐसे माहौल में कुछ नहीं कर सकतीं। सिवाय इसके कि एक फीकी सी मुस्कान के साथ इस सब को सहें। ऐसे माहौल से मेल बिठाएं जिससे कि किसी लफड़े में न फंसने पाएं या फिर विरोध करें। बखूबी जानते हुए कि इस प्रकार के विरोध की उन्हें कीमत चुकानी होगी। बेशक, कुछ सहमति वाले मामले भी होते हैं। लेकिन इनमें टकराव जैसी हालत कभी नहीं दिखाई देती। बॉस अपनी कर्मचारियों के साथ सोता है, प्रोफेसर अपनी शिष्याओं या नौकरी या प्रोमशन के लिए अपने पर निर्भर किसी मातहत कर्मचारी के साथ सोता है, तो इनकी कभी खुले में र्चचा नहीं होती। ये तौरत रीके दबे-छिपे जारी रहते हैं, इनसे कार्यस्थल खासा पेशेवराना क्षति होती है, जिससे निजात पाना कठिन है। ऐसा करने वाले पुरुष मान बैठते हैं कि हर महिला थोड़ा-सा दबाव पड़ने पर ही हां कह देगी। यह पासा फेंकने जैसा काम है। कुछ महिलाएं हामी भरती हैं तो इसलिए कि उन्हें इसका खासा फायदा मिलता है। लेकिन जो नकार देती हैं उन्हें दूसरी तरह से कीमत अदा करनी पड़ती है। बहरहाल, ये उच्च पेशेवराना माहौल के तौर-तरीके हैं। निर्माण स्थलों या मध्यम वर्गीय घरों में घरेलू नौकरानियों के साथ छेड़छाड़ या उत्पीड़न आम है। बेशक, अन्य तरह के कार्यस्थलों पर भी यौन हिंसा कम नहीं होती। पर टूट रहा है सिलसिला लेकिन यौन हिंसा पर पुरुषों को भाने वाली महिलाओं की चुप्पी अब महिलाओं के कड़े विरोध के कारण तेजी से टूट रही है। और ऐसा हर कहीं हो रहा है। तहलका की दिलेर युवा महिला पत्रकार ने जिस प्रकार से तरुण तेजपाल के यौन हमले का मुकाबला किया और संकट से उभरने के लिए इस संपादक के ‘तमाम प्रयासों’ के बावजूद जिस तरह पीड़िता के सहयोगियों ने आगे बढ़कर समर्थन दिया है, वैसा हाल तक कभी देखा-सुना नहीं गया। कानून की एक छात्रा ने सुप्रीम कोर्ट के रिटार्यड जज द्वारा उसके साथ की गई छेड़छाड़ को ब्लॉग पर उजागर किया तो अन्य युवा महिला वकील भी यौन उत्पीड़न की घटनाओं को लेकर मुखर हो गई। दिल्ली में एक विश्वविद्यालय में एक छात्रा के विरोध का नतीजा रहा कि उत्पीड़न करने वाले उसके सुपरवाइजर को सार्वजनिक रूप से अपने समूचे विभाग के समक्ष लिखित और मौखिक क्षमा याचना करनी पड़ी। हरियाणा में दलित वर्ग की स्कूली छात्राओं ने बलात्कार करने वाले ऊंची जात के लोगों के नाम से बाकायदा शिकायत दर्ज कराई। और बेझिझक अपने स्कूल जाना भी जारी रखा। ये सब महिलाओं के यौन अपराधों के खिलाफ मुखर होने के उदाहरण हैं। पुरुषवादी दंभ या कहें कि अहंकार को इन सबसे झटका लगा है। अंग्रेजी के एक अखबार की एक रिपोर्ट के अनुसार सीनियर वकील ‘जूनियर महिला वकीलों को रखने से परहेज करने लगे हैं।
वे भविष्य में किसी संकट में पड़ने केजोखिम से बचे रहना चाहते हैं’। यह महिलाओं के लिए एक अच्छा संकेत है। खासकर उन महिलाओं तक इसे पहुंचाया जाना चाहिए जो किसी जॉब की तलाश में हैं। न्याय क्षेत्र में तो महिलाओं का यौन अपराधों के खिलाफ एकजुटता से आगे आना खासा असरकारक हो सकता है। विशाखा दिशानिर्दे शों को अब से पहले कभी शिद्दत से लागू किए जाने की इतनी जरूरत महसूस नहीं हुई। कार्यस्थलों पर पुरुषों को यह बात साफ हो जानी चाहिए कि यौन उत्पीड़न कोई मौज- मस्ती की क्रिया नहीं है। ऐसी भी नहीं हैं कि जिनसे किसी को नुकसान न होता हो बल्कि यह एक आपराधिक कृत्य है। महिलाएं इस प्रकार के विरोध से यह बात स्पष्ट कर रहीं हैं कि वे महिला-पुरुष के बीच रचनात्मक सहकार की हामी हैं। महिलाएं यह नहीं कह रहीं कि महिला-पुरुष के बीच संवाद ही न रहे। लेकिन कार्यस्थल में स्वस्थ माहौल न हो तो ऐसी स्थिति से भी उन्हें कोई गुरेज नहीं। वे चाहती हैं कि कार्यस्थल बेहद पेशेवराना अंदाज का परिचायक बनें। वे चंचलमना लोगों के अधकचरे व्यवहार का मंच तो कतई नहीं हों। कार्यस्थल पर पुरुष महिलाओं को दबोचने या मसलने को आमादा दिखें या फिर महिलाओं के वक्ष या ओरल सेक्स संबंधी जोक्स सुने-सुनाएं, यह बात महिलाओं को कतई गवारा नहीं। और आखिर में कहना यह है कि पीड़िता जिन हालात से गुजरी हो उन पर संजीदगी दिखाई जानी चाहिए। यह मसला पीड़िता पर ही छोड़ा जाना चाहिए कि क्या वह कानूनी कार्रवाई चाहती है, पुलिस में शिकायत करना चाहती है, विशाखा दिशा-निर्देशों का सहारा लेना चाहती है या फिर सार्वजनिक रूप से आरोपी से माफी मंगवाना चाहती है। हमें हर तरह से उसका समर्थन-सहयोग करना है ताकि वह पीड़िता ही न रह जाए बल्कि अन्याय से लड़ने की वाहक बन सके और सम्मान के साथ अपना जीवन जी सके। हमारे लिए ऐसा करने का समय आ चुका है।

प्रो. निवेदिता मेनन राजनीति विज्ञान संकाय, जेएनयू

Wednesday 14 August 2013

बढ़े आए देश की आज़ादी पर सोचने वाले ...



च्छा लगता है बच्चों को आज के दिन खुश देख कर , तिरंगा खरीदने की जिद्द करते हुए। उन के लिए यह एक उत्सव है। होना भी चाहिए ..वो सब !! 
 मतलब बोले तो सभी बच्चे  !! हर प्रकार के  फ़िक्र से परे है !! मतलब सब  फ़िक्र से परे  ..उन्हे क्या पता बी जे पी - कांग्रेश का  चुनावी एजेंडा क्या है ? जिंदल क्यूँ boxit निकालने के लिए पहाड़ ले रहा है , क्यूँ बड़े बाँध के लिए लोग बिस्थापित किए जा रहें हैं ? मनरेगा का रुपिया जो की हमारे टैक्स का रुपिया है कहाँ जा रहा है ? मंदिर जरूरी है या अस्पताल , जिन्दा रहना जरूरी है या लड़ना। 

और हम सब भी गज़ब हैं  ..बढ़े होते संतान को घर वाले क्या  समझाते है - पढो की जल्दी नौकरी  मिल जाए , क्या करो की सब काबू मे रहे  .पर  घर/ समाज / देश की राजनीति पर कोई समझ बनाने के लिए कोई प्रयास  नहीं ! 
क्या बात है !! और फ़िर सब तथाकथित चिन्तक लोगों को लगता है की घर/देश/समाज मे  सब गड़बड़ हो रहा है ।  

बढ़े आए देश की आज़ादी पर सोचने वाले !

भारत माँ की चिंता , भारत माँ के इज्जत की चिंता , उस के चारो ओर  के दीवार / सीमा के सुरक्षा की चिंता।  इसी चिंता के कारण देश का रक्षा बजट बढ़ता जा रहा है और शिक्षा , स्वस्थ्य पर सब्सिडी काम होती जा रही है।  

सम से माँ रूपी देश की चिंता करते - करते हम अब घर में मौजूद  लड़की - औरत  के शरीर की चिंता  करने लगे हैं  और इनको भी दीवाल और सीमा मे बाँध देने के नियम और परम्परा बना दिए हैं।  कोई फर्क नहीं तथाकथित भारत माँ ! और घर की माँ-औरत -लड़की मे।   यह की इसी सीमा के अंदर वो कहने को सुरक्षित हैं क्यों कि महिलाओं का शरीर इसी सीमा के अंदर भेदभाव झेलता है , हिंसा सहता  है , गाली सुनता है 
 सीमा से बाहर तो सीता जेसा हाल  !! और सुरक्षा का ठेका लक्ष्मन-आदमी- मर्द-भाई-हथियार से  ;-) ओह ओह !! वाह वाह !! 
मानसिकता बनाने के लिए एक से एक मुहाबरे / कहावत - औरत खुली तिजोरी है , लड़की घर की इज्जत है , लड़की लक्ष्मी है , औरतों की अकल  घुटने में है , औरतों के नाक न हो तो गन्दा खा लें। ढोल गवाँर छुद्र पशु नारी  , सब तारण के अधिकारी।  

 सब का अर्थ यह निकलता है कि लड़किओं और औरतों को घर के अंदर बंद कर के रखो , तिजोरी की तरह। घर की तिजोरी को कोई भी  खुला तो नहीं छोरता।   धन तो घर के अन्दर हीं  सुरक्षित हैं।  धन रूपी शरीर को  संभाल कर रखो।  
 तथाकथित तिजोरी पर तो इतना ध्यान और चोर-लुटेरे पर कोई चर्चा नहीं ! मतलब इज्जत लेने वाले पुरुषों पर।  

सही मायने में पूरा चक्कर है नियंत्रण का देश के बहाने शरीर - मन - सपने - सोंच - योनिकता -व्यवहार -  निर्णय और बाहर घूमने - फिरने  पर  .

अब जरा सोंचिए ना   माँ - बहन की गाली दो - पत्थर से बनी  देवी की पूजा करो , मन्दिर - मस्जिद- गुरुद्वारा - चर्च और कही भी चप्पल खोल कर जाओ और  - घर - पडोस की महिला पर किसी बहाने लात- जूता - चप्पल चलाओ। 
और तो और !!  अपने ना चलाओ तो जो चला रहा है उस को चलाने से ना रोको ..और ना रोकने के कई बहाने ( मेरी बीबी नहीं , मेरे घर की नहीं है , उस की है जो उस को मन करे वो उस के साथ करे ..हम को क्या ? )
 किसी धार्मिक जगह पर चप्पल पहन कर चले जाए तो !! जो आप को जानते नहीं वो भी आप की कायदे से क्लास ले लेंगे।  तब धर्म , आस्था के नाम पर अनजाने लोग भी एक हो जायगे .  
निर्जीव वस्तु के लिए श्रद्धा चरम पर लेकिन सजीव शरीर के सम्मान के लिए , उनके हिंसा और भेदभाव मुक्त जीवन के लिए कोई एक नहीं होता।  सब बट जाते हैं।  

दिमाग - विचार - व्यवहार - कर्म से गुलाम और आज़ादी उत्सव देश के नाम वाह !! 
देश आज़ाद  कैसे  रहेगा ? इस के लिए एक हज़ार उपाय और प्रयाश पर मानव शरीर कैसे  आज़ाद रहेगा उसमे भी महिलाओं का शरीर तो सब आप की बोलती बंद कर देंगे लोग समझाने पहुँच जाएगें और कहेंगे कि शी शी !! क्या बोल रहे हैं ?? ..धीरे बोलिए क्या बोल रहे है ..कोई सुन लेगा .. घर- परिवार - राष्ट्र -धर्म तो उस की गुलामी की सोच रहा है .और आप इन की आज़ादी की बात कह रहे हैं। भाई  देश आज़ाद रहना चहिए पर महिलाओं का शरीर, मन  गुलाम।   

हम  कार, मोटर साइकिल पर तिरंगा का स्टीकर चिपकाते हुए खुश हो लेते हैं , पर नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन से निकलते हुए कई सालों से ..हाथ मे कागज से बना  छोटा तिरंगा का स्टीकर लिए पिन के साथ ..वो औरत .... जो सब के सीने पर कपडे मे तिरंगा लगा कर रुपिया लेना चाहती है ..और हम मे  से कई उस को मना करते रहते हैं ... यही है सच उस तिरंगे का ..तिरंगे के मायने का !! और एक विशेष दिन उस की इतनी कद्र ..ओह !! 
क्या सड़क , दुकान , फूटपाथ , राजनितिक पार्टियाँ ..सब का मुद्दा एक  " आज़ादी "  ," तिरंगा " ... " देश की सुरक्षा " , भारत माँ की चिंता उस के चारो और के दीवार / सीमा की चिंता ...

चक्कर है नियंत्रण का ..देश के बहाने शरीर - मन - सपने - सोंच पर / 

और फिर कई सवाल से चतुराई से बचने की सफल कोशिस .... 
घर मे एक शरीर को तो ..... क्या पहनना है , क्या पढना है , कहाँ और कब जाना है ,  किसके साथ जाना है, कहाँ  रहना है , किस से सम्बन्ध रखना है - बनाना है इस की फ़िक्र तो है नहीं ..हम इस आज़ादी पर  कोई सवाल नहीं सुनना चाहते ..बढ़े आए देश की आज़ादी पर सोचने वाले ...
इंडियन नेशन की आज़ादी का उत्सव वाह !! और नेशन की जनता की आज़ादी , राज्यों की आज़ादी !!    उस पर हमारा नेशन हम को बात नहीं करने देता ..और साथी किया तो देश द्रोह ...तथाकथित नेशन के पक्ष मे कहा - सुना - मान लिया तब तो देश भक्त पर !! सवाल उठा दिया  ..ओह ओह .. तब तो देश द्रोही  नहीं तो विकाश बीरोधी ....
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दीप जिस का महल्लात  (महल का बहुवचन) ही में जले
चंद लोगों की ख़ुशियों को लेकर चले
वो जो साये में हर मसलहत ( समयोचितता, expediency ) के पले

ऐसे दस्तूर( संविधान)  को, सुबह-ए-बेनूर को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता

मैं भी खाइफ़ ( खोफज़दा, भयभीत )  नहीं तख्ता-ए-दार ( फाँसी का तख़्ता )  से
मैं भी मंसूर ( एक मशहूर सूफी संत जिन्हें बादशाह ने उन के विधर्मिक व्यवहार के कारण फांसी पर चढ़ा दिया था )  हूँ कह दो अग़यार ( ग़ैर का बहुवचन ) से
क्यूँ डराते हो ज़िन्दां  ( क़ैदख़ाना ) की दीवार से

ज़ुल्म की बात को, जहल ( जहालत ) की रात को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता

फूल शाखों पे खिलने लगे, तुम कहो
जाम रिन्दों को मिलने लगे, तुम कहो
चाक सीनों के सिलने लगे, तुम कहो

इस खुले झूट को, ज़हन की लूट को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता

तुम ने लूटा है सदियों हमारा सुकूँ
अब न हम पर चलेगा तुम्हारा फ़ुसूँ ( जादू )
चारागर मैं तुम्हें किस तरह से कहूँ

तुम नहीं चारागर ( चिकित्सक, काम बनाने वाला, (काम या हालत वगैरा को) दुरुस्त करने वाला, बिगड़ा काम बनाने वाला, मदद करने वाला ) , कोई माने, मगर
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता

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आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख,
पर अन्धेरा देख तू आकाश के तारे न देख ।
एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ,
आज अपने बाज़ुओं को देख पतवारें न देख ।
अब यकीनन ठोस है धरती हक़ीक़त की तरह,
यह हक़ीक़त देख लेकिन ख़ौफ़ के मारे न देख ।
वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे,
कट चुके जो हाथ उन हाथों में तलवारें न देख ।
ये धुन्धलका है नज़र का तू महज़ मायूस है,
रोजनों को देख दीवारों में दीवारें न देख ।
राख़ कितनी राख़ है, चारों तरफ बिख़री हुई, 
राख़ में चिनगारियाँ ही देख अंगारे न देख ।
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भागवत के भांड नहीं 
बेख़ौफ़ आज़ादी अभी चाहिए 
मौलाना का फरमान नहीं 
बेख़ौफ़ आज़ादी अभी चाहिए 
नेता का भाषण नहीं 
बेख़ौफ़ आज़ादी अभी चाहिए 
फौज पुलिस का जुल्म नहीं 
बेख़ौफ़ आज़ादी अभी चाहिए 

राजपथ तुम्हारा होगा 
जनपथ हमारा है 
ये 2013 है 
एक नया सवेरा है 

जम्हूरियत का एक ही नाम 
बेख़ौफ़ औरत 
आज़ाद इंसान

Saturday 27 April 2013

आंखें खोल लो !! सच जो देखना है ....


जेंडरगत भेदभाव  










































महत्वपूर्ण ख़बर है . समय निकाल कर पढ़ लें . 
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Tuesday 26 March 2013

16 की सच्चाई

कैबिनेट द्वारा लाए गए बलात्कार निरोधक कानून को लेकर पिछले कुछ दिनों से कई तरह की भ्रांतियां बनी हुई हैं। हालांकि कुछ संशोधनों के साथ अब राजनीतिक दलों में मसौदे पर सैद्धांतिक सहमति बनी है। असली भ्रम सहमति से यौन संबंध बनाने की उम्र, बलात्कार कानून के अलावा इससे जुड़ी सजा व दुष्परिणाम को लेकर है

यौन संबंध की सहमति की उम्र 18 साल से घटाकर सरकार द्वारा अचानक 16 साल नहीं की गयी है। हालांकि अनेक राजनीतिक दलों के विरोध को देखते हुए सरकार इस मामले पर पुनर्विचार कर रही है और संकेत हैं कि यह आयु 18 वर्ष ही रखी जाएगी। मालूम हो कि भारत में सहमति की उम्र 1983 से लेकर अभी कुछ महीने पहले तक 16 वर्ष ही थी। इस मामले में सिर्फ चार महीने पहले आवाज बुलंद हुई। इसे 18 वर्ष किए जाने को लेकर मामला गर्माया और चाइल्ड सेक्सुअल ऑफेंसेज एक्ट (पीओसीएसओ) सामने आया। यह मामला अध्यादेश के आने के एक महीने पहले का है। सहमति की उम्र 16 वर्ष किए जाने का अर्थ यह नहीं है कि किशोरों या टीन्स को सेक्स करने का लाइसेंस मिल गया या उसे बढ़ावा देने का कार्य किया जा रहा है। बहस इस पर नहीं है कि टीनएज सेक्स अच्छा है या खराब, बल्कि बहस का केंद्र यह है कि टीन्स के बीच सहमति से किया गया सेक्स बलात्कार के तौर पर परिभाषित किया जा सकता है या नहीं। क्योंकि आपराधिक कानून में नैतिक या सामाजिक संहिता जैसा कुछ भी नहीं है। यदि सहमति की उम्र 18 बढ़ायी जाती है तो इसका अर्थ यह हुआ कि 16 से 18 वर्ष के बीच के लड़के को बलात्कारी या यौन दोषी के तौर पर सजा दी जा सकती है जबकि उसके समान उम्र की उसकी गर्लफ्रेंड साफ तौर पर कह रही होगी कि उसकी मर्जी से उसके दोस्त ने यह सबकुछ किया। जब शादी की उम्र 18 साल है तो सहमति से सेक्स करने की उम्र में अंतर क्यों है? इस मामले में पहली बात यह कि यदि कोई नाबालिग लड़का किसी नाबालिग लड़की से शादी करता है तो बाल विवाह कानून के तहत उस लड़के को सजा नहीं मिलेगी। लेकिन जब नाबालिग लड़का अपने समान उम्र की नाबालिग लड़की को उसकी मर्जी से बांहों में लेता है, चूमता है या सेक्स करता है तो उसे यौन अपराधी या बलात्कारी के तौर पर सजा हो सकती है। बाल विवाह के खिलाफ कानून माता-पिता को नाबालिग बच्चों के जीवन के फैसले लेने से रोकता है। वह युगल को इस बात का अधिकार भी देता है कि वे बालिग होंगे तो वे शादी बरकरार रखना चाहते हैं या नहीं, यह उन पर निर्भर है। यह बात सत्य है कि 16 से 18 के बीच की अवस्था में चिकित्सा विज्ञान भी गर्भधारण को उचित नहीं मानता। उन्हें सेक्स करने से कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। लेकिन उस उम्र में एक-दूसरे के प्रति प्राकृतिक तौर पर आकर्षित होना हकीकत है। ऐसे में वयस्कों को यह समझाने की जरूरत है कि वे अपने शरीर को समझें, उन्हें सम्मान दें और आकर्षण में न बहें और प्रेम के प्रति जिम्मेदार बनें। ऐसे में यौन आकर्षण उन्हें अपराधी तक बना सकता है और निदरेष वयस्क बलात्कारी सिर्फ इसलिए बन जाता है क्योंकि उसने अपने हमउम्र की लड़की के साथ उसकी सहमति से सेक्स संबंध बनाए हैं। जिस लड़के ने आपसी सहमति से संबंध बनाए थे, उसे गलत तरीके से बलात्कारी के तौर पर पेश किया जाएगा। इसका अंजाम यह होगा कि वह महिलाओं से डरेगा या फिर घृणा करेगा और वह कामुकता और महिलाओं के प्रति विकृत घृणाओं से भरा रहेगा। इसलिए उसके महिलाओं के प्रति हिंसक होने की संभावनाएं अधिक होंगी। और तो और, हम उस दुनिया में रहते हैं जहां वयस्कों के जीवन और विकल्पों को लेकर मोरल पॉलिसिंग काफी खतरनाक है। चाइल्ड सेक्सुअल ऑफेंसेज एक्ट के तहत तीसरी पार्टी (माता-पिता, मोरल पॉलिसिंग आउटफिट्स, खाप या और कोई) नाबालिग लड़के के खिलाफ बलात्कार का मामला दर्ज करा सकता है और न्यायालय में न्यायाधीश लड़के की इस दलील पर कि लड़की की सहमति से उसने ऐसा किया, की अनदेखी कर लड़के को दोषी करार दे सकते हैं। इसलिए कई न्यायाधीशों ने भी मांग की है कि सहमति की उम्र 16 रखी जाए और इसे 18 न बढ़ाई जाए क्योंकि वे नहीं चाहते कि किसी वयस्क बालक को जबर्दस्ती दोषी ठहराया जाए जबकि उसने सहमति से यौन संबंध बनाए। टाटा स्काई के एक विज्ञापन को लेकर जरा सोचें, जिसमें एक भाई अपनी बहन को किसी लड़के के साथ डिनर पर जाने की अनुमति नहीं देता। यदि सहमति की उम्र 18 वर्ष सचमुच बढ़ा दी जाती है तो नाबालिगों के बीच किसी भी तरह का यौन संपर्क स्वत: बलात्कार की श्रेणी में आ जाएगा। ऐसे में जो भाई अपनी बहन की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाना चाहता है, वह उसका प्रयोग करेगा और किसी भी लड़के/पुरुष सहपाठी/बहन के दोस्त को दोषी ठहरा देगा। इसलिए जेंडर को लेकर पक्षपातपूर्ण धारणा रखने वाली पुलिस पार्क में एक साथ बैठे जोड़ों को भी परेशान करने से नहीं चूकेगी।

या झूठी शिकायतें यदि महिला किसी पुरुष के खिलाफ झूठी शिकायतें दर्ज कराती हैं तो इसका कानूनी विकल्प क्या है? कानूनी विकल्प आईपीसी सेक्शन-182 और 211 में पहले से मौजूद है। इसके तहत झूठी शिकायत करने पर सजा मौजूद है क्योंकि किसी भी कानून का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए। ऐसे में सवाल है, बलात्कार और यौन उत्पीड़न के मामले में झूठी शिकायतों को लेकर क्यों विशेष प्रावधान किया जाए? इस तरह के प्रावधान महिलाओं को झूठी शिकायतें दर्ज करने से रोकते हैं। याद रखें कि यह विधेयक सिर्फ महिलाओं के संघर्ष का परिणाम है। यह पुरुष-विरोधी नहीं है। यह विधेयक यौन हिंसा संबंधी मामले में पुरुषों के साथ- साथ सभी लोगों की रक्षा के लिए है। यही कारण है कि इसमें पीड़ित को जेंडर मामले में तटस्थ रखा गया है। महिलाओं का संघर्ष ही सरकार को बदलाव लाने के लिए सहमत करता है कि अध्यादेश की गलतियों को सुधारा जाए। बलात्कार कानून में दोषी को ‘विशिष्ट जेंडर’ के तहत रखा गया है (क्योंकि महिला किसी पुरुष का बलात्कार नहीं कर सकती), सहमति की उम्र 16 साल बरकरार रखा गया है और विधेयक में इस बात को स्पष्ट किया गया है कि बलात्कार के चार्जशीट वाले लोकसेवकों को अभी तक जो संरक्षण प्राप्त था, वह नहीं मिलेगा। ताकझांक, पीछा करना, एसिड हमले और नंगा करने जैसे मामले यौन अपराध के दायरे में आएंगे। ऐसे में, जस्टिस वर्मा की सिफारिशों को पूरी तरह लागू करने को लेकर हमें दूसरी लड़ाई जारी रखनी होगी। बहरहाल, महिलाओं के आंदोलन को लेकर यह विधेयक काफी बड़ी उपलब्धि है।

ताकझांक ताकझांक का अर्थ सिर्फ घूरना नहीं है। ‘फे सबुक’ पर किसी लड़की की तस्वीर अपलोड करना ताकझांक नहीं है। यदि कोई पुरुष अपनी गर्ल फ्रेंड का सेक्स एमएमएस बनाता है या न्यूड फो टो बनाकर उसे सकरुलेट करता है तो इसे ताकझांक कहा जाएगा क्योंकि यह उसकी निजता का हनन है। यदि कोई महिला कपड़े की दुकान के चेंजिंग रूम में कपड़े बदल रही है और वहां गुप्त छेद या गुप्त कैमरे की मदद से उस पर नजर रखी जा रही है तो यह ताकझांक की श्रेणी में आएगा। दिल्ली गैंगरेप के मुख्य आरोपी राम सिंह पर भी ताकझांक करने का आरोप लगा था। उसकी महिला पड़ोसी ने समाचार एजेंसी ‘रॉयटर’ को बताया था कि जब कभी-कभी हम कपड़े बदल रहे होते या नहा रहे होते थे तो वह हमारे घर की झलक ले रहा होता था। विरोध करने पर वह काफी कठोर हो जाता था और कहता था कि उसे कहीं भी खड़ा रहने का अधिकार है। ताकझांक करना मूल रूप से, किसी की निजता को छिप कर जासूसी करने का मामला है। यह कानून पुरुषों की रक्षा भी करता है।

पीछा करना फिल्म "डर" के गाने ˜तू हां कर या ना कर, तू है मेरी सनम  को याद कर लें। यह है ˜स्टाकिंग" यानी पीछा करना। लगातार किसी का पीछा करना, धमकीभरे मेल/पत्र भेजना कि तुम पर एसिड फेंक दूंगा या बलात्कार/र्मडर कर दूंगा, इसी श्रेणी में आते हैं। ज्यादातर महिलाएं इसी दहशत में जीती हैं और इसे लेकर कोई उपाय अभी तक नहीं किया गया है। इस मामले में लगातार सड़कों पर आंदोलन हो रहे हैं कि सिर्फ बलात्कारी को ही सजा न मिले बल्कि बलात्कार, र्मडर और एसिड हमलों जैसी घटनाओं पर अंकुश लगे। याद करें- प्रियदर्शिनी मट्टू कांड को। उसने पुलिस के पास कई बार संतोष सिंह के खिलाफ पीछा करने का मामला दर्ज कराया था। लेकिन कोई कानून नहीं था जिसके बिना पर उसे पीछा करने के जुर्म में गिरफ्तार किया जाता तो संतोष सिंह न तो उसका बलात्कार ही कर पाता और न ही उसकी हत्या। एसिड हमलों के साथ-साथ बलात्कार और र्मडर (धौलाकुआं में राधिका तंवर की हत्या की तरह) मामले अपराधियों द्वारा काफी दिनों तक पीछा करने के बाद ही हुए हैं। पीछा करने के मामले को गैरजमानती क्यों बनाया जाना चाहिए, यह अहम सवाल है क्योंकि पीछा करने वाला, जो एसिड फेंकना चाहता है या गोली मारना चाहता है, वह आगे कदम बढ़ा सकता है और यदि महिला मामला दर्ज करती है तो वह दोगुने गुस्से से ऐसा करेगा। ऐसे में यह महत्वपूर्ण है कि धमकियों को अंजाम देने से पहले उसे गिरफ्तार किया जाए। र्मडर और बलात्कार की तु लना में पीछा करने वाले को दोषी साबित करना आसान है। पीछा करने वालों को लेकर गवाही या फिर दस्तावेज के तौर पर सबूत (धमकी भरा पत्र, फोन कॉल की रिकॉर्डिग वगैरह) उपलब्ध होते हैं। इनके आधार पर अपराध साबित किया जा सकता है औ र सजा दी जा सकती है। पीछा करने के मामले में महिलाओं के साथ- साथ यह अधिकार पुरुषों को भी मुहैया कराया गया है।

साभार :- कविता कृष्णन

Friday 22 March 2013

अन्न स्वराज



वंदना शिवा
भोजन का अधिकार जीने के अधिकार से जुड़ा हुआ है और संविधान का अनुच्छेद 21 सभी नागरिकों को जीने का अधिकार प्रदान करता है। इस लिहाज से प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक स्वागतयोग्य है। पिछले दो दशकों में भारत में भूख एक बड़ी समस्या के रूप में उभरी है। 1991 में जब आर्थिक सुधार कार्यक्रम शुरू किए गए थे, तब प्रति व्यक्ति भोजन की खपत 178 किलोग्राम थी, जो 2003 में 155 किलोग्राम रह गई। आबादी में सबसे निचले क्रम के 25 फीसदी लोगों की वर्ष 1987-88 में रोजाना खपत 1,683 किलो कैलोरी थी, जो 2004-05 में 1,624 किलो कैलोरी रह गई। जबकि शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के मानक क्रमशः 2,400 और 2,011 किलो कैलोरी रोजाना हैं। ये आंकड़े खाद्य सुरक्षा के मोरचे पर आपात उपाय की जरूरत को रेखांकित करते हैं।

हालांकि खाद्य सुरक्षा से संबंधित विधेयक के मसौदे में बड़े खाद्य संकट को नजरंदाज कर दिया गया है और इसमें सारा ध्यान पहले से सीमित लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर केंद्रित किया गया है। खाद्य सुरक्षा के तीन प्रमुख अंग हैं, पारिस्थितिकीय सुरक्षा, खाद्य संप्रभुता और खाद्य सुरक्षा। खाद्य उत्पादन के लिए भूमि, जल और जैव विविधता तीन प्राकृतिक पूंजी मानी जाती हैं, लेकिन इनमें से प्रत्येक गंभीर संकट में है। कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण किसानों के साथ अन्याय तो है ही, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा के लिए खतरा भी है। यदि उर्वर भूमि नहीं रहेगी, तो फसलों का उत्पादन भी प्रभावित होगा। बीजों की हमारी संपदा को वैश्विक निगमों को सौंपा जा रहा है, जिससे जैव विविधता प्रभावित हो रही है और किसानों के अधिकारों का हनन हो रहा है। बीज संप्रभुता के बिना खाद्य संप्रभुता संभव नहीं है।

मौसम चक्र में परिवर्तन की वजह से हम तेजी से पारिस्थितिकीय सुरक्षा के मामले में असुरक्षित होते जा रहे हैं। इसी कारण पारिस्थितिकी सुरक्षा और लचीलापन प्रदान करने वाली पारिस्थितिकी खेती खाद्य सुरक्षा के लिए आवश्यक हो गई है। खाद्य और कृषि पर ग्लोबल एग्रीबिजनेस के कब्जे और विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के पक्षपाती नियमों की वजहों से हम अपनी खाद्य संप्रभुता खोते जा रहे हैं। इसलिए खाद्य सुरक्षा में निष्पक्ष व्यापार और डब्ल्यूटीओ में सुधार आवश्यक है।

जीएमओ और रासायनिक तरीके से संवर्द्धित भोजन को बढ़ावा देने से हमारा भोजन असुरक्षित होता जा रहा है। खाद्य सुरक्षा समिति में बहुराष्ट्रीय निगमों के बढ़ते प्रभावों से नागरिक खाद्य सुरक्षा के अधिकार से वंचित होते जा रहे हैं। सुरक्षित भोजन के बिना खाद्य सुरक्षा संभव नहीं है। आप तब तक लोगों को भोजन मुहैया नहीं करा सकते, जब तक कि आप सबसे पहले पर्याप्त मात्रा में खाद्य उत्पादन सुनिश्चित न कर लें। और खाद्यान्न उत्पादन सुनिश्चित करने के लिए खाद्यान्न उत्पादकों यानी कृषकों के जीवन यापन के संसाधनों को सुरक्षित रखना होगा। असल में खाद्यान्न पैदा करने का किसानों का अधिकार खाद्य सुरक्षा की दिशा में पहला कदम है। इसी से खाद्य संप्रभुता की अवधारणा ने जन्म लिया है, जिसे हम अन्न स्वराज कह सकते हैं।

खाद्य संप्रभुता सामाजिक-आर्थिक मानवाधिकार से उत्पन्न हुई है, जिसमें भोजन का अधिकार और ग्रामीण आबादी के लिए खाद्यान्न उत्पादन का अधिकार शामिल है। यदि किसी देश की आबादी को अपने अगले समय के भोजन के लिए अनिश्चितताओं और वैश्विक अर्थव्यवस्था में हो रहे उतार-चढ़ाव, भोजन को हथियार के बतौर इस्तेमाल न करने की किसी महाशक्ति की सद्भावना या महंगे परिवहन की वजह से बढ़ती कीमत पर निर्भर रहना पड़े, तब तो वह देश न तो राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से और न ही खाद्य सुरक्षा के लिहाज से सुरक्षित होगा। इसलिए खाद्य संप्रभुता का मतलब खाद्य सुरक्षा से भी कहीं आगे है। इसके लिए जरूरी है कि गांव में लोगों के पास उर्वर जमीन हो और उन्हें फसलों का उचित दाम मिले, ताकि वे लोगों का पेट भरते हुए खुद भी सम्मानजनक तरीके से जीवन यापन कर सकें।

हमारी दो तिहाई आबादी खेती और खाद्यान्न उत्पादन से जुड़ी हुई है। हमारे छोटे किसान देश के लिए खाद्यान्न पैदा करते हैं और 1.21 अरब लोगों को खाद्य सुरक्षा मुहैया कराते हैं। पर पिछले एक दशक के दौरान दो लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या कर ली। जब हमारे खाद्यान्न उत्पादक ही नहीं बचेंगे, तो राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा का क्या होगा? खाद्य उत्पादकों की उपेक्षा भारत इसलिए भी बर्दाश्त नहीं कर सकता, क्योंकि हमारा ग्रामीण समुदाय भुखमरी के गहरे संकट से जूझ रहा है। दुनिया भर में भूख का शिकार आधे लोग खाद्य उत्पादन से ही जुड़े हैं। इसका संबंध बढ़ती लागत, बढ़ते रासायनिक उपयोग और हरित क्रांति के रूप में पेश की गई खाद्यान्न उत्पादन की महंगी प्रणाली से है। लिहाजा, किसान कर्ज में डूब जाते हैं और फिर वे जो कुछ भी पैदा करते हैं, उसे कर्ज चुकाने के लिए बेच डालते हैं।

कृषि उत्पादन से जुड़े समुदाय की भूख की समस्या का समाधान एग्रो इकोलॉजी के सिद्धांत पर आधारित कम लागत वाली टिकाऊ कृषि उत्पादन के रूप में हो सकता है। पारिस्थितिकीय (ऑर्गेनिक) खेती महंगी नहीं है, बल्कि यह खाद्य सुरक्षा की अनिवार्यता है। हमारी ‘हेल्थ पर एकड़’ रिपोर्ट दिखाती है कि पारिस्थितिकी खेती के जरिये हम दो भारत का पेट भर सकते हैं।
लेखिका चर्चित कृषि वैज्ञानिक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं