Tuesday 26 March 2013

16 की सच्चाई

कैबिनेट द्वारा लाए गए बलात्कार निरोधक कानून को लेकर पिछले कुछ दिनों से कई तरह की भ्रांतियां बनी हुई हैं। हालांकि कुछ संशोधनों के साथ अब राजनीतिक दलों में मसौदे पर सैद्धांतिक सहमति बनी है। असली भ्रम सहमति से यौन संबंध बनाने की उम्र, बलात्कार कानून के अलावा इससे जुड़ी सजा व दुष्परिणाम को लेकर है

यौन संबंध की सहमति की उम्र 18 साल से घटाकर सरकार द्वारा अचानक 16 साल नहीं की गयी है। हालांकि अनेक राजनीतिक दलों के विरोध को देखते हुए सरकार इस मामले पर पुनर्विचार कर रही है और संकेत हैं कि यह आयु 18 वर्ष ही रखी जाएगी। मालूम हो कि भारत में सहमति की उम्र 1983 से लेकर अभी कुछ महीने पहले तक 16 वर्ष ही थी। इस मामले में सिर्फ चार महीने पहले आवाज बुलंद हुई। इसे 18 वर्ष किए जाने को लेकर मामला गर्माया और चाइल्ड सेक्सुअल ऑफेंसेज एक्ट (पीओसीएसओ) सामने आया। यह मामला अध्यादेश के आने के एक महीने पहले का है। सहमति की उम्र 16 वर्ष किए जाने का अर्थ यह नहीं है कि किशोरों या टीन्स को सेक्स करने का लाइसेंस मिल गया या उसे बढ़ावा देने का कार्य किया जा रहा है। बहस इस पर नहीं है कि टीनएज सेक्स अच्छा है या खराब, बल्कि बहस का केंद्र यह है कि टीन्स के बीच सहमति से किया गया सेक्स बलात्कार के तौर पर परिभाषित किया जा सकता है या नहीं। क्योंकि आपराधिक कानून में नैतिक या सामाजिक संहिता जैसा कुछ भी नहीं है। यदि सहमति की उम्र 18 बढ़ायी जाती है तो इसका अर्थ यह हुआ कि 16 से 18 वर्ष के बीच के लड़के को बलात्कारी या यौन दोषी के तौर पर सजा दी जा सकती है जबकि उसके समान उम्र की उसकी गर्लफ्रेंड साफ तौर पर कह रही होगी कि उसकी मर्जी से उसके दोस्त ने यह सबकुछ किया। जब शादी की उम्र 18 साल है तो सहमति से सेक्स करने की उम्र में अंतर क्यों है? इस मामले में पहली बात यह कि यदि कोई नाबालिग लड़का किसी नाबालिग लड़की से शादी करता है तो बाल विवाह कानून के तहत उस लड़के को सजा नहीं मिलेगी। लेकिन जब नाबालिग लड़का अपने समान उम्र की नाबालिग लड़की को उसकी मर्जी से बांहों में लेता है, चूमता है या सेक्स करता है तो उसे यौन अपराधी या बलात्कारी के तौर पर सजा हो सकती है। बाल विवाह के खिलाफ कानून माता-पिता को नाबालिग बच्चों के जीवन के फैसले लेने से रोकता है। वह युगल को इस बात का अधिकार भी देता है कि वे बालिग होंगे तो वे शादी बरकरार रखना चाहते हैं या नहीं, यह उन पर निर्भर है। यह बात सत्य है कि 16 से 18 के बीच की अवस्था में चिकित्सा विज्ञान भी गर्भधारण को उचित नहीं मानता। उन्हें सेक्स करने से कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। लेकिन उस उम्र में एक-दूसरे के प्रति प्राकृतिक तौर पर आकर्षित होना हकीकत है। ऐसे में वयस्कों को यह समझाने की जरूरत है कि वे अपने शरीर को समझें, उन्हें सम्मान दें और आकर्षण में न बहें और प्रेम के प्रति जिम्मेदार बनें। ऐसे में यौन आकर्षण उन्हें अपराधी तक बना सकता है और निदरेष वयस्क बलात्कारी सिर्फ इसलिए बन जाता है क्योंकि उसने अपने हमउम्र की लड़की के साथ उसकी सहमति से सेक्स संबंध बनाए हैं। जिस लड़के ने आपसी सहमति से संबंध बनाए थे, उसे गलत तरीके से बलात्कारी के तौर पर पेश किया जाएगा। इसका अंजाम यह होगा कि वह महिलाओं से डरेगा या फिर घृणा करेगा और वह कामुकता और महिलाओं के प्रति विकृत घृणाओं से भरा रहेगा। इसलिए उसके महिलाओं के प्रति हिंसक होने की संभावनाएं अधिक होंगी। और तो और, हम उस दुनिया में रहते हैं जहां वयस्कों के जीवन और विकल्पों को लेकर मोरल पॉलिसिंग काफी खतरनाक है। चाइल्ड सेक्सुअल ऑफेंसेज एक्ट के तहत तीसरी पार्टी (माता-पिता, मोरल पॉलिसिंग आउटफिट्स, खाप या और कोई) नाबालिग लड़के के खिलाफ बलात्कार का मामला दर्ज करा सकता है और न्यायालय में न्यायाधीश लड़के की इस दलील पर कि लड़की की सहमति से उसने ऐसा किया, की अनदेखी कर लड़के को दोषी करार दे सकते हैं। इसलिए कई न्यायाधीशों ने भी मांग की है कि सहमति की उम्र 16 रखी जाए और इसे 18 न बढ़ाई जाए क्योंकि वे नहीं चाहते कि किसी वयस्क बालक को जबर्दस्ती दोषी ठहराया जाए जबकि उसने सहमति से यौन संबंध बनाए। टाटा स्काई के एक विज्ञापन को लेकर जरा सोचें, जिसमें एक भाई अपनी बहन को किसी लड़के के साथ डिनर पर जाने की अनुमति नहीं देता। यदि सहमति की उम्र 18 वर्ष सचमुच बढ़ा दी जाती है तो नाबालिगों के बीच किसी भी तरह का यौन संपर्क स्वत: बलात्कार की श्रेणी में आ जाएगा। ऐसे में जो भाई अपनी बहन की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाना चाहता है, वह उसका प्रयोग करेगा और किसी भी लड़के/पुरुष सहपाठी/बहन के दोस्त को दोषी ठहरा देगा। इसलिए जेंडर को लेकर पक्षपातपूर्ण धारणा रखने वाली पुलिस पार्क में एक साथ बैठे जोड़ों को भी परेशान करने से नहीं चूकेगी।

या झूठी शिकायतें यदि महिला किसी पुरुष के खिलाफ झूठी शिकायतें दर्ज कराती हैं तो इसका कानूनी विकल्प क्या है? कानूनी विकल्प आईपीसी सेक्शन-182 और 211 में पहले से मौजूद है। इसके तहत झूठी शिकायत करने पर सजा मौजूद है क्योंकि किसी भी कानून का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए। ऐसे में सवाल है, बलात्कार और यौन उत्पीड़न के मामले में झूठी शिकायतों को लेकर क्यों विशेष प्रावधान किया जाए? इस तरह के प्रावधान महिलाओं को झूठी शिकायतें दर्ज करने से रोकते हैं। याद रखें कि यह विधेयक सिर्फ महिलाओं के संघर्ष का परिणाम है। यह पुरुष-विरोधी नहीं है। यह विधेयक यौन हिंसा संबंधी मामले में पुरुषों के साथ- साथ सभी लोगों की रक्षा के लिए है। यही कारण है कि इसमें पीड़ित को जेंडर मामले में तटस्थ रखा गया है। महिलाओं का संघर्ष ही सरकार को बदलाव लाने के लिए सहमत करता है कि अध्यादेश की गलतियों को सुधारा जाए। बलात्कार कानून में दोषी को ‘विशिष्ट जेंडर’ के तहत रखा गया है (क्योंकि महिला किसी पुरुष का बलात्कार नहीं कर सकती), सहमति की उम्र 16 साल बरकरार रखा गया है और विधेयक में इस बात को स्पष्ट किया गया है कि बलात्कार के चार्जशीट वाले लोकसेवकों को अभी तक जो संरक्षण प्राप्त था, वह नहीं मिलेगा। ताकझांक, पीछा करना, एसिड हमले और नंगा करने जैसे मामले यौन अपराध के दायरे में आएंगे। ऐसे में, जस्टिस वर्मा की सिफारिशों को पूरी तरह लागू करने को लेकर हमें दूसरी लड़ाई जारी रखनी होगी। बहरहाल, महिलाओं के आंदोलन को लेकर यह विधेयक काफी बड़ी उपलब्धि है।

ताकझांक ताकझांक का अर्थ सिर्फ घूरना नहीं है। ‘फे सबुक’ पर किसी लड़की की तस्वीर अपलोड करना ताकझांक नहीं है। यदि कोई पुरुष अपनी गर्ल फ्रेंड का सेक्स एमएमएस बनाता है या न्यूड फो टो बनाकर उसे सकरुलेट करता है तो इसे ताकझांक कहा जाएगा क्योंकि यह उसकी निजता का हनन है। यदि कोई महिला कपड़े की दुकान के चेंजिंग रूम में कपड़े बदल रही है और वहां गुप्त छेद या गुप्त कैमरे की मदद से उस पर नजर रखी जा रही है तो यह ताकझांक की श्रेणी में आएगा। दिल्ली गैंगरेप के मुख्य आरोपी राम सिंह पर भी ताकझांक करने का आरोप लगा था। उसकी महिला पड़ोसी ने समाचार एजेंसी ‘रॉयटर’ को बताया था कि जब कभी-कभी हम कपड़े बदल रहे होते या नहा रहे होते थे तो वह हमारे घर की झलक ले रहा होता था। विरोध करने पर वह काफी कठोर हो जाता था और कहता था कि उसे कहीं भी खड़ा रहने का अधिकार है। ताकझांक करना मूल रूप से, किसी की निजता को छिप कर जासूसी करने का मामला है। यह कानून पुरुषों की रक्षा भी करता है।

पीछा करना फिल्म "डर" के गाने ˜तू हां कर या ना कर, तू है मेरी सनम  को याद कर लें। यह है ˜स्टाकिंग" यानी पीछा करना। लगातार किसी का पीछा करना, धमकीभरे मेल/पत्र भेजना कि तुम पर एसिड फेंक दूंगा या बलात्कार/र्मडर कर दूंगा, इसी श्रेणी में आते हैं। ज्यादातर महिलाएं इसी दहशत में जीती हैं और इसे लेकर कोई उपाय अभी तक नहीं किया गया है। इस मामले में लगातार सड़कों पर आंदोलन हो रहे हैं कि सिर्फ बलात्कारी को ही सजा न मिले बल्कि बलात्कार, र्मडर और एसिड हमलों जैसी घटनाओं पर अंकुश लगे। याद करें- प्रियदर्शिनी मट्टू कांड को। उसने पुलिस के पास कई बार संतोष सिंह के खिलाफ पीछा करने का मामला दर्ज कराया था। लेकिन कोई कानून नहीं था जिसके बिना पर उसे पीछा करने के जुर्म में गिरफ्तार किया जाता तो संतोष सिंह न तो उसका बलात्कार ही कर पाता और न ही उसकी हत्या। एसिड हमलों के साथ-साथ बलात्कार और र्मडर (धौलाकुआं में राधिका तंवर की हत्या की तरह) मामले अपराधियों द्वारा काफी दिनों तक पीछा करने के बाद ही हुए हैं। पीछा करने के मामले को गैरजमानती क्यों बनाया जाना चाहिए, यह अहम सवाल है क्योंकि पीछा करने वाला, जो एसिड फेंकना चाहता है या गोली मारना चाहता है, वह आगे कदम बढ़ा सकता है और यदि महिला मामला दर्ज करती है तो वह दोगुने गुस्से से ऐसा करेगा। ऐसे में यह महत्वपूर्ण है कि धमकियों को अंजाम देने से पहले उसे गिरफ्तार किया जाए। र्मडर और बलात्कार की तु लना में पीछा करने वाले को दोषी साबित करना आसान है। पीछा करने वालों को लेकर गवाही या फिर दस्तावेज के तौर पर सबूत (धमकी भरा पत्र, फोन कॉल की रिकॉर्डिग वगैरह) उपलब्ध होते हैं। इनके आधार पर अपराध साबित किया जा सकता है औ र सजा दी जा सकती है। पीछा करने के मामले में महिलाओं के साथ- साथ यह अधिकार पुरुषों को भी मुहैया कराया गया है।

साभार :- कविता कृष्णन

Friday 22 March 2013

अन्न स्वराज



वंदना शिवा
भोजन का अधिकार जीने के अधिकार से जुड़ा हुआ है और संविधान का अनुच्छेद 21 सभी नागरिकों को जीने का अधिकार प्रदान करता है। इस लिहाज से प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक स्वागतयोग्य है। पिछले दो दशकों में भारत में भूख एक बड़ी समस्या के रूप में उभरी है। 1991 में जब आर्थिक सुधार कार्यक्रम शुरू किए गए थे, तब प्रति व्यक्ति भोजन की खपत 178 किलोग्राम थी, जो 2003 में 155 किलोग्राम रह गई। आबादी में सबसे निचले क्रम के 25 फीसदी लोगों की वर्ष 1987-88 में रोजाना खपत 1,683 किलो कैलोरी थी, जो 2004-05 में 1,624 किलो कैलोरी रह गई। जबकि शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के मानक क्रमशः 2,400 और 2,011 किलो कैलोरी रोजाना हैं। ये आंकड़े खाद्य सुरक्षा के मोरचे पर आपात उपाय की जरूरत को रेखांकित करते हैं।

हालांकि खाद्य सुरक्षा से संबंधित विधेयक के मसौदे में बड़े खाद्य संकट को नजरंदाज कर दिया गया है और इसमें सारा ध्यान पहले से सीमित लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर केंद्रित किया गया है। खाद्य सुरक्षा के तीन प्रमुख अंग हैं, पारिस्थितिकीय सुरक्षा, खाद्य संप्रभुता और खाद्य सुरक्षा। खाद्य उत्पादन के लिए भूमि, जल और जैव विविधता तीन प्राकृतिक पूंजी मानी जाती हैं, लेकिन इनमें से प्रत्येक गंभीर संकट में है। कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण किसानों के साथ अन्याय तो है ही, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा के लिए खतरा भी है। यदि उर्वर भूमि नहीं रहेगी, तो फसलों का उत्पादन भी प्रभावित होगा। बीजों की हमारी संपदा को वैश्विक निगमों को सौंपा जा रहा है, जिससे जैव विविधता प्रभावित हो रही है और किसानों के अधिकारों का हनन हो रहा है। बीज संप्रभुता के बिना खाद्य संप्रभुता संभव नहीं है।

मौसम चक्र में परिवर्तन की वजह से हम तेजी से पारिस्थितिकीय सुरक्षा के मामले में असुरक्षित होते जा रहे हैं। इसी कारण पारिस्थितिकी सुरक्षा और लचीलापन प्रदान करने वाली पारिस्थितिकी खेती खाद्य सुरक्षा के लिए आवश्यक हो गई है। खाद्य और कृषि पर ग्लोबल एग्रीबिजनेस के कब्जे और विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के पक्षपाती नियमों की वजहों से हम अपनी खाद्य संप्रभुता खोते जा रहे हैं। इसलिए खाद्य सुरक्षा में निष्पक्ष व्यापार और डब्ल्यूटीओ में सुधार आवश्यक है।

जीएमओ और रासायनिक तरीके से संवर्द्धित भोजन को बढ़ावा देने से हमारा भोजन असुरक्षित होता जा रहा है। खाद्य सुरक्षा समिति में बहुराष्ट्रीय निगमों के बढ़ते प्रभावों से नागरिक खाद्य सुरक्षा के अधिकार से वंचित होते जा रहे हैं। सुरक्षित भोजन के बिना खाद्य सुरक्षा संभव नहीं है। आप तब तक लोगों को भोजन मुहैया नहीं करा सकते, जब तक कि आप सबसे पहले पर्याप्त मात्रा में खाद्य उत्पादन सुनिश्चित न कर लें। और खाद्यान्न उत्पादन सुनिश्चित करने के लिए खाद्यान्न उत्पादकों यानी कृषकों के जीवन यापन के संसाधनों को सुरक्षित रखना होगा। असल में खाद्यान्न पैदा करने का किसानों का अधिकार खाद्य सुरक्षा की दिशा में पहला कदम है। इसी से खाद्य संप्रभुता की अवधारणा ने जन्म लिया है, जिसे हम अन्न स्वराज कह सकते हैं।

खाद्य संप्रभुता सामाजिक-आर्थिक मानवाधिकार से उत्पन्न हुई है, जिसमें भोजन का अधिकार और ग्रामीण आबादी के लिए खाद्यान्न उत्पादन का अधिकार शामिल है। यदि किसी देश की आबादी को अपने अगले समय के भोजन के लिए अनिश्चितताओं और वैश्विक अर्थव्यवस्था में हो रहे उतार-चढ़ाव, भोजन को हथियार के बतौर इस्तेमाल न करने की किसी महाशक्ति की सद्भावना या महंगे परिवहन की वजह से बढ़ती कीमत पर निर्भर रहना पड़े, तब तो वह देश न तो राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से और न ही खाद्य सुरक्षा के लिहाज से सुरक्षित होगा। इसलिए खाद्य संप्रभुता का मतलब खाद्य सुरक्षा से भी कहीं आगे है। इसके लिए जरूरी है कि गांव में लोगों के पास उर्वर जमीन हो और उन्हें फसलों का उचित दाम मिले, ताकि वे लोगों का पेट भरते हुए खुद भी सम्मानजनक तरीके से जीवन यापन कर सकें।

हमारी दो तिहाई आबादी खेती और खाद्यान्न उत्पादन से जुड़ी हुई है। हमारे छोटे किसान देश के लिए खाद्यान्न पैदा करते हैं और 1.21 अरब लोगों को खाद्य सुरक्षा मुहैया कराते हैं। पर पिछले एक दशक के दौरान दो लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या कर ली। जब हमारे खाद्यान्न उत्पादक ही नहीं बचेंगे, तो राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा का क्या होगा? खाद्य उत्पादकों की उपेक्षा भारत इसलिए भी बर्दाश्त नहीं कर सकता, क्योंकि हमारा ग्रामीण समुदाय भुखमरी के गहरे संकट से जूझ रहा है। दुनिया भर में भूख का शिकार आधे लोग खाद्य उत्पादन से ही जुड़े हैं। इसका संबंध बढ़ती लागत, बढ़ते रासायनिक उपयोग और हरित क्रांति के रूप में पेश की गई खाद्यान्न उत्पादन की महंगी प्रणाली से है। लिहाजा, किसान कर्ज में डूब जाते हैं और फिर वे जो कुछ भी पैदा करते हैं, उसे कर्ज चुकाने के लिए बेच डालते हैं।

कृषि उत्पादन से जुड़े समुदाय की भूख की समस्या का समाधान एग्रो इकोलॉजी के सिद्धांत पर आधारित कम लागत वाली टिकाऊ कृषि उत्पादन के रूप में हो सकता है। पारिस्थितिकीय (ऑर्गेनिक) खेती महंगी नहीं है, बल्कि यह खाद्य सुरक्षा की अनिवार्यता है। हमारी ‘हेल्थ पर एकड़’ रिपोर्ट दिखाती है कि पारिस्थितिकी खेती के जरिये हम दो भारत का पेट भर सकते हैं।
लेखिका चर्चित कृषि वैज्ञानिक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं

Thursday 14 March 2013

We all shit, we all pee but never talk about it


गर मैं ठीक-ठीक याद कर पा रही हूं तो ये पिछली गर्मियों की किसी
तपती दोपहरी वाले दिन घटी घटना है। मैं घर में अकेली थी कुछ-कुछ फुरसतिया
मूड में कभी इधर, कभी उधर बैठकर टाइम पास करती। तभी दरवाजे की घंटी बजी।
दरवाजे पर दो महिलाएं खड़ी थीं। मेरे दरवाजा खोलते ही धुआं छोड़ने वाली
150 सीसी पल्‍सर की रफ्तार से शुरू हो गईं।
‘मैडम हम फलां कंपनी की तरफ से आए हैं, फलां फेयरनेस क्रीम और साबुन और
शैंपू जाने क्‍या-क्‍या तो बेच रहे हैं। एक डेमो देना चाहते हैं।’
मैंने उनकी बात खत्‍म होने से पहले ही अपने रूटीन बेहया लहजे में कहा,
‘नहीं, नहीं, नहीं चाहिए। हम पहले से ही बहुत ज्‍यादा फेयर हैं। क्रीम
लगाएंगे तो करीना कपूर छाती पीटकर रोएगी। उसके रूप के साथ हम अन्‍याय
नहीं कर सकते।’
मजाक नहीं, मैंने सचमुच ऐसा ही कहा। (मैं काफी बदजबान हूं और कब कहां
क्‍या बोल दूं, मुझे खुद भी पता नहीं होता।)
दोनों थोड़ा इमबैरेस सी हुईं, लेकिन फिर मेरे चेहरे पर शरारती मुस्‍कान
देखकर हंसने लगीं। अबकी मैंने फाइनल डिसीजन सुना दिया, ‘Look mam, I am
not interested. ’

मुझे लगा कि अब वो लौट जाएंगी और किसी और का दरवाजा खटखटाकर सुंदर होने
के नुस्‍खे बताएंगी। लेकिन वो कुछ मिनट और खड़ी रहीं। दोनों ने एक ही रंग
और डिजाइन की साड़ी पहन रखी थी। दिखने में पहली ही नजर में कहीं से
आकर्षक नहीं जान पड़ती थीं, लेकिन बरछियां बरसाती बदजात दोपहरी में
दरवाजे-दरवाजे भटकना पड़े तो करीना कपूर भी दस दिन में कोयला कुमारी नजर
आने लगे। वो मेरी तरह कूलर की हवा में बैठकर तरबूज का शरबत पीती होतीं तो
निसंदेह उनकी त्‍वचा इतनी खुरदुरी नहीं लगती।

मैं दरवाजा बंद करके पीछा छुड़ाना चाहती थी, लेकिन वो मेरी रुखाई के
बावजूद एकदम से पलटकर दोबारा कभी मेरा मुंह भी न देखने को उद्धत नहीं जान
पड़ीं। उनकी आंखों ने कहा कि वो कुछ कहना चाहती हैं, लेकिन संकोच की कोई
रस्‍सी तन रही है।
हम दोनों ही कुछ सेकेंड चुपचाप खड़े रहे।
फिर जैसे बड़ी मुश्किल से उनमें से एक हिम्‍मत जुटाकर बोली, ‘मैम, हम
आपका बाथरूम यूज कर सकते हैं।’
मुझे उनकी बात समझने में कुछ सेकेंड लगे। फिर बोली, ‘हां जरूर, शौक से।
प्‍लीज, अंदर आ जाइए।’

दोनों कमरे की ठंडी हवा में आकर सुस्‍ताने लगीं। एक-एक करके बाथरूम गईं,
मुंह पर पानी के छींटे डाले। मैंने तरबूज का शरबत उन्‍हें भी ऑफर किया।
दोनों चुपचाप बैठकर शरबत पीने लगीं और उस पूरे दौरान हुई बातचीत से उनके
मुतल्लिक कुछ ऐसी जानकारियां हासिल हुईं।

वो किसी कंपनी में डेली वेजेज पर काम करती थीं, सुबह दस से शाम छह बजे तक
और शाम को मिलने वाले पैसे इस बात पर निर्भर करते थे कि दिन भर उन्‍होंने
कितने प्रोडक्‍ट बेचे थे। वो घर-घर जाकर अपने प्रोडक्‍ट दिखातीं (जैसे
चश्‍मे बद्दूर में दीप्ति नवल चमको साबुन बेचती थी) और जिस घर जातीं,
उनका नाम, मकान नंबर और साइन एक कागज पर दर्ज कर लेती थीं। उनमें से एक
अपने एलआईसी एजेंट पति और दूसरी मां और विधवा बहन के साथ रहती थी। ये
जानकारियां मैंने दनादन सवालों की बौछार करके जुटा ली थीं। लेकिन मैं
mainly जो बात कहना चाहती हूं, उसका इन डीटेल्‍स से न ज्‍यादा, न कम
लेना-देना है।
मैं घूम-फिरकर उस सवाल पर आ गई, जो मुझे इतनी देर से कोंच रहा था।
‘आप दिन भर इतनी गर्मी, धूप में घूमते-घूमते परेशान नहीं हो जातीं।’
‘आदत हो गई है।’
‘आपको प्‍यास लगे तो? ’
‘किसी के घर में पी लेते हैं।’
‘और लू जाना हो तो? ’
‘क्‍या? ’
‘बाथरूम?’
‘बाथरूम जाना हो तो? आप लोगों को प्रॉब्‍लम नहीं होती। 8-10 घंटे आप बाहर
घूमती हैं। बाथरूम लगे तो क्‍या करती हैं?’ ।
मैंने देखा संकोच की एक लकीर उनके माथे पर घिर आई थी। जाहिर था कि जैसे
उन्‍होंने मुझे लड़की, शायद थोड़ी बिंदास लड़की या जो कुछ भी समझकर मुझसे
बाथरूम यूज करने की रिक्‍वेस्‍ट कर ली थी, ऐसा वो अमूमन नहीं करती होंगी,
नहीं कर पाती होंगी। वैसे भी आप किसी अनजान के घर सामान बेचने जाकर उसके
बाथरूम में नहीं घुस जाते। लेकिन बाथरूम Available न हो तो ऐसा तो नहीं
कि सू-सू अपने आने का कार्यक्रम मुल्‍तवी कर देगी।
उन्‍होंने बताया कि उन्‍हें दिक्‍कत तो होती है। दिन भर वो कम से कम पानी
पीती हैं। बहुत बार घंटों-घंटों इस प्राकृतिक जरूरत को दबाकर भी रखती
हैं। मेरे काफी खोदने पर उन्‍होंने स्‍वीकारा कि ऐसा करने का उन्‍हें
खामियाजा भी भुगतना पड़ता है। पेट में दर्द से लेकर यूरिनरी इंफेक्‍शन तक
वो झेल चुकी हैं।
‘पीरियड्स के समय भी आप ऐसे ही घूमती हैं?’
वो और ज्‍यादा अपने संकोच में सिकुड़ गईं। मैं तो कोई पुरुष नहीं थी,
लेकिन शायद लड़कियां भी लड़कियों से ऐसी बातें नहीं करतीं। इसलिए मैं
उन्‍हें थोड़ी विचित्र जान पड़ी।
बोलीं, ‘हां करना तो पड़ता है मैम। क्‍या करें, हमारी नौकरी ही ऐसी है।
एक दिन न आएं तो उस दिन के पैसे नहीं मिलेंगे। और फिर घर भी तो चलाना है।
आजकल महंगाई कितनी बढ़ गई है।’
बातें जो न चाहें तो कभी खत्‍म न हों, को चाहकर हमने खत्‍म किया और वो
चली गईं। वो चली गईं और मैं सोच रही थी। घड़ी की तरह शरीर में भी (खासकर
औरतों के शरीर में) एक अलार्म होना चाहिए, जिसमें हर चीज का टाइम सेट कर
दें। बाथरूम आने का भी टाइम सेट हो। सुबह दस से शाम छह बजे तक नहीं आएगी।
जब घर में रहेंगे, तभी आएगी क्‍योंकि इस देश में पब्लिक टॉयलेट्स सच्‍ची
मोहब्‍बत की तरह ढूंढे से नहीं मिलते। गलती से मिल भी जाएं तो पता चलता
है कि सच्‍ची मोहब्‍बत नहीं, सड़क छाप, बदबू मारते गलीज बीमारियों के
अड्डे हैं, जहां अव्‍वल तो लड़कियां घुसती नहीं और घुसती हैं तो ऐसा ही
समझा जाता है कि छेड़े जाने की हरसत से आई हैं। और जो थोड़ी भलमनसाहत
बाकी हो और उन्‍हें न भी छेड़ो तो आंखें फाड़-फाड़ देख तो लो ही सही।
तो ऐसे देश का सिस्‍टम तो बदलने से रहा, इसलिए अलार्म ही फिट हो सके तो
कुछ बात बने। वरना हम ऐसी ही मुश्किलों से गुजरते रहने को अभिशप्‍त
होंगे।
ऐसी मुश्किलों से मैं भी कम नहीं गुजरी हूं और बीमारियों को खुद आ बैल
मुझे मार करने के लिए बुलाया है।
अपने जिए हुए अनुभव से मैं कह सकती हूं कि हिंदुस्‍तान जैसे मुल्‍क, जो
हालांकि पूरा की पूरा ही बड़ा शौचालय है, लेकिन पब्लिक शौचालय का जहां
कोई क्‍लीयर आइडिया न तो सरकार और न लोगों के दिमाग में है, में किसी
लड़की के लिए ऐसा कोई काम, जिसमें उसे दिन भर सिर्फ घूमते रहना हो, करना
किसी बड़ी बीमारी को मोहब्‍बत से फुसलाकर अपनी गोदी बिठाने से कम नहीं
है।
मुंबई में मैंने कुछ समय फिल्‍म रिपोर्टिंग जैसे काम में हाथ आजमाया था,
जिसके लिए मुझे घंटों-घंटों न घर, न ऑफिस, बल्कि बाहर इधर-उधर भटकना
पड़ता था। सुबह नौ बजे मैं घर से निकलती, दो घंटे ऑटो, लोकल train और बस
से सफर करके यारी रोड, पाली हिल, लोखंडवाला कॉम्‍प्‍लेक्‍स या
महालक्ष्‍मी रेसकोर्स रोड के रेस्‍टरेंट में पहुंचती, फिर वहां से
पृथ्‍वी थिएटर, पृथ्‍वी से जुहू तारा रोड, जुहू तारा से सात बंगला, सात
बंगला से केम्‍स कॉर्नर, केम्‍स कॉर्नर से वॉर्डन रोड करते हुए मेरा शरीर
रोड की तरह हो जाता था, जिस पर लगता हजारों गाडि़यां दौड़-दौड़कर रौंदे
डाल रही हैं।
मुंबई जैसे विशालकाय महानगर में, जहां पांच सितारा होटलों के चमकीले
टायॅलेटों, जिनकी फर्श भी हमारी रसोई की परात जितनी साफ रहती है, इतनी कि
उस पर आटा सान लो, से लेकर बांद्रा की खाड़ी के बगल में बने आसमान के
नीचे खुले प्राकृतिक शौचालयों तक सबकुछ मिल जाएगा, लेकिन पब्लिक टॉयलेट
ढूंढना वहां भी धारावी में ब्रैड पिट को ढूंढने की तरह है।

सुबह नौ बजे से लेकर शाम 5-6 बजे तक भटकने के बाद मैं ऑफिस पहुंचती और
सबसे पहले बाथरूम भागती थी। दिन भर काफी मिट्टी पलीद होती थी। बॉम्‍बे के
बेहद उमस भरे दिलफरेब मौसम में बार-बार पानी या लेमन जूस पीते रहना
मजबूरी थी, वरना डिहाइड्ेशन से ही मर जाती। इस तरह भटकते रहने का यह
ताजातरीन अनुभव था। शुरू में काफी एक्‍साइटमेंट था। लेकिन इससे और
क्‍या-क्‍या मुश्किलात जुड़े हैं या इसके और क्‍या-क्‍या नतीजे मुमकिन
हैं, इस बारे में तब तक कोई अंदाजा ही नहीं था। नौ बजे घर से निकलने के
बाद 1-2 बजते-बजते मैं काफी परेशान हो जाती थी। लेकिन मैंने हालांकि बड़े
सामान्‍य, लेकिन कुछ विचित्र भी लगने वाले तरीकों से ऐसी हाजतों से निजात
पाई है। ये बोलते हुए हंसी भी आती है, लेकिन फेयरनेस क्रीम बेचने वाली उन
स्त्रियों ने तो मुझसे ही बाथरूम यूज करने की रिक्‍वेस्‍ट की थी, लेकिन
मैं बड़े-बड़े सेलिब्रिटियों के घर ऐसी डिमांड रख देती थी।
एक दिन स्‍मृति ईरानी के घर पहुंची तो जोर की बाथरूम लगी थी। संकोच बहुत
था, लेकिन कुछ जरूरतें ऐसी होती हैं कि दुनिया के हर संकोच से बड़ी हो
जाती हैं। मैंने बड़ी बेशर्मी से पूछ लिया, May I use your washroom
please.

उसने कहा, yes. Off course. ऑफ कोर्स मैंने खुद को कृतार्थ किया।
एक बार शेखर कपूर के घर, हालांकि वो उस समय घर में नहीं थे (ये बहुत दुख
की बात है, क्‍यों‍कि शेखर कपूर पर मुझे क्रश है) मैंने सुचित्रा से ऐसी
ही रिक्‍वेस्‍ट की और उन्‍होंने बड़ी खुशी से रिस्‍पॉन्‍ड किया। ऐसी
रिक्‍वेस्‍ट मैंने सुप्रिया पाठक, किरण खेर, रेणुका शहाणे, सुरेखा सीकरी,
नादिरा बब्‍बर वगैरह से भी की थी और शायद सबने इस रिक्‍वेस्‍ट की
जेनुइननेस को समझा भी था। इंटरेस्टिंगली सभी स्त्रियों से ही ऐसी बात
कहने का विश्‍वास होता था। बोस्‍कीयाना में बैठकर ढाई घंटे भी इंतजार
करना पड़े तो भी मैं नेचर कॉल को चप्‍पल उतारकर दौड़ाती - 'भाग, अभी
नहीं, बाद में आना।'
सिर्फ कुछ ही महीनों में सेहत की काफी बारह बज गई थी।

2- बंबई में फिल्‍म रिपोर्टिंग करते हुए जब तक मैं खुद इस दिक्‍कत से
नहीं गुजरी थी, मेरे जेहन में ये सवाल तक नहीं आया था। पब्लिक टॉयलेट यूज
करने की कभी नौबत नहीं आई, इसलिए उस बारे में सोचा भी नहीं। लेकिन अब
अपनी दोस्‍त लेडी डॉक्‍टर्स से लेकर अनजान लेडी डॉक्‍टर्स तक से मैं ये
सवाल जरूर पूछती हूं कि औरतों के बाथरूम रोकने, दबाने या बाथरूम जाने की
फजीहत से बचने के लिए पानी न पीने के क्‍या-क्‍या नतीजे हो सकते हैं?
कौन-कौन सी बीमारियां उनके शरीर में अपना घर बनाती हैं और आपके पास ऐसे
कितने केसेज आते हैं। मेरे पास कोई ठीक-ठीक आंकड़ा नहीं है कि लेकिन सभी
लेडी डॉक्‍टर्स ने यह स्‍वीकारा किया कि औरतों में बहुत सी बीमारियों की
वजह यही होती है। उन्‍हें कई इंफेक्‍शन हो जाते हैं और काफी हेल्‍थ
संबंधी कॉम्‍प्‍लीकेशंस। कई औरतें प्रेग्‍नेंसी के समय भी अपनी शर्म और
पब्लिक टॉयलेट्स की अनुपलब्‍धता की सीमाओं से नहीं निकल पातीं और अपने
साथ-साथ बच्‍चे का भी नुकसान करती हैं। यूं नहीं कि ये रेअरली होता है।
बहुत ज्‍यादा और बहुत बड़े पैमाने पर होता है। खासकर जब से औरतें घरों से
बाहर निकलने लगी हैं, नौ‍करियां करने लगी हैं और खास तौर से ऐसे काम,
जिसमें एक एयरकंडीशंड दफ्तर की कुर्सी नहीं है बैठने के लिए। जिसमें दिन
भर इधर-उधर भटकते फिरना है।

मुंबई में मेरे लिए ये सचमुच एक बड़ी समस्‍या थी। हमेशा आप किसी सेंसिटिव
सी जान पड़ने वाली फीमेल सेलिब्रिटी के घर ही तो नहीं जाते। या कई बार
किसी के भी घर नहीं जाना होता, फिर भी भटकना होता है। मैं तो ऐसी भटकू
राम थी कि बिना काम के भी भटकती थी। तो ऐसे में मैंने एक तरीका और ईजाद
किया था। बॉम्‍बे में वेस्‍टसाइड, ग्‍लोबस, फैब इंडिया और बॉम्‍बे स्‍टोर
से लेकर शॉपर्स स्‍टॉप तक जितने भी बड़े स्‍टोर थे, उनका इस्‍तेमाल मैं
पब्लिक टॉयलेट की तरह करती थी। जाने कितनी बार मैं इन स्‍टोरों में कुछ
खरीदने नहीं, बल्कि इनका टॉयलेट इस्‍तेमाल करने के मकसद से घुसी हूं।
काउंटर पर बैग जमा किया, दो-चार कपड़े, सामान इधर-उधर पलटककर देखा और चली
गई उनके वॉशरुम में। इससे ज्‍यादा उन स्‍टोर्स की मेरे लिए कोई वखत नहीं
थी।
बचपन में मैंने मां, मौसी, ताईजी और घर की औरतों को देखा था कि वो कहीं
भी बाहर जाने से पहले बाथरूम जाती थीं और घर वापस आने के बाद भी सबसे
पहले बाथरूम ही जाती थीं। गांव में, जहां हाजत के लिए खुले खेतों में
जाना पड़ता है, वहां तो सचमुच औरतों के शरीर में (सिर्फ औरतों के) अलार्म
फिट था। उन्‍हें सुबह उजाला होने से पहले और शाम को अंधेरा होने के बाद
ही हाजत आती और कमाल की बात थी कि पड़ोस, पट्टेदारी की सारी औरतों को एक
साथ आती थी। सब ग्रुप बनाकर साथ ही जाती थीं, मानो किसी समारोह में जा
रही हों। मैं भाभी, दीदी टाइप महिलाओं से बक्‍क से पूछ भी लेती थी, ‘आप
लोगों को घड़ी देखकर टॉयलेट आती है क्‍या?’ कइयों ने कहा, हां और कइयों
ने स्‍वीकारा कि दिन में जाने का जोर आए तो दबा देते हैं।
कितनी अजीब है ये दुनिया। टायलेट जाते भी औरतों को शर्म आती है, मानो कोई
सीक्रेट पाप कर रही हों। जिस कमरे से होकर बाथरूम के लिए जाना पड़ता है,
या जिस कमरे से अटैच बाथरूम है, उस कमरे में अगर जेठ जी, ससुर या कोई भी
पुरुष बैठा है तो मेरी दीदियां, भाभियां, मामियां और घर की औरतें रसोई
में चुपाई बैठी रहेंगी, लेकिन बाथरूम नहीं जाएंगी। बोलेंगी, ‘नहीं, नहीं,
वो जेठजी बैठे हैं।’ हर दो मिनट पर झांकती रहेंगी, दबाती रहेंगी, लेकिन
जाएंगी नहीं। जेठजी तो गेट के बाहर गली खड़े होकर करने के लिए भी दो मिनट
नहीं सोचते। बहुएं मरी जाती हैं।
जेठ-बहू को जाने दें तो पढ़ी-लिखी नौकरीपेशा लड़कियों के दिमाग भी कुछ
खास रौशनख्‍याल नहीं हैं। इंदौर में वेबदुनिया में लेडीज टॉयलेट का
रास्‍ता एक बड़े केबिन से होकर गुजरता था, जहां सब पुरुष काम कर रहे होते
थे। वहां भी लड़कियां बाथरूम जाने में संकोच करती थीं। कहतीं,
‘सब बैठे रहते हैं वहां पर, सबको पता चल जाएगा कि हम कहां जा रहे हैं।’
‘अरे तो चलने दो न पता, कौन सा तुम अभिसार पर जा रही हो।’
‘अभिसार मतलब।’
‘अभिसार मतलब रात में छिपकर अपने प्रेमी से मिलने जाना। अभिसार पर जाने
वाली अभिसारिका।’
‘तुम बिलकुल बेशर्म हो।’
‘इसमें बेशर्म की क्‍या बात है। अभिसार में शरमाओ तो समझ में भी आता है।
लेकिन बाथरूम जाने में कैसी शर्म। जो लोग वहां बैठे हैं, वो नहीं जाते
क्‍या।’
‘नहीं यार, अच्‍छा नहीं लगता।’
ऐसे ही इस दुनिया को जाने क्‍या-क्‍या अच्‍छा नहीं लगता। आपकी बाकी चीजें
तो अच्‍छी नहीं ही लगतीं, लेकिन अब आप पानी पीना, बाथरूम जाना भी छोड़
दीजिए। लोगों को अच्‍छा जो नहीं लगता।


ये इतनी स्‍वाभाविक जरूरत है, लेकिन इसके बारे में हम कभी बात नहीं करते।
बच्‍चा पैदा होते साथ ही रोने और दूध पीने के बाद पहला काम यही करता है,
लेकिन औरतों के बाथरूम जाने को लेकर समाज ऐसे पिलपिलाने लगता है मानो
बेहया औरतें भरे चौराहे आदमी को चूम लेने की बेशर्म जिद पर अड़ आई हों।
‘नहीं, हम तो यहीं चूमेंगे, अभी इसी वक्‍त।’
हम कोई अतिरिक्‍त सहूलियत की बात नहीं कर रहे हैं। ऐसा नहीं कि बहुत
मानवीय, उदात्‍त, गरिमामय समाज की डिमांड की जा रही है। प्‍लीज, प्‍यार
कर सकने लायक खुलापन दीजिए समाज में, इतना कि अपने दीवाने को हम चूम
सकें। रात में समंदर किनारे बैठकर बीयर पीना चाहें तो पीने दीजिए।
हल्‍द्वानी-नैनीताल की बीच वाली पहाड़ी पर रात में बैठकर सितारों को
देखने दीजिए। नदी में तैरने दीजिए, आसमान में उड़ने दीजिए। राहुल
सांकृत्‍यायन की तरह पीठ पर एक झोला टांगे बस, Truck, टैंपो, ऑटो,
बैलगाड़ी, ठेला जो भी मिले, उस पर सवार होकर दुनिया की सैर करने दीजिए।
अपनी बाइक पर हमें मनाली से लेह जाने दीजिए और बीच में अपनी नाक मत
घुसाइए, प्‍लीज। प्‍यार की खुली छूट दीजिए या फ्री सेक्‍स कर दीजिए।


ऐसा तो कुछ नहीं मांग रहे हैं ना। बस इतना ही तो कह रहे हैं कि बाथरूम
करने दीजिए। घूरिए मत, ऐसी दुनिया मत बनाइए कि बाथरूम जाने में भी हम
शर्म से गड़ जाएं। इतने पब्लिक टॉयलेट तो हों कि सेल्‍स गर्ल, एलआईसी
एजेंट या हार्डकोर रिपोर्टर बनने वाली लड़कियों को यूरीनरी इंफेक्‍शन
होगा ही होगा, ये बहार आने पर फूल खिलने की तरह तय हो।

प्‍लीज, ये बहुत नैचुरल, ह्यूमन नीड है। इसे अपने सड़े हुए बंद दिमागों
और कुंठाओं की छिपकलियों से बचाइए। सब रेंग रही हैं और हम अस्‍पतालों के
चक्‍कर लगा रहे हैं।


समाप्‍त।

साभार :- मनीषा पांडे के ब्लॉग बेदखल की डायरी से 

Friday 8 March 2013

किन देशों में महिलाओं की कैसी है स्थिति





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ज यानी 8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस है।  आइए जानते हैं‌ कि किन देशों में महिलाओं की कैसी और क्या स्थिति है।

महिलाओं के खिलाफ अपराध
भारत: बलात्कार के 24,206, छेड़छाड़ के 42,968 व यौन उत्पीड़न के 8,570 मामले एवं अन्य सभी को मिलाकर कुल 2,19,062 मामले दर्ज किए गए। (2011 में)

अन्य देश: ब्रिटेन में लैंगिक हिंसा के 45,326, अमेरिका में बलात्कार के 90,750, रूस में 15,770 लैंगिक हिंसा के मामले दर्ज किए गए। (2010 में)

कंपनियों के कार्यकारी अधिकारी के पद पर
भारत: विभिन्न कंपनियों के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के पदों पर 11 फीसदी महिलाएं कार्यरत हैं।
अन्य देश: अमेरिका और ब्रिटेन में तीन प्रतिशत है। (फॉर्च्यून 500 और एफटीएसई 100 की कंपनियों की सूची 2010)

महिला डायरेक्टर
भारत: भारतीय कंपनियों के निदेशक मंडल में 30 फीसदी महिला निदेशक है।
अन्य देश: नार्वे में सबसे अधिक 37 फीसदी जबकि सऊदी अरब में इसकी संख्या 0.23 फीसदी है। अमेरिका में यह संख्या 16.34 प्रतिशत है। (माईहायरिंगक्लब डॉटकॉम द्वारा किए गए सर्वे की 2012 में जारी रिपोर्ट)

संसद में महिलाएं
भारत: निचले और ऊपरी सदन में महिलाओं का कुल प्रतिनिधित्व 10.3 फीसदी।
अन्य देश: सेनेगल में सबसे अधिक 45 प्रतिशत जबकि भूटान में 13.9 फीसदी, और नेपाल में 33.2 फीसदी।
शिक्षा।

शिक्षा में महिलाएं
भारत: देश में 65.46 फीसदी महिलाएं साक्षर है। राज्यों में 93 फीसदी के साथ केरल सबसे अव्वल जबकि बिहार 63 फीसदी के साथ नीचले स्थान पर है। उत्तर प्रदेश में 59.3 फीसदी औरतें साक्षर है।
अन्य देश: लक्जमबर्ग, नार्वे में 100 फीसदी, यूएसए में 99 फीसदी जबकि सामालिया में 25 व अफगानिस्तान में 12.6 फीसदी महिलाएं साक्षर है।

कामकाजी महिलाएं
भारत: 60 लाख महिलाएं (2011 में) कामकाजी है जिसकी औसत आय (प्रति माह) 9,000 रुपये है। वहीं टॉप पांच फीसदी की प्रतिमाह औसत आय 32,000 रुपये है।

रात को घर से बाहर निकलने में सुरक्षा
भारत: 69 फीसदी महिलाएं आने-आप को सुरक्षित मानती है।
अन्य देश: सिंगापुर में 88, इंडोनेशिया में 84, अमेरिका में 62 जबकि ऑस्ट्रोलिया में 51 फीसदी महिलाएं रात को निकलने में सुरक्षित महसूस करती है। (2012 में गैलप द्वारा 143 देशों के 1.80 लाख से अधिक युवाओं पर किए गए अध्ययन के मुताबिक)

घरेलू हिंसा की शिकार महिलाएं
भारत: 1.2 करोड़ कन्या भ्रूणों की हत्या हुई पिछले तीन दशक में। (द लांसेट 2011 की रिपोर्ट), 8,618 दहेत हत्या के मामले दर्ज किए गए। (राष्ट्रीय अपराध सांख्यकी ब्यूरो 2011)
अन्य देश: रूस में 14,000 महिलओं की मौत हुई। (2010)

मातृत्व
भारत: दुनिया भर में मातृत्व की स्थिति से संबंधित सूचकांक में भारत का स्थान 76वां है। 140 महिलाओं में से एक महिला की मौत प्रसव के दौरान हो जाती है। मातृत्व मृत्यु दर प्रति एक लाख बच्चो के जन्म पर 212 है।

अन्य देश: नार्वे शीर्ष स्थान पर जबकि नाइजर सबसे नीचे है। चीन में 1500 महिलाओं और श्रीलंका में 1100 महिलाओं में से एक महिला की मौत प्रसव के दौरान होती है। (80 कम विकसित देशों में किए गए सर्वे/सेव द चाइल्ड की 2012 की सालाना रिपोर्ट)

परिवार नियोजन से अनजान
भारत: 10-20 फीसदी भारतीय महिलाएं परिवार नियोजन से अनजान हैं।
अन्य देश: पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल में 20-30 प्रतिशत जबकि यूगांडा में 41 प्रतिशत महिलाएं परिवार नियोजन के उपायों से वाकिफ नहीं है।

देश में महिलाओं की स्थिति
--देश में 58.65 करोड़ महिलाएं हैं।
--महिलाओं की साक्षरता दर 65.46 प्रतिशत है
--पंचायतों में लगभग 38.87 फीसदी यानी 28.18 लाख चुनी महिलाएं हैं
--विभिन्न कंपनियों के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के पदों पर 11 फीसदी महिलाएं कार्यरत
--मातृत्व मृत्यु दर प्रति एक लाख बच्चों के जन्म पर 212 है।
--भारत के निचले सदन लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 10.8 फीसदी और राज्यसभा में 10.3 फीसदी है।
--बंबई शेयर बाजार में 100 सूचीबद्घ कंपनियों में से 1,112 निदेशकों के पदों में सिर्फ 59 (5.3 फीसदी) पर ही महिलाएं हैं।
--देश में कुल 60 लाख कामकाजी महिलाए हैं जबकि बड़े शहरों में कामकाजी महिलाओं की संख्या 36 लाख है।
--2 करोड़ 70 लाख परिवार ऐसे हैं, जिनकी कमाई महिला पर टिकी है। कुल परिवारों में ऐसे परिवारों की तादाद 11 फीसदी।
--49 लाख ऐसी महिलाएं हैं जो सिंगल मेंबर फैमिली हैं।
--2001 के मुकाबले महिला प्रधान परिवारों की संख्या लगभग 6 फीसदी बढ़ी है।
--70 प्रतिशत महिलाओं के पास अपना बैंक खाता है।
--देश में डीजीपी, स्पेशल डीजी, एडीजीपी, आईजीपी व डीआईजी स्तर के कुल 76 महिला अधिकारी है। वहीं अधिकारी से हेड कांस्टेबल तक में महिलाओं की संख्या 71,756 है।

भारत में महिलाओं को अधिकार
प्लांटेशन लेकर एक्ट: 1951 के प्लांटेशन लेबर एक्ट के तहत किसी भी महिला कर्मचारी की तबियत खराब होने या मातृत्व की स्थिति में मालिक को छुट्टी देने होगी। इस एक्ट के तहत महिलाओं को काम करने के लिए बेहतर माहौल और मेहनताना देने की जिम्मेदारी नियोक्ता को ही है।

स्पेशल मैरिज एक्ट: 1954 में लागू किए गए स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत किसी भी धर्म की व्यक्ति किसी दूसरे धर्म के व्यक्ति से शादी कर सकता है। (जम्मू-कश्मीर को छोड़कर)

मातृत्व लाभ कानून: 1961 में लागू किए गए इस कानून के तहत मां बनने की स्थिति में एक निश्चित समयावधि तक महिला को छुट्टी मिलनी चाहिए साथ ही इस दौरान उसकी नौकरी जारी रहेगी और उसे वेतन भी प्राप्त होगा।

दहेज विरोधी कानून: दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961 के अंतर्गत दहेज लेना और देना दोनों ही अपराध है। इसे 20 मई 1961 को लागू किया गया था।

गर्भपात कानून: 1971 के गर्भपात कानून के तहत किसी भी वजह से महिला का गर्भ किराना कानूनन जुर्म माना गया है। लेकिन इस कानून में कुछ कमियां होने के बाद अप्रैल 1972 में इसमें कुछ बदलाव कर इसे दोबारा मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी एक्ट 1972 के नाम से लागू किया गया।

धरेलू हिंसा: घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण विधेयक, 2005 (2005 के 43) की धारा एक की उपधारा (3) द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए केंद्रीय सरकार ने 26 अक्तूबर 2006 को लागू किया गया।