Saturday 5 September 2015

' बेटों' के प्रति 'अनुकूलित आग्रह' और बेटियों के लिए ' दुरग्रह '


ह शोध -लेख शास्त्र और लोक दोनो ही माध्यमों से ' बेटों' के प्रति 'अनुकूलित आग्रह' और बेटियों के लिए ' दुरग्रह' की व्याख्या कर रहा है- पठनीय .
" जैविक मातृत्व मिथ की तीसरी धारणा- बच्चे को उसकी अपनी माँ ही आवश्यक है, यह पहले से कहीं ज्यादा दमनकारी पहलू है। इस धारणा के तीन अंतर्निहित बिंदु है (1) बच्चे को सामाजिक माँ नहीं बल्कि जैविक माँ की जरूरत होती है। (2 ) नवजात शिशु की देखभाल पिता की अपेक्षा माँ अच्छे से कर सकती हैं। (3 ). बच्चे को अनेक नहीं मात्र एक पालक-पोषक ( जैविक माँ की वरीयता ) की जरूरत होती है। ऐन ओकली दत्तक संतानों के अध्ययनों से यह सिद्ध करती हैं कि सामाजिक माँ भी जैविक माँ जितना ही प्रभावकारी होती हैं। दूसरी धारणा कि माँ पिता की अपेक्षा बेहतर देखभाल करती है, को बेबुनियादी ठहराते हुए ऐन ओकली लिखती हैं कि ' आत्मीय, पारस्परिक व पालन-पोषण का रिश्ता ही बच्चे की पिता अथवा माता से जरूरत का निर्धारक बनता है।' और तीसरी धारणा कि बच्चे को एक पोषिका की जरूरत होती है। एक उदाहरण से ऐन ओकली इसे गैर जरूरी सिद्ध करती हुई सामूहिक समाजीकरण और बहुविकल्पी मातृत्व की महत्ता को रेखांकित करती हैं।
इस तरह ऐन ओकली अपने अध्ययन व तर्कों के आधार पर जैविक मातृत्व को स्त्री की प्राकृतिक आवश्यकता माने जाने को खारिज करती है। इसे वह दमनकारी उद्देश्य से रचित एक मिथ के तौर पर चिन्हित करती हैं। ऐन ओकली की भांति शुलामिथ फायरस्टोन भी जैविक मातृत्व के स्त्री नियंत्रणकारी पक्ष पर लिखती हैं, ' एक पुरुष के लिए उसका संतान उसके नाम, संपत्ति, वर्ग, जाति, पहचान का माध्यम होता है। इसके उलट स्त्री के लिए वहीं संतान घर के भीतर सीमित अस्तित्व का माध्यम बन जाता है।'-"



ब्राह्मणवादी पितृसत्तामक व्यवस्था ने अपनी मजबूती हेतु तमाम तरह के नीति व नियम बना रखे हैं। इस व्यवस्था ने कई तरह की सामाजिक, धार्मिक मान्यताओं को समाज में इस कदर पैबस्त कर रखा है कि जिनके पूरे न होने पर व्यक्ति अपने जीवन को निकृष्ट समझता है, जैसे- पुत्र-प्राप्ति। संपूर्ण हिंदू धार्मिक ग्रंथों में पुत्र प्राप्ति की इच्छायें पुत्र की महत्ता आदि सहस्त्रमुख से वर्णित है, लेकिन पुत्री की कामना कहीं नहीं दिखती। हिंदू विवाह संस्कार का मूल उद्देश्य ही पुत्र-प्राप्ति है। पुत्र से ही वंश-परंपरा आगे बढ़ती है,  इसलिए पुत्र को ' वंशकर'   कहा जाता है।  पुत्र ही पिण्डदान देकर तर्पण आदि करके पितृऋण चुका पाता है इसलिए पुत्र ही इच्छित है, पुत्री नहीं। ऐतरेय ब्राह्मण में पुत्रोत्पत्ति को ही मनुष्य का परम धर्म कहा गया है. ' पुत्र  ब्राह्मण! इच्छध्वं सवै लोकऽवदावदः।' 

पुत्र ही पिता के धार्मिक कार्य का उत्तराधिकारी बनता है। पितृयज्ञ का वास्तविक अर्थ श्राद्ध है और पुत्र ही इस यज्ञ को सम्पन्न कर सकता है। पुत्र शब्द की व्युत्पत्ति ही समाज में इस लिंग - विभेद की असाधारणता को सूचित करती है. ' जो  पितरों को पवित्र कर दे अथवा पुत नामक नरक से बचा ले, वह  पुत्र है।  पुत्रहीन व्यक्ति के पितर पिण्डदान के भविष्यत् अभाव को सोचकर रोया करते हैं।'  पुत्र से पिण्ड और जल के तर्पण पाकर पितरों की आत्माएं सुखी व संतुष्ट रहती हैं। पिण्डदान केवल पुत्र कर सकता है, पुत्री नहीं। सभी आशीर्वादों में पुत्र-प्राप्ति सर्वाधिक लालचपूर्ण है, जिसके लिए हिंदू लालायित रहते हैं, ऐसा इसलिए है कि क्योंकि परिवार में पुत्र का जन्म पिता को मुक्ति दिलाता है।'  मनुस्मृति में पितृवंशात्मक वंशावली के द्वारा व्यक्ति के स्वर्ग-प्राप्ति से इतर भी कई प्रलोभन वर्ण्य हैं। जैसा कि उल्लेखनीय है पिता पुत्र से स्वर्ग आदि उत्तम लोकों को प्राप्त करता है,  पौत्र से उन लोकों में अनंतकाल तक निवास करता है और प्रपोतों से सूर्यलोक को प्राप्त करता है। संतानोपत्ति पूर्व से ही विभिन्न संस्कारों का मूल प्रयोज्य पुत्र प्राप्ति होता है। विवाह संस्कार द्वारा गृहस्थाश्रम में प्रवेशकर पुत्र-प्राप्ति एक महत्वपूर्ण उद्देश्य है,  वहां उपस्थित जन वधु को 'अष्टपुत्रा सौभाग्यवती भव'  कह कर पुत्र होने का आशीर्वाद देते है, पुत्री होने का नहीं। गर्भाधान संस्कार के मंत्र में पुत्र गर्भ की प्रार्थना है। एक अनोखा उत्सव जिसे ष्संस्कारष् की पदवी से नवाजा जाता हैए अर्थात् पुंसवन संस्कार। इस संस्कार में गर्भवती माँ जिसे तीन माह का गर्भ धारण हो चुका है,  उसके भ्रूण को लड़के में बदलने के उद्देश्य से गर्भवती स्त्री के लिए कर्मकांड किए जाते हैं।

हिंदू.परिवारों में पुत्र जन्म के अवसर पर गाये जाने वाले गीतों को सोहर करते हैं। सोहर का प्रचलन संपूर्ण भोजपुरी क्षेत्र के सभी जातियों में  है। सोहर के गीत अपनी सरसता और सौन्दर्य-व्यंजना के लिए प्रसिद्ध हैं। पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत नारी जीवन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपलब्धि पुत्र-प्राप्ति है, यही उसकी सार्थकता भी मानी जाती है। पुरुष-प्रधान परिवार को उसका उत्तराधिकारी प्राप्त होने पर पूरे परिवार व निकटस्थ सम्बन्धीजनों में हर्षातिरेक फैल जाता है। सोहर गीतों में हर्ष उल्लास का वातावरण, दान, ननद का नेग आदि वर्ण्य विषय होते हैं।

शास्त्र-सम्मत गर्भाधान, पुंसवन संस्कार से इतर महिलाओं के अपनेव्रत-पूजा-अनुष्ठान हैं,  जोकि मनोकांक्षा प्राप्ति हेतु किए जाते हैं। वैदिक कर्मकाण्ड व स्मृतिकारों के संस्कारिक विधानों से अलहदा महिलाओं ने अपने अनुष्ठान रचे हैं। एकादशी व्रत,  गंगा-स्नान,  तुलसीपूजा, रविवार व्रत इत्यादि पुत्र-प्राप्ति हेतु महिलाओं द्वारा किये जाने वाले धर्म-कर्म हैं। जैसा कि एक सोहर में सूर्य की आराधना का महत्व वर्णित है। कौशल्या को कोई संतान नहीं है। उनकी उम्र बीती जा रही है और वे दुःखी हैं। अपनी सास से वे पुत्र-प्राप्ति का उपाय पूछती हैं। उनसे सूर्य भगवान की आराधना का महत्व सुनकर वह विधिपूर्वक सूर्य की आराधना करती हैंए परिणामस्वरूप उन्हें राम जैसे पुत्र की प्राप्ति होती है।  इसी प्रकार निम्नलिखित सोहर में एकादशी व्रत, सूर्य की आराधना, ब्राह्मण-भोजन, माघ-स्नान आदि का महत्व वर्णित है.

ओहि रे अजोधेया में राम जनमलें,  अजोधा आनंदले हो।
ललना, अजोधा में बाजेला बधावा,  महल उठे सोहर हो
ए बहिनी, कवन वरत तुहूँ कइलू,  त रमइया बड़ा सुन्नर हो।
कातिक कइली एकादसी, दोआदसी के पारन हो।
ललना, अगहन कइली अतवार त रामफल पइली हो।
माघहि मास नेहइली एअगिन नाहिं तपलीं हो।
बहिनी, बइसाख मास बेनिया ना डोलइली त रामफल पइली हो।
बहिनी, भूखल बाभन जेवइली,  त राम फल पइली हो।

उपरोक्त व्रत-अनुष्ठान महिलाओं के वैकल्पिक कर्मकाण्डों को रेखांकित करते हैं, जहाँ वे प्रमुख भूमिका में हैं न कि शोभा की वस्तु के मानिंद। यद्यपि इनका भी मूल प्रयोज्य पितृवंशात्मक वारिस तक ही सिमट जाता है। स्पष्टतया स्त्रियाँ पितृसत्तात्मक मान्यताओं से अनुकूलित ही नहीं बल्कि उसके संवाहक के रूप में परिलक्षित होती हैं। पितृसत्तात्मक परिवार में हैसियत,  मान- सम्मानए सुख- सुविधाओं का निर्धारक स्त्री का पुत्रवती होना माना जाता है। पुत्रवती हुए बिना स्त्री दमन-यातना-उलाहना का ही शिकार मात्र नहीं होती बल्कि निरवंशिया व अपशकुनी से होते हुए डायन बनाने तक की पितृसत्तात्मक सामाजिक धारणाएं स्त्री-जीवन की नियंता बन बैठती हैं। इसलिए जिन स्त्रियों के पुत्र नहीं होते,  उनकी दशा समाज में बहुत उपेक्षित होती। वह बांझ कही जाती हैं। सोहर में 'बाँझ'  स्त्री की मनोव्यथा भी बड़े स्तर पर मुखरित है। निर्धनता और पुत्रहीनता लोक.जीवन में एक-दूसरे के पर्यायवाची बन गए हैं। पुत्र का जन्मना या पुत्र-प्राप्ति सम्पन्नता का द्योतक माना जाता है। अथर्ववेद में निरपत्यता के बारे में कहा गया है कि यह दुःख दुश्मनों को भी न भोगना पड़े।  शास्त्रों ने नारी जीवन की मात्र तीन उपलब्धियों को ही अधिकाधिक महत्व दिया है-संतानोत्पादन,  धर्म का पालन और रतिफल देना। शतपथ ब्राह्मण संतानहीन स्त्री को महादुखों से जकड़ी हुई कहता है।

पितृसत्तात्मक व्यवस्था में मातृत्व के द्वारा ही स्त्री अपना अभीष्ट पद व प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकती है। वे महिलाएँ जो संतान पैदा करने में अक्षम होती हैं,  उनकी यह अक्षमता यातना और दुःख का कारण बन जाती है। पितृसत्तात्मक धार्मिक आचार-संहिताएं हर स्त्री से माँ बनने की अपेक्षा करती हैं,  साथ ही मातृत्व को औरत के जीवन की महान अनिवार्यता के तौर पर महिमामंडित करती हैं। अतः अनुकूलीकरण की प्रक्रिया द्वारा स्त्री में मातृत्व-भाव को स्थापित किया जाता है। मातृत्वविहीन स्त्री अपने जीवन को व्यर्थ व अधूरा समझने लगती है। रेडिकल नारीवाद मातृत्व के महिमामंडन, प्रजनन,  यौनता पर पुरूषों की नियंत्रणकारी भूमिका को स्त्री-अधीनस्थता का मूल कारण मानती है। वह मातृत्व के पुरुषोचित संस्थाबद्धता को स्त्री उत्पीड़न का आधार मानती है। रेडिकल नारीवाद की अग्रणी ' शुलामिथ फायरस्टोन' ऐतिहासिक संदर्भ में मातृत्व अथवा प्रजननक्षमता को ही महिलाओं की अधीनता के जड़ रूप में चिन्हित् करती हैं। गर्भधारण,  प्रजनन व पालन- पोषण की समस्याएँ महिलाओं को प्राकृतिक रूप से कमजोर समझने को विवश करती हैं। शुलामिथ लिखती है, '  इन्हीं समस्याओं के फलस्वरूप उन्हें पुरूषों पर आश्रित होना पड़ा,  जिस आश्रय-निर्भरता का लाभ लेते हुए स्त्री अधीनीकरण का सार्वभौम ढांचा निर्मित कर दिया गया है,  यद्यपि इस निर्भरता के मूल में निहित जीववैज्ञानिक कारण बीत चुके हैं।'  शुलामिथ ने नारीवाद को मातृत्व से मुक्ति की नई प्रस्थापना दी। रेडिकल नारीवाद स्त्री को आरोपित मातृत्व व यौन गुलाम के शिकार के तौर पर विश्लेषित करता है और इसे नारीवाद के आधार व प्रस्थान बिंदु के तौर पर स्थापित करने का उपक्रम करता है। मातृत्व का धर्मशास्त्रीय व सांस्कृतिक महिमामंडन,  बच्चों  के पालन-पोषण का संपूर्ण दायित्व स्त्री के कंधे पर डाला जाना स्त्री की अधीनस्थ स्थिति का मुख्य कारण रहा हैं। ऐन ओकली के अनुसार पितृसत्तात्मक समाज के प्रसार में तीन मिथक बेहद प्रभावी रूप में दिखते हैं. (1 ) सभी  स्त्रियों हेतु मातृत्व आवश्यक है। (2)  सभी स्त्रियों के लिए उनकी अपनी संतान आवश्यक है। (3 )  सभी बच्चों के लिए उनकी अपनी माँ आवश्यक हैं।


हर स्त्री हेतु मातृत्व आवश्यक है,  इस धारणा को लड़कियों के समाजीकरण और प्रचलित मनोविश्लेषक सिद्धांत द्वारा प्रदत्त किया जाता है। माता-पिता द्वारा लड़कियों को गुडि़या (खिलौना )  देकर उनमें मातृत्व-भाव उद्भुत किया जाता है। विद्यालय धर्म-संस्थाएं,  ग्रन्थ एंव जनसंचार माध्यमों द्वारा मातृत्व का महिमामंडन किया जाता है। इसी प्रकार मनोवैज्ञानिक व चिकित्साविदों द्वारा मातृत्व के अभाव को एबनार्मल माना जाता है। अतः इनके द्वारा मातृत्व को आरोपित कर स्त्री को 'वस्तु '  में तब्दील करने का उपक्रम किया जाता हैं। इस प्रकार स्त्री अपनी मूल्यवत्ता मातृत्व में ही देखने लगती है। पितृसत्तात्मक तंत्र द्वारा स्त्री को मातृत्व हेतु सामाजिक व सांस्कृतिक रूप से अनुकूलित किया जाता है। इसी तरह दूसरा मिथ हर  स्त्री को अपने संतान की आवश्यकता होती है- मातृत्व ग्रंथि की धारणा पर केंद्रित है। जिसकी पूर्ति न होने पर स्त्री एकाकीपन व अवसाद में चली जाती है। ऐन ओकली ने एक सौ पचास प्रथमतः माँ बनी स्त्रियों पर अपने अध्ययन द्वारा यह प्रस्थापना दी कि मातृत्व की ग्रंथि भी सांस्कृतिक तौर पर निर्मित होती है। माँ की योग्यताएं भी स्वतः नहीं बल्कि अपने परिवेश से सीखी हुई अथवा समाज द्वारा सिखाई जाती हैं। इसी प्रकार वह यह निष्कर्ष देती है कि ' माँ पैदा नहीं होती बल्कि पैदा की जाती है।'

जैविक मातृत्व मिथ की तीसरी धारणा-  बच्चे को उसकी अपनी माँ ही आवश्यक है,  यह पहले से कहीं ज्यादा दमनकारी पहलू है। इस धारणा के तीन अंतर्निहित बिंदु है  (1)  बच्चे को सामाजिक माँ नहीं बल्कि जैविक माँ की जरूरत होती है। (2 )  नवजात शिशु की देखभाल पिता की अपेक्षा माँ अच्छे से कर सकती हैं।  (3 ). बच्चे को अनेक नहीं मात्र एक पालक-पोषक  ( जैविक माँ की वरीयता )  की जरूरत होती है।  ऐन ओकली दत्तक संतानों के अध्ययनों से यह सिद्ध करती हैं कि सामाजिक माँ भी जैविक माँ जितना ही प्रभावकारी होती हैं। दूसरी धारणा कि माँ पिता की अपेक्षा बेहतर देखभाल करती है,  को बेबुनियादी ठहराते हुए ऐन ओकली लिखती हैं कि ' आत्मीय,   पारस्परिक व पालन-पोषण का रिश्ता ही बच्चे की पिता अथवा माता से जरूरत का निर्धारक बनता है।'  और तीसरी धारणा कि बच्चे को एक पोषिका की जरूरत होती है। एक उदाहरण से ऐन ओकली इसे गैर जरूरी सिद्ध करती हुई सामूहिक समाजीकरण और बहुविकल्पी मातृत्व की महत्ता को रेखांकित करती हैं।
इस तरह ऐन ओकली अपने अध्ययन व तर्कों के आधार पर जैविक मातृत्व को स्त्री की प्राकृतिक आवश्यकता माने जाने को खारिज करती है। इसे वह दमनकारी उद्देश्य से रचित एक मिथ के तौर पर चिन्हित करती हैं। ऐन ओकली की भांति शुलामिथ फायरस्टोन भी जैविक मातृत्व के स्त्री  नियंत्रणकारी पक्ष पर लिखती हैं,  ' एक  पुरुष के लिए उसका संतान उसके नाम, संपत्ति,  वर्ग,  जाति,  पहचान का माध्यम होता है। इसके उलट स्त्री के लिए वहीं संतान घर के भीतर सीमित अस्तित्व का माध्यम बन जाता है।'   इस प्रकार रेडिकल नारीवाद जैविक मातृत्व के पूरे सोच को औरत के दमन का आधार मानता है। इसी सोच के कारण नारीत्व और पुरुषत्व के दो रूप निर्मित किए जाते हैं। जिनका अलग-अलग दोहरा खांका - पुरुषसम्मत व स्त्रीसम्मत गुण हैं  । यह लैंगिक आघार पर घरेलू व बाहरी क्षेत्रों का विभाजन  करके पितृसत्तात्मक व्यवस्था हेतु कारगर उपकरण की भाँति कार्य करता है। जो घर की चौहद्दी एवं घरेलू जटिल व अनार्थिक मूल्य के कार्यों हेतु औरत को पीढी दर पीढी निर्धारित व आजीवन समर्पित कर देता है।

जैविक मातृत्व के मिथक से संचालित स्त्री की अभिव्यक्ति सोहर में बहुतायत मात्रा में मौजूद है। बांझ होने पर सामाजिक उपेक्षा का दंश झेलती स्त्री की वेदना और जैविक मातृत्व की प्राप्ति हेतु विभिन्न व्रत-अनुष्ठानों की महत्ता  सोहर गीतों में वर्ण्य है। जिनका अनुपालन कर बांझ स्त्री भी गर्भवती हो जाती हैं। ये व्रत-अनुष्ठान स्त्री-निर्मित अनुष्ठानिक परंपरा को रेखांकित करते हैं, परंतु इनका प्रयोजन मातृत्व के अभिष्ट लक्ष्य की पूर्ति हेतु ही साधन-रूप भर  वर्ण्य है। सोहर में गर्भस्थ शिशु से मां का एकात्म रिश्ता, शिशु का पालन-पोषण व हंसना-खेलना इत्यादि प्रसंग प्राप्य हैं। पितृसत्तात्मक उद्देश्यों से इतर मातृत्व की स्वाभाविक व सुखद अनुभूति और शिशु से माँ का भावनात्मक रिश्ता भी सोहर गीतों में वर्ण्य है। इसी प्रसंग के क्रम में कई ऐसे भी संदर्भ हैं,  जिनसे प्रसव-पीड़ा से व्याकुल स्त्री पति को इस पीड़ा में भी साझीदार होने को कहती है और पति उसे संतान प्राप्ति हेतु इतनी तकलीफ सहने का ढांढ़स बंधाता हुए प्रसव-वेदना सहने के लिए सान्त्वना देता है। ये गीत मातृत्व के सामाजिक व सांस्कृतिक मिथकों से प्रयाण करते हुए प्रजनन प्रक्रिया के जैविकीय धरातल पर स्त्री के समझ व सजगता को निरूपित करते हैं। जो संतान व शिशु के प्रति स्त्री के एकतरफा दायित्व-बोध  को विस्तृत तौर पर इंगित करते हुए पुरुष साझेदार की भूमिका निर्वाहन को संबोधन है।


हिन्दू शास्त्रों व धर्मग्रन्थों में पुरुष को बीज और स्त्री को धरती के रूपक में व्याख्यायित किया गया है। सन्तति सृष्टि की प्रक्रिया में पुरुष श्रेष्ठता ही प्रतिपादित की गई है। प्राचीनकालीन एवं कालांतर के संस्कृत ग्रन्थों में,  जो विधि,  समाज और संस्कार से संबंधित हैं -  स्त्री के खेत में पुरुष का बीज गिरने की अवधारणा स्पष्टतया उल्लेखित है। अथर्ववेद के एक श्लोक में कहा गया है, ' वास्तव  में पुरुष में बीज का विकास होता है। उसे स्त्री के भीतर डाल दिया जाता है। वही पुत्र प्राप्ति है।'  इसी प्रकार नारद स्मृति में उल्लेखित है- 'स्त्रियाँ  सन्तानोत्पत्ति के लिए बनाई गई हैं, जो खेत है और पुरुष बीज का मालिक।'   ' बीज'  पिता के योगदान का और ' धरती '  माँ की भूमिका के प्रतीक रूप में शास्त्रों व संस्कारों में वर्ण्य है। पुरुष बीज के दृारा संतान की रचना का सत्व प्रदान करता है। इसलिए जहाँ तक कुल निर्धारण का सवाल है, बच्चे की पहचान उसके पिता द्वारा होती है। माँ की भूमिका गर्भ में आये तत्व की वृद्धि करना है। वह अपने रक्त के माध्यम से ऊष्मा और भोजन प्रदान कर उसके विकास में सहायता करती है। यह प्रक्रिया लंबी है और प्रसव के साथ समाप्त नहीं हो जाती। माँ अपने दूध से बच्चे का पोषण करती है। उसकी भूमिका पोषिका की है। विभिन्न ग्रन्थों में स्त्री पुरुष के संतान प्राप्ति की मात्र वाहिका रूप में वर्णित है। महाभारत का एक प्रसंग उल्लेखनीय है,  जिसमें राजा दुश्यंत शकुंतला का तिरस्कार करते हुए उसे अपना पुत्र ले जाने को कहते हैं। इस पर शकुंतला तर्क देती है, पत्नी के गर्भ में प्रवेश करने वाला पुरुष पुत्र के रूप में स्वयं बाहर आ जाता है। उसी समय आकाशवाणी होती है,  ' माँ तो मांस का आवरण है,  पिता से उत्पन्न होने वाला पुत्र वास्तव में स्वयं पिता का ही रूप है'  ( महाभारत के आदिपर्व के चौदहवें खंड में) ।

प्राचीन काल से भारत में मानव प्रजनन प्रक्रिया को स्त्री-खेत में पुरुष-बीज के अंकुरण के संदर्भ में समझा और अभिव्यक्त किया गया है। हिंदू वैवाहिक कर्मकांडों में बीज और खेत के प्रतीक बार-बार आते हैं। वैवाहिक कर्मकांडों के अनेक धार्मिक कृत्यों में पति ( बीज देने वाला )  के प्रति पत्नी के समर्पण,  निष्ठा,  दृढ़ता आदि मूल्यों पर जोर दिया जाता है। वैवाहिक कर्मकांड के दौरान विविध अवसरों पर उच्चारित श्लोकों में अंतर्निहित आशीर्वादोंए कामनाओं और अपेक्षाओं में पुत्र.जन्म का महत्व स्पष्ट हो जाता है। वर के द्वारा कहे जाने वाले ऐसे दो श्लोक निम्नवत् हैं ।
' इसे इच्छानुसार वैभव,  (दीर्घ आयु, समृद्धि और दस पुत्रों का शुभ और गौरवपूर्ण आशीर्वाद प्राप्त हो। हे इन्द्र,  हे सवितृ,  वह गौरव, जो इस पुत्रहीनता की स्थिति समाप्त करे,  शीघ्र इसे दो। ( वैखानस गृह्यसूत्र,  3-4)
' तुम्हारे  गर्भ में पुरुष भ्रूण उसी तरह प्रवेश करे जैसे तरकश में तीर,  एक पुत्र दस माह बाद जन्म ले और इस तरह अनेक पुरुष उत्पन्न हों।'  ( सांख्यायन गृह्यसूत्र, 1-19-6) 

खेत-बीज रूपक एवं पुत्र-प्राप्ति कामना को वैवाहिक अनुष्ठान तथा अन्य महत्वपूर्ण अवसर पर उच्चारित मंत्रों-पाठों में सुना जा सकता है। समाज में संतान को जन्मदात्री माँ के नाम से न जाकरए पिता के नाम से जाना जाता है। इस परंपरा से दुःखी स्त्री कहती है:

पीर हमनें खायी 
सइयाँ के लाल कैसे कहाई
आओ सास रानी बैठो पलंग चढ़
हमरा झगड़ा छुड़ाओ सइयाँ के लाल
कितनो बहू लड़बू कितनो झगड़बू
बेटवा बापे के कहाई
तोहार लाल कैसे कहाई।

प्रचलित सामाजिक संरचना की यह अनिवार्य परिणति है, जहाँ गर्भाधान में पुरुष के नाम का महत्व होता है। गर्भाधान संस्कार के समय होने वाले अनुष्ठानों व कर्मकाण्डों में पुरुष का शिशु पर अधिकार स्पष्टतया ध्वनित होता है। आदिम समाज में गर्भाधान में पुरुष की विशिष्ट भूमिका नहीं मानी जाती थी। पितृसत्तात्मक संस्थाओं के विकास के साथ पुरुष अपनी संतति पर  अधिकार का दावा करने लगा और स्त्री की भूमिका मात्र पालिका-पोषिका तक सीमित कर दी गई । अपनी विशिष्ट जैविक स्थिति के कारण पुरुष गर्भ की जिम्मेदारी से मुक्त हो जाता है। शुलामिथ फायरस्टोन जैसे रेडिकल नारीवादी गर्भधारण को जंगली प्रवृत्ति कहते हुए शुक्राणु व डिम्ब से जन्में शिशु हेतु अंधप्रेम को सामाजिक न्याय की दृष्टि से बाधक मानती हैं।  इसी प्रकार गर्भाधान को नाटक करार देते हुए सिमोन द बोउवार लिखती हैं , ' गर्भाधान एक प्रकार का नाटक है,  जो स्त्री के शरीर के भीतर ही खेला जाता है। स्त्री को एक साथ सम्पन्नता और आहत का अनुभव होता है। भ्रूण उसके शरीर का एक अंश होता है। भ्रूण एक परजीवी जीव है, जो स्त्री से अपना पोषण प्राप्त करता है। वह संतान को अपने वश में रखती है और स्वयं संतान द्वारा अधिकृत कर ली जाती है। संतान द्वारा भविष्य में अपने प्रतिनिधित्व की आशा से गर्भधारण करके स्त्री अपनी सांसारिक महानता का अनुभव करती है। महानता का यह अनुभव ही स्त्री का विनाश कर देता है। उसे नगण्यता का अनुभव होता है। अपने गर्भ से बाहर आकर पृथक अस्तित्व ग्रहण करने वाले जीव पर गर्व करने के बावजूद स्त्री अनुभव करती है कि कोई उसे उसके स्थान से भगा रहा है। ऐसा लगता है कि वह अदृश्य शक्तियों के हाथों का खिलौना हो गई है। यह विशेष ध्यान देने योग्य है कि ठीक उसी समय जबकि गर्भवती स्त्री सर्वोपरि हो उठती हैए वह अपने को विश्वव्यापी रूप में देखती है। वह अपने लिए अपना अस्तित्व नहीं रखती।ष्  अतः रेडिकल नारीवाद स्त्री उत्पीड़न के मूल में उसकी प्रजननकारी भूमिका को देखता व समझता रहा हैं। शुलामिथ फायरस्टोन स्त्री उत्पीड़नकारी व्यवस्था के खात्मे हेतु प्रजनन को स्त्री द्वारा त्याग करने का प्रस्ताव रखती है। उनका कहना है कि तकनीकी क्रांति से ग्लास के डिबों में गर्भधारण व गर्भावस्था की पूरी प्रक्रिया की जा सकती है। तकनीकी प्रणाली से जैविक मातृत्व की पितृसत्तात्मक संरचना व मिथक को प्रायः समाप्त किया जा सकता है।  यद्यपि बाद की रेडिकल नारीवादी इन अतिरेकों से प्रयाण करते हुए इस प्रस्थापना बिंदु पर पहुँची कि स्त्री के गर्भधारणा की क्षमता उसके विकास में बाधक नहींए अपितु प्रजनन व शिशु.संरक्षण पर पुरूषों का सीधा नियंत्रण बाधक है। इसी आधार पर एजिजा.एल.हिबरी शुलामिथ फायरस्टोन की आलोचना करते हुए लिखती हैं कि. ष्महिलाओं के अपने प्रजननकारी भूमिका को त्याज्य कर देने परए वह एक मुख्य तत्व छोड़ देगीए जिसके लिए पुरुष उन पर निर्भर है।ष्  स्त्री की शारीरिक रचना जीवन के नैरन्तर्य को बनाए रखने की दृष्टि से हुई हैए अतः पुरुष उन पर पूर्णतयाः निर्भर है। अतः इसे कमजोरी के तौर पर नहीं अपितु ताकत व हथियार के रूप में स्त्रियों द्वारा उपयोग करने की जरूरत है। स्त्रियों के गर्भधारणए प्रजनन व मातृत्वए शिशु के पालन.पोषण के संदर्भ में अपने निर्णय व अधिकार होने चाहिए न कि पुरुष तय करें कि उसे कब और कितने बच्चे चाहिएए उनकी परवरिश कैसे व किस तरह होघ् यह समूचा क्षेत्र महिलाओं के निर्णय व स्वेच्छा पर आधारित होना चाहिए। पुरुष.प्रधान व्यवस्था अपने नियंत्रणकारी निर्देशों के बल पर मातृत्व को एक अजनबीपन अनुभव में तब्दील कर देता है। समाजवादी नारीवादी एलीसन जैगर समकालीन समय में महिलाओं के अलगावध्पार्थक्यकारी स्थिति को विश्लेषित करते हुए लिखती हैं कि 'महिलाएं  पुरुष के नियंत्रणकारी आदेशों व निर्देशों के कारण जहाँ पुनरूत्पादन श्रम से पार्थक्य स्थिति में रहीं है, वहीं नई पुनरूत्पादन तकनीकी भी प्रजनन.प्रक्रिया से उनका पार्थक्य सुनिश्चित करने की दिशा में अग्रसर है। शुलमिथ फायरस्टोन  के अतिरेकपूर्ण मंतव्य अंततः जैविक निर्धारणवाद विचार प्रणाली के ही शिकार हो जाते हैं। जैविक निर्धारणवाद के आधार पर ही पुरुष प्रधान व्यवस्था अपने वर्चस्व को प्राकृतिक व स्वाभाविक सिद्ध करता रहा है। जैविक मातृत्व के अंतनिहित पुरुष वर्चस्वशाली उद्देश्यों से विलग होकर इसे स्त्री द्वारा अलग स्वरुप से गढा जाना चाहिए। पुनरूत्पादन एंव संतति के पालन-पोषण पर स्त्री का अधिकार व उसके रीति.नियम होने चाहिएए जो किसी भी पितृसत्तात्मक सामाजिक प्रभावों से मुक्त हो। ऐड्रिन रिच जैविक मातृत्व के पितृप्रधान संस्थानिक स्वरूप की आलोचना करती है। वह गर्भावस्था व संतति पालन.पोषण के आनुभविक आधार पर जैविक मातृत्व को प्रतिष्ठित करती हैंए बशर्ते स्त्री को पुनरूत्पादन व संतति पालन -पर स्वयं का अधिकार हासिल हो। जिससे वह बच्चों का नारीवादी मूल्यों के आधार पर पालन-पोषण कर सकें।
समाज में स्त्री का पुत्रवती होना गर्व का विषय समझा जाता हैं। पुत्र.जन्म पर परिवार में हर्षोल्लास का वातावरण होता है और सोहर गाये जाते हैं। पुत्र ही पितृवंशात्मक उत्तराधिकारी होता है। निजी संपत्ति का वारिस होने के कारण उसकी निर्विवाद महत्ता है। जो पुत्री की अपेक्षा उसकी श्रेष्ठ स्थिति को दर्शाता है। वहीं सांस्कृतिक व धार्मिक मान्यता के अनुसार पुत्र ही मां.बाप के श्राद्ध.तर्पण का अधिकारी होता हैं। पुत्र द्वारा श्राद्ध.तर्पण करने पर ही मां.बाप की आत्माएं मुक्त होती हैं। पितरों की आत्माएं पुत्रों से ही पिण्ड व जल ग्रहण कर सुखी और संतुष्ट होती हैं। अतः पुत्र की प्रबल.कामना सोहर गीतों में वर्ण्य है। जबकि पुत्री.जन्म पर दुःख व विशाद का वातावरण होने के कारण सोहर नहीं गाया जाता। पुत्री जन्म पर प्रसूता की उपेक्षित स्थिति निम्नवत् वर्ण्य है:


जइसन दहे में के पुरइनि दहे बिचे काँपेले रे।
ए ललना ओइसन कॉपेले हमरो हरि जीए घिया कारे जनमु रे।
कुस ओढ़न कुस डासनए बन फल भोजन रे।
ए ललना खुखुड़ी के जरेला पसगिया निनरियौ ना आवेला रे।। 
( जिस प्रकार तालाब के बीच में स्थित पुरैन का पत्ता कांपता रहता है,  उसी प्रकार से मेरा पति पुत्री का जन्म होने से कांपता रहता है अर्थात् डरता है। दुर्भाग्य से यदि लड़की पैदा हो जाती है तो वह कुश ओढ़ने और कुश ही बिछाने को देता है। वन के फूल भोजन करने को देता है। बुरी लकड़ी जलाने के लिए देता है, जिससे मुझे नींद नहीं आती। )
लोक में ऐसी मान्यता है कि लड़की के पैदा होते ही पृथ्वी तीन हाथ नीचे दब जाती है। जिस स्त्री को लड़की पैदा होती है,  वह प्रसव-पूर्व के दैवीय '  पदवी से पदच्युत करके उपेक्षित व बहिष्कृत कोटि में खड़ी कर दी जाती है। उसको वस्त्र, भोजन भी बदतर दिया जाता है। सास-ससुर, ननद व पति द्वारा उपेक्षापूर्ण व्यवहार व यातना दी जाती है। कन्या जन्म पर ससुराल वालों का कठोर व्यवहार निम्नवत् गीत में उदाहरणार्थ प्रस्तुत है:
बिटिया के भइल ससुरा सुनले।।
हथवन से छूट गइल लठीया।
बिटिया के भइल जेठवा सुनले।।
हथवन से छूट गइल घडि़या।
आज बहूरानी के हो गइल बिटिया।।

देश के कई क्षेत्रों में पुत्री के जन्म लेते ही मार डालने की परंपरा रही है। कन्या शिशु हत्या की यह परंपरा उच्च वर्णों,  खासकर क्षत्रियों में प्रचलित रही है। जिसका जिक्र ललिता पाणिग्रही ने अपनी पुस्तक '  ब्रिटिश सोशल पॉलिसी एंड फीमेल इनफैटिसाइड इन इण्डिया. में विस्तार से किया है। आधुनिकयुगीन अल्ट्रासाउण्ड परीक्षणों के अभाव में पंडितों व ज्योतिषियों की बड़ी पूछ होती थी, जो पुत्र या पुत्री जन्म की भविष्यवाणियां किया करते थे। पुत्री-जन्म से व्यथित स्त्री एक सोहर में कहती है कि ' यदि  मुझे पूर्व में पता होता तो मैं झरार काली मिर्च खाकर गर्भावस्था में तुम्हारा जीवन खत्म कर देती।'   भ्रूण लिंग-परीक्षण कानूनी तौर पर प्रतिबंधित होने के बावजूद हालिया दशक में कन्या भ्रूण हत्या की कुप्रथा शहर व गांव में तेजी से विस्तारित हुई है। उच्चवर्ग के साथ-साथ निम्न मध्यवर्ग भी इस जघन्य अपराधिक कृत्य में शरीक हो चुका हैं। कन्या को परिवार हेतु एक बड़ा आर्थिक बोझ समझा जाता है। इसी आर्थिक बोझ,  यानि दहेज से मुक्ति , का रास्ता कन्या भ्रूण हत्या , शिशु  हत्या माना जाता रहा है। उदाहरणार्थ. एक सोहर का हिन्दी भावार्थ हैं. ' ऐ बेटी जिस दिन से तुम्हारा जन्म हुआ है उस दिन से मुझे भादव की रात ही दिखाई पड़ती है। सास व ननद सूतिका गृह में दीपक भी नहीं जलातीं और पति भी कुबोल बोलता है। जब तुम्हारा विवाह होगा, तुम्हारी माँग में सिन्दूर पड़ेगा और दूल्हा नव लाख रूपये दहेज में मांगेगा,  तो मैं (गरीब होने के कारण) घर के सारे बर्तन उसे देने के लिए आंगन में पटक दूंगी। शत्रु को भी कभी लड़की न पैदा हो। यदि मैं जानती कि लड़की पैदा होगी तो मैं काली-मिर्च पीसकर पी जाती, उस मिर्च की गरमी से तुम मर जाती और मेरा पुत्री-जन्म से उत्पन्न बड़ा दुःख छूट जाता।'

पितृसत्तात्मक व्यवस्था में प्रचलित दहेज की लैंगिक विभेदी परिपाटी के कारण पुत्री परिवार में बोझ सदृश्य हो जाती है। पुत्र जन्म पर जहाँ परिवार में हर्षोल्लास व पुत्रवती की देखभाल व पूछ होती हैं। वहीं पुत्री का जन्म परिवार की चिन्ता व विषाद का कारण बन जाता हैं और पुत्रवती स्वयं को संकटग्रस्त समझने लगती है। दहेज प्रथा के कारण पुत्री जन्म अभिशाप का रूप घारण कर चुका है। नारी जीवन की यह सबसे बड़ी त्रासदी है कि मातृत्व को लालायित स्त्री पुत्रीजन्म को ही स्वयं एवं परिवार पर सबसे बड़ा अभिशाप व आपदा मान बैठती