Thursday, 14 March 2013

We all shit, we all pee but never talk about it


गर मैं ठीक-ठीक याद कर पा रही हूं तो ये पिछली गर्मियों की किसी
तपती दोपहरी वाले दिन घटी घटना है। मैं घर में अकेली थी कुछ-कुछ फुरसतिया
मूड में कभी इधर, कभी उधर बैठकर टाइम पास करती। तभी दरवाजे की घंटी बजी।
दरवाजे पर दो महिलाएं खड़ी थीं। मेरे दरवाजा खोलते ही धुआं छोड़ने वाली
150 सीसी पल्‍सर की रफ्तार से शुरू हो गईं।
‘मैडम हम फलां कंपनी की तरफ से आए हैं, फलां फेयरनेस क्रीम और साबुन और
शैंपू जाने क्‍या-क्‍या तो बेच रहे हैं। एक डेमो देना चाहते हैं।’
मैंने उनकी बात खत्‍म होने से पहले ही अपने रूटीन बेहया लहजे में कहा,
‘नहीं, नहीं, नहीं चाहिए। हम पहले से ही बहुत ज्‍यादा फेयर हैं। क्रीम
लगाएंगे तो करीना कपूर छाती पीटकर रोएगी। उसके रूप के साथ हम अन्‍याय
नहीं कर सकते।’
मजाक नहीं, मैंने सचमुच ऐसा ही कहा। (मैं काफी बदजबान हूं और कब कहां
क्‍या बोल दूं, मुझे खुद भी पता नहीं होता।)
दोनों थोड़ा इमबैरेस सी हुईं, लेकिन फिर मेरे चेहरे पर शरारती मुस्‍कान
देखकर हंसने लगीं। अबकी मैंने फाइनल डिसीजन सुना दिया, ‘Look mam, I am
not interested. ’

मुझे लगा कि अब वो लौट जाएंगी और किसी और का दरवाजा खटखटाकर सुंदर होने
के नुस्‍खे बताएंगी। लेकिन वो कुछ मिनट और खड़ी रहीं। दोनों ने एक ही रंग
और डिजाइन की साड़ी पहन रखी थी। दिखने में पहली ही नजर में कहीं से
आकर्षक नहीं जान पड़ती थीं, लेकिन बरछियां बरसाती बदजात दोपहरी में
दरवाजे-दरवाजे भटकना पड़े तो करीना कपूर भी दस दिन में कोयला कुमारी नजर
आने लगे। वो मेरी तरह कूलर की हवा में बैठकर तरबूज का शरबत पीती होतीं तो
निसंदेह उनकी त्‍वचा इतनी खुरदुरी नहीं लगती।

मैं दरवाजा बंद करके पीछा छुड़ाना चाहती थी, लेकिन वो मेरी रुखाई के
बावजूद एकदम से पलटकर दोबारा कभी मेरा मुंह भी न देखने को उद्धत नहीं जान
पड़ीं। उनकी आंखों ने कहा कि वो कुछ कहना चाहती हैं, लेकिन संकोच की कोई
रस्‍सी तन रही है।
हम दोनों ही कुछ सेकेंड चुपचाप खड़े रहे।
फिर जैसे बड़ी मुश्किल से उनमें से एक हिम्‍मत जुटाकर बोली, ‘मैम, हम
आपका बाथरूम यूज कर सकते हैं।’
मुझे उनकी बात समझने में कुछ सेकेंड लगे। फिर बोली, ‘हां जरूर, शौक से।
प्‍लीज, अंदर आ जाइए।’

दोनों कमरे की ठंडी हवा में आकर सुस्‍ताने लगीं। एक-एक करके बाथरूम गईं,
मुंह पर पानी के छींटे डाले। मैंने तरबूज का शरबत उन्‍हें भी ऑफर किया।
दोनों चुपचाप बैठकर शरबत पीने लगीं और उस पूरे दौरान हुई बातचीत से उनके
मुतल्लिक कुछ ऐसी जानकारियां हासिल हुईं।

वो किसी कंपनी में डेली वेजेज पर काम करती थीं, सुबह दस से शाम छह बजे तक
और शाम को मिलने वाले पैसे इस बात पर निर्भर करते थे कि दिन भर उन्‍होंने
कितने प्रोडक्‍ट बेचे थे। वो घर-घर जाकर अपने प्रोडक्‍ट दिखातीं (जैसे
चश्‍मे बद्दूर में दीप्ति नवल चमको साबुन बेचती थी) और जिस घर जातीं,
उनका नाम, मकान नंबर और साइन एक कागज पर दर्ज कर लेती थीं। उनमें से एक
अपने एलआईसी एजेंट पति और दूसरी मां और विधवा बहन के साथ रहती थी। ये
जानकारियां मैंने दनादन सवालों की बौछार करके जुटा ली थीं। लेकिन मैं
mainly जो बात कहना चाहती हूं, उसका इन डीटेल्‍स से न ज्‍यादा, न कम
लेना-देना है।
मैं घूम-फिरकर उस सवाल पर आ गई, जो मुझे इतनी देर से कोंच रहा था।
‘आप दिन भर इतनी गर्मी, धूप में घूमते-घूमते परेशान नहीं हो जातीं।’
‘आदत हो गई है।’
‘आपको प्‍यास लगे तो? ’
‘किसी के घर में पी लेते हैं।’
‘और लू जाना हो तो? ’
‘क्‍या? ’
‘बाथरूम?’
‘बाथरूम जाना हो तो? आप लोगों को प्रॉब्‍लम नहीं होती। 8-10 घंटे आप बाहर
घूमती हैं। बाथरूम लगे तो क्‍या करती हैं?’ ।
मैंने देखा संकोच की एक लकीर उनके माथे पर घिर आई थी। जाहिर था कि जैसे
उन्‍होंने मुझे लड़की, शायद थोड़ी बिंदास लड़की या जो कुछ भी समझकर मुझसे
बाथरूम यूज करने की रिक्‍वेस्‍ट कर ली थी, ऐसा वो अमूमन नहीं करती होंगी,
नहीं कर पाती होंगी। वैसे भी आप किसी अनजान के घर सामान बेचने जाकर उसके
बाथरूम में नहीं घुस जाते। लेकिन बाथरूम Available न हो तो ऐसा तो नहीं
कि सू-सू अपने आने का कार्यक्रम मुल्‍तवी कर देगी।
उन्‍होंने बताया कि उन्‍हें दिक्‍कत तो होती है। दिन भर वो कम से कम पानी
पीती हैं। बहुत बार घंटों-घंटों इस प्राकृतिक जरूरत को दबाकर भी रखती
हैं। मेरे काफी खोदने पर उन्‍होंने स्‍वीकारा कि ऐसा करने का उन्‍हें
खामियाजा भी भुगतना पड़ता है। पेट में दर्द से लेकर यूरिनरी इंफेक्‍शन तक
वो झेल चुकी हैं।
‘पीरियड्स के समय भी आप ऐसे ही घूमती हैं?’
वो और ज्‍यादा अपने संकोच में सिकुड़ गईं। मैं तो कोई पुरुष नहीं थी,
लेकिन शायद लड़कियां भी लड़कियों से ऐसी बातें नहीं करतीं। इसलिए मैं
उन्‍हें थोड़ी विचित्र जान पड़ी।
बोलीं, ‘हां करना तो पड़ता है मैम। क्‍या करें, हमारी नौकरी ही ऐसी है।
एक दिन न आएं तो उस दिन के पैसे नहीं मिलेंगे। और फिर घर भी तो चलाना है।
आजकल महंगाई कितनी बढ़ गई है।’
बातें जो न चाहें तो कभी खत्‍म न हों, को चाहकर हमने खत्‍म किया और वो
चली गईं। वो चली गईं और मैं सोच रही थी। घड़ी की तरह शरीर में भी (खासकर
औरतों के शरीर में) एक अलार्म होना चाहिए, जिसमें हर चीज का टाइम सेट कर
दें। बाथरूम आने का भी टाइम सेट हो। सुबह दस से शाम छह बजे तक नहीं आएगी।
जब घर में रहेंगे, तभी आएगी क्‍योंकि इस देश में पब्लिक टॉयलेट्स सच्‍ची
मोहब्‍बत की तरह ढूंढे से नहीं मिलते। गलती से मिल भी जाएं तो पता चलता
है कि सच्‍ची मोहब्‍बत नहीं, सड़क छाप, बदबू मारते गलीज बीमारियों के
अड्डे हैं, जहां अव्‍वल तो लड़कियां घुसती नहीं और घुसती हैं तो ऐसा ही
समझा जाता है कि छेड़े जाने की हरसत से आई हैं। और जो थोड़ी भलमनसाहत
बाकी हो और उन्‍हें न भी छेड़ो तो आंखें फाड़-फाड़ देख तो लो ही सही।
तो ऐसे देश का सिस्‍टम तो बदलने से रहा, इसलिए अलार्म ही फिट हो सके तो
कुछ बात बने। वरना हम ऐसी ही मुश्किलों से गुजरते रहने को अभिशप्‍त
होंगे।
ऐसी मुश्किलों से मैं भी कम नहीं गुजरी हूं और बीमारियों को खुद आ बैल
मुझे मार करने के लिए बुलाया है।
अपने जिए हुए अनुभव से मैं कह सकती हूं कि हिंदुस्‍तान जैसे मुल्‍क, जो
हालांकि पूरा की पूरा ही बड़ा शौचालय है, लेकिन पब्लिक शौचालय का जहां
कोई क्‍लीयर आइडिया न तो सरकार और न लोगों के दिमाग में है, में किसी
लड़की के लिए ऐसा कोई काम, जिसमें उसे दिन भर सिर्फ घूमते रहना हो, करना
किसी बड़ी बीमारी को मोहब्‍बत से फुसलाकर अपनी गोदी बिठाने से कम नहीं
है।
मुंबई में मैंने कुछ समय फिल्‍म रिपोर्टिंग जैसे काम में हाथ आजमाया था,
जिसके लिए मुझे घंटों-घंटों न घर, न ऑफिस, बल्कि बाहर इधर-उधर भटकना
पड़ता था। सुबह नौ बजे मैं घर से निकलती, दो घंटे ऑटो, लोकल train और बस
से सफर करके यारी रोड, पाली हिल, लोखंडवाला कॉम्‍प्‍लेक्‍स या
महालक्ष्‍मी रेसकोर्स रोड के रेस्‍टरेंट में पहुंचती, फिर वहां से
पृथ्‍वी थिएटर, पृथ्‍वी से जुहू तारा रोड, जुहू तारा से सात बंगला, सात
बंगला से केम्‍स कॉर्नर, केम्‍स कॉर्नर से वॉर्डन रोड करते हुए मेरा शरीर
रोड की तरह हो जाता था, जिस पर लगता हजारों गाडि़यां दौड़-दौड़कर रौंदे
डाल रही हैं।
मुंबई जैसे विशालकाय महानगर में, जहां पांच सितारा होटलों के चमकीले
टायॅलेटों, जिनकी फर्श भी हमारी रसोई की परात जितनी साफ रहती है, इतनी कि
उस पर आटा सान लो, से लेकर बांद्रा की खाड़ी के बगल में बने आसमान के
नीचे खुले प्राकृतिक शौचालयों तक सबकुछ मिल जाएगा, लेकिन पब्लिक टॉयलेट
ढूंढना वहां भी धारावी में ब्रैड पिट को ढूंढने की तरह है।

सुबह नौ बजे से लेकर शाम 5-6 बजे तक भटकने के बाद मैं ऑफिस पहुंचती और
सबसे पहले बाथरूम भागती थी। दिन भर काफी मिट्टी पलीद होती थी। बॉम्‍बे के
बेहद उमस भरे दिलफरेब मौसम में बार-बार पानी या लेमन जूस पीते रहना
मजबूरी थी, वरना डिहाइड्ेशन से ही मर जाती। इस तरह भटकते रहने का यह
ताजातरीन अनुभव था। शुरू में काफी एक्‍साइटमेंट था। लेकिन इससे और
क्‍या-क्‍या मुश्किलात जुड़े हैं या इसके और क्‍या-क्‍या नतीजे मुमकिन
हैं, इस बारे में तब तक कोई अंदाजा ही नहीं था। नौ बजे घर से निकलने के
बाद 1-2 बजते-बजते मैं काफी परेशान हो जाती थी। लेकिन मैंने हालांकि बड़े
सामान्‍य, लेकिन कुछ विचित्र भी लगने वाले तरीकों से ऐसी हाजतों से निजात
पाई है। ये बोलते हुए हंसी भी आती है, लेकिन फेयरनेस क्रीम बेचने वाली उन
स्त्रियों ने तो मुझसे ही बाथरूम यूज करने की रिक्‍वेस्‍ट की थी, लेकिन
मैं बड़े-बड़े सेलिब्रिटियों के घर ऐसी डिमांड रख देती थी।
एक दिन स्‍मृति ईरानी के घर पहुंची तो जोर की बाथरूम लगी थी। संकोच बहुत
था, लेकिन कुछ जरूरतें ऐसी होती हैं कि दुनिया के हर संकोच से बड़ी हो
जाती हैं। मैंने बड़ी बेशर्मी से पूछ लिया, May I use your washroom
please.

उसने कहा, yes. Off course. ऑफ कोर्स मैंने खुद को कृतार्थ किया।
एक बार शेखर कपूर के घर, हालांकि वो उस समय घर में नहीं थे (ये बहुत दुख
की बात है, क्‍यों‍कि शेखर कपूर पर मुझे क्रश है) मैंने सुचित्रा से ऐसी
ही रिक्‍वेस्‍ट की और उन्‍होंने बड़ी खुशी से रिस्‍पॉन्‍ड किया। ऐसी
रिक्‍वेस्‍ट मैंने सुप्रिया पाठक, किरण खेर, रेणुका शहाणे, सुरेखा सीकरी,
नादिरा बब्‍बर वगैरह से भी की थी और शायद सबने इस रिक्‍वेस्‍ट की
जेनुइननेस को समझा भी था। इंटरेस्टिंगली सभी स्त्रियों से ही ऐसी बात
कहने का विश्‍वास होता था। बोस्‍कीयाना में बैठकर ढाई घंटे भी इंतजार
करना पड़े तो भी मैं नेचर कॉल को चप्‍पल उतारकर दौड़ाती - 'भाग, अभी
नहीं, बाद में आना।'
सिर्फ कुछ ही महीनों में सेहत की काफी बारह बज गई थी।

2- बंबई में फिल्‍म रिपोर्टिंग करते हुए जब तक मैं खुद इस दिक्‍कत से
नहीं गुजरी थी, मेरे जेहन में ये सवाल तक नहीं आया था। पब्लिक टॉयलेट यूज
करने की कभी नौबत नहीं आई, इसलिए उस बारे में सोचा भी नहीं। लेकिन अब
अपनी दोस्‍त लेडी डॉक्‍टर्स से लेकर अनजान लेडी डॉक्‍टर्स तक से मैं ये
सवाल जरूर पूछती हूं कि औरतों के बाथरूम रोकने, दबाने या बाथरूम जाने की
फजीहत से बचने के लिए पानी न पीने के क्‍या-क्‍या नतीजे हो सकते हैं?
कौन-कौन सी बीमारियां उनके शरीर में अपना घर बनाती हैं और आपके पास ऐसे
कितने केसेज आते हैं। मेरे पास कोई ठीक-ठीक आंकड़ा नहीं है कि लेकिन सभी
लेडी डॉक्‍टर्स ने यह स्‍वीकारा किया कि औरतों में बहुत सी बीमारियों की
वजह यही होती है। उन्‍हें कई इंफेक्‍शन हो जाते हैं और काफी हेल्‍थ
संबंधी कॉम्‍प्‍लीकेशंस। कई औरतें प्रेग्‍नेंसी के समय भी अपनी शर्म और
पब्लिक टॉयलेट्स की अनुपलब्‍धता की सीमाओं से नहीं निकल पातीं और अपने
साथ-साथ बच्‍चे का भी नुकसान करती हैं। यूं नहीं कि ये रेअरली होता है।
बहुत ज्‍यादा और बहुत बड़े पैमाने पर होता है। खासकर जब से औरतें घरों से
बाहर निकलने लगी हैं, नौ‍करियां करने लगी हैं और खास तौर से ऐसे काम,
जिसमें एक एयरकंडीशंड दफ्तर की कुर्सी नहीं है बैठने के लिए। जिसमें दिन
भर इधर-उधर भटकते फिरना है।

मुंबई में मेरे लिए ये सचमुच एक बड़ी समस्‍या थी। हमेशा आप किसी सेंसिटिव
सी जान पड़ने वाली फीमेल सेलिब्रिटी के घर ही तो नहीं जाते। या कई बार
किसी के भी घर नहीं जाना होता, फिर भी भटकना होता है। मैं तो ऐसी भटकू
राम थी कि बिना काम के भी भटकती थी। तो ऐसे में मैंने एक तरीका और ईजाद
किया था। बॉम्‍बे में वेस्‍टसाइड, ग्‍लोबस, फैब इंडिया और बॉम्‍बे स्‍टोर
से लेकर शॉपर्स स्‍टॉप तक जितने भी बड़े स्‍टोर थे, उनका इस्‍तेमाल मैं
पब्लिक टॉयलेट की तरह करती थी। जाने कितनी बार मैं इन स्‍टोरों में कुछ
खरीदने नहीं, बल्कि इनका टॉयलेट इस्‍तेमाल करने के मकसद से घुसी हूं।
काउंटर पर बैग जमा किया, दो-चार कपड़े, सामान इधर-उधर पलटककर देखा और चली
गई उनके वॉशरुम में। इससे ज्‍यादा उन स्‍टोर्स की मेरे लिए कोई वखत नहीं
थी।
बचपन में मैंने मां, मौसी, ताईजी और घर की औरतों को देखा था कि वो कहीं
भी बाहर जाने से पहले बाथरूम जाती थीं और घर वापस आने के बाद भी सबसे
पहले बाथरूम ही जाती थीं। गांव में, जहां हाजत के लिए खुले खेतों में
जाना पड़ता है, वहां तो सचमुच औरतों के शरीर में (सिर्फ औरतों के) अलार्म
फिट था। उन्‍हें सुबह उजाला होने से पहले और शाम को अंधेरा होने के बाद
ही हाजत आती और कमाल की बात थी कि पड़ोस, पट्टेदारी की सारी औरतों को एक
साथ आती थी। सब ग्रुप बनाकर साथ ही जाती थीं, मानो किसी समारोह में जा
रही हों। मैं भाभी, दीदी टाइप महिलाओं से बक्‍क से पूछ भी लेती थी, ‘आप
लोगों को घड़ी देखकर टॉयलेट आती है क्‍या?’ कइयों ने कहा, हां और कइयों
ने स्‍वीकारा कि दिन में जाने का जोर आए तो दबा देते हैं।
कितनी अजीब है ये दुनिया। टायलेट जाते भी औरतों को शर्म आती है, मानो कोई
सीक्रेट पाप कर रही हों। जिस कमरे से होकर बाथरूम के लिए जाना पड़ता है,
या जिस कमरे से अटैच बाथरूम है, उस कमरे में अगर जेठ जी, ससुर या कोई भी
पुरुष बैठा है तो मेरी दीदियां, भाभियां, मामियां और घर की औरतें रसोई
में चुपाई बैठी रहेंगी, लेकिन बाथरूम नहीं जाएंगी। बोलेंगी, ‘नहीं, नहीं,
वो जेठजी बैठे हैं।’ हर दो मिनट पर झांकती रहेंगी, दबाती रहेंगी, लेकिन
जाएंगी नहीं। जेठजी तो गेट के बाहर गली खड़े होकर करने के लिए भी दो मिनट
नहीं सोचते। बहुएं मरी जाती हैं।
जेठ-बहू को जाने दें तो पढ़ी-लिखी नौकरीपेशा लड़कियों के दिमाग भी कुछ
खास रौशनख्‍याल नहीं हैं। इंदौर में वेबदुनिया में लेडीज टॉयलेट का
रास्‍ता एक बड़े केबिन से होकर गुजरता था, जहां सब पुरुष काम कर रहे होते
थे। वहां भी लड़कियां बाथरूम जाने में संकोच करती थीं। कहतीं,
‘सब बैठे रहते हैं वहां पर, सबको पता चल जाएगा कि हम कहां जा रहे हैं।’
‘अरे तो चलने दो न पता, कौन सा तुम अभिसार पर जा रही हो।’
‘अभिसार मतलब।’
‘अभिसार मतलब रात में छिपकर अपने प्रेमी से मिलने जाना। अभिसार पर जाने
वाली अभिसारिका।’
‘तुम बिलकुल बेशर्म हो।’
‘इसमें बेशर्म की क्‍या बात है। अभिसार में शरमाओ तो समझ में भी आता है।
लेकिन बाथरूम जाने में कैसी शर्म। जो लोग वहां बैठे हैं, वो नहीं जाते
क्‍या।’
‘नहीं यार, अच्‍छा नहीं लगता।’
ऐसे ही इस दुनिया को जाने क्‍या-क्‍या अच्‍छा नहीं लगता। आपकी बाकी चीजें
तो अच्‍छी नहीं ही लगतीं, लेकिन अब आप पानी पीना, बाथरूम जाना भी छोड़
दीजिए। लोगों को अच्‍छा जो नहीं लगता।


ये इतनी स्‍वाभाविक जरूरत है, लेकिन इसके बारे में हम कभी बात नहीं करते।
बच्‍चा पैदा होते साथ ही रोने और दूध पीने के बाद पहला काम यही करता है,
लेकिन औरतों के बाथरूम जाने को लेकर समाज ऐसे पिलपिलाने लगता है मानो
बेहया औरतें भरे चौराहे आदमी को चूम लेने की बेशर्म जिद पर अड़ आई हों।
‘नहीं, हम तो यहीं चूमेंगे, अभी इसी वक्‍त।’
हम कोई अतिरिक्‍त सहूलियत की बात नहीं कर रहे हैं। ऐसा नहीं कि बहुत
मानवीय, उदात्‍त, गरिमामय समाज की डिमांड की जा रही है। प्‍लीज, प्‍यार
कर सकने लायक खुलापन दीजिए समाज में, इतना कि अपने दीवाने को हम चूम
सकें। रात में समंदर किनारे बैठकर बीयर पीना चाहें तो पीने दीजिए।
हल्‍द्वानी-नैनीताल की बीच वाली पहाड़ी पर रात में बैठकर सितारों को
देखने दीजिए। नदी में तैरने दीजिए, आसमान में उड़ने दीजिए। राहुल
सांकृत्‍यायन की तरह पीठ पर एक झोला टांगे बस, Truck, टैंपो, ऑटो,
बैलगाड़ी, ठेला जो भी मिले, उस पर सवार होकर दुनिया की सैर करने दीजिए।
अपनी बाइक पर हमें मनाली से लेह जाने दीजिए और बीच में अपनी नाक मत
घुसाइए, प्‍लीज। प्‍यार की खुली छूट दीजिए या फ्री सेक्‍स कर दीजिए।


ऐसा तो कुछ नहीं मांग रहे हैं ना। बस इतना ही तो कह रहे हैं कि बाथरूम
करने दीजिए। घूरिए मत, ऐसी दुनिया मत बनाइए कि बाथरूम जाने में भी हम
शर्म से गड़ जाएं। इतने पब्लिक टॉयलेट तो हों कि सेल्‍स गर्ल, एलआईसी
एजेंट या हार्डकोर रिपोर्टर बनने वाली लड़कियों को यूरीनरी इंफेक्‍शन
होगा ही होगा, ये बहार आने पर फूल खिलने की तरह तय हो।

प्‍लीज, ये बहुत नैचुरल, ह्यूमन नीड है। इसे अपने सड़े हुए बंद दिमागों
और कुंठाओं की छिपकलियों से बचाइए। सब रेंग रही हैं और हम अस्‍पतालों के
चक्‍कर लगा रहे हैं।


समाप्‍त।

साभार :- मनीषा पांडे के ब्लॉग बेदखल की डायरी से 

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