Saturday 24 October 2015

पितृसत्ता पुरुषों का अमानवीयकरण करती है : कमला भसीन

मला दीदी से मेरी मुलाकात सन 2001  दिल्ली मे एक जेंडर संबेदीकरण कार्यशाला के दौरान हुई थी , उस कार्यशाला में मैं अकेला पुरुष था . कार्यशाला तीन दिन खत्म हो चूका था फिर चौथे दिन कमला दीदी आईं थी . और आते हीं उन्होने कहा की " इस लड़के को तुम सब ने मिल कर परेसान तो नहीं किआ ! लड़का होना इस का दोष नहीं हैं , ये हम औरतो की जिम्मेदारी है की इस को दुनिया, दुनिआ  के नियम ,मर्दों की दुनिआ और मर्दों के दुनिया के नियम को औरतों के नज़रों से दिखायें , नारीवाद समझायं  . आओ मेरे पास आओ , यहाँ बैठो मेरे पास ! "  तब मुझे पहली बार  लगा की सभी समस्या का कारण मैं नहीं हूँ और लड़किओं और औरतो के बीच तीन दिन बाद , मैं अब अकेला भी नहीं हूँ . लैंगिक बराबरी और पुरषों मेँ  बदलाव का प्रशिक्षण इसी तरह साथ बैठा कर शुरू करना चाहिए , फिर क्या था वहीँ से जीवन मेँ बदलाव शुरू जो अब तक नहीं थमा  है ..!    शुक्रिया कमला दीदी , माधवी दीदी , यशोधरा दीदी , आशा दीदी ,चन्द्रा दीदी ,मधु कुशवाहा दीदी , संजय भाई , अभिजीत दा और सतीश भाई . 
यह लेख स्त्रीकाल से लिए गया है जो शुक्रवार, अक्तूबर 23, 2015 को छापा था .
                                                  
मला भसीन दक्षिण एशियाई देशों में जेंडर ट्रेनिंग के लिए ख्यात हैं. स्त्री -पुरुष समानता की अलख जगाती कमला भसीन के साथ स्त्रीकाल के लिए संजीव चंदन ने बातचीत की है . इत्मीनान से पढ़ें यह बातचीत , यकीनन आपके भीतर का 'मर्द' कुछ तो पिघलेगा . 

इन दिनों क्या कर रहीं हैं?
इन दिनों मैं ‘जागोरी’ में स्थित ‘संगत’ नाम की संस्था को  पिछले बारह साल से को-आर्डिनेट कर रहीहूँ. साउथ एशिया में जो स्त्री और  पुरुष स्त्रीवादी सोच के साथ काम  कर रहे हैं, उनके साथ कम करती  हूँ.उसमें दो तरह के काम हैं. एक है- क्षमता वर्धक (कपैसिटी बिल्डिंग). जो नई-नई सोच आती है, उसको उन तक पहुँचाना और दूसरा है-ट्रेनिंग. ट्रेनिंग बहुत सुन्दर माध्यम है एक संजाल बनाने का. अब जैसे अगले सप्ताह नेपाल में एक ट्रेनिंग है. ये सारे  काम हम दूसरी संस्थाओं के साथ मिलकर करते हैं. नेपाली में इसे होस्ट करने वाली नेपाली संस्था है. हम केवल सबको इक्कठा करते हैं. करीब 37-38  महिलाएं 9  देशों से आ रही हैं, जो स्त्रीवादी काम कर रही हैं- पुरुषों के साथ, गरीबों के साथ, माईनारटीज के साथ. एक महीना वे एक-दूसरे के साथ रहती हैं. इसी तरह हम हिंदी में ट्रेनिंग करते हैं, बंगला में करते हैं.

आपका कोई अकादमिक बैकग्राउंड रहा है? स्त्रीवाद के लिए ट्रेनर की शुरुआत आपने कैसे की ?
एम.ए. की डिग्री तो है पर कोई अकादमिक काम नहीं किया है.

 स्त्रीवाद के लिए कैसे कम करना शुरू किया ?
सबसे पहले मैंने गरीबों के साथ, दलितों के साथ 1972 में कम करना शुरू किया. जर्मनी में नौकरी करती थी, वहां से रिजाइन देकर हिंदुस्तान वापस आ गई.

 जर्मनी में आप कहाँ थीं ?
जर्मनी में पहले तो मैंने म्युन्स्टर में पढाई की.पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद मैंने वहां २ साल ‘सोशियोलॉजी ऑफ़ डेवलपमेंट’ पढ़ा. उसके बाद मैंने जर्मन एक्सपर्ट, जो यहाँ आकार हमें पढाया करते थे, उनकी ट्रेनिंग की.परमानेंट सरकारी नौकरी से ग्यारह महीने बाद रिजाइन करके मैं हिंदुस्तान आ गई और मैंने ‘सेवा मंदिर’ उदयपुर में कम करना शुरू किया.चार साल मैंने वहां काम  किया. मैं में पढ़ी हूँ. मेरी पूरी पढाई, दसवीं तक राजस्थान के गांवों-कस्बों में हुई है.
 फैमिली बैकग्राउंड क्या था ?
 पिताजी सरकारी डाक्टर थे. हम लोग पंजाबी हैं. मेरा जन्म वेस्ट पंजाब में हुआ, जो अब पाकिस्तान में है. 1946 में मैं पैदा हुई-तब मेरी माँ वहां एक शादी में गई थीं.

तब आप माइग्रेट हुई थीं? 
नहीं, हम लोग माइग्रेट करके नहीं आये.उसके पहले ही पिताजी की नौकरी राजस्थान में थी-कोई 1939-40 में.गांवों में मैंने दसवीं सरकारी स्कूलों से की. राजस्थान यूनिवर्सिटी मैंने एम.ए. किया. चूंकि मैं राजस्थान में पढ़ी-बढ़ी इसलिए सोचा कुछ करूँ. गाँधी के समय में पैदाइश हुई थी,  तो ये नहीं था कि मैं सिर्फ पैसा कमाऊं. इसलिए जर्मनी की नौकरी छोड़कर आ गई और ‘सेवा मंदिर’ में काम शुरू किया. ये मोहन सिन्हा मेहता का संगठन था. उन पर सबका प्रभाव था. वो अम्बेसडर रह चुके थे और राजस्थान युनिवर्सिटी के वाइस चांसलर थे. उनके बेटे जगत मेहता, विदेश मंत्रालय में सेक्रेटरी थे. उन्होंने ‘सेवा मंदिर’, ‘विद्या भवन’ आदि संस्थाएं राजस्थान में शुरू कीं. चार साल मैंने वहां काम किया इसके बाद मुझे यू.एन. ने कहा कि मैं एन.जी.ओ की ट्रेनिंग का काम शुरू करूँ. तो 27 साल तक मैंने यू.एन. के कहने पर एशिया और दक्षिण एशिया के स्तर पर ट्रेनिंग शुरू की. वह सिर्फ जेंडर की ट्रेनिंग नहीं थी, क्योंकि मैं जेंडर को अलग नहीं मानती. जेंडर कास्ट के साथ जुड़ा है, जेंडर क्लास के साथ जुड़ा है, डेमोक्रेसी के साथ जुड़ा है. तो  इन सब चीजों की ट्रेनिंग. क्योंकि डेमोक्रेसी नहीं होगी तो फिर वीमेन राइट की तो बात ही नहीं हो सकती. हम जानते हैं किदलित औरत के साथ जो होता है,  वह सिर्फ जेंडर नहीं होता, वहां कास्ट भी होती है.

लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि शुरुआती दौर में स्त्रीवादी आन्दोलनों में जाति क्वेशचन नहीं बन पायी थी?
 पता नहीं आप किसकी बात कर रहे हैं?  आप दिल्ली के आंदोलन को ही स्त्रीवादी आन्दोलन मानते हैं, जो कि मैं नहीं मानती. मैं समझती हूँ कि महाराष्ट्र में सालों पहले सावित्रीबाई फुले ने काम किया.तमिलनाडु में जो बातचीत हुई, वहां कास्ट थी. हम लोगों ने भी, जैसे मैंने भी गरीबों के साथ कम शुरू किया तो कास्ट और क्लास दोनों सवाल थे . 

 उधर थोड़ा  बाद में आयेंगे. अभी आपकी किताब आई है ‘मर्द मर्दानगी और मर्दवाद’ ये अंग्रेजी में भी है. 
कमला भसीन- हाँ, पांच-छः साल पहले ये किताब आई. ये 15-20 अन्य भाषाओँ में भी है. मेरी सभी किताबें 15-20 भाषाओँ में हैं.

यह विषय क्यों चुना आपने- ‘मर्द-मर्दानगी-मर्दवाद ?’
 पता नहीं क्यों, शायद महिला आन्दोलन की कमी रही हो या या समाज की कमी रही हो,ये समझा गया की जो जेंडर का काम है वो महिलाओं का काम है. इसलिए सारा फोकस महिलाओं पर हो गया. पुरुषों की बातें नहीं की गईं. पितृसत्ता पर महिलाएं 100-150-200 या 300 साल या जबसे पितृसत्ता शुरू हुई , पितृसत्ता पर बोलती रहीं हैं.अपने ऐक्सन्स में विरोध करती रहीं हैं. मीराबाई ने स्त्रीवाद की कोई किताब नहीं पढ़ी थी. हाँ, लेकिन जिंदगी थी. मैं समझती हूँ की जिस दिन पितृसत्ता की शुरुआत हुई, उसी दिन से स्त्रीवादी सोच शुरू हुई. मुझे लगता है महिला सशक्तिकरण या स्त्री पुरुष समानता में दो पहलू हैं- स्त्री और पुरुष. जब तक दोनों नहीं बदलेंगे, जब तक दोनों मिलकर इस पर जद्दोजहद नहीं करेंगे, तब तक समानता नहीं हो सकती है. मुझे लगता है शुरू से स्त्री-पुरुष समानता की लड़ाई स्त्री और पुरुष के बीच की लड़ाई नहीं है. ये दो मान्यताओं के बीच की लड़ाई है. एक मान्यता कहती है कि पितृसत्ता बेहतर है और दूसरी कहती है- नहीं, समानता बेहतर होगी.

इसमें कहीं यह  आइडिया तो नहीं काम कर रहा था कि स्त्री के प्रति जो हिंसा या असमानता है,  उसमें मर्द एजेंसी के तौर पर तो है ही,  लेकिन वो विक्टिमाइज्ड भी है. मतलब वो भी पितृसत्ता के द्वारा गढ़ा जाता है?
वह  तो है ही, आप देखिये मर्दों ने खुद अपने बारे में कभी नहीं सोचा,  क्योंकि उनको सत्ता मिलती है. भई हमें तो वो जूता काट रहा था. इसलिए हमने कहा कि ये पितृसत्ता का जूता हटाओ. वे इस जूते को बहुत सुपरफिसियली देखते हैं. वे  समझतें हैं कि इस जूते  में हमें मजा आ रहा है.हमार साइज बढ़ रहा है.हम देवता भी कहला रहे हैं. हमें पति परमेश्वर भी कहा जा रहा है.सिर्फ हम ही अंतिम संस्कार करते हैं, हम ही कन्यादान करते हैं. उन्होंने ये नहीं देखा की किस प्रकार से पितृसत्ता लड़कों को रोने नहीं देती है. उन्हें अपनी कमजोरियां बयान नहीं करने देती. उनको संवेदनशील नहीं बनने देती. उनको बच्चों के साथ नहीं समय बिताने देती. किस प्रकार उनको मर्दानगी के नाम पर हिंसात्मक बनाया जाता है. उनको कहा जाता है की तुम लोगों को दबा के रखोगे, नहीं तो तुम असली मर्द नहीं हो. रोओगे नहीं. तो उससे उनका अमानवीयकरण हो जाता है. मैं ये मानती हूँ कि एक बलात्कारी मानव नहीं है, जो मानव के गुण होने चाहिए वह बलात्कारी के अंदर खत्म हो गए हैं. 50-60% प्रतिशत भारतीय पति,  जो अपनी पत्नियों के ऊपर हिंसा करते हैं, उनका कहीं न कहीं अमानवीयकरण (डीह्युमनाइजेसन) हो गया है. ब्रुटलाइजेसन हो गया है. वरना आप कैसे अपने जीवनसाथी पर हाथ उठा सकते हैं ! इसके साथ मेरा यह भी मानना है कि पुरुष शारीरिक तौर पर बलात्कारी नहीं है. अगर ऐसा होता तो बुद्ध भी बलात्कार करते.गांधी भी बलात्कारी होते, जीसस भी बलात्कारी होते. हमारी जिंदगी में ६० प्रतिशत पुरुष पत्नियों पर हाथ उठाते हैं , तो ४० प्रतिशत तो नहीं उठाते हैं  न ? इसका मतलब ये है कि ये कोई शारीरिक देन नहीं है.ये प्रकृति कि देन नहीं है. ये मानसिकता पैदा की गयी है. आप महिलाओं को भी देख सकते हैं. वो भी पीट सकती हैं अपने बच्चों को, जिनके ऊपर चलती है उनकी शक्ति.

इस तरह जैसे महिला बनाई जाती है वैसे पुरुष भी बनाया जाता है?
 हाँ, पुरुष भी बनाया जाता है, मगर दुःख की बात है कि महिलाओं ने इस पर सोचा है.  पुरुष अब तक नहीं सोच पाये. और चूकि मैं एन.जी. ओ के साथ काम करती थी, वहां सारे के सारे पुरुष हेड हुआकरते थे. मुझे लगा कि उनको बदलने कि जरूरत है.उनको भी यह समझने कि जरूरत है कि ये महिलाओं का मुद्दा नहीं है. ये स्त्री-पुरुष के बीच की लड़ाई नहीं है. ये दो मानसिकताओं के बीच की लड़ाई है. मैं आपको बुद्ध के जीवन से कहानियां सुना सकती हूँ. वो मेरी किताबों में भी लिखी हुई हैं कि कैसे बुद्ध ने, जो हिन्दू धर्म में पैदा हुए और जब महिलाएं उनके पास आयीं,  एक पिटीशन लेकर कि भई आप संघ में सिर्फ पुरुषों को ले रहे हो, हमको भी लो ! तो बुद्ध ने मन कर दिया. ढाई हजार साल पहले ये डिबेट चली. बुद्ध ने मौसी से ये डिबेट किया. उनकी मौसी आनंद के पास गयीं, जो डिप्टी डायरेक्टर थे. तब आनंद फिर वापस गए बुद्ध के पास. ढाई हजार साल पहले यह हुआ  कि महिलाओं को संघ में लिया जायगा.  क्या यह जेंडर  डिबेट नहीं था ? क्या यह महिला अधिकारों का डिबेट नहीं था? कोई किताब नहीं पढ़ी थी उन्होंने. कोई 'सीडॉ' नहीं था. कोई रेप बिल नहीं था.मगर औरत को बताना नहीं पड़ता कि उनके अधिकार छिन रहे हैं. उनको लगा कि हम भी तो बुद्ध बन सकते हैं. जो लोग कहते हैं कि जेंडर वेस्टर्न कांसेप्ट है, स्त्रीवाद वेस्टर्न कांसेप्ट है वे बतायें कि क्या बुद्ध  की मौसी स्त्रीवादी नहीं थी, जो बुद्ध के पास आयीं और कहा, ऐ मिस्टर ! मैं भी आना चाहती हूँ . मुझे क्यों रोक रहे हो? इसके अलावा अगर आप प्रॉफेट मोहम्मद की बात करें, जिन्होंने 1400-1500 साल पहले कितनी चीजें औरतों के लिए बदलीं.

थोड़ी कमी इधर भी है . एन.एफ़. आई. डब्लयू. ने अपनी स्थापना का सिक्सटीज़ मनाया. वहां एक भी तस्वीर सावित्रीबाई फुले की नहीं थी. ताराबाई शिंदे की नहीं थी. हमें तो डॉ. अम्बेडकर को भी लोकेट करना होगा अपने साथ.  
 एक्जैक्टली. वही बात है कि हमारी ताकत कितनी रही है.हम क्या सोच रहे हैं. उनके लिए क्लास मेन फैक्टर रहा करता था. मेरा यह मानना है कि बुद्ध अधिकार सबको दिलाना चाहते थे. इसलिए उन्होंने दलितों  को लेकर कहा कि बुद्धिज़्म में कास्ट सिस्टम नहीं होगा. महिलाओं को उन्होंने लिया,  लेकिन आठ ऐसे कानून बनाये जिसमें भिक्खुनी हर तरह से भिक्खु के नीचे रहेगी. अब आप इसमें कहोगे कि उन्होंने अधिकार पूरे नहीं दिए. मैं  कहूँगी कि ढाई हजार साल पहले अगर वो जीरो से ६०-७० पर ले आये तो क्या वह एक क्रन्तिकारी कदम नहीं था ? मैं उसको क्रांतिकारी कदम मानती हूँ.  प्रॉफेट मोहम्मद ने 1500 साल महिलाओं को  अधिकार दिए, ये कहा कि पुरुषों को संपत्ति ज्यादा मिलेगी लेकिन ये  कब कहा ? ये तब कहा जब महिलाओं को जीरो संपत्ति मिलती थी. उन्होंने कहा कि पुरुष चार शादियां कर सकते  हैं, मगर  ये-ये-ये शर्तें होंगी. ये कब कहा ? ये तब कहा जब पुरुष ५० शादियां कर रहा था. तो भई 50 या 100 से चार पर ले आओ, उसके बाद जो आने वाले हैं, उनकी जिम्मेदारी बनती है कि चार से एक पर लाएं.पर वो तो चार पर ही आकर फंस गए. क्योंकि वो प्रॉफेट नहीं थे, वो प्रॉफेट के चमचे थे. उन्होंने अंदर से रियलाइजेसन नहीं किया.  इन सब चीजों के कारण लगा कि मर्दानगी पर, मर्दवाद पर  सोचना आवश्यक है. इसमें यह भी लिखा है कि किस प्रकार से केवल धर्मों ने, परम्पराओं ने ये चीजें नहीं फैलाईं. आज कैपिटलिस्ट पैट्रीआर्की पूरी तरह से मर्दवाद फैला रही है. पूरी तरह से महिलाओं को नीचे दिखा रही है. पोर्नोग्राफी बिलियन डॉलर इंडस्ट्री है.कॉस्मेटिक्स, जो कहती है कि महिला जब तक इस शेप की नहीं है, इस कलर की नहीं है,  वहबेकार है. बाजार में उसकी कोई कीमत नहीं है. खिलौनों की इंडस्ट्री में लड़कों के लिए बंदूकें, स्पाइडर मैन और लड़कियों के लिए बार्बी डॉल्स. हर बार वही चीज दोहराई जाती है- मर्द. आजकल एक विज्ञापन रेडियो में आता है- दिल्ली  का कड़क लौंडा. अब 'कड़क लौंडा' शब्द आप भी जानते हैं. मैं भी जानती हूँ कि वो किस चीज की बात कर रहे हैं. वो कड़क पेनिस कि बात कर रहे हैं.क्या काम है उसका रेडियो पर ? वह लोगों को बेहूदा फोन करके बेहूदा बातें  करता है. इसी प्रकार रणधीर कपूर के कितने सारे ऐड्स देख लें. पेप्सी और आई.पी.एल. के ऐड्स आते थे- ‘आई.पी.एल. शराफत से देखा जाता है न कि शराफत से खेला जाता है’. जो फिल्में हैं उनमें- बद्तमीज दिल बद्तमीज दिल माने न माने न माने न. हमेशा वही पुरुषों कि बद्तमीजी. फिर मैंने इस पुस्तक में कहा है कि हाँ पितृसत्ता में पुरुषों को अधिकार बहुत मिलते हैं, लेकिन पुरुष शांत दिमाग से जरा यह भी सोच लें कि अधिकारों के साथ- साथ, पुरुष केवल 50 प्रतिशत हैं, लेकिन 99 प्रतिशत टेररिस्ट पुरुष हैं. 99 प्रतिशत क्रिमिनल्स पुरुष हैं. 99 प्रतिशत ट्रेफिक आफेंडर पुरुष हैं. अमेरिका में हर दो महीने में 17-18-19 साल का एक लड़का एक बंदूक उठाकर एक स्कूल में 10-20 लड़कों को मारकर घर आता है. कभी औरत ने ऐसा किया ?तो ये हो रहा है. आज भी 'हिन्दू' अख़बार में है कि पुरुषों की आत्महत्याएं महिलाओं की आत्महत्याओं से कहीं अधिक हैं.

 एक राइट-अप हमने अपने यहाँ (स्त्रीकाल में ) भी लगाया था- 'किसान महिलाएं आत्महत्या नहीं करतीं हैं.' बल्कि  ज्यादा कष्ट झेलतीं  हैं. 
वही बात है की भई हमें तो कष्ट झेलने की आदत पड़ जाती है. पुरुष दो कारणों से मरता है. मैंने इस किताब में लिखा है. एक कारण है- गरीबी. दूसरा कारण है-पितृसत्ता. वह सोचता है मैं कैसा मर्द हूँ कि अपने परिवार का पालन नहीं कर  सकता. उसके अंदर अपनी एक इमेज है. इस तरह आप देखेंगे जब थाईलैंड में, कोरिया में इकोनॉमिक रिप्रेसन आया तो बहुत पुरुषों ने आत्महत्याएं कीं, स्त्रियों ने नहीं कीं. क्योंकि उनकी मर्दानगी को भी चोट पहुँच रही है की भई कैसा मर्द हूँ. गरीबी तो है ही. औरत भी गरीब है पर वह औरत को छोड़कर कहाँ जाएगी.

इधर जो बढ़ते हुए केसेज़ हैं स्त्री के खिलाफ हिंसा के, बलात्कार भी उनमें शामिल है, उसको आप कैसे देखतीं हैं? मेरा मानना है कि रिपोर्टिंग बढ़ रही है. यह एक तरह से एम्पावरमेंट भी है.
मेरा मानना है, दोनों चीजें हैं. रिपोर्टिंग तो बढ़ ही रही है. ब्रूटलिटी पूरे समाज में हर स्तर में बढ़ रही है.ये सिर्फ स्त्री-पुरुष के खिलाफ नहीं है. आप दूसरे तबकों, मायनार्टिज के खिलाफ देख लीजिये.ये काफी हद तक रिसोर्सेज़ की लड़ाई है. किसी कालोनी में जाएँ. पार्किंग के लिए लोग एक-दूसरे को मार रहे हैं. सड़क में कार से जल्दी आगे निकलने के लिए लोग एक-दूसरे को मार रहे हैं. आगे पहुंचना है, क्योंकि इनसिक्यॉरिटी इतनी बढ़ रही है इस पैराडाइम में. ये जो कार्पोरेट वाला नियोलिबरल पैराडाइम है, इसमें हिंसात्मक कम्पटीशन बढ़ रहा है,  मूल्यों का हनन हो रहा है. हमारे बड़े-बड़े एक्टर्स, जो करोड़पति है, शराब के विज्ञापन निकालते हैं, जोकि गैरकानूनी है. शराब को वो सोडा या म्यूजिक कहके बेचते हैं. टेलीविजन पर रोज आते हैं- लार्ज...लार्ज...स्मालर.. स्मालर.. बिगर दैन लाइफ. कौन हैं ये? ये करोड़पति लोग हैं,  जो गैरकानूनी तरीके से शराब बेच रहे हैं ये खाते-पीते डाक्टर भ्रूणहत्याएं कर रहे हैं. इसके कारण ३६ मिलियन औरतें कम हैं इस देश में पुरुषों से. छत्तीस मिलियन ! दो मायनार्टिज के मर जाते हैं तो हड़तालें हो जातीं हैं. २० दलित मर जाते हैं तो भी हड़तालें हो जातीं हैं. यहाँ ३६ मिलियन औरतों को मर के गिरा दिया गया, क्या कभी पार्लियामेंट बंद हुई आधे दिन के लिए कि कहाँ जा रहीं हैं ये ? सेक्स रेशियो क्यों गिरता जा रहा है ? अगर कोई आकर छाती पीटतीं हैं , तो महिला संस्थाएं आकर पीटतीं हैं. क्यों ट्रेड यूनियंस आकर इस पर बात नहीं करतीं? क्यों पॉलिटिकल पार्टी आकर इस पर बात नहीं करतीं ? क्या महिलाओं का मरना सिर्फ महिलाओं कि जिम्मेदारी है? ये जो स्त्री-पुरुष के मुद्दे हैं, ये स्त्री-पुरुष दोनों के मुद्दे हैं. इसमें मैंने ये भी समझाने की कोशिश की है कि जब तक औरत आजाद नहीं होगी, पुरुष आजाद नहीं हो सकता. अगर अपनी बेटी को आपको प्रोटेक्ट करके रखना है तो पूरी उमर आप प्रोटेक्ट करते रहोगे. पहले आप, आपके मरने के बाद आपका बेटा और उसका पति. अगर आपकी बेटी काबिल है,  बेटा नालायक निकल गया या डिसएबल पैदा हो गया या मेन्टल इलनेस हो गयी तो आपकी बेटी आपका काम संभाल लेगी. 'स्त्रीकाल' निकाल लेगी. कहेगी, पापा ! मैं हूँ न. आपके पास सारे साधन हैं. अपनी पत्नी को आपने कहीं बाहर नहीं निकलने दिया. आपका एक्सीडेंट हो जाता है और आप मरते रहते हो कि मेरी पत्नी का क्या होगा. मेरे परिवार का क्या  होगा. अगर पत्नी भी उतनी ही क़ाबिल होगी तो कहेगी- पार्टनर! डोंट वरी. मैं हूँ न ! मैं तो यही मानती हूँ, चूँकि स्त्री-पुरुष दोनों एक ही परिवार में रहते हैं, बराबरी होगी तो शांति होगी बराबरी होगी तो आगे बढ़ पाएंगे. गैरबराबरी होगी तो, घर में चार लोग हैं, जिनमें दो मुरझाये हुए हैं और दो पनप  रहे हैं. मैं हमेशा कहती हूँ कि मैंने आज तक कोई किसान नहीं देखा है, जिसके पास चार एकड़ जमीन है, वो दो एकड़ सड़ने दे और दो एकड़ में फलें-फूलें चीजें. लेकिन लड़के और लड़कियों के साथ हम यही करते हैं. चलो हमको पहले नहीं मालूम था, औरतें क्या-क्या कर सकतीं हैं. कितनी काबिल बन सकतीं हैं. पर अब तो औरतों ने पिछले 100 सालों में दिखा दिया कि दुनिया का कोई क्षेत्र नहीं, जिसमें वह काबिलियत नहीं रखतीं.

आप एन.जी.ओ. ट्रेनिंग ही करती रही हैं या ट्रेनर की मास ट्रेनिंग करती रहीं हैं ?
कमला भसीन-एन.जी.ओ(ज़) में मई उन लोगों की ट्रेनिंग करती रहीं हूँ , जो गांवों में जाकर काम करते हैं. कालेज और यूनिवर्सिटीज ने भी मुझे कई बार बुलाया है. जैसे अब अगले हफ्ते लेडी इरविन कालेज ने. गार्गी कालेज और लेडी इरविन कालेज ने हमेशा से मुझे बुलाया है. फिर मैंने एक और संस्था शुरू की थी, उसका नाम है- ‘अंकुर’, अल्टरनेटिव इन एजुकेशन. ये स्कूलों में काम कर रही है. इस प्रकार हर जगह थोड़ा- थोड़ा काम किया है.


 आप तो जेंडर समानता के गीत भी लिखती हैं? गीतों के संग्रह नहीं आये?
बिल्कुल, मेरा मुख्य  काम वही है. मेरे गीतों की किताबें हैं. सी.डी. हैं. पिछले 3 साल में तो 3 नए   सी.डी.(ज़) निकाले हैं. गीतों का मेरा खास काम है,  जिसकी वजह से मैं जानी जाती हूँ. मेरे गीत हैं, पोस्टर्स हैं, बैनर्स हैं.पिछले 15-20 साल से हम कपड़ों में बड़े-बड़े स्लोगन्स, चूँकि मेरा ये मानना है कि कुछ राज्यों में 50-60 प्रतिशत महिलाएं पढ़-लिख  नहीं सकतीं, वहां पर जो गीत का माध्यम है, बहुत सशक्त माध्यम है.

'परचम बना लेती', वो आपका ही गीत है? यह तो किसी और की  लाइन है.
 ये लाइन किसी और की है, लेकिन गीत मेरा है. शायद मख़दूम साहब हैं. मैंने उसमे लिखा है-'तू इस आँचल का परचम बना लेती तो अच्छा था, तू सहना छोड़कर कहना शुरू करती तो अच्छा था.' ये लाइनें मेरी हैं, लेकिन वहां से प्रेरित हैं.

अभी बात हो रही थी कास्ट को लेकर के, आप कास्ट क़्वेश्चन को कैसे देख रहीं हैं? महिला रिजर्वेशन के प्रसंग में अपनी बात कहेंगी कि उसमें 'रिजर्वेशन-विदइन-रिजर्वेशन' के कारण तो दिक्कत नहीं हैं? यदि ऐसा है तो क्यों नहीं उस पर ओपन हुआ जाये? 
हिंदुस्तान में अगर हम पितृसत्ता कि बात करें,  तो जिन लोगों ने पितृसत्ता पढ़ा हैं वे जानते हैं, लगभग जब पितृसत्ता चालू हुई , तो जाति-व्यवस्था भी लगभग उसी टाइम चालू हुई. ये दोनों सिस्टम सत्ता रिलेटेड हैं.एक में पुरुष सत्ता है और दूसरे में जाति सत्ता है. दोनों शोषण पर आधारित हैं. ठीक इसी प्रकार से क्लास, अगर आप कार्ल मार्क्स कि बात करें तो उन्होंने यही कहा कि जब तक प्राइवेट प्रॉपर्टी नहीं आई थी पितृसत्ता नहीं थी. मैं इस बात को मानती हूँ कि प्राइवेट प्रॉपर्टी ही कारण थी, जिसके कारण पितृसत्ता लानी पड़ी. प्राइवेट प्रॉपर्टी के बाद ही जितनी गैरबराबरियां  आईं  हैं. क्योंकि उसके पहले सब कहते थे, पीते थे, मरते थे. जैसे प्राइवेट प्रॉपर्टी डेवलप हुई, तो हुआ  कि ये अब कौन संभालेगा ? तय हुआ पुरुष, ब्राह्मण और अपर क्लास. तो ये तीनों सिस्टम लगभग इकठ्ठे आये. औरत सिर्फ औरत नहीं होती. औरत की कास्ट भी होती है. औरत की क्लास भी होती है. औरत की रेस भी होती है.

महिला रिजर्वेसन पर आपका  सैद्धांतिक स्टैंड क्या है ?
मैं यह मानती हूँ कि इन सब चीजों पर काम करना जरूरी है. कोई भी इंसान हर चीज पर काम नहीं कर सकता. ये जरूरी है कि हम नेटवर्किंग करें. कोऑर्डिनेट करें. एन.ऍफ़ .आई.डब्लू के साथ, एपवा के साथ, नारीवादियों के साथ काम करें. रिजर्वेशन पर मैं मानती हूँ कि यह  ज़रूरी है.

 ट्रेनिंग के दौरान के अपने अनुभव बताएंगी? लड़कियां कितनी जल्दी रेस्पॉन्ड करती हैं? कितनी जल्दी लड़कियां समझतीं हैं जेंडर के इश्यूज़ को और लड़के कितनी जल्दी ?
 मेरी ज्यादातर जो ट्रेनिंग्स हैं वो महिलाओं के साथ होती हैं, लड़कियों के साथ नहीं.मैं १४ साल से काम उम्र को लड़की समझती  हूँ और १४ साल से ऊपर को औरत. चूँकि मैं ज्यादातर ट्रेनिंग्स औरतों के साथ काम करने वालों के साथ करती हूँ.ट्रेनर हों, एक्टिविस्ट हों, एन.जी.ओ. हेड्ज़ हों, पार्लिआमेंटेरियन्स हों, पोलिस आफिसर्स हों- इन सबके साथ मैं ट्रेनिंग कर चुकी हूँ. जब से मेरे बाल सफ़ेद हुए हैं,  जोकि २० साल हो गए हैं, तो मैं ज्यादा शक्तिशाली पुरुषों के साथ काम करती हूँ. क्योंकि वे किसी जूनियर ट्रेनर की बात सुनने को तैयार नहीं हैं. क्योंकि मैं यू.एन. में थी. मैं फलानी थी. मैं ढिकानी थी. तो वहां पर तजुर्बे की आवश्यकता होती है. जैसे मालदीव में मैंने मिनिस्टर्स, ब्यूरोक्रेट्स के साथ ट्रेनिंग्स की है. पुरुष और महिला पार्लिआमेंटेरियन्स के साथ ट्रेनिंग की है. पाकिस्तान, बांग्लादेश के एन. जी. ओ(ज) के पूरे-पूरे स्टाफ के साथ ट्रेनिंग की है. बांग्लादेश में छोटी वर्कशॉप्स टी. वी.चैनल्स के पत्रकारों के साथ की. नेपाल में पत्रकारों के साथ ४ दिन की ट्रेनिंग की. वहां पर एक संचारिका समूह है वीमेन मीडया पर्सन्स का, उनके साथ ट्रेनिंग की. हिन्दुस्तान की पुलिस और ब्यूरोक्रेट्स के साथ काम किया. लेकिन हिंदुस्तान के पार्लिआमेंटेरियन्स  के साथ नहीं. उनके पास टाइम कहाँ है? उनको कहाँ शर्म है,  जो उनके मुंह से रोज जुमले निकलते हैं महिलाओं के खिलाफ. पहली बार बात हो रही थी.  'आप' वाले आये थे, बातचीत कर रहे थे. आप के साथ बातचीत चल रही है.वे करवाना चाहते हैं ट्रेनिंग. मगर कब किसी को टाइम मिलेगा, ये भी देखना होगा. वे पूरे एक दिन अपने तमाम लेजिस्लेचर्स के साथ बैठना चाहते हैं. कई दफा आ चुके हैं. अब जो आपका प्रश्न था कि महिलाएं जल्दी समझ जातीं हैं, तो ये लाजिमी है. अगर आप दलितों के साथ जातिवाद पर ट्रेनिंग करेंगे तो दलित जल्दी कहेंगे, हाँ ठीक है, ऐसा होता है. क्योंकि वो जूता दलित को काट रहा है. अब मैं स्त्रीवादी हूँ, आप मुझसे दलित की बात करोगे तो मैं हिचकिचाऊंगी,  क्योंकि मैं औरत के हक़ की तो बात कर रही हूँ लेकिन क्या मैं क्लास पर उसी शिद्दत से बात कर रही हूँ.? क्या मैं कास्ट पर उसी शिद्दत से बात कर रही हूँ? क्या मैं अपनी जिंदगी में उसको जी रही हूँ? नहीं जी रही हूँ. इटेलेक्चुअली समझती हूँ. दूसरी बात ये है संजीव कि सारे पुरुष एक जैसे नहीं होते हैं. जिन पुरुषों के साथ मैं काम करती हूँ, जो एन. जी.ओ. वाले हैं, वे बहुत काम कर चुके होते हैं इन चीजों पर. कुछ सेन्सिटाइज़ होते हैं. मगर फिर भी पुरषों में अधिक रेजिस्टेंस होती है. बार-बार उन सवालों के साथ आते हैं. इसलिए मैं हमेशा ये कहती हूँ उनको कि भई मेरे साथ अगर बैठना है तो समय लेकर बैठ सकते हैं. मैं २ घंटे, तीन घंटे की ट्रेनिंग्स नहीं करती. कोई मतलब नहीं है. उसमें कुछ नहीं हो सकता. मैं तीन दिन कम-से- कम उनके साथ बैठती हूँ.

अभी जागोरी के साथ आपका असोसिएशन कैसा है?
'संगत' का काम है. वो 'जागोरी' का प्रोजेक्ट है. मैं वहां बैठती हूँ. लेकिन जो हमारा नेटवर्क है उस पर काम करती हूँ.एक बहुत बड़ा कैम्पेन 'जागोरी' और 'संगत' मिलकर कर रहे हैं. ये पूरी दुनिया में चल रहा है. हिंदी में हम उसको कहते हैं 'उमड़ते सौ करोड़'. अंग्रेजी में उसका नाम है 'वन बिलियन राइज़िंग'.मैं इसकी दक्षिण एशिया की कोआर्डिनेटर हूँ.एक और संस्था है 'पीस वीमेन एक्रॉस द वर्ल्ड. मैं उसकी ग्लोबल को-चेयर हूँ.इसमें दो चेयर्स हैं. ' वन बिलियन राइजिंग' का आ इडिया ई. वेंसनर ने दिया था मगर हमने कभी उसके नाम से इसको नहीं चलाया है.क्योंकि हम लोग भी महिलाओं पर होने वाली हिंसा पर 40 साल से काम कर रहे हैं. हमें लगा कि ये सबसे अच्छा मौका है दुनिया में सबके साथ मिलकर काम करने का.250 देशों में ये पिछले 3 साल में चला.क्या मतलब है इसका ? 100 करोड़  या वन बिलियन राइज़िंग का?  पूरे विश्व में 7 बिलियन से ज्यादा लोग हैं. आधी महिलाएं हैं -साढ़े तीन बिलियन.संयुक्त राष्ट्र संघ का कहना है कि 3 में से 1 औरत मार खाती है. उसके ऊपर हिंसा होती है. तो इस तरह एक बिलियन औरतों पर मार पड़ती है. यह एक बिलियन कांसेप्ट वहां से आया.अगर एक बिलियन मार खा रही हैं तो जब तक एक बिलियन स्त्री-पुरुष और बच्चे उठकर ये नहीं कहेंगे कि ये खतम हो, तब तक बात नहीं बनेगी.  अगर एक बिलियन पर हिंसा हो रही है तो हम एक बिलियन को इस हिंसा के खिलाफ खड़ा करेंगे.ये 250 देशों में चल रहा है क्योंकि पहले से लोग इस पर काम कर रहे थे. लेकिन मैं जब अपने स्तर पर, जागोरी के स्तर पर, संगत के स्तर काम करती हूँ तो एहसास होता है कि मैं एक बूँद हूँ.  जब मैं वन बिलियन का हिस्सा बन जाती हूँ, जब मैं इंटरनेशनल वीमेंस डे का हिस्सा बन जाती हूँ तो मुझे लगता है मैं बूंद से समंदर हूँ. समंदर बनने के लिए इस तरह के अंतरराष्ट्रीय अभियानों से हम जुड़ते हैं, जुड़कर काम करते हैं लेकिन काम अपने स्तर पर होता है.

अंतिम सवाल एक . आपको नहीं लगता कि डॉ. आंबेडकर स्त्रीवाद के लिए एक आइकॉन होने चाहिए थे, उन्होंने जितना काम किया था हिंदुस्तान में महिलाओं के लिए अलग टॉयलेट्स से लेकर हिन्दू कोड बिल तक, उतना आधुनिक भारत में किसी ने नहीं किया. 
बिलकुल मैं मानती हूँ कि उन्होंने बहुत काम किया. कुछः लोगों के लिए वे हैं आइकॉन. सिर्फ स्त्रीवाद के ही नहीं वे डेमोक्रेसी के आइकॉन हैं, वे सेकुलरिज़म के आइकॉन हैं, वे बराबरी के आइकॉन हैं. इसी तरह महत्मा फुले , शाहू जी महाराज आदि बहुत लोगों ने काम किया है. हम उनके ही कन्धों पर खड़े हैं. आज अगर भारत का ये संविधान न होता तो किस बिना पर ये लड़ाइयां लड़ते हम.मैं तो कहती हूँ कि भैया मैं तो भारत के संविधान के लिए लड़ रही हूँ. आप लिख दो  भारत के संविधान में किस्त्री-पुरुष बराबर नहीं हैं, तो हम चुप होकर बैठ जायेंगे. या यह करो या फिर संविधान के अनुसार बराबरी दो. मैं कहती हूँ भारत आजाद हुआ 1947 में औरत को अभी आजाद होना है. मैं बिना डर के नहीं घूम सकती हूँ तो मेरी आजादी का मतलब क्या है?

इस मामले तो क्लास खतम हो जाता है. यदि प्रियंका गांधी चली जायें कहीं बिना गांधी के टैग के तो फिर वे औरत हो जातीं हैं.
हाँ, खतम. और असली चीज एक सांस्कृतिक क्रांति कि जरूरत है. क़ानून बहुत आ गए . दहेज़ का क़ानून  बने कितने साल हो गए. रेप का क़ानून बने कितने साल हो गए. भ्रूण हत्या के खिलाफ क़ानून बने कितने साल हो गए लेकिन क्या वे  हमारी हकीकत बने  ?नहीं बने. क्योंकि लॉ बदलना आसान है.

काउंटर अटैक भी बहुत हुआ है. पिछले २०-३० सालों में जो लॉ वाली उपलब्धियां हासिल की हैं या एक स्पेस की भी उपलब्धि है हमारी लेकिन प्रतिआक्रमण  जबरदस्त हुआ है. मुझे लगता है कि इस अनुपात में हम लोग उसके बाद तैयार नहीं हैं. 
जैसा मैंने आपसे कहा हमारे खिलाफ पूरा कार्पोरेट वर्ल्ड है. पोर्नोग्राफी की बिलियन डॉलर इंडस्ट्री है. जो रोज कहते हैं कि औरत को  इस-इस प्रकार से पीड़ित करना है. पूरा टेलीविजन, जो अपने सीरियल्स दिखाता है, क्या औरत की हालत बना रखी है इन लोगों ने !  और ये जो गाने हैं- 'मैं तंदूरी मुर्गी हूँ मुझे ह्विस्की से गटका ले, शीला की जवानी.' कमला भसीन गीत लिखतीं है, ज्यादा से ज्यादा मैं लगा लूँ तो तो एक मिलियन लोग देख लेंगे मेरे गीत. फिल्म 'दबंग', ' लौंडिया पटायेंगे मिस्ड कॉल से'- इसको हमने १०० करोड़ का बिजनेस दिया. तो मैं बनाने वालों को क्या दोष दूँ,  जब १०० करोड़ के बिजनेस वाले आप और हम लोग बैठे हैं ? जब हर पंजाबी शादी पर 4-4 साल की लड़कियां इस गाने पर नाचती हैं कि 'मैं तंदूरी मुर्गी हूँ,  मुझे ह्विस्की से गटका ले'. तो क्या इसका कोई असर नहीं पड़ता है लोगों पर? हमारे खिलाफ जो ताकते हैं, दलितों के खिलाफ जो ताकतें हैं, अगर आप समझते हैं कि कोई दलित आंदोलन या महिला आंदोलन उसको जीत पायेगा, तो आप गलत समझते हैं. इसको जीतने के लिए सबको लड़ना पड़ेगा.



लेकिन दलित आंदोलन फिर भी ऐक्टिव है. रजिस्टेंस है वहां. स्त्रीवादी 80-90 के बाद से एक्टिव नहीं हैं. उस दौर में जो स्त्रीवादियों का दबाव बना, अब नहीं है.  
मैं बिलकुल नहीं मानती. आप लोग  तो शहरों में रहकर ये सारी बातें करते हैं. कोई गांव है जहाँ पर महिलाओं का कोई समूह नहीं है? जहाँ पर लड़कियां पढ़ने के लिए लड़ नहीं रही हैं ? आप तो महिला आंदोलन उसको मानते हो जहाँ पर कोई नेता हो , मेरी जैसी. मतलब जिस तरीके से ये पहुंचा है गांव-गांव तक,  जिस तरीके से यह सब कुछ हुआ है, यह कोई आसान बात नहीं है. गांवों से भी जो लिखते हो आप लोग, फलानी दलित औरत का बलात्कार  हो गया! कहाँ से न्यूज़ आई आपके पास? उस लड़की ने क्यों रिपोर्ट किया इसको? बिना स्त्रीवाद के उसकी रिपोर्ट हो गई ?बिना महिलाओं के काम करने के उसकी रिपोर्ट हो गई ? कहीं न कहीं से ये बात उसके दिमाग में पहुंची होगी कि औरत होने के नाते उस पर शोषण नहीं हो सकता. यह कांसस्नेस उसके पास कहाँ से आई? इन्हीं चीजों से पहुंची.

ये तो मैंने पहले ही कहा कि रिपोर्टिंग बढ़ी है.
लेकिन रिपोर्टिंग क्यों बढ़ी उस पर भी तो जाइए न. रिपोर्ट तो औरत ही करती है, मीडिया तो नहीं करता. तो औरत के अंदर वो चेतना कहाँ से आई ? वो चेतना आई होगी, कहीं किसी छोटे से एन. जी.ओ. ने कहा होगा कि देख तेरे साथ ये नहीं हो सकता, ये गलत है. इसके ऊपर कानून है. तू रिपोर्ट कर सकती है. तू पुलिस थाने जा सकती है , ये पचास साल पहले उसको नहीं मालूम था. रजिस्टेंस है. हम तो यही मानते हैं.
लिप्यान्तरण : अरुण कुमार प्रियम         

Thursday 1 October 2015

दादरी मोहम्मद अख़लाक़ की मौत - इंसानियत हार रही है


बिसाहड़ा गांव , दादरी में जो कुछ हुआ उसके बाद मन अभी तक शांत नहीं हुआ है बेचैनी सी बनी हुई है। मुझे 2011 का वक़्त याद आ गया जब मैंने सहारनपुर के मुजफ्फराबाद ब्लॉक के गावों में बजरंग दल के नेता अजय चौहान  द्वारा लिखवाई वाल राइटिंग देखी थी ( शेयर कर रहा हूँ ) जो गौ हत्या और लव जेहाद पर थी। 

जिसे हिन्दुओं के लिए खतरा बताया जा रहा था। उस समय भी यह सब पढ़ कर देख कर मन उदाश हुआ था ! वहां के लोगों से हमने इस तरह के दीवाल लेखन के बारे में  पुछा तो बतलाया गया कि  दीवाल लेखन सैकड़ों की तादात में पूरे मुजफ्फराबाद ब्लॉक के गावों में  किआ गया हैं।  नतीजा सामने है  मुज़फ्फरनगर , सहारनपुर के दंगे के रूप में और दादरी में जो कुछ हुआ उससे में काफी निराश हूँ. 
मुझे  मुहाजिर नाम से प्रसिद्ध शायर मुनव्वर राणा का एक शानदार शेर याद आ रहा है 
 ‘ ये देखकर पतंगे भी हैरान हो गईं, अब तो छतें भी  हिंदू-मुसलमान हो गईं ’

रवीश जी का लिखा लेख आप सब को शेयर कर रहा  हूँ ( क़स्बा से साभार ) 



तना सब कुछ सामान्य कैसे हो सकता है ? बसाहडा गाँव की सड़क ऐसी लग रही थी जैसे कुछ नहीं हुआ हो और जो हुआ है वो ग़लत नहीं है । दो दिन पहले सैंकड़ों की संख्या में भीड़ किसी को घर से खींच कर मार दे । मारने से पहले उसे घर के आख़िरी कोने तक दौड़ा ले जाए । दरवाज़ा इस तरह तोड़ दे कि उसका एक पल्ला एकदम से अलग होने के बजाए बीच से दरक कर फट जाए। सिलाई मशीन तोड़ दे। सिलाई मशीन का इस्तमाल मारने में करे । ऊपर के कमरे की खिड़की पर लगी ग्रील तोड़ दे । उस भीड़ में सिर्फ वहशी और हिंसक लोग नहीं थे बल्कि ताक़तवर और ग़ुस्से वाले भी रहे होंगे । खिड़की की मुड़ चुकी ग्रील बता रही थी कि किसी की आंख में ग़ुस्से का खून इतना उतर आया होगा कि उसने दाँतों से लोहे की जाली चबा ली होगी । भारी भरकम पलंग के नीचे दबी ईंटें निकाल ली गई थी ।
कमरे का ख़ूनी मंज़र बता रहा था कि मोहम्मद अख़लाक़ की हत्या में शामिल भीड़ के भीतर किस हद तक नफरत भर गई होगी । इतना ग़ुस्सा और वहशीपना क्या सिर्फ इस अफवाह पर सवार हो गया होगा कि अख़लाक़ ने कथित रूप से गाय का माँस खाया है । यूपी में गौ माँस प्रतिबंधित है लेकिन उस कानून में यह कहाँ लिखा है कि मामला पकड़ा जाएगा तो लोग मौके पर ही आरोपी को मार देंगे । आए दिन स्थानीय अखबारों में हम पढ़ते रहते हैं कि भीड़ ने गाय की आशंका में ट्रक घेर लिया । यह काम तो पुलिस का है । पुलिस कभी भी कानून हाथ में लेने वाली ऐसी भीड़ पर कार्रवाई नहीं करती ।
बसेहड़ा गाँव के इतिहास में सांप्रदायिक तनाव की कोई घटना नहीं है । गाँव में कोई हिस्ट्री शीटर बदमाश भी नहीं है । मोहम्मद अख़लाक़ और उनके भाई का घर हिन्दू राजपूतों के घरों से घिरा हुआ है । यह बताता है कि सबका रिश्ता बेहतर रहा होगा । फिर अचानक ऐसा क्या हो गया कि एक अफवाह पर उसे और उसके बेटे को घर से खींच कर मारा गया । ईंट से सर कूच दिया गया । बेटा अस्पताल में जिंदगी की लड़ाई लड़ रहा है । उसकी हालत बेहद गंभीर है ।
हर जगह वही कहानी है जिससे हमारा हिन्दुस्तान कभी भी जल उठता है । लाउडस्पीकर से एलान हुआ । व्हाट्स अप से किसी गाय के कटने का वीडियो आ गया । एक बछिया ग़ायब हो गई । लोग ग़ुस्से में आ गए । फिर कहीं माँस का टुकड़ा मिलता है । कभी मंदिर के सामने तो कभी मस्जिद के सामने कोई फेंक जाता है । इन बातों पर कितने दंगे हो गए । कितने लोग मार दिए गए । हिन्दू भी मारे गए और मुस्लिम भी । हम सब इन बातों को जानते हैं फिर भी इन्हीं बातों को लेकर हिंसक कैसे हो जाते हैं । हमारे भीतर इतनी हिंसा कौन पैदा कर देता है ।
दादरी दिल्ली से बिल्कुल सटा हुआ है । बसेहड़ा गाँव साफ सुथरा लगता है । ऐसे गाँव में हत्या के बाद सब कुछ सामान्य हो जाएगा ये बात मुझे बेचैन कर रही है । आस पास के लोग कैसे किसी की सामूहिक हत्या की बात पचा सकते हैं । शर्म और बेचैनी से वे परेशान क्यों नहीं दिखे ? भीड़ बनने और हत्यारी भीड़ बनने के ख़िलाफ़ चीख़ते चिल्लाते कोई नहीं दिखा । जब मैं पहुँचा तो गाँव नौजवानों से ख़ाली हो चुका था ।
लोग बता रहे थे कि लाउडस्पीकर से एलान होने के कुछ ही देर बाद हज़ारों लोग आ गए । मगर वो कौन थे यह कोई नहीं बता रहा । सब एक दूसरे को बचाने में लगे हैं । यह सवाल पूछने पर कि वो चार लोग कौन थे सब चुप हो जाते हैं । यह सवाल पूछने पर उन चार पाँच लड़कों को कोई जानता नहीं था तो उनके कहने पर इतनी भीड़ कैसे आ गई, सब चुप हो जाते हैं । अब सब अपने लड़कों को बीमार बता रहे हैं । दूसरे गाँव से लोग आ गए । हज़ारों लोग एक गली में तो समा नहीं सकते । गाँव भर में फैल गए होंगे । तब भी किसी ने उन्हें नहीं देखा । जो पकड़े गए हैं उन्हें निर्दोष बताया जा रहा है ।
जाँच और अदालत के फ़ैसले के बाद ही किसी को दोषी माना जाना चाहिए लेकिन हिंसा के बाद जिस तरह से पूरा गाँव सामान्य हो गया है उससे लगता नहीं कि पुलिस कभी उस भीड़ को बेनक़ाब कर पाएगी । वैसे पुलिस कब कर पाई है । माँस गाय का था या बकरी का फ़ोरेंसिक जाँच से पता चल भी गया तो क्या होगा । जनता की भीड़ तो फ़ैसला सुना चुकी है । अख़लाक़ को कूच कूच कर मार चुकी है । अख़लाक़ की दुलारी बेटी अपनी आँखों के सामने बाप के मारे जाने का मंज़र कैसे भूल सकती है । उसकी बूढ़ी माँ की आँखों पर भी लोगों ने मारा है । चोट के गहरे निशान है ।
दादरी की घटना किसी विदेश यात्रा की शोहरत या चुनावी रैलियों की तुकबंदी में गुम हो जाएगी । लेकिन जो सोच सकते हैं उन्हें सोचना चाहिए । ऐसा क्या हो गया है कि हम आज के नौजवानों को समझा नहीं पा रहे हैं । बुज़ुर्ग कहते हैं कि गौ माँस था तब भी सजा देने का काम पुलिस का था । नौजवान सीधे भावना के सवाल पर आ जाते हैं । वे जिस तरह से भावना की बात पर रिएक्ट करते हैं उससे साफ पता चलता है कि यह किसी तैयारी का नतीजा है । किसी ने उनकी दिमाग़ में ज़हर भर दिया है । वे प्रधानमंत्री की बात को भी अनसुना कर रहे हैं कि सांप्रदायिकता ज़हर है ।
मेरे साथ सेल्फी खींचाने आया प्रशांत जल्दी ही तैश में आ गया । ख़ूबसूरत नौजवान और पेशे से इंजीनियर । प्रशांत ने छूटते ही कहा कि किसी को किसी की भावना से खेलने का हक नहीं है । हमारे सहयोगी रवीश रंजन ने टोकते हुए कहा कि माँ बाप से तो लोग ठीक से बात नहीं करते और भावना के सवाल पर किसी को मार देते हैं । अच्छा लड़का लगा प्रशांत पर लगा कि उसे इस मौत पर कोई अफ़सोस नहीं है । उल्टा कहने लगा कि जब बँटवारा हो गया था कि हिन्दू यहाँ रहेंगे और मुस्लिम पाकिस्तान में तो गांधी और नेहरू ने मुसलमानों को भारत में क्यों रोका । इस बात से मैं सहम गया । ये वो बात है जिससे सांप्रदायिकता की कड़ाही में छौंक पड़ती है ।
प्रशांत के साथ खूब गरमा गरम बहस हुई लेकिन मैं हार गया । हम जैसे लोग लगातार हार रहे हैं । प्रशांत को मैं नहीं समझा पाया । यही गुज़ारिश कर लौट आया कि एक बार अपने विचारों पर दोबारा सोचना । थोड़ी और किताबें पढ़ लो लेकिन वो निश्चित सा लगा कि जो जानता है वही सही है । वही अंतिम है । आख़िर प्रशांत को किसने ये सब बातें बताईं होंगी ? क्या सोमवार रात की भीड़ से बहुत पहले इन नौजवानों के बीच कोई और आया होगा ? इतिहास की आधू अधूरी किताबें और बातें लेकर ? वो कौन लोग हैं जो प्रशांत जैसे नौजवानों को ऐसे लोगों के बहकावे में आने के लिए अकेला छोड़ गए ? खुद किसी विदेशी विश्वविद्यालय में भारत के इतिहास पर अपनी फटीचर पीएचडी जमा करने और वाहवाही लूटने चले गए ।
हम समझ नहीं रहे हैं । हम समझा नहीं पा रहे हैं । देश के गाँवों में चिंगारी फैल चुकी है । इतिहास की अधकचरी समझ लिये नौजवान मेरे साथ सेल्फी तो खींचा ले रहे हैं लेकिन मेरी इतनी सी बात मानने के लिए तैयार नहीं है कि वो हिंसक विचारों को छोड़ दें । हमारी राजनीति मौकापरस्तों और बुज़दिलों की जमात है । दादरी मोहम्मद अख़लाक़ की मौत कवर करने गया था । लौटते वक्त पता नहीं क्यों ऐसा लगा कि एक और लाश के साथ लौट रहा हूँ ।

रवीश जी की NDTV की रिपोर्ट इस लिंक को क्लिक कर के देखें 

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