Sunday 13 December 2015

यह वीडियो विद्रोही को श्रद्धांजलि है

हाल ही में दिवंगत हुए जनकवि रमा शंकर यादव ‘विद्रोही’ को उनके कुछ प्रशंसकों ने अनूठे अंदाज में श्रद्धांजलि दी है.
विद्रोही जेएनयू में रहते थे और जेएनयू उनमें रहता था. उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर में जन्मे रमा शंकर यादव पढ़ाई के लिए दिल्ली के इस विश्वविद्यालय में आए तो फिर यहीं के होकर रह गए. यहीं उन्हें विद्रोही उपनाम मिला और यहीं से उनकी कविताएं निकलीं. साहित्यिक हलकों में अनजान लेकिन छात्रों और कविता प्रेमियों के बीच मशहूर इस फक्कड़ कवि का आठ दिसंबर को 58 साल की उम्र में निधन हो गया.
सवाल उठाने वाली परंपरा की जो धारा जेएनयू की पहचान रही है विद्रोही उसके जीवंत प्रतीक थे. जेनएनयू में हर साल आने वाले एक चौथाई नए छात्रों के लिए वे पुराने संघर्षों की जीती-जागती मिसाल रहे. उनका जाना भी इस परंपरा के मोर्चे पर ही हुआ. वे वैसे ही गए जैसे जनकवि जाते हैं. मुट्ठियां ताने हुए.
उस दिन विद्रोही दिल्ली में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के दफ्तर के सामने सरकार की शिक्षा नीतियों के विरोध में हो रहे धरना-प्रदर्शन में शामिल होने पहुंचे थे. दोपहर बाद अचानक उनकी तबीयत बिगड़ने लगी. वहां पर मौजूद लोगों ने उन्हें फौरन अस्पताल पहुंचाया जहां डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया.
साहित्यिक हलकों में विद्रोही भले ही वे अनजान थे, लेकिन छात्रों और कविता प्रेमियों के बीच खासे मशहूर. वे कबीर और अदम गोंडवी की परंपरा के अनुयायी थे.
विद्रोही वाचक परंपरा के कवि थे. खुद को नाजिम हिकमत, पाब्लो नेरूदा और कबीर की परंपरा से जोड़ने वााले इस कवि को अपना रचनाकर्म जुबानी याद था. उन्होंने कभी अपनी कविताओं को लिखा नहीं. यह काम उनके मुरीदों ने किया. विद्रोही के ऐसे ही कुछ प्रशंसकों ने उन्हें एक अनूठे वीडियो के जरिये श्रद्धांजलि दी है. उनकी चार चर्चित कविताएं इस वीडियो का हिस्सा हैं.
इस वीडियो के सूत्रधार और दिल्ली आर्ट फाउंडेशन के संस्थापक प्रत्युष पुष्कर कहते हैं, ‘मैं भी जेएनयू में ही पढ़ा हूं. विद्रोही जी से बहुत करीब का नाता था. तीन साल पहले पढ़ाई पूरी करके वहां से निकल गया था. फिर अपने काम में व्यस्त हो गया. इस बीच कई बार सोचा, लेकिन उनसे मिलना नहीं हो पाया. फिर अचानक उनके जाने की खबर सुनी बहुत धक्का लगा. वे जितने सक्रिय रहते थे उसे देखते हुए सोचा नहीं था कि वे अचानक यूं चल देंगे.’ वे आगे कहते हैं, ‘मन में बहुत बेचैनी थी.
सभार - सत्याग्रह 

Wednesday 2 December 2015

'अपाहिज' कहें या 'विकलांग' ?

सी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय | औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय ||
Speak in words so sweet, that fill the heart with joy
Like a cool breeze in summer, for others and self to enjoy

कबीर  का कहा मानते तो अपनी  बोली से किसी को कस्ट नहीं होता। शब्दों के सामाजिक , जातीय विश्लेषण से उनके अर्थ और घातक हो गये  हैं . 
कुछ शब्द किस हद तक आप को तकलीफ़ पंहुचा सकते हैं यह उनसे पूछे जिसके लिए यह बोला जाता हैं।  बाँझ , डायन , लुल्ला , लंगड़ा , अँधा , काली - कलुठी , विधवा , कुलटा । यह सभी शब्द " कलंक " की तरह होता हैं जिसका असर ताउम्र हैं।  BBC हिंदी का यह लेख इस मायने में अतिमहत्वपूर्ण हैं। 



जो व्यक्ति शारीरिक या मानसिक तौर पर विकलांग हैं उन्हें अपंग कहना सही है या अक्षम या निशक्त?
भारत सरकार ने 1995 में विकलांग जनों के अधिकार सुनिश्चित करने के लिए जब क़ानून बनाया तो उसे नाम दिया, ‘निशक्तजन अधिनियम 1995’.
पर समय के साथ विकलांग जनों ने इसपर आपत्ति जताई और अब नए क़ानून में वो ‘निशक्त’ नहीं ‘विकलांग जन’ कहलाना चाहते हैं.
पर आम बोलचाल की भाषा में विकलांग व्यक्तियों को उनकी विकलांगता से जुड़े कई अभद्र शब्दों से संबोधित किया जाता है, जबकि इनके बेहतर और सम्मानजनक विकल्प मौजूद हैं.



‘निशक्तजन अधिनियम 1995’ के तहत, केंद्र सरकार की तरफ़ से एक ‘मुख्य आयुक्त, निशक्त जन’ और राज्य सरकारों की तरफ़ से ‘आयुक्त, निशक्त जन’ की नियुक्ति की गई.
फिर भारत सरकार ने साल 2007 में संयुक्त राष्ट्र के ‘कनवेनशन ऑन द राइट्स ऑफ़ परसन्स विद डिसएबिलिटीज़’ पर हस्ताक्षर किए और इसमें ‘परसन्स विद डिसएबिलिटीज़’ यानि ‘विकलांग जन’ संबोधन के इस्तेमाल पर सहमति बनी.
जिसके बाद अब सरकार ने इन पदों के नाम बदलकर ‘मुख्य आयुक्त, विकलांग जन’ और ‘आयुक्त, विकलांग जन’ कर दिए हैं.
कनवेनशन में शब्दावली पर सहमति इसलिए बनाई गई क्योंकि दुनिया के अलग-अलग देशों में विकलांगता से जोड़कर अभद्र और रूढ़ीवादी संबोधन इस्तेमाल किए जाते हैं.



भारत के मौजूदा सरकारी क़ानून में उन लोगों को तो विकलांग माना जाता है जिन्हें सुनने में तकलीफ़ हो पर उन्हें नहीं जो बोल नहीं सकते.
समय के साथ बेहतर हुई समझ के मुताबिक़ अब नए क़ानून में ना बोल पाने की विकलांगता को अलग श्रेणी देने की मांग की गई है.
सुनने और बोलने से जुड़ी विकलांगता को अब ‘मूक-बधिर’ कहकर संबोधित किया जाना सही माना जाता है.



‘अंधा’ की जगह ‘नेत्रहीन’ शब्द का इस्तेमाल अब प्रचलन में है. इसके बावजूद कई स्कूल जिन्हें सरकार या निजी स्तर पर लोग चला रहे हैं, अब भी ‘अंध विद्यालय’ नाम रखते हैं.
टांगों या बाज़ू से जुड़ी किसी भी विकलांगता वाले व्यक्ति को ‘शारीरिक रूप से विकलांग’ और दिमाग़ से जुड़ी किसी प्रकार की विकलांगता वाले इंसान को ‘मानसिक रूप से विकलांग’ कहा जाने लगा है.
आम बोलचाल में ‘कोढ़ी’ शब्द भी अपमानजनक है और इसकी जगह ‘कुष्ठ रोगी’ को अब सही माना जा रहा है.



नए क़ानून पर काम कर रही संसद की स्थाई समिति ने ‘अलग क्षमता वाले लोग’ या ‘ख़ास क्षमता वाले लोग’ जैसे संबोधन के इस्तेमाल की बात कही है.
पर विकलांग जन इसे सही नहीं मानते और कहते हैं कि ये अहसान जताने जैसा है. उनके मुताबिक़ ‘विकलांग जन’ सम्मानजनक भी है और उनकी शारीरिक स्थिति को स्पष्ट भी करता है.
भारत में 2011 में हुई जनगणना के मुताबिक़ देश में ढाई करोड़ से ज़्यादा विकलांग जन हैं. इस जनगणना में देखने, सुनने, बोलने, चलने-फिरने, मानसिक बीमारी समेत आठ श्रेणियों की विकलांगता को शामिल किया गया है.
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Saturday 24 October 2015

पितृसत्ता पुरुषों का अमानवीयकरण करती है : कमला भसीन

मला दीदी से मेरी मुलाकात सन 2001  दिल्ली मे एक जेंडर संबेदीकरण कार्यशाला के दौरान हुई थी , उस कार्यशाला में मैं अकेला पुरुष था . कार्यशाला तीन दिन खत्म हो चूका था फिर चौथे दिन कमला दीदी आईं थी . और आते हीं उन्होने कहा की " इस लड़के को तुम सब ने मिल कर परेसान तो नहीं किआ ! लड़का होना इस का दोष नहीं हैं , ये हम औरतो की जिम्मेदारी है की इस को दुनिया, दुनिआ  के नियम ,मर्दों की दुनिआ और मर्दों के दुनिया के नियम को औरतों के नज़रों से दिखायें , नारीवाद समझायं  . आओ मेरे पास आओ , यहाँ बैठो मेरे पास ! "  तब मुझे पहली बार  लगा की सभी समस्या का कारण मैं नहीं हूँ और लड़किओं और औरतो के बीच तीन दिन बाद , मैं अब अकेला भी नहीं हूँ . लैंगिक बराबरी और पुरषों मेँ  बदलाव का प्रशिक्षण इसी तरह साथ बैठा कर शुरू करना चाहिए , फिर क्या था वहीँ से जीवन मेँ बदलाव शुरू जो अब तक नहीं थमा  है ..!    शुक्रिया कमला दीदी , माधवी दीदी , यशोधरा दीदी , आशा दीदी ,चन्द्रा दीदी ,मधु कुशवाहा दीदी , संजय भाई , अभिजीत दा और सतीश भाई . 
यह लेख स्त्रीकाल से लिए गया है जो शुक्रवार, अक्तूबर 23, 2015 को छापा था .
                                                  
मला भसीन दक्षिण एशियाई देशों में जेंडर ट्रेनिंग के लिए ख्यात हैं. स्त्री -पुरुष समानता की अलख जगाती कमला भसीन के साथ स्त्रीकाल के लिए संजीव चंदन ने बातचीत की है . इत्मीनान से पढ़ें यह बातचीत , यकीनन आपके भीतर का 'मर्द' कुछ तो पिघलेगा . 

इन दिनों क्या कर रहीं हैं?
इन दिनों मैं ‘जागोरी’ में स्थित ‘संगत’ नाम की संस्था को  पिछले बारह साल से को-आर्डिनेट कर रहीहूँ. साउथ एशिया में जो स्त्री और  पुरुष स्त्रीवादी सोच के साथ काम  कर रहे हैं, उनके साथ कम करती  हूँ.उसमें दो तरह के काम हैं. एक है- क्षमता वर्धक (कपैसिटी बिल्डिंग). जो नई-नई सोच आती है, उसको उन तक पहुँचाना और दूसरा है-ट्रेनिंग. ट्रेनिंग बहुत सुन्दर माध्यम है एक संजाल बनाने का. अब जैसे अगले सप्ताह नेपाल में एक ट्रेनिंग है. ये सारे  काम हम दूसरी संस्थाओं के साथ मिलकर करते हैं. नेपाली में इसे होस्ट करने वाली नेपाली संस्था है. हम केवल सबको इक्कठा करते हैं. करीब 37-38  महिलाएं 9  देशों से आ रही हैं, जो स्त्रीवादी काम कर रही हैं- पुरुषों के साथ, गरीबों के साथ, माईनारटीज के साथ. एक महीना वे एक-दूसरे के साथ रहती हैं. इसी तरह हम हिंदी में ट्रेनिंग करते हैं, बंगला में करते हैं.

आपका कोई अकादमिक बैकग्राउंड रहा है? स्त्रीवाद के लिए ट्रेनर की शुरुआत आपने कैसे की ?
एम.ए. की डिग्री तो है पर कोई अकादमिक काम नहीं किया है.

 स्त्रीवाद के लिए कैसे कम करना शुरू किया ?
सबसे पहले मैंने गरीबों के साथ, दलितों के साथ 1972 में कम करना शुरू किया. जर्मनी में नौकरी करती थी, वहां से रिजाइन देकर हिंदुस्तान वापस आ गई.

 जर्मनी में आप कहाँ थीं ?
जर्मनी में पहले तो मैंने म्युन्स्टर में पढाई की.पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद मैंने वहां २ साल ‘सोशियोलॉजी ऑफ़ डेवलपमेंट’ पढ़ा. उसके बाद मैंने जर्मन एक्सपर्ट, जो यहाँ आकार हमें पढाया करते थे, उनकी ट्रेनिंग की.परमानेंट सरकारी नौकरी से ग्यारह महीने बाद रिजाइन करके मैं हिंदुस्तान आ गई और मैंने ‘सेवा मंदिर’ उदयपुर में कम करना शुरू किया.चार साल मैंने वहां काम  किया. मैं में पढ़ी हूँ. मेरी पूरी पढाई, दसवीं तक राजस्थान के गांवों-कस्बों में हुई है.
 फैमिली बैकग्राउंड क्या था ?
 पिताजी सरकारी डाक्टर थे. हम लोग पंजाबी हैं. मेरा जन्म वेस्ट पंजाब में हुआ, जो अब पाकिस्तान में है. 1946 में मैं पैदा हुई-तब मेरी माँ वहां एक शादी में गई थीं.

तब आप माइग्रेट हुई थीं? 
नहीं, हम लोग माइग्रेट करके नहीं आये.उसके पहले ही पिताजी की नौकरी राजस्थान में थी-कोई 1939-40 में.गांवों में मैंने दसवीं सरकारी स्कूलों से की. राजस्थान यूनिवर्सिटी मैंने एम.ए. किया. चूंकि मैं राजस्थान में पढ़ी-बढ़ी इसलिए सोचा कुछ करूँ. गाँधी के समय में पैदाइश हुई थी,  तो ये नहीं था कि मैं सिर्फ पैसा कमाऊं. इसलिए जर्मनी की नौकरी छोड़कर आ गई और ‘सेवा मंदिर’ में काम शुरू किया. ये मोहन सिन्हा मेहता का संगठन था. उन पर सबका प्रभाव था. वो अम्बेसडर रह चुके थे और राजस्थान युनिवर्सिटी के वाइस चांसलर थे. उनके बेटे जगत मेहता, विदेश मंत्रालय में सेक्रेटरी थे. उन्होंने ‘सेवा मंदिर’, ‘विद्या भवन’ आदि संस्थाएं राजस्थान में शुरू कीं. चार साल मैंने वहां काम किया इसके बाद मुझे यू.एन. ने कहा कि मैं एन.जी.ओ की ट्रेनिंग का काम शुरू करूँ. तो 27 साल तक मैंने यू.एन. के कहने पर एशिया और दक्षिण एशिया के स्तर पर ट्रेनिंग शुरू की. वह सिर्फ जेंडर की ट्रेनिंग नहीं थी, क्योंकि मैं जेंडर को अलग नहीं मानती. जेंडर कास्ट के साथ जुड़ा है, जेंडर क्लास के साथ जुड़ा है, डेमोक्रेसी के साथ जुड़ा है. तो  इन सब चीजों की ट्रेनिंग. क्योंकि डेमोक्रेसी नहीं होगी तो फिर वीमेन राइट की तो बात ही नहीं हो सकती. हम जानते हैं किदलित औरत के साथ जो होता है,  वह सिर्फ जेंडर नहीं होता, वहां कास्ट भी होती है.

लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि शुरुआती दौर में स्त्रीवादी आन्दोलनों में जाति क्वेशचन नहीं बन पायी थी?
 पता नहीं आप किसकी बात कर रहे हैं?  आप दिल्ली के आंदोलन को ही स्त्रीवादी आन्दोलन मानते हैं, जो कि मैं नहीं मानती. मैं समझती हूँ कि महाराष्ट्र में सालों पहले सावित्रीबाई फुले ने काम किया.तमिलनाडु में जो बातचीत हुई, वहां कास्ट थी. हम लोगों ने भी, जैसे मैंने भी गरीबों के साथ कम शुरू किया तो कास्ट और क्लास दोनों सवाल थे . 

 उधर थोड़ा  बाद में आयेंगे. अभी आपकी किताब आई है ‘मर्द मर्दानगी और मर्दवाद’ ये अंग्रेजी में भी है. 
कमला भसीन- हाँ, पांच-छः साल पहले ये किताब आई. ये 15-20 अन्य भाषाओँ में भी है. मेरी सभी किताबें 15-20 भाषाओँ में हैं.

यह विषय क्यों चुना आपने- ‘मर्द-मर्दानगी-मर्दवाद ?’
 पता नहीं क्यों, शायद महिला आन्दोलन की कमी रही हो या या समाज की कमी रही हो,ये समझा गया की जो जेंडर का काम है वो महिलाओं का काम है. इसलिए सारा फोकस महिलाओं पर हो गया. पुरुषों की बातें नहीं की गईं. पितृसत्ता पर महिलाएं 100-150-200 या 300 साल या जबसे पितृसत्ता शुरू हुई , पितृसत्ता पर बोलती रहीं हैं.अपने ऐक्सन्स में विरोध करती रहीं हैं. मीराबाई ने स्त्रीवाद की कोई किताब नहीं पढ़ी थी. हाँ, लेकिन जिंदगी थी. मैं समझती हूँ की जिस दिन पितृसत्ता की शुरुआत हुई, उसी दिन से स्त्रीवादी सोच शुरू हुई. मुझे लगता है महिला सशक्तिकरण या स्त्री पुरुष समानता में दो पहलू हैं- स्त्री और पुरुष. जब तक दोनों नहीं बदलेंगे, जब तक दोनों मिलकर इस पर जद्दोजहद नहीं करेंगे, तब तक समानता नहीं हो सकती है. मुझे लगता है शुरू से स्त्री-पुरुष समानता की लड़ाई स्त्री और पुरुष के बीच की लड़ाई नहीं है. ये दो मान्यताओं के बीच की लड़ाई है. एक मान्यता कहती है कि पितृसत्ता बेहतर है और दूसरी कहती है- नहीं, समानता बेहतर होगी.

इसमें कहीं यह  आइडिया तो नहीं काम कर रहा था कि स्त्री के प्रति जो हिंसा या असमानता है,  उसमें मर्द एजेंसी के तौर पर तो है ही,  लेकिन वो विक्टिमाइज्ड भी है. मतलब वो भी पितृसत्ता के द्वारा गढ़ा जाता है?
वह  तो है ही, आप देखिये मर्दों ने खुद अपने बारे में कभी नहीं सोचा,  क्योंकि उनको सत्ता मिलती है. भई हमें तो वो जूता काट रहा था. इसलिए हमने कहा कि ये पितृसत्ता का जूता हटाओ. वे इस जूते को बहुत सुपरफिसियली देखते हैं. वे  समझतें हैं कि इस जूते  में हमें मजा आ रहा है.हमार साइज बढ़ रहा है.हम देवता भी कहला रहे हैं. हमें पति परमेश्वर भी कहा जा रहा है.सिर्फ हम ही अंतिम संस्कार करते हैं, हम ही कन्यादान करते हैं. उन्होंने ये नहीं देखा की किस प्रकार से पितृसत्ता लड़कों को रोने नहीं देती है. उन्हें अपनी कमजोरियां बयान नहीं करने देती. उनको संवेदनशील नहीं बनने देती. उनको बच्चों के साथ नहीं समय बिताने देती. किस प्रकार उनको मर्दानगी के नाम पर हिंसात्मक बनाया जाता है. उनको कहा जाता है की तुम लोगों को दबा के रखोगे, नहीं तो तुम असली मर्द नहीं हो. रोओगे नहीं. तो उससे उनका अमानवीयकरण हो जाता है. मैं ये मानती हूँ कि एक बलात्कारी मानव नहीं है, जो मानव के गुण होने चाहिए वह बलात्कारी के अंदर खत्म हो गए हैं. 50-60% प्रतिशत भारतीय पति,  जो अपनी पत्नियों के ऊपर हिंसा करते हैं, उनका कहीं न कहीं अमानवीयकरण (डीह्युमनाइजेसन) हो गया है. ब्रुटलाइजेसन हो गया है. वरना आप कैसे अपने जीवनसाथी पर हाथ उठा सकते हैं ! इसके साथ मेरा यह भी मानना है कि पुरुष शारीरिक तौर पर बलात्कारी नहीं है. अगर ऐसा होता तो बुद्ध भी बलात्कार करते.गांधी भी बलात्कारी होते, जीसस भी बलात्कारी होते. हमारी जिंदगी में ६० प्रतिशत पुरुष पत्नियों पर हाथ उठाते हैं , तो ४० प्रतिशत तो नहीं उठाते हैं  न ? इसका मतलब ये है कि ये कोई शारीरिक देन नहीं है.ये प्रकृति कि देन नहीं है. ये मानसिकता पैदा की गयी है. आप महिलाओं को भी देख सकते हैं. वो भी पीट सकती हैं अपने बच्चों को, जिनके ऊपर चलती है उनकी शक्ति.

इस तरह जैसे महिला बनाई जाती है वैसे पुरुष भी बनाया जाता है?
 हाँ, पुरुष भी बनाया जाता है, मगर दुःख की बात है कि महिलाओं ने इस पर सोचा है.  पुरुष अब तक नहीं सोच पाये. और चूकि मैं एन.जी. ओ के साथ काम करती थी, वहां सारे के सारे पुरुष हेड हुआकरते थे. मुझे लगा कि उनको बदलने कि जरूरत है.उनको भी यह समझने कि जरूरत है कि ये महिलाओं का मुद्दा नहीं है. ये स्त्री-पुरुष के बीच की लड़ाई नहीं है. ये दो मानसिकताओं के बीच की लड़ाई है. मैं आपको बुद्ध के जीवन से कहानियां सुना सकती हूँ. वो मेरी किताबों में भी लिखी हुई हैं कि कैसे बुद्ध ने, जो हिन्दू धर्म में पैदा हुए और जब महिलाएं उनके पास आयीं,  एक पिटीशन लेकर कि भई आप संघ में सिर्फ पुरुषों को ले रहे हो, हमको भी लो ! तो बुद्ध ने मन कर दिया. ढाई हजार साल पहले ये डिबेट चली. बुद्ध ने मौसी से ये डिबेट किया. उनकी मौसी आनंद के पास गयीं, जो डिप्टी डायरेक्टर थे. तब आनंद फिर वापस गए बुद्ध के पास. ढाई हजार साल पहले यह हुआ  कि महिलाओं को संघ में लिया जायगा.  क्या यह जेंडर  डिबेट नहीं था ? क्या यह महिला अधिकारों का डिबेट नहीं था? कोई किताब नहीं पढ़ी थी उन्होंने. कोई 'सीडॉ' नहीं था. कोई रेप बिल नहीं था.मगर औरत को बताना नहीं पड़ता कि उनके अधिकार छिन रहे हैं. उनको लगा कि हम भी तो बुद्ध बन सकते हैं. जो लोग कहते हैं कि जेंडर वेस्टर्न कांसेप्ट है, स्त्रीवाद वेस्टर्न कांसेप्ट है वे बतायें कि क्या बुद्ध  की मौसी स्त्रीवादी नहीं थी, जो बुद्ध के पास आयीं और कहा, ऐ मिस्टर ! मैं भी आना चाहती हूँ . मुझे क्यों रोक रहे हो? इसके अलावा अगर आप प्रॉफेट मोहम्मद की बात करें, जिन्होंने 1400-1500 साल पहले कितनी चीजें औरतों के लिए बदलीं.

थोड़ी कमी इधर भी है . एन.एफ़. आई. डब्लयू. ने अपनी स्थापना का सिक्सटीज़ मनाया. वहां एक भी तस्वीर सावित्रीबाई फुले की नहीं थी. ताराबाई शिंदे की नहीं थी. हमें तो डॉ. अम्बेडकर को भी लोकेट करना होगा अपने साथ.  
 एक्जैक्टली. वही बात है कि हमारी ताकत कितनी रही है.हम क्या सोच रहे हैं. उनके लिए क्लास मेन फैक्टर रहा करता था. मेरा यह मानना है कि बुद्ध अधिकार सबको दिलाना चाहते थे. इसलिए उन्होंने दलितों  को लेकर कहा कि बुद्धिज़्म में कास्ट सिस्टम नहीं होगा. महिलाओं को उन्होंने लिया,  लेकिन आठ ऐसे कानून बनाये जिसमें भिक्खुनी हर तरह से भिक्खु के नीचे रहेगी. अब आप इसमें कहोगे कि उन्होंने अधिकार पूरे नहीं दिए. मैं  कहूँगी कि ढाई हजार साल पहले अगर वो जीरो से ६०-७० पर ले आये तो क्या वह एक क्रन्तिकारी कदम नहीं था ? मैं उसको क्रांतिकारी कदम मानती हूँ.  प्रॉफेट मोहम्मद ने 1500 साल महिलाओं को  अधिकार दिए, ये कहा कि पुरुषों को संपत्ति ज्यादा मिलेगी लेकिन ये  कब कहा ? ये तब कहा जब महिलाओं को जीरो संपत्ति मिलती थी. उन्होंने कहा कि पुरुष चार शादियां कर सकते  हैं, मगर  ये-ये-ये शर्तें होंगी. ये कब कहा ? ये तब कहा जब पुरुष ५० शादियां कर रहा था. तो भई 50 या 100 से चार पर ले आओ, उसके बाद जो आने वाले हैं, उनकी जिम्मेदारी बनती है कि चार से एक पर लाएं.पर वो तो चार पर ही आकर फंस गए. क्योंकि वो प्रॉफेट नहीं थे, वो प्रॉफेट के चमचे थे. उन्होंने अंदर से रियलाइजेसन नहीं किया.  इन सब चीजों के कारण लगा कि मर्दानगी पर, मर्दवाद पर  सोचना आवश्यक है. इसमें यह भी लिखा है कि किस प्रकार से केवल धर्मों ने, परम्पराओं ने ये चीजें नहीं फैलाईं. आज कैपिटलिस्ट पैट्रीआर्की पूरी तरह से मर्दवाद फैला रही है. पूरी तरह से महिलाओं को नीचे दिखा रही है. पोर्नोग्राफी बिलियन डॉलर इंडस्ट्री है.कॉस्मेटिक्स, जो कहती है कि महिला जब तक इस शेप की नहीं है, इस कलर की नहीं है,  वहबेकार है. बाजार में उसकी कोई कीमत नहीं है. खिलौनों की इंडस्ट्री में लड़कों के लिए बंदूकें, स्पाइडर मैन और लड़कियों के लिए बार्बी डॉल्स. हर बार वही चीज दोहराई जाती है- मर्द. आजकल एक विज्ञापन रेडियो में आता है- दिल्ली  का कड़क लौंडा. अब 'कड़क लौंडा' शब्द आप भी जानते हैं. मैं भी जानती हूँ कि वो किस चीज की बात कर रहे हैं. वो कड़क पेनिस कि बात कर रहे हैं.क्या काम है उसका रेडियो पर ? वह लोगों को बेहूदा फोन करके बेहूदा बातें  करता है. इसी प्रकार रणधीर कपूर के कितने सारे ऐड्स देख लें. पेप्सी और आई.पी.एल. के ऐड्स आते थे- ‘आई.पी.एल. शराफत से देखा जाता है न कि शराफत से खेला जाता है’. जो फिल्में हैं उनमें- बद्तमीज दिल बद्तमीज दिल माने न माने न माने न. हमेशा वही पुरुषों कि बद्तमीजी. फिर मैंने इस पुस्तक में कहा है कि हाँ पितृसत्ता में पुरुषों को अधिकार बहुत मिलते हैं, लेकिन पुरुष शांत दिमाग से जरा यह भी सोच लें कि अधिकारों के साथ- साथ, पुरुष केवल 50 प्रतिशत हैं, लेकिन 99 प्रतिशत टेररिस्ट पुरुष हैं. 99 प्रतिशत क्रिमिनल्स पुरुष हैं. 99 प्रतिशत ट्रेफिक आफेंडर पुरुष हैं. अमेरिका में हर दो महीने में 17-18-19 साल का एक लड़का एक बंदूक उठाकर एक स्कूल में 10-20 लड़कों को मारकर घर आता है. कभी औरत ने ऐसा किया ?तो ये हो रहा है. आज भी 'हिन्दू' अख़बार में है कि पुरुषों की आत्महत्याएं महिलाओं की आत्महत्याओं से कहीं अधिक हैं.

 एक राइट-अप हमने अपने यहाँ (स्त्रीकाल में ) भी लगाया था- 'किसान महिलाएं आत्महत्या नहीं करतीं हैं.' बल्कि  ज्यादा कष्ट झेलतीं  हैं. 
वही बात है की भई हमें तो कष्ट झेलने की आदत पड़ जाती है. पुरुष दो कारणों से मरता है. मैंने इस किताब में लिखा है. एक कारण है- गरीबी. दूसरा कारण है-पितृसत्ता. वह सोचता है मैं कैसा मर्द हूँ कि अपने परिवार का पालन नहीं कर  सकता. उसके अंदर अपनी एक इमेज है. इस तरह आप देखेंगे जब थाईलैंड में, कोरिया में इकोनॉमिक रिप्रेसन आया तो बहुत पुरुषों ने आत्महत्याएं कीं, स्त्रियों ने नहीं कीं. क्योंकि उनकी मर्दानगी को भी चोट पहुँच रही है की भई कैसा मर्द हूँ. गरीबी तो है ही. औरत भी गरीब है पर वह औरत को छोड़कर कहाँ जाएगी.

इधर जो बढ़ते हुए केसेज़ हैं स्त्री के खिलाफ हिंसा के, बलात्कार भी उनमें शामिल है, उसको आप कैसे देखतीं हैं? मेरा मानना है कि रिपोर्टिंग बढ़ रही है. यह एक तरह से एम्पावरमेंट भी है.
मेरा मानना है, दोनों चीजें हैं. रिपोर्टिंग तो बढ़ ही रही है. ब्रूटलिटी पूरे समाज में हर स्तर में बढ़ रही है.ये सिर्फ स्त्री-पुरुष के खिलाफ नहीं है. आप दूसरे तबकों, मायनार्टिज के खिलाफ देख लीजिये.ये काफी हद तक रिसोर्सेज़ की लड़ाई है. किसी कालोनी में जाएँ. पार्किंग के लिए लोग एक-दूसरे को मार रहे हैं. सड़क में कार से जल्दी आगे निकलने के लिए लोग एक-दूसरे को मार रहे हैं. आगे पहुंचना है, क्योंकि इनसिक्यॉरिटी इतनी बढ़ रही है इस पैराडाइम में. ये जो कार्पोरेट वाला नियोलिबरल पैराडाइम है, इसमें हिंसात्मक कम्पटीशन बढ़ रहा है,  मूल्यों का हनन हो रहा है. हमारे बड़े-बड़े एक्टर्स, जो करोड़पति है, शराब के विज्ञापन निकालते हैं, जोकि गैरकानूनी है. शराब को वो सोडा या म्यूजिक कहके बेचते हैं. टेलीविजन पर रोज आते हैं- लार्ज...लार्ज...स्मालर.. स्मालर.. बिगर दैन लाइफ. कौन हैं ये? ये करोड़पति लोग हैं,  जो गैरकानूनी तरीके से शराब बेच रहे हैं ये खाते-पीते डाक्टर भ्रूणहत्याएं कर रहे हैं. इसके कारण ३६ मिलियन औरतें कम हैं इस देश में पुरुषों से. छत्तीस मिलियन ! दो मायनार्टिज के मर जाते हैं तो हड़तालें हो जातीं हैं. २० दलित मर जाते हैं तो भी हड़तालें हो जातीं हैं. यहाँ ३६ मिलियन औरतों को मर के गिरा दिया गया, क्या कभी पार्लियामेंट बंद हुई आधे दिन के लिए कि कहाँ जा रहीं हैं ये ? सेक्स रेशियो क्यों गिरता जा रहा है ? अगर कोई आकर छाती पीटतीं हैं , तो महिला संस्थाएं आकर पीटतीं हैं. क्यों ट्रेड यूनियंस आकर इस पर बात नहीं करतीं? क्यों पॉलिटिकल पार्टी आकर इस पर बात नहीं करतीं ? क्या महिलाओं का मरना सिर्फ महिलाओं कि जिम्मेदारी है? ये जो स्त्री-पुरुष के मुद्दे हैं, ये स्त्री-पुरुष दोनों के मुद्दे हैं. इसमें मैंने ये भी समझाने की कोशिश की है कि जब तक औरत आजाद नहीं होगी, पुरुष आजाद नहीं हो सकता. अगर अपनी बेटी को आपको प्रोटेक्ट करके रखना है तो पूरी उमर आप प्रोटेक्ट करते रहोगे. पहले आप, आपके मरने के बाद आपका बेटा और उसका पति. अगर आपकी बेटी काबिल है,  बेटा नालायक निकल गया या डिसएबल पैदा हो गया या मेन्टल इलनेस हो गयी तो आपकी बेटी आपका काम संभाल लेगी. 'स्त्रीकाल' निकाल लेगी. कहेगी, पापा ! मैं हूँ न. आपके पास सारे साधन हैं. अपनी पत्नी को आपने कहीं बाहर नहीं निकलने दिया. आपका एक्सीडेंट हो जाता है और आप मरते रहते हो कि मेरी पत्नी का क्या होगा. मेरे परिवार का क्या  होगा. अगर पत्नी भी उतनी ही क़ाबिल होगी तो कहेगी- पार्टनर! डोंट वरी. मैं हूँ न ! मैं तो यही मानती हूँ, चूँकि स्त्री-पुरुष दोनों एक ही परिवार में रहते हैं, बराबरी होगी तो शांति होगी बराबरी होगी तो आगे बढ़ पाएंगे. गैरबराबरी होगी तो, घर में चार लोग हैं, जिनमें दो मुरझाये हुए हैं और दो पनप  रहे हैं. मैं हमेशा कहती हूँ कि मैंने आज तक कोई किसान नहीं देखा है, जिसके पास चार एकड़ जमीन है, वो दो एकड़ सड़ने दे और दो एकड़ में फलें-फूलें चीजें. लेकिन लड़के और लड़कियों के साथ हम यही करते हैं. चलो हमको पहले नहीं मालूम था, औरतें क्या-क्या कर सकतीं हैं. कितनी काबिल बन सकतीं हैं. पर अब तो औरतों ने पिछले 100 सालों में दिखा दिया कि दुनिया का कोई क्षेत्र नहीं, जिसमें वह काबिलियत नहीं रखतीं.

आप एन.जी.ओ. ट्रेनिंग ही करती रही हैं या ट्रेनर की मास ट्रेनिंग करती रहीं हैं ?
कमला भसीन-एन.जी.ओ(ज़) में मई उन लोगों की ट्रेनिंग करती रहीं हूँ , जो गांवों में जाकर काम करते हैं. कालेज और यूनिवर्सिटीज ने भी मुझे कई बार बुलाया है. जैसे अब अगले हफ्ते लेडी इरविन कालेज ने. गार्गी कालेज और लेडी इरविन कालेज ने हमेशा से मुझे बुलाया है. फिर मैंने एक और संस्था शुरू की थी, उसका नाम है- ‘अंकुर’, अल्टरनेटिव इन एजुकेशन. ये स्कूलों में काम कर रही है. इस प्रकार हर जगह थोड़ा- थोड़ा काम किया है.


 आप तो जेंडर समानता के गीत भी लिखती हैं? गीतों के संग्रह नहीं आये?
बिल्कुल, मेरा मुख्य  काम वही है. मेरे गीतों की किताबें हैं. सी.डी. हैं. पिछले 3 साल में तो 3 नए   सी.डी.(ज़) निकाले हैं. गीतों का मेरा खास काम है,  जिसकी वजह से मैं जानी जाती हूँ. मेरे गीत हैं, पोस्टर्स हैं, बैनर्स हैं.पिछले 15-20 साल से हम कपड़ों में बड़े-बड़े स्लोगन्स, चूँकि मेरा ये मानना है कि कुछ राज्यों में 50-60 प्रतिशत महिलाएं पढ़-लिख  नहीं सकतीं, वहां पर जो गीत का माध्यम है, बहुत सशक्त माध्यम है.

'परचम बना लेती', वो आपका ही गीत है? यह तो किसी और की  लाइन है.
 ये लाइन किसी और की है, लेकिन गीत मेरा है. शायद मख़दूम साहब हैं. मैंने उसमे लिखा है-'तू इस आँचल का परचम बना लेती तो अच्छा था, तू सहना छोड़कर कहना शुरू करती तो अच्छा था.' ये लाइनें मेरी हैं, लेकिन वहां से प्रेरित हैं.

अभी बात हो रही थी कास्ट को लेकर के, आप कास्ट क़्वेश्चन को कैसे देख रहीं हैं? महिला रिजर्वेशन के प्रसंग में अपनी बात कहेंगी कि उसमें 'रिजर्वेशन-विदइन-रिजर्वेशन' के कारण तो दिक्कत नहीं हैं? यदि ऐसा है तो क्यों नहीं उस पर ओपन हुआ जाये? 
हिंदुस्तान में अगर हम पितृसत्ता कि बात करें,  तो जिन लोगों ने पितृसत्ता पढ़ा हैं वे जानते हैं, लगभग जब पितृसत्ता चालू हुई , तो जाति-व्यवस्था भी लगभग उसी टाइम चालू हुई. ये दोनों सिस्टम सत्ता रिलेटेड हैं.एक में पुरुष सत्ता है और दूसरे में जाति सत्ता है. दोनों शोषण पर आधारित हैं. ठीक इसी प्रकार से क्लास, अगर आप कार्ल मार्क्स कि बात करें तो उन्होंने यही कहा कि जब तक प्राइवेट प्रॉपर्टी नहीं आई थी पितृसत्ता नहीं थी. मैं इस बात को मानती हूँ कि प्राइवेट प्रॉपर्टी ही कारण थी, जिसके कारण पितृसत्ता लानी पड़ी. प्राइवेट प्रॉपर्टी के बाद ही जितनी गैरबराबरियां  आईं  हैं. क्योंकि उसके पहले सब कहते थे, पीते थे, मरते थे. जैसे प्राइवेट प्रॉपर्टी डेवलप हुई, तो हुआ  कि ये अब कौन संभालेगा ? तय हुआ पुरुष, ब्राह्मण और अपर क्लास. तो ये तीनों सिस्टम लगभग इकठ्ठे आये. औरत सिर्फ औरत नहीं होती. औरत की कास्ट भी होती है. औरत की क्लास भी होती है. औरत की रेस भी होती है.

महिला रिजर्वेसन पर आपका  सैद्धांतिक स्टैंड क्या है ?
मैं यह मानती हूँ कि इन सब चीजों पर काम करना जरूरी है. कोई भी इंसान हर चीज पर काम नहीं कर सकता. ये जरूरी है कि हम नेटवर्किंग करें. कोऑर्डिनेट करें. एन.ऍफ़ .आई.डब्लू के साथ, एपवा के साथ, नारीवादियों के साथ काम करें. रिजर्वेशन पर मैं मानती हूँ कि यह  ज़रूरी है.

 ट्रेनिंग के दौरान के अपने अनुभव बताएंगी? लड़कियां कितनी जल्दी रेस्पॉन्ड करती हैं? कितनी जल्दी लड़कियां समझतीं हैं जेंडर के इश्यूज़ को और लड़के कितनी जल्दी ?
 मेरी ज्यादातर जो ट्रेनिंग्स हैं वो महिलाओं के साथ होती हैं, लड़कियों के साथ नहीं.मैं १४ साल से काम उम्र को लड़की समझती  हूँ और १४ साल से ऊपर को औरत. चूँकि मैं ज्यादातर ट्रेनिंग्स औरतों के साथ काम करने वालों के साथ करती हूँ.ट्रेनर हों, एक्टिविस्ट हों, एन.जी.ओ. हेड्ज़ हों, पार्लिआमेंटेरियन्स हों, पोलिस आफिसर्स हों- इन सबके साथ मैं ट्रेनिंग कर चुकी हूँ. जब से मेरे बाल सफ़ेद हुए हैं,  जोकि २० साल हो गए हैं, तो मैं ज्यादा शक्तिशाली पुरुषों के साथ काम करती हूँ. क्योंकि वे किसी जूनियर ट्रेनर की बात सुनने को तैयार नहीं हैं. क्योंकि मैं यू.एन. में थी. मैं फलानी थी. मैं ढिकानी थी. तो वहां पर तजुर्बे की आवश्यकता होती है. जैसे मालदीव में मैंने मिनिस्टर्स, ब्यूरोक्रेट्स के साथ ट्रेनिंग्स की है. पुरुष और महिला पार्लिआमेंटेरियन्स के साथ ट्रेनिंग की है. पाकिस्तान, बांग्लादेश के एन. जी. ओ(ज) के पूरे-पूरे स्टाफ के साथ ट्रेनिंग की है. बांग्लादेश में छोटी वर्कशॉप्स टी. वी.चैनल्स के पत्रकारों के साथ की. नेपाल में पत्रकारों के साथ ४ दिन की ट्रेनिंग की. वहां पर एक संचारिका समूह है वीमेन मीडया पर्सन्स का, उनके साथ ट्रेनिंग की. हिन्दुस्तान की पुलिस और ब्यूरोक्रेट्स के साथ काम किया. लेकिन हिंदुस्तान के पार्लिआमेंटेरियन्स  के साथ नहीं. उनके पास टाइम कहाँ है? उनको कहाँ शर्म है,  जो उनके मुंह से रोज जुमले निकलते हैं महिलाओं के खिलाफ. पहली बार बात हो रही थी.  'आप' वाले आये थे, बातचीत कर रहे थे. आप के साथ बातचीत चल रही है.वे करवाना चाहते हैं ट्रेनिंग. मगर कब किसी को टाइम मिलेगा, ये भी देखना होगा. वे पूरे एक दिन अपने तमाम लेजिस्लेचर्स के साथ बैठना चाहते हैं. कई दफा आ चुके हैं. अब जो आपका प्रश्न था कि महिलाएं जल्दी समझ जातीं हैं, तो ये लाजिमी है. अगर आप दलितों के साथ जातिवाद पर ट्रेनिंग करेंगे तो दलित जल्दी कहेंगे, हाँ ठीक है, ऐसा होता है. क्योंकि वो जूता दलित को काट रहा है. अब मैं स्त्रीवादी हूँ, आप मुझसे दलित की बात करोगे तो मैं हिचकिचाऊंगी,  क्योंकि मैं औरत के हक़ की तो बात कर रही हूँ लेकिन क्या मैं क्लास पर उसी शिद्दत से बात कर रही हूँ.? क्या मैं कास्ट पर उसी शिद्दत से बात कर रही हूँ? क्या मैं अपनी जिंदगी में उसको जी रही हूँ? नहीं जी रही हूँ. इटेलेक्चुअली समझती हूँ. दूसरी बात ये है संजीव कि सारे पुरुष एक जैसे नहीं होते हैं. जिन पुरुषों के साथ मैं काम करती हूँ, जो एन. जी.ओ. वाले हैं, वे बहुत काम कर चुके होते हैं इन चीजों पर. कुछ सेन्सिटाइज़ होते हैं. मगर फिर भी पुरषों में अधिक रेजिस्टेंस होती है. बार-बार उन सवालों के साथ आते हैं. इसलिए मैं हमेशा ये कहती हूँ उनको कि भई मेरे साथ अगर बैठना है तो समय लेकर बैठ सकते हैं. मैं २ घंटे, तीन घंटे की ट्रेनिंग्स नहीं करती. कोई मतलब नहीं है. उसमें कुछ नहीं हो सकता. मैं तीन दिन कम-से- कम उनके साथ बैठती हूँ.

अभी जागोरी के साथ आपका असोसिएशन कैसा है?
'संगत' का काम है. वो 'जागोरी' का प्रोजेक्ट है. मैं वहां बैठती हूँ. लेकिन जो हमारा नेटवर्क है उस पर काम करती हूँ.एक बहुत बड़ा कैम्पेन 'जागोरी' और 'संगत' मिलकर कर रहे हैं. ये पूरी दुनिया में चल रहा है. हिंदी में हम उसको कहते हैं 'उमड़ते सौ करोड़'. अंग्रेजी में उसका नाम है 'वन बिलियन राइज़िंग'.मैं इसकी दक्षिण एशिया की कोआर्डिनेटर हूँ.एक और संस्था है 'पीस वीमेन एक्रॉस द वर्ल्ड. मैं उसकी ग्लोबल को-चेयर हूँ.इसमें दो चेयर्स हैं. ' वन बिलियन राइजिंग' का आ इडिया ई. वेंसनर ने दिया था मगर हमने कभी उसके नाम से इसको नहीं चलाया है.क्योंकि हम लोग भी महिलाओं पर होने वाली हिंसा पर 40 साल से काम कर रहे हैं. हमें लगा कि ये सबसे अच्छा मौका है दुनिया में सबके साथ मिलकर काम करने का.250 देशों में ये पिछले 3 साल में चला.क्या मतलब है इसका ? 100 करोड़  या वन बिलियन राइज़िंग का?  पूरे विश्व में 7 बिलियन से ज्यादा लोग हैं. आधी महिलाएं हैं -साढ़े तीन बिलियन.संयुक्त राष्ट्र संघ का कहना है कि 3 में से 1 औरत मार खाती है. उसके ऊपर हिंसा होती है. तो इस तरह एक बिलियन औरतों पर मार पड़ती है. यह एक बिलियन कांसेप्ट वहां से आया.अगर एक बिलियन मार खा रही हैं तो जब तक एक बिलियन स्त्री-पुरुष और बच्चे उठकर ये नहीं कहेंगे कि ये खतम हो, तब तक बात नहीं बनेगी.  अगर एक बिलियन पर हिंसा हो रही है तो हम एक बिलियन को इस हिंसा के खिलाफ खड़ा करेंगे.ये 250 देशों में चल रहा है क्योंकि पहले से लोग इस पर काम कर रहे थे. लेकिन मैं जब अपने स्तर पर, जागोरी के स्तर पर, संगत के स्तर काम करती हूँ तो एहसास होता है कि मैं एक बूँद हूँ.  जब मैं वन बिलियन का हिस्सा बन जाती हूँ, जब मैं इंटरनेशनल वीमेंस डे का हिस्सा बन जाती हूँ तो मुझे लगता है मैं बूंद से समंदर हूँ. समंदर बनने के लिए इस तरह के अंतरराष्ट्रीय अभियानों से हम जुड़ते हैं, जुड़कर काम करते हैं लेकिन काम अपने स्तर पर होता है.

अंतिम सवाल एक . आपको नहीं लगता कि डॉ. आंबेडकर स्त्रीवाद के लिए एक आइकॉन होने चाहिए थे, उन्होंने जितना काम किया था हिंदुस्तान में महिलाओं के लिए अलग टॉयलेट्स से लेकर हिन्दू कोड बिल तक, उतना आधुनिक भारत में किसी ने नहीं किया. 
बिलकुल मैं मानती हूँ कि उन्होंने बहुत काम किया. कुछः लोगों के लिए वे हैं आइकॉन. सिर्फ स्त्रीवाद के ही नहीं वे डेमोक्रेसी के आइकॉन हैं, वे सेकुलरिज़म के आइकॉन हैं, वे बराबरी के आइकॉन हैं. इसी तरह महत्मा फुले , शाहू जी महाराज आदि बहुत लोगों ने काम किया है. हम उनके ही कन्धों पर खड़े हैं. आज अगर भारत का ये संविधान न होता तो किस बिना पर ये लड़ाइयां लड़ते हम.मैं तो कहती हूँ कि भैया मैं तो भारत के संविधान के लिए लड़ रही हूँ. आप लिख दो  भारत के संविधान में किस्त्री-पुरुष बराबर नहीं हैं, तो हम चुप होकर बैठ जायेंगे. या यह करो या फिर संविधान के अनुसार बराबरी दो. मैं कहती हूँ भारत आजाद हुआ 1947 में औरत को अभी आजाद होना है. मैं बिना डर के नहीं घूम सकती हूँ तो मेरी आजादी का मतलब क्या है?

इस मामले तो क्लास खतम हो जाता है. यदि प्रियंका गांधी चली जायें कहीं बिना गांधी के टैग के तो फिर वे औरत हो जातीं हैं.
हाँ, खतम. और असली चीज एक सांस्कृतिक क्रांति कि जरूरत है. क़ानून बहुत आ गए . दहेज़ का क़ानून  बने कितने साल हो गए. रेप का क़ानून बने कितने साल हो गए. भ्रूण हत्या के खिलाफ क़ानून बने कितने साल हो गए लेकिन क्या वे  हमारी हकीकत बने  ?नहीं बने. क्योंकि लॉ बदलना आसान है.

काउंटर अटैक भी बहुत हुआ है. पिछले २०-३० सालों में जो लॉ वाली उपलब्धियां हासिल की हैं या एक स्पेस की भी उपलब्धि है हमारी लेकिन प्रतिआक्रमण  जबरदस्त हुआ है. मुझे लगता है कि इस अनुपात में हम लोग उसके बाद तैयार नहीं हैं. 
जैसा मैंने आपसे कहा हमारे खिलाफ पूरा कार्पोरेट वर्ल्ड है. पोर्नोग्राफी की बिलियन डॉलर इंडस्ट्री है. जो रोज कहते हैं कि औरत को  इस-इस प्रकार से पीड़ित करना है. पूरा टेलीविजन, जो अपने सीरियल्स दिखाता है, क्या औरत की हालत बना रखी है इन लोगों ने !  और ये जो गाने हैं- 'मैं तंदूरी मुर्गी हूँ मुझे ह्विस्की से गटका ले, शीला की जवानी.' कमला भसीन गीत लिखतीं है, ज्यादा से ज्यादा मैं लगा लूँ तो तो एक मिलियन लोग देख लेंगे मेरे गीत. फिल्म 'दबंग', ' लौंडिया पटायेंगे मिस्ड कॉल से'- इसको हमने १०० करोड़ का बिजनेस दिया. तो मैं बनाने वालों को क्या दोष दूँ,  जब १०० करोड़ के बिजनेस वाले आप और हम लोग बैठे हैं ? जब हर पंजाबी शादी पर 4-4 साल की लड़कियां इस गाने पर नाचती हैं कि 'मैं तंदूरी मुर्गी हूँ,  मुझे ह्विस्की से गटका ले'. तो क्या इसका कोई असर नहीं पड़ता है लोगों पर? हमारे खिलाफ जो ताकते हैं, दलितों के खिलाफ जो ताकतें हैं, अगर आप समझते हैं कि कोई दलित आंदोलन या महिला आंदोलन उसको जीत पायेगा, तो आप गलत समझते हैं. इसको जीतने के लिए सबको लड़ना पड़ेगा.



लेकिन दलित आंदोलन फिर भी ऐक्टिव है. रजिस्टेंस है वहां. स्त्रीवादी 80-90 के बाद से एक्टिव नहीं हैं. उस दौर में जो स्त्रीवादियों का दबाव बना, अब नहीं है.  
मैं बिलकुल नहीं मानती. आप लोग  तो शहरों में रहकर ये सारी बातें करते हैं. कोई गांव है जहाँ पर महिलाओं का कोई समूह नहीं है? जहाँ पर लड़कियां पढ़ने के लिए लड़ नहीं रही हैं ? आप तो महिला आंदोलन उसको मानते हो जहाँ पर कोई नेता हो , मेरी जैसी. मतलब जिस तरीके से ये पहुंचा है गांव-गांव तक,  जिस तरीके से यह सब कुछ हुआ है, यह कोई आसान बात नहीं है. गांवों से भी जो लिखते हो आप लोग, फलानी दलित औरत का बलात्कार  हो गया! कहाँ से न्यूज़ आई आपके पास? उस लड़की ने क्यों रिपोर्ट किया इसको? बिना स्त्रीवाद के उसकी रिपोर्ट हो गई ?बिना महिलाओं के काम करने के उसकी रिपोर्ट हो गई ? कहीं न कहीं से ये बात उसके दिमाग में पहुंची होगी कि औरत होने के नाते उस पर शोषण नहीं हो सकता. यह कांसस्नेस उसके पास कहाँ से आई? इन्हीं चीजों से पहुंची.

ये तो मैंने पहले ही कहा कि रिपोर्टिंग बढ़ी है.
लेकिन रिपोर्टिंग क्यों बढ़ी उस पर भी तो जाइए न. रिपोर्ट तो औरत ही करती है, मीडिया तो नहीं करता. तो औरत के अंदर वो चेतना कहाँ से आई ? वो चेतना आई होगी, कहीं किसी छोटे से एन. जी.ओ. ने कहा होगा कि देख तेरे साथ ये नहीं हो सकता, ये गलत है. इसके ऊपर कानून है. तू रिपोर्ट कर सकती है. तू पुलिस थाने जा सकती है , ये पचास साल पहले उसको नहीं मालूम था. रजिस्टेंस है. हम तो यही मानते हैं.
लिप्यान्तरण : अरुण कुमार प्रियम         

Thursday 1 October 2015

दादरी मोहम्मद अख़लाक़ की मौत - इंसानियत हार रही है


बिसाहड़ा गांव , दादरी में जो कुछ हुआ उसके बाद मन अभी तक शांत नहीं हुआ है बेचैनी सी बनी हुई है। मुझे 2011 का वक़्त याद आ गया जब मैंने सहारनपुर के मुजफ्फराबाद ब्लॉक के गावों में बजरंग दल के नेता अजय चौहान  द्वारा लिखवाई वाल राइटिंग देखी थी ( शेयर कर रहा हूँ ) जो गौ हत्या और लव जेहाद पर थी। 

जिसे हिन्दुओं के लिए खतरा बताया जा रहा था। उस समय भी यह सब पढ़ कर देख कर मन उदाश हुआ था ! वहां के लोगों से हमने इस तरह के दीवाल लेखन के बारे में  पुछा तो बतलाया गया कि  दीवाल लेखन सैकड़ों की तादात में पूरे मुजफ्फराबाद ब्लॉक के गावों में  किआ गया हैं।  नतीजा सामने है  मुज़फ्फरनगर , सहारनपुर के दंगे के रूप में और दादरी में जो कुछ हुआ उससे में काफी निराश हूँ. 
मुझे  मुहाजिर नाम से प्रसिद्ध शायर मुनव्वर राणा का एक शानदार शेर याद आ रहा है 
 ‘ ये देखकर पतंगे भी हैरान हो गईं, अब तो छतें भी  हिंदू-मुसलमान हो गईं ’

रवीश जी का लिखा लेख आप सब को शेयर कर रहा  हूँ ( क़स्बा से साभार ) 



तना सब कुछ सामान्य कैसे हो सकता है ? बसाहडा गाँव की सड़क ऐसी लग रही थी जैसे कुछ नहीं हुआ हो और जो हुआ है वो ग़लत नहीं है । दो दिन पहले सैंकड़ों की संख्या में भीड़ किसी को घर से खींच कर मार दे । मारने से पहले उसे घर के आख़िरी कोने तक दौड़ा ले जाए । दरवाज़ा इस तरह तोड़ दे कि उसका एक पल्ला एकदम से अलग होने के बजाए बीच से दरक कर फट जाए। सिलाई मशीन तोड़ दे। सिलाई मशीन का इस्तमाल मारने में करे । ऊपर के कमरे की खिड़की पर लगी ग्रील तोड़ दे । उस भीड़ में सिर्फ वहशी और हिंसक लोग नहीं थे बल्कि ताक़तवर और ग़ुस्से वाले भी रहे होंगे । खिड़की की मुड़ चुकी ग्रील बता रही थी कि किसी की आंख में ग़ुस्से का खून इतना उतर आया होगा कि उसने दाँतों से लोहे की जाली चबा ली होगी । भारी भरकम पलंग के नीचे दबी ईंटें निकाल ली गई थी ।
कमरे का ख़ूनी मंज़र बता रहा था कि मोहम्मद अख़लाक़ की हत्या में शामिल भीड़ के भीतर किस हद तक नफरत भर गई होगी । इतना ग़ुस्सा और वहशीपना क्या सिर्फ इस अफवाह पर सवार हो गया होगा कि अख़लाक़ ने कथित रूप से गाय का माँस खाया है । यूपी में गौ माँस प्रतिबंधित है लेकिन उस कानून में यह कहाँ लिखा है कि मामला पकड़ा जाएगा तो लोग मौके पर ही आरोपी को मार देंगे । आए दिन स्थानीय अखबारों में हम पढ़ते रहते हैं कि भीड़ ने गाय की आशंका में ट्रक घेर लिया । यह काम तो पुलिस का है । पुलिस कभी भी कानून हाथ में लेने वाली ऐसी भीड़ पर कार्रवाई नहीं करती ।
बसेहड़ा गाँव के इतिहास में सांप्रदायिक तनाव की कोई घटना नहीं है । गाँव में कोई हिस्ट्री शीटर बदमाश भी नहीं है । मोहम्मद अख़लाक़ और उनके भाई का घर हिन्दू राजपूतों के घरों से घिरा हुआ है । यह बताता है कि सबका रिश्ता बेहतर रहा होगा । फिर अचानक ऐसा क्या हो गया कि एक अफवाह पर उसे और उसके बेटे को घर से खींच कर मारा गया । ईंट से सर कूच दिया गया । बेटा अस्पताल में जिंदगी की लड़ाई लड़ रहा है । उसकी हालत बेहद गंभीर है ।
हर जगह वही कहानी है जिससे हमारा हिन्दुस्तान कभी भी जल उठता है । लाउडस्पीकर से एलान हुआ । व्हाट्स अप से किसी गाय के कटने का वीडियो आ गया । एक बछिया ग़ायब हो गई । लोग ग़ुस्से में आ गए । फिर कहीं माँस का टुकड़ा मिलता है । कभी मंदिर के सामने तो कभी मस्जिद के सामने कोई फेंक जाता है । इन बातों पर कितने दंगे हो गए । कितने लोग मार दिए गए । हिन्दू भी मारे गए और मुस्लिम भी । हम सब इन बातों को जानते हैं फिर भी इन्हीं बातों को लेकर हिंसक कैसे हो जाते हैं । हमारे भीतर इतनी हिंसा कौन पैदा कर देता है ।
दादरी दिल्ली से बिल्कुल सटा हुआ है । बसेहड़ा गाँव साफ सुथरा लगता है । ऐसे गाँव में हत्या के बाद सब कुछ सामान्य हो जाएगा ये बात मुझे बेचैन कर रही है । आस पास के लोग कैसे किसी की सामूहिक हत्या की बात पचा सकते हैं । शर्म और बेचैनी से वे परेशान क्यों नहीं दिखे ? भीड़ बनने और हत्यारी भीड़ बनने के ख़िलाफ़ चीख़ते चिल्लाते कोई नहीं दिखा । जब मैं पहुँचा तो गाँव नौजवानों से ख़ाली हो चुका था ।
लोग बता रहे थे कि लाउडस्पीकर से एलान होने के कुछ ही देर बाद हज़ारों लोग आ गए । मगर वो कौन थे यह कोई नहीं बता रहा । सब एक दूसरे को बचाने में लगे हैं । यह सवाल पूछने पर कि वो चार लोग कौन थे सब चुप हो जाते हैं । यह सवाल पूछने पर उन चार पाँच लड़कों को कोई जानता नहीं था तो उनके कहने पर इतनी भीड़ कैसे आ गई, सब चुप हो जाते हैं । अब सब अपने लड़कों को बीमार बता रहे हैं । दूसरे गाँव से लोग आ गए । हज़ारों लोग एक गली में तो समा नहीं सकते । गाँव भर में फैल गए होंगे । तब भी किसी ने उन्हें नहीं देखा । जो पकड़े गए हैं उन्हें निर्दोष बताया जा रहा है ।
जाँच और अदालत के फ़ैसले के बाद ही किसी को दोषी माना जाना चाहिए लेकिन हिंसा के बाद जिस तरह से पूरा गाँव सामान्य हो गया है उससे लगता नहीं कि पुलिस कभी उस भीड़ को बेनक़ाब कर पाएगी । वैसे पुलिस कब कर पाई है । माँस गाय का था या बकरी का फ़ोरेंसिक जाँच से पता चल भी गया तो क्या होगा । जनता की भीड़ तो फ़ैसला सुना चुकी है । अख़लाक़ को कूच कूच कर मार चुकी है । अख़लाक़ की दुलारी बेटी अपनी आँखों के सामने बाप के मारे जाने का मंज़र कैसे भूल सकती है । उसकी बूढ़ी माँ की आँखों पर भी लोगों ने मारा है । चोट के गहरे निशान है ।
दादरी की घटना किसी विदेश यात्रा की शोहरत या चुनावी रैलियों की तुकबंदी में गुम हो जाएगी । लेकिन जो सोच सकते हैं उन्हें सोचना चाहिए । ऐसा क्या हो गया है कि हम आज के नौजवानों को समझा नहीं पा रहे हैं । बुज़ुर्ग कहते हैं कि गौ माँस था तब भी सजा देने का काम पुलिस का था । नौजवान सीधे भावना के सवाल पर आ जाते हैं । वे जिस तरह से भावना की बात पर रिएक्ट करते हैं उससे साफ पता चलता है कि यह किसी तैयारी का नतीजा है । किसी ने उनकी दिमाग़ में ज़हर भर दिया है । वे प्रधानमंत्री की बात को भी अनसुना कर रहे हैं कि सांप्रदायिकता ज़हर है ।
मेरे साथ सेल्फी खींचाने आया प्रशांत जल्दी ही तैश में आ गया । ख़ूबसूरत नौजवान और पेशे से इंजीनियर । प्रशांत ने छूटते ही कहा कि किसी को किसी की भावना से खेलने का हक नहीं है । हमारे सहयोगी रवीश रंजन ने टोकते हुए कहा कि माँ बाप से तो लोग ठीक से बात नहीं करते और भावना के सवाल पर किसी को मार देते हैं । अच्छा लड़का लगा प्रशांत पर लगा कि उसे इस मौत पर कोई अफ़सोस नहीं है । उल्टा कहने लगा कि जब बँटवारा हो गया था कि हिन्दू यहाँ रहेंगे और मुस्लिम पाकिस्तान में तो गांधी और नेहरू ने मुसलमानों को भारत में क्यों रोका । इस बात से मैं सहम गया । ये वो बात है जिससे सांप्रदायिकता की कड़ाही में छौंक पड़ती है ।
प्रशांत के साथ खूब गरमा गरम बहस हुई लेकिन मैं हार गया । हम जैसे लोग लगातार हार रहे हैं । प्रशांत को मैं नहीं समझा पाया । यही गुज़ारिश कर लौट आया कि एक बार अपने विचारों पर दोबारा सोचना । थोड़ी और किताबें पढ़ लो लेकिन वो निश्चित सा लगा कि जो जानता है वही सही है । वही अंतिम है । आख़िर प्रशांत को किसने ये सब बातें बताईं होंगी ? क्या सोमवार रात की भीड़ से बहुत पहले इन नौजवानों के बीच कोई और आया होगा ? इतिहास की आधू अधूरी किताबें और बातें लेकर ? वो कौन लोग हैं जो प्रशांत जैसे नौजवानों को ऐसे लोगों के बहकावे में आने के लिए अकेला छोड़ गए ? खुद किसी विदेशी विश्वविद्यालय में भारत के इतिहास पर अपनी फटीचर पीएचडी जमा करने और वाहवाही लूटने चले गए ।
हम समझ नहीं रहे हैं । हम समझा नहीं पा रहे हैं । देश के गाँवों में चिंगारी फैल चुकी है । इतिहास की अधकचरी समझ लिये नौजवान मेरे साथ सेल्फी तो खींचा ले रहे हैं लेकिन मेरी इतनी सी बात मानने के लिए तैयार नहीं है कि वो हिंसक विचारों को छोड़ दें । हमारी राजनीति मौकापरस्तों और बुज़दिलों की जमात है । दादरी मोहम्मद अख़लाक़ की मौत कवर करने गया था । लौटते वक्त पता नहीं क्यों ऐसा लगा कि एक और लाश के साथ लौट रहा हूँ ।

रवीश जी की NDTV की रिपोर्ट इस लिंक को क्लिक कर के देखें 

http://khabar.ndtv.com/video/show/prime-time/prime-time-a-man-killed-due-to-rumor-385050?pfrom=home-khabar





  

 


Saturday 5 September 2015

' बेटों' के प्रति 'अनुकूलित आग्रह' और बेटियों के लिए ' दुरग्रह '


ह शोध -लेख शास्त्र और लोक दोनो ही माध्यमों से ' बेटों' के प्रति 'अनुकूलित आग्रह' और बेटियों के लिए ' दुरग्रह' की व्याख्या कर रहा है- पठनीय .
" जैविक मातृत्व मिथ की तीसरी धारणा- बच्चे को उसकी अपनी माँ ही आवश्यक है, यह पहले से कहीं ज्यादा दमनकारी पहलू है। इस धारणा के तीन अंतर्निहित बिंदु है (1) बच्चे को सामाजिक माँ नहीं बल्कि जैविक माँ की जरूरत होती है। (2 ) नवजात शिशु की देखभाल पिता की अपेक्षा माँ अच्छे से कर सकती हैं। (3 ). बच्चे को अनेक नहीं मात्र एक पालक-पोषक ( जैविक माँ की वरीयता ) की जरूरत होती है। ऐन ओकली दत्तक संतानों के अध्ययनों से यह सिद्ध करती हैं कि सामाजिक माँ भी जैविक माँ जितना ही प्रभावकारी होती हैं। दूसरी धारणा कि माँ पिता की अपेक्षा बेहतर देखभाल करती है, को बेबुनियादी ठहराते हुए ऐन ओकली लिखती हैं कि ' आत्मीय, पारस्परिक व पालन-पोषण का रिश्ता ही बच्चे की पिता अथवा माता से जरूरत का निर्धारक बनता है।' और तीसरी धारणा कि बच्चे को एक पोषिका की जरूरत होती है। एक उदाहरण से ऐन ओकली इसे गैर जरूरी सिद्ध करती हुई सामूहिक समाजीकरण और बहुविकल्पी मातृत्व की महत्ता को रेखांकित करती हैं।
इस तरह ऐन ओकली अपने अध्ययन व तर्कों के आधार पर जैविक मातृत्व को स्त्री की प्राकृतिक आवश्यकता माने जाने को खारिज करती है। इसे वह दमनकारी उद्देश्य से रचित एक मिथ के तौर पर चिन्हित करती हैं। ऐन ओकली की भांति शुलामिथ फायरस्टोन भी जैविक मातृत्व के स्त्री नियंत्रणकारी पक्ष पर लिखती हैं, ' एक पुरुष के लिए उसका संतान उसके नाम, संपत्ति, वर्ग, जाति, पहचान का माध्यम होता है। इसके उलट स्त्री के लिए वहीं संतान घर के भीतर सीमित अस्तित्व का माध्यम बन जाता है।'-"



ब्राह्मणवादी पितृसत्तामक व्यवस्था ने अपनी मजबूती हेतु तमाम तरह के नीति व नियम बना रखे हैं। इस व्यवस्था ने कई तरह की सामाजिक, धार्मिक मान्यताओं को समाज में इस कदर पैबस्त कर रखा है कि जिनके पूरे न होने पर व्यक्ति अपने जीवन को निकृष्ट समझता है, जैसे- पुत्र-प्राप्ति। संपूर्ण हिंदू धार्मिक ग्रंथों में पुत्र प्राप्ति की इच्छायें पुत्र की महत्ता आदि सहस्त्रमुख से वर्णित है, लेकिन पुत्री की कामना कहीं नहीं दिखती। हिंदू विवाह संस्कार का मूल उद्देश्य ही पुत्र-प्राप्ति है। पुत्र से ही वंश-परंपरा आगे बढ़ती है,  इसलिए पुत्र को ' वंशकर'   कहा जाता है।  पुत्र ही पिण्डदान देकर तर्पण आदि करके पितृऋण चुका पाता है इसलिए पुत्र ही इच्छित है, पुत्री नहीं। ऐतरेय ब्राह्मण में पुत्रोत्पत्ति को ही मनुष्य का परम धर्म कहा गया है. ' पुत्र  ब्राह्मण! इच्छध्वं सवै लोकऽवदावदः।' 

पुत्र ही पिता के धार्मिक कार्य का उत्तराधिकारी बनता है। पितृयज्ञ का वास्तविक अर्थ श्राद्ध है और पुत्र ही इस यज्ञ को सम्पन्न कर सकता है। पुत्र शब्द की व्युत्पत्ति ही समाज में इस लिंग - विभेद की असाधारणता को सूचित करती है. ' जो  पितरों को पवित्र कर दे अथवा पुत नामक नरक से बचा ले, वह  पुत्र है।  पुत्रहीन व्यक्ति के पितर पिण्डदान के भविष्यत् अभाव को सोचकर रोया करते हैं।'  पुत्र से पिण्ड और जल के तर्पण पाकर पितरों की आत्माएं सुखी व संतुष्ट रहती हैं। पिण्डदान केवल पुत्र कर सकता है, पुत्री नहीं। सभी आशीर्वादों में पुत्र-प्राप्ति सर्वाधिक लालचपूर्ण है, जिसके लिए हिंदू लालायित रहते हैं, ऐसा इसलिए है कि क्योंकि परिवार में पुत्र का जन्म पिता को मुक्ति दिलाता है।'  मनुस्मृति में पितृवंशात्मक वंशावली के द्वारा व्यक्ति के स्वर्ग-प्राप्ति से इतर भी कई प्रलोभन वर्ण्य हैं। जैसा कि उल्लेखनीय है पिता पुत्र से स्वर्ग आदि उत्तम लोकों को प्राप्त करता है,  पौत्र से उन लोकों में अनंतकाल तक निवास करता है और प्रपोतों से सूर्यलोक को प्राप्त करता है। संतानोपत्ति पूर्व से ही विभिन्न संस्कारों का मूल प्रयोज्य पुत्र प्राप्ति होता है। विवाह संस्कार द्वारा गृहस्थाश्रम में प्रवेशकर पुत्र-प्राप्ति एक महत्वपूर्ण उद्देश्य है,  वहां उपस्थित जन वधु को 'अष्टपुत्रा सौभाग्यवती भव'  कह कर पुत्र होने का आशीर्वाद देते है, पुत्री होने का नहीं। गर्भाधान संस्कार के मंत्र में पुत्र गर्भ की प्रार्थना है। एक अनोखा उत्सव जिसे ष्संस्कारष् की पदवी से नवाजा जाता हैए अर्थात् पुंसवन संस्कार। इस संस्कार में गर्भवती माँ जिसे तीन माह का गर्भ धारण हो चुका है,  उसके भ्रूण को लड़के में बदलने के उद्देश्य से गर्भवती स्त्री के लिए कर्मकांड किए जाते हैं।

हिंदू.परिवारों में पुत्र जन्म के अवसर पर गाये जाने वाले गीतों को सोहर करते हैं। सोहर का प्रचलन संपूर्ण भोजपुरी क्षेत्र के सभी जातियों में  है। सोहर के गीत अपनी सरसता और सौन्दर्य-व्यंजना के लिए प्रसिद्ध हैं। पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत नारी जीवन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपलब्धि पुत्र-प्राप्ति है, यही उसकी सार्थकता भी मानी जाती है। पुरुष-प्रधान परिवार को उसका उत्तराधिकारी प्राप्त होने पर पूरे परिवार व निकटस्थ सम्बन्धीजनों में हर्षातिरेक फैल जाता है। सोहर गीतों में हर्ष उल्लास का वातावरण, दान, ननद का नेग आदि वर्ण्य विषय होते हैं।

शास्त्र-सम्मत गर्भाधान, पुंसवन संस्कार से इतर महिलाओं के अपनेव्रत-पूजा-अनुष्ठान हैं,  जोकि मनोकांक्षा प्राप्ति हेतु किए जाते हैं। वैदिक कर्मकाण्ड व स्मृतिकारों के संस्कारिक विधानों से अलहदा महिलाओं ने अपने अनुष्ठान रचे हैं। एकादशी व्रत,  गंगा-स्नान,  तुलसीपूजा, रविवार व्रत इत्यादि पुत्र-प्राप्ति हेतु महिलाओं द्वारा किये जाने वाले धर्म-कर्म हैं। जैसा कि एक सोहर में सूर्य की आराधना का महत्व वर्णित है। कौशल्या को कोई संतान नहीं है। उनकी उम्र बीती जा रही है और वे दुःखी हैं। अपनी सास से वे पुत्र-प्राप्ति का उपाय पूछती हैं। उनसे सूर्य भगवान की आराधना का महत्व सुनकर वह विधिपूर्वक सूर्य की आराधना करती हैंए परिणामस्वरूप उन्हें राम जैसे पुत्र की प्राप्ति होती है।  इसी प्रकार निम्नलिखित सोहर में एकादशी व्रत, सूर्य की आराधना, ब्राह्मण-भोजन, माघ-स्नान आदि का महत्व वर्णित है.

ओहि रे अजोधेया में राम जनमलें,  अजोधा आनंदले हो।
ललना, अजोधा में बाजेला बधावा,  महल उठे सोहर हो
ए बहिनी, कवन वरत तुहूँ कइलू,  त रमइया बड़ा सुन्नर हो।
कातिक कइली एकादसी, दोआदसी के पारन हो।
ललना, अगहन कइली अतवार त रामफल पइली हो।
माघहि मास नेहइली एअगिन नाहिं तपलीं हो।
बहिनी, बइसाख मास बेनिया ना डोलइली त रामफल पइली हो।
बहिनी, भूखल बाभन जेवइली,  त राम फल पइली हो।

उपरोक्त व्रत-अनुष्ठान महिलाओं के वैकल्पिक कर्मकाण्डों को रेखांकित करते हैं, जहाँ वे प्रमुख भूमिका में हैं न कि शोभा की वस्तु के मानिंद। यद्यपि इनका भी मूल प्रयोज्य पितृवंशात्मक वारिस तक ही सिमट जाता है। स्पष्टतया स्त्रियाँ पितृसत्तात्मक मान्यताओं से अनुकूलित ही नहीं बल्कि उसके संवाहक के रूप में परिलक्षित होती हैं। पितृसत्तात्मक परिवार में हैसियत,  मान- सम्मानए सुख- सुविधाओं का निर्धारक स्त्री का पुत्रवती होना माना जाता है। पुत्रवती हुए बिना स्त्री दमन-यातना-उलाहना का ही शिकार मात्र नहीं होती बल्कि निरवंशिया व अपशकुनी से होते हुए डायन बनाने तक की पितृसत्तात्मक सामाजिक धारणाएं स्त्री-जीवन की नियंता बन बैठती हैं। इसलिए जिन स्त्रियों के पुत्र नहीं होते,  उनकी दशा समाज में बहुत उपेक्षित होती। वह बांझ कही जाती हैं। सोहर में 'बाँझ'  स्त्री की मनोव्यथा भी बड़े स्तर पर मुखरित है। निर्धनता और पुत्रहीनता लोक.जीवन में एक-दूसरे के पर्यायवाची बन गए हैं। पुत्र का जन्मना या पुत्र-प्राप्ति सम्पन्नता का द्योतक माना जाता है। अथर्ववेद में निरपत्यता के बारे में कहा गया है कि यह दुःख दुश्मनों को भी न भोगना पड़े।  शास्त्रों ने नारी जीवन की मात्र तीन उपलब्धियों को ही अधिकाधिक महत्व दिया है-संतानोत्पादन,  धर्म का पालन और रतिफल देना। शतपथ ब्राह्मण संतानहीन स्त्री को महादुखों से जकड़ी हुई कहता है।

पितृसत्तात्मक व्यवस्था में मातृत्व के द्वारा ही स्त्री अपना अभीष्ट पद व प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकती है। वे महिलाएँ जो संतान पैदा करने में अक्षम होती हैं,  उनकी यह अक्षमता यातना और दुःख का कारण बन जाती है। पितृसत्तात्मक धार्मिक आचार-संहिताएं हर स्त्री से माँ बनने की अपेक्षा करती हैं,  साथ ही मातृत्व को औरत के जीवन की महान अनिवार्यता के तौर पर महिमामंडित करती हैं। अतः अनुकूलीकरण की प्रक्रिया द्वारा स्त्री में मातृत्व-भाव को स्थापित किया जाता है। मातृत्वविहीन स्त्री अपने जीवन को व्यर्थ व अधूरा समझने लगती है। रेडिकल नारीवाद मातृत्व के महिमामंडन, प्रजनन,  यौनता पर पुरूषों की नियंत्रणकारी भूमिका को स्त्री-अधीनस्थता का मूल कारण मानती है। वह मातृत्व के पुरुषोचित संस्थाबद्धता को स्त्री उत्पीड़न का आधार मानती है। रेडिकल नारीवाद की अग्रणी ' शुलामिथ फायरस्टोन' ऐतिहासिक संदर्भ में मातृत्व अथवा प्रजननक्षमता को ही महिलाओं की अधीनता के जड़ रूप में चिन्हित् करती हैं। गर्भधारण,  प्रजनन व पालन- पोषण की समस्याएँ महिलाओं को प्राकृतिक रूप से कमजोर समझने को विवश करती हैं। शुलामिथ लिखती है, '  इन्हीं समस्याओं के फलस्वरूप उन्हें पुरूषों पर आश्रित होना पड़ा,  जिस आश्रय-निर्भरता का लाभ लेते हुए स्त्री अधीनीकरण का सार्वभौम ढांचा निर्मित कर दिया गया है,  यद्यपि इस निर्भरता के मूल में निहित जीववैज्ञानिक कारण बीत चुके हैं।'  शुलामिथ ने नारीवाद को मातृत्व से मुक्ति की नई प्रस्थापना दी। रेडिकल नारीवाद स्त्री को आरोपित मातृत्व व यौन गुलाम के शिकार के तौर पर विश्लेषित करता है और इसे नारीवाद के आधार व प्रस्थान बिंदु के तौर पर स्थापित करने का उपक्रम करता है। मातृत्व का धर्मशास्त्रीय व सांस्कृतिक महिमामंडन,  बच्चों  के पालन-पोषण का संपूर्ण दायित्व स्त्री के कंधे पर डाला जाना स्त्री की अधीनस्थ स्थिति का मुख्य कारण रहा हैं। ऐन ओकली के अनुसार पितृसत्तात्मक समाज के प्रसार में तीन मिथक बेहद प्रभावी रूप में दिखते हैं. (1 ) सभी  स्त्रियों हेतु मातृत्व आवश्यक है। (2)  सभी स्त्रियों के लिए उनकी अपनी संतान आवश्यक है। (3 )  सभी बच्चों के लिए उनकी अपनी माँ आवश्यक हैं।


हर स्त्री हेतु मातृत्व आवश्यक है,  इस धारणा को लड़कियों के समाजीकरण और प्रचलित मनोविश्लेषक सिद्धांत द्वारा प्रदत्त किया जाता है। माता-पिता द्वारा लड़कियों को गुडि़या (खिलौना )  देकर उनमें मातृत्व-भाव उद्भुत किया जाता है। विद्यालय धर्म-संस्थाएं,  ग्रन्थ एंव जनसंचार माध्यमों द्वारा मातृत्व का महिमामंडन किया जाता है। इसी प्रकार मनोवैज्ञानिक व चिकित्साविदों द्वारा मातृत्व के अभाव को एबनार्मल माना जाता है। अतः इनके द्वारा मातृत्व को आरोपित कर स्त्री को 'वस्तु '  में तब्दील करने का उपक्रम किया जाता हैं। इस प्रकार स्त्री अपनी मूल्यवत्ता मातृत्व में ही देखने लगती है। पितृसत्तात्मक तंत्र द्वारा स्त्री को मातृत्व हेतु सामाजिक व सांस्कृतिक रूप से अनुकूलित किया जाता है। इसी तरह दूसरा मिथ हर  स्त्री को अपने संतान की आवश्यकता होती है- मातृत्व ग्रंथि की धारणा पर केंद्रित है। जिसकी पूर्ति न होने पर स्त्री एकाकीपन व अवसाद में चली जाती है। ऐन ओकली ने एक सौ पचास प्रथमतः माँ बनी स्त्रियों पर अपने अध्ययन द्वारा यह प्रस्थापना दी कि मातृत्व की ग्रंथि भी सांस्कृतिक तौर पर निर्मित होती है। माँ की योग्यताएं भी स्वतः नहीं बल्कि अपने परिवेश से सीखी हुई अथवा समाज द्वारा सिखाई जाती हैं। इसी प्रकार वह यह निष्कर्ष देती है कि ' माँ पैदा नहीं होती बल्कि पैदा की जाती है।'

जैविक मातृत्व मिथ की तीसरी धारणा-  बच्चे को उसकी अपनी माँ ही आवश्यक है,  यह पहले से कहीं ज्यादा दमनकारी पहलू है। इस धारणा के तीन अंतर्निहित बिंदु है  (1)  बच्चे को सामाजिक माँ नहीं बल्कि जैविक माँ की जरूरत होती है। (2 )  नवजात शिशु की देखभाल पिता की अपेक्षा माँ अच्छे से कर सकती हैं।  (3 ). बच्चे को अनेक नहीं मात्र एक पालक-पोषक  ( जैविक माँ की वरीयता )  की जरूरत होती है।  ऐन ओकली दत्तक संतानों के अध्ययनों से यह सिद्ध करती हैं कि सामाजिक माँ भी जैविक माँ जितना ही प्रभावकारी होती हैं। दूसरी धारणा कि माँ पिता की अपेक्षा बेहतर देखभाल करती है,  को बेबुनियादी ठहराते हुए ऐन ओकली लिखती हैं कि ' आत्मीय,   पारस्परिक व पालन-पोषण का रिश्ता ही बच्चे की पिता अथवा माता से जरूरत का निर्धारक बनता है।'  और तीसरी धारणा कि बच्चे को एक पोषिका की जरूरत होती है। एक उदाहरण से ऐन ओकली इसे गैर जरूरी सिद्ध करती हुई सामूहिक समाजीकरण और बहुविकल्पी मातृत्व की महत्ता को रेखांकित करती हैं।
इस तरह ऐन ओकली अपने अध्ययन व तर्कों के आधार पर जैविक मातृत्व को स्त्री की प्राकृतिक आवश्यकता माने जाने को खारिज करती है। इसे वह दमनकारी उद्देश्य से रचित एक मिथ के तौर पर चिन्हित करती हैं। ऐन ओकली की भांति शुलामिथ फायरस्टोन भी जैविक मातृत्व के स्त्री  नियंत्रणकारी पक्ष पर लिखती हैं,  ' एक  पुरुष के लिए उसका संतान उसके नाम, संपत्ति,  वर्ग,  जाति,  पहचान का माध्यम होता है। इसके उलट स्त्री के लिए वहीं संतान घर के भीतर सीमित अस्तित्व का माध्यम बन जाता है।'   इस प्रकार रेडिकल नारीवाद जैविक मातृत्व के पूरे सोच को औरत के दमन का आधार मानता है। इसी सोच के कारण नारीत्व और पुरुषत्व के दो रूप निर्मित किए जाते हैं। जिनका अलग-अलग दोहरा खांका - पुरुषसम्मत व स्त्रीसम्मत गुण हैं  । यह लैंगिक आघार पर घरेलू व बाहरी क्षेत्रों का विभाजन  करके पितृसत्तात्मक व्यवस्था हेतु कारगर उपकरण की भाँति कार्य करता है। जो घर की चौहद्दी एवं घरेलू जटिल व अनार्थिक मूल्य के कार्यों हेतु औरत को पीढी दर पीढी निर्धारित व आजीवन समर्पित कर देता है।

जैविक मातृत्व के मिथक से संचालित स्त्री की अभिव्यक्ति सोहर में बहुतायत मात्रा में मौजूद है। बांझ होने पर सामाजिक उपेक्षा का दंश झेलती स्त्री की वेदना और जैविक मातृत्व की प्राप्ति हेतु विभिन्न व्रत-अनुष्ठानों की महत्ता  सोहर गीतों में वर्ण्य है। जिनका अनुपालन कर बांझ स्त्री भी गर्भवती हो जाती हैं। ये व्रत-अनुष्ठान स्त्री-निर्मित अनुष्ठानिक परंपरा को रेखांकित करते हैं, परंतु इनका प्रयोजन मातृत्व के अभिष्ट लक्ष्य की पूर्ति हेतु ही साधन-रूप भर  वर्ण्य है। सोहर में गर्भस्थ शिशु से मां का एकात्म रिश्ता, शिशु का पालन-पोषण व हंसना-खेलना इत्यादि प्रसंग प्राप्य हैं। पितृसत्तात्मक उद्देश्यों से इतर मातृत्व की स्वाभाविक व सुखद अनुभूति और शिशु से माँ का भावनात्मक रिश्ता भी सोहर गीतों में वर्ण्य है। इसी प्रसंग के क्रम में कई ऐसे भी संदर्भ हैं,  जिनसे प्रसव-पीड़ा से व्याकुल स्त्री पति को इस पीड़ा में भी साझीदार होने को कहती है और पति उसे संतान प्राप्ति हेतु इतनी तकलीफ सहने का ढांढ़स बंधाता हुए प्रसव-वेदना सहने के लिए सान्त्वना देता है। ये गीत मातृत्व के सामाजिक व सांस्कृतिक मिथकों से प्रयाण करते हुए प्रजनन प्रक्रिया के जैविकीय धरातल पर स्त्री के समझ व सजगता को निरूपित करते हैं। जो संतान व शिशु के प्रति स्त्री के एकतरफा दायित्व-बोध  को विस्तृत तौर पर इंगित करते हुए पुरुष साझेदार की भूमिका निर्वाहन को संबोधन है।


हिन्दू शास्त्रों व धर्मग्रन्थों में पुरुष को बीज और स्त्री को धरती के रूपक में व्याख्यायित किया गया है। सन्तति सृष्टि की प्रक्रिया में पुरुष श्रेष्ठता ही प्रतिपादित की गई है। प्राचीनकालीन एवं कालांतर के संस्कृत ग्रन्थों में,  जो विधि,  समाज और संस्कार से संबंधित हैं -  स्त्री के खेत में पुरुष का बीज गिरने की अवधारणा स्पष्टतया उल्लेखित है। अथर्ववेद के एक श्लोक में कहा गया है, ' वास्तव  में पुरुष में बीज का विकास होता है। उसे स्त्री के भीतर डाल दिया जाता है। वही पुत्र प्राप्ति है।'  इसी प्रकार नारद स्मृति में उल्लेखित है- 'स्त्रियाँ  सन्तानोत्पत्ति के लिए बनाई गई हैं, जो खेत है और पुरुष बीज का मालिक।'   ' बीज'  पिता के योगदान का और ' धरती '  माँ की भूमिका के प्रतीक रूप में शास्त्रों व संस्कारों में वर्ण्य है। पुरुष बीज के दृारा संतान की रचना का सत्व प्रदान करता है। इसलिए जहाँ तक कुल निर्धारण का सवाल है, बच्चे की पहचान उसके पिता द्वारा होती है। माँ की भूमिका गर्भ में आये तत्व की वृद्धि करना है। वह अपने रक्त के माध्यम से ऊष्मा और भोजन प्रदान कर उसके विकास में सहायता करती है। यह प्रक्रिया लंबी है और प्रसव के साथ समाप्त नहीं हो जाती। माँ अपने दूध से बच्चे का पोषण करती है। उसकी भूमिका पोषिका की है। विभिन्न ग्रन्थों में स्त्री पुरुष के संतान प्राप्ति की मात्र वाहिका रूप में वर्णित है। महाभारत का एक प्रसंग उल्लेखनीय है,  जिसमें राजा दुश्यंत शकुंतला का तिरस्कार करते हुए उसे अपना पुत्र ले जाने को कहते हैं। इस पर शकुंतला तर्क देती है, पत्नी के गर्भ में प्रवेश करने वाला पुरुष पुत्र के रूप में स्वयं बाहर आ जाता है। उसी समय आकाशवाणी होती है,  ' माँ तो मांस का आवरण है,  पिता से उत्पन्न होने वाला पुत्र वास्तव में स्वयं पिता का ही रूप है'  ( महाभारत के आदिपर्व के चौदहवें खंड में) ।

प्राचीन काल से भारत में मानव प्रजनन प्रक्रिया को स्त्री-खेत में पुरुष-बीज के अंकुरण के संदर्भ में समझा और अभिव्यक्त किया गया है। हिंदू वैवाहिक कर्मकांडों में बीज और खेत के प्रतीक बार-बार आते हैं। वैवाहिक कर्मकांडों के अनेक धार्मिक कृत्यों में पति ( बीज देने वाला )  के प्रति पत्नी के समर्पण,  निष्ठा,  दृढ़ता आदि मूल्यों पर जोर दिया जाता है। वैवाहिक कर्मकांड के दौरान विविध अवसरों पर उच्चारित श्लोकों में अंतर्निहित आशीर्वादोंए कामनाओं और अपेक्षाओं में पुत्र.जन्म का महत्व स्पष्ट हो जाता है। वर के द्वारा कहे जाने वाले ऐसे दो श्लोक निम्नवत् हैं ।
' इसे इच्छानुसार वैभव,  (दीर्घ आयु, समृद्धि और दस पुत्रों का शुभ और गौरवपूर्ण आशीर्वाद प्राप्त हो। हे इन्द्र,  हे सवितृ,  वह गौरव, जो इस पुत्रहीनता की स्थिति समाप्त करे,  शीघ्र इसे दो। ( वैखानस गृह्यसूत्र,  3-4)
' तुम्हारे  गर्भ में पुरुष भ्रूण उसी तरह प्रवेश करे जैसे तरकश में तीर,  एक पुत्र दस माह बाद जन्म ले और इस तरह अनेक पुरुष उत्पन्न हों।'  ( सांख्यायन गृह्यसूत्र, 1-19-6) 

खेत-बीज रूपक एवं पुत्र-प्राप्ति कामना को वैवाहिक अनुष्ठान तथा अन्य महत्वपूर्ण अवसर पर उच्चारित मंत्रों-पाठों में सुना जा सकता है। समाज में संतान को जन्मदात्री माँ के नाम से न जाकरए पिता के नाम से जाना जाता है। इस परंपरा से दुःखी स्त्री कहती है:

पीर हमनें खायी 
सइयाँ के लाल कैसे कहाई
आओ सास रानी बैठो पलंग चढ़
हमरा झगड़ा छुड़ाओ सइयाँ के लाल
कितनो बहू लड़बू कितनो झगड़बू
बेटवा बापे के कहाई
तोहार लाल कैसे कहाई।

प्रचलित सामाजिक संरचना की यह अनिवार्य परिणति है, जहाँ गर्भाधान में पुरुष के नाम का महत्व होता है। गर्भाधान संस्कार के समय होने वाले अनुष्ठानों व कर्मकाण्डों में पुरुष का शिशु पर अधिकार स्पष्टतया ध्वनित होता है। आदिम समाज में गर्भाधान में पुरुष की विशिष्ट भूमिका नहीं मानी जाती थी। पितृसत्तात्मक संस्थाओं के विकास के साथ पुरुष अपनी संतति पर  अधिकार का दावा करने लगा और स्त्री की भूमिका मात्र पालिका-पोषिका तक सीमित कर दी गई । अपनी विशिष्ट जैविक स्थिति के कारण पुरुष गर्भ की जिम्मेदारी से मुक्त हो जाता है। शुलामिथ फायरस्टोन जैसे रेडिकल नारीवादी गर्भधारण को जंगली प्रवृत्ति कहते हुए शुक्राणु व डिम्ब से जन्में शिशु हेतु अंधप्रेम को सामाजिक न्याय की दृष्टि से बाधक मानती हैं।  इसी प्रकार गर्भाधान को नाटक करार देते हुए सिमोन द बोउवार लिखती हैं , ' गर्भाधान एक प्रकार का नाटक है,  जो स्त्री के शरीर के भीतर ही खेला जाता है। स्त्री को एक साथ सम्पन्नता और आहत का अनुभव होता है। भ्रूण उसके शरीर का एक अंश होता है। भ्रूण एक परजीवी जीव है, जो स्त्री से अपना पोषण प्राप्त करता है। वह संतान को अपने वश में रखती है और स्वयं संतान द्वारा अधिकृत कर ली जाती है। संतान द्वारा भविष्य में अपने प्रतिनिधित्व की आशा से गर्भधारण करके स्त्री अपनी सांसारिक महानता का अनुभव करती है। महानता का यह अनुभव ही स्त्री का विनाश कर देता है। उसे नगण्यता का अनुभव होता है। अपने गर्भ से बाहर आकर पृथक अस्तित्व ग्रहण करने वाले जीव पर गर्व करने के बावजूद स्त्री अनुभव करती है कि कोई उसे उसके स्थान से भगा रहा है। ऐसा लगता है कि वह अदृश्य शक्तियों के हाथों का खिलौना हो गई है। यह विशेष ध्यान देने योग्य है कि ठीक उसी समय जबकि गर्भवती स्त्री सर्वोपरि हो उठती हैए वह अपने को विश्वव्यापी रूप में देखती है। वह अपने लिए अपना अस्तित्व नहीं रखती।ष्  अतः रेडिकल नारीवाद स्त्री उत्पीड़न के मूल में उसकी प्रजननकारी भूमिका को देखता व समझता रहा हैं। शुलामिथ फायरस्टोन स्त्री उत्पीड़नकारी व्यवस्था के खात्मे हेतु प्रजनन को स्त्री द्वारा त्याग करने का प्रस्ताव रखती है। उनका कहना है कि तकनीकी क्रांति से ग्लास के डिबों में गर्भधारण व गर्भावस्था की पूरी प्रक्रिया की जा सकती है। तकनीकी प्रणाली से जैविक मातृत्व की पितृसत्तात्मक संरचना व मिथक को प्रायः समाप्त किया जा सकता है।  यद्यपि बाद की रेडिकल नारीवादी इन अतिरेकों से प्रयाण करते हुए इस प्रस्थापना बिंदु पर पहुँची कि स्त्री के गर्भधारणा की क्षमता उसके विकास में बाधक नहींए अपितु प्रजनन व शिशु.संरक्षण पर पुरूषों का सीधा नियंत्रण बाधक है। इसी आधार पर एजिजा.एल.हिबरी शुलामिथ फायरस्टोन की आलोचना करते हुए लिखती हैं कि. ष्महिलाओं के अपने प्रजननकारी भूमिका को त्याज्य कर देने परए वह एक मुख्य तत्व छोड़ देगीए जिसके लिए पुरुष उन पर निर्भर है।ष्  स्त्री की शारीरिक रचना जीवन के नैरन्तर्य को बनाए रखने की दृष्टि से हुई हैए अतः पुरुष उन पर पूर्णतयाः निर्भर है। अतः इसे कमजोरी के तौर पर नहीं अपितु ताकत व हथियार के रूप में स्त्रियों द्वारा उपयोग करने की जरूरत है। स्त्रियों के गर्भधारणए प्रजनन व मातृत्वए शिशु के पालन.पोषण के संदर्भ में अपने निर्णय व अधिकार होने चाहिए न कि पुरुष तय करें कि उसे कब और कितने बच्चे चाहिएए उनकी परवरिश कैसे व किस तरह होघ् यह समूचा क्षेत्र महिलाओं के निर्णय व स्वेच्छा पर आधारित होना चाहिए। पुरुष.प्रधान व्यवस्था अपने नियंत्रणकारी निर्देशों के बल पर मातृत्व को एक अजनबीपन अनुभव में तब्दील कर देता है। समाजवादी नारीवादी एलीसन जैगर समकालीन समय में महिलाओं के अलगावध्पार्थक्यकारी स्थिति को विश्लेषित करते हुए लिखती हैं कि 'महिलाएं  पुरुष के नियंत्रणकारी आदेशों व निर्देशों के कारण जहाँ पुनरूत्पादन श्रम से पार्थक्य स्थिति में रहीं है, वहीं नई पुनरूत्पादन तकनीकी भी प्रजनन.प्रक्रिया से उनका पार्थक्य सुनिश्चित करने की दिशा में अग्रसर है। शुलमिथ फायरस्टोन  के अतिरेकपूर्ण मंतव्य अंततः जैविक निर्धारणवाद विचार प्रणाली के ही शिकार हो जाते हैं। जैविक निर्धारणवाद के आधार पर ही पुरुष प्रधान व्यवस्था अपने वर्चस्व को प्राकृतिक व स्वाभाविक सिद्ध करता रहा है। जैविक मातृत्व के अंतनिहित पुरुष वर्चस्वशाली उद्देश्यों से विलग होकर इसे स्त्री द्वारा अलग स्वरुप से गढा जाना चाहिए। पुनरूत्पादन एंव संतति के पालन-पोषण पर स्त्री का अधिकार व उसके रीति.नियम होने चाहिएए जो किसी भी पितृसत्तात्मक सामाजिक प्रभावों से मुक्त हो। ऐड्रिन रिच जैविक मातृत्व के पितृप्रधान संस्थानिक स्वरूप की आलोचना करती है। वह गर्भावस्था व संतति पालन.पोषण के आनुभविक आधार पर जैविक मातृत्व को प्रतिष्ठित करती हैंए बशर्ते स्त्री को पुनरूत्पादन व संतति पालन -पर स्वयं का अधिकार हासिल हो। जिससे वह बच्चों का नारीवादी मूल्यों के आधार पर पालन-पोषण कर सकें।
समाज में स्त्री का पुत्रवती होना गर्व का विषय समझा जाता हैं। पुत्र.जन्म पर परिवार में हर्षोल्लास का वातावरण होता है और सोहर गाये जाते हैं। पुत्र ही पितृवंशात्मक उत्तराधिकारी होता है। निजी संपत्ति का वारिस होने के कारण उसकी निर्विवाद महत्ता है। जो पुत्री की अपेक्षा उसकी श्रेष्ठ स्थिति को दर्शाता है। वहीं सांस्कृतिक व धार्मिक मान्यता के अनुसार पुत्र ही मां.बाप के श्राद्ध.तर्पण का अधिकारी होता हैं। पुत्र द्वारा श्राद्ध.तर्पण करने पर ही मां.बाप की आत्माएं मुक्त होती हैं। पितरों की आत्माएं पुत्रों से ही पिण्ड व जल ग्रहण कर सुखी और संतुष्ट होती हैं। अतः पुत्र की प्रबल.कामना सोहर गीतों में वर्ण्य है। जबकि पुत्री.जन्म पर दुःख व विशाद का वातावरण होने के कारण सोहर नहीं गाया जाता। पुत्री जन्म पर प्रसूता की उपेक्षित स्थिति निम्नवत् वर्ण्य है:


जइसन दहे में के पुरइनि दहे बिचे काँपेले रे।
ए ललना ओइसन कॉपेले हमरो हरि जीए घिया कारे जनमु रे।
कुस ओढ़न कुस डासनए बन फल भोजन रे।
ए ललना खुखुड़ी के जरेला पसगिया निनरियौ ना आवेला रे।। 
( जिस प्रकार तालाब के बीच में स्थित पुरैन का पत्ता कांपता रहता है,  उसी प्रकार से मेरा पति पुत्री का जन्म होने से कांपता रहता है अर्थात् डरता है। दुर्भाग्य से यदि लड़की पैदा हो जाती है तो वह कुश ओढ़ने और कुश ही बिछाने को देता है। वन के फूल भोजन करने को देता है। बुरी लकड़ी जलाने के लिए देता है, जिससे मुझे नींद नहीं आती। )
लोक में ऐसी मान्यता है कि लड़की के पैदा होते ही पृथ्वी तीन हाथ नीचे दब जाती है। जिस स्त्री को लड़की पैदा होती है,  वह प्रसव-पूर्व के दैवीय '  पदवी से पदच्युत करके उपेक्षित व बहिष्कृत कोटि में खड़ी कर दी जाती है। उसको वस्त्र, भोजन भी बदतर दिया जाता है। सास-ससुर, ननद व पति द्वारा उपेक्षापूर्ण व्यवहार व यातना दी जाती है। कन्या जन्म पर ससुराल वालों का कठोर व्यवहार निम्नवत् गीत में उदाहरणार्थ प्रस्तुत है:
बिटिया के भइल ससुरा सुनले।।
हथवन से छूट गइल लठीया।
बिटिया के भइल जेठवा सुनले।।
हथवन से छूट गइल घडि़या।
आज बहूरानी के हो गइल बिटिया।।

देश के कई क्षेत्रों में पुत्री के जन्म लेते ही मार डालने की परंपरा रही है। कन्या शिशु हत्या की यह परंपरा उच्च वर्णों,  खासकर क्षत्रियों में प्रचलित रही है। जिसका जिक्र ललिता पाणिग्रही ने अपनी पुस्तक '  ब्रिटिश सोशल पॉलिसी एंड फीमेल इनफैटिसाइड इन इण्डिया. में विस्तार से किया है। आधुनिकयुगीन अल्ट्रासाउण्ड परीक्षणों के अभाव में पंडितों व ज्योतिषियों की बड़ी पूछ होती थी, जो पुत्र या पुत्री जन्म की भविष्यवाणियां किया करते थे। पुत्री-जन्म से व्यथित स्त्री एक सोहर में कहती है कि ' यदि  मुझे पूर्व में पता होता तो मैं झरार काली मिर्च खाकर गर्भावस्था में तुम्हारा जीवन खत्म कर देती।'   भ्रूण लिंग-परीक्षण कानूनी तौर पर प्रतिबंधित होने के बावजूद हालिया दशक में कन्या भ्रूण हत्या की कुप्रथा शहर व गांव में तेजी से विस्तारित हुई है। उच्चवर्ग के साथ-साथ निम्न मध्यवर्ग भी इस जघन्य अपराधिक कृत्य में शरीक हो चुका हैं। कन्या को परिवार हेतु एक बड़ा आर्थिक बोझ समझा जाता है। इसी आर्थिक बोझ,  यानि दहेज से मुक्ति , का रास्ता कन्या भ्रूण हत्या , शिशु  हत्या माना जाता रहा है। उदाहरणार्थ. एक सोहर का हिन्दी भावार्थ हैं. ' ऐ बेटी जिस दिन से तुम्हारा जन्म हुआ है उस दिन से मुझे भादव की रात ही दिखाई पड़ती है। सास व ननद सूतिका गृह में दीपक भी नहीं जलातीं और पति भी कुबोल बोलता है। जब तुम्हारा विवाह होगा, तुम्हारी माँग में सिन्दूर पड़ेगा और दूल्हा नव लाख रूपये दहेज में मांगेगा,  तो मैं (गरीब होने के कारण) घर के सारे बर्तन उसे देने के लिए आंगन में पटक दूंगी। शत्रु को भी कभी लड़की न पैदा हो। यदि मैं जानती कि लड़की पैदा होगी तो मैं काली-मिर्च पीसकर पी जाती, उस मिर्च की गरमी से तुम मर जाती और मेरा पुत्री-जन्म से उत्पन्न बड़ा दुःख छूट जाता।'

पितृसत्तात्मक व्यवस्था में प्रचलित दहेज की लैंगिक विभेदी परिपाटी के कारण पुत्री परिवार में बोझ सदृश्य हो जाती है। पुत्र जन्म पर जहाँ परिवार में हर्षोल्लास व पुत्रवती की देखभाल व पूछ होती हैं। वहीं पुत्री का जन्म परिवार की चिन्ता व विषाद का कारण बन जाता हैं और पुत्रवती स्वयं को संकटग्रस्त समझने लगती है। दहेज प्रथा के कारण पुत्री जन्म अभिशाप का रूप घारण कर चुका है। नारी जीवन की यह सबसे बड़ी त्रासदी है कि मातृत्व को लालायित स्त्री पुत्रीजन्म को ही स्वयं एवं परिवार पर सबसे बड़ा अभिशाप व आपदा मान बैठती