Sunday, 1 December 2013

कार्यस्थल पर लैंगिक समानता

कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न रोकने के कानून विशाखा निर्देशिका
सर्वोच्च न्यायालय का 1997 में विशाखा मामले में दिया गया फैसला मील का पत्थर बन गया है। इसके तहत न्यायालय ने सभी सरकारी और गैर सरकारी संगठनों को निर्देर्शित किया कि वे अपने यहां महिलाओं के साथ यौन र्दुव्‍यवहार या उत्पीड़न रोकने और उनके निबटारे के लिए एक समिति का गठन करे, जिसमें महिलाओं का अनुपात अधिक हो। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में यौन उत्पीड़न को परिभाषित भी किया, जिसके अंतर्गत शारीरिक सम्पर्क और इसके लिए की जाने वाली कोशिश यौन सम्पर्क के लिए की गई मांग या अनुरोध कामुक प्रतिक्रियाएं अश्लील चित्र दिखाना अन्य कोई भी अवांछित कामुक प्रकृति का शारीरिक, मौखिक और अ-मौखिक व्यवहार या आचरण हालांकि इस परिभाषा के दार्यो में आने वाले यौन उत्पीड़न के मामलों के निबटारे के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कोई समय सीमा नहीं तय की। दोष साबित होने पर दंड के प्रावधानों को भी समिति के ही विवेक पर छोड़ दिया इसके लगभग 16 साल बाद, 16 दिसम्बर 2012 को दिल्ली में सामूहिक बलात्कार की विदारक घटना और उसके विरुद्ध में उठ खड़े देश ने समूचे परिदृश्य को एकदम से बदल कर रख दिया। इसने महिलाओं के विरुद्ध होने वाली हिंसा की तरफ पूरे अवाम का ध्यान खींचा और नतीजतन, यौन उत्पीड़न की परिभाषा को और व्यापक करते हुए जुर्मो की संगीनता के मुताबिक सख्त सजा के प्रावधान वाले कानून की जरूरत महसूस की गई।

कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (बचाव, रोकथाम और निबटान) कानून-2013 
इस नये कानून में विशाखा मामले में यौन उत्पीड़न के पांच प्रकारों को बढ़ाते हुए निम्नलिखित आचरणों को भी शामिल किया गया- कार्यस्थल पर प्रकट या अप्रकट पक्षपातपूर्ण या हानिकारक वादे महिलाकर्मी की मौजूदा या भविष्य की हैसियत के बारे में प्रकट या अप्रकट दी गई धमकी महिलाकर्मियों के काम में अनुचित दखल अथवा कार्यस्थल के वातावरण में डर, शत्रुता और हमले के प्रति भय पैदा करना ऐसा अपमानजनक व्यवहार जिससे कि महिला सहकर्मियों की सेहत और उनकी सुरक्षा पर प्रतिकूल असर पड़े अन्य प्रावधान यह कानून जम्मू -कश्मीर समेत देश के सभी राज्यों में समान रूप से लागू इसके विस्तृत दार्यो में असंगठित क्षेत्र को भी लाया गया ‘कार्यस्थल’ की परिभाषा को व्यापक करते हुए इसमें खेल संस्थान, स्टेडियम आदि को भी समाहित किया गया। यहां तक कि घरेलू कामगारों के लिए घरों तक को उनका कार्यस्थल माना गया उन जगहों को भी ‘कार्यस्थल’ के रूप में परिभाषित किया गया, जहां कोई कर्मी अपने काम के सिलसिले में जाता है कार्यस्थलों पर यौन र्दुव्‍यवहार के मामलों के निबटारे के लिए दो संस्थाएं गठित करने का प्रावधान किया गया; एक नियोक्ता के लिए. दूसरा, असंगठित क्षेत्रों में हस्तक्षेप के अधिकार के साथ एक जिला शिकायत समिति का गठन विशाखा निर्देशिका के विपरीत, इस नये कानून में शिकायतों पर सुनवाई 90 दिनों के भीतर पूरी करने की ताकीद की गई है मजबूत कानूनी कवच तहलका के संस्थापक व सम्पादक तरुण तेजपाल पर उनके सहकर्मी के साथ बलात्कार के प्रयास का आरोप है। वहीं इसके पहले, सर्वोच्च न्यायालय के अवकाशप्राप्त न्यायाधीश पर दो प्रशिक्षु महिला वकीलों के यौन उत्पीड़न का आरोप है। दो नामी-गिरामी शख्सियतों पर कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के इन दोनों मामलों ने मसले को बहस का विषय बना दिया है। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। अगर ये घटनाएं 2013 के पहले हुई रहतीं तो इन पर सुनवाई विशाखा मामले में 13 अगस्त 1997 को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तय की गई निर्देशिका के मुताबिक की जाती। लेकिन माननीय न्यायालय ने तभी तय कर दिया था कि इसकी जगह कोई सक्षम कानून लेने के पहले तक ही विशाखा निर्देशिका के तहत मामलों को निबटारा किया जा सकेगा। चूंकि कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न ( बचाव, रोकथाम और निबटान) कानून-2013 बन चुका है, लिहाजा, अब इसी के मुताबिक शिकायतों की सुनवाई और उसमें सजा का प्रावधान किया जा सकेगा। कानूनविदें की राय में नया कानून सम्पूर्ण और यौन र्दुव्‍यवहारों-उत्पीड़नों के विरुद्ध ज्यादा सख्त है।
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शासन व्यवस्थाओं ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को गंभीरता से लेना शुरू किया है। ऐसे कानून बनाए जो कार्यस्थल पर महिलाओं के लिए सुरक्षित कामकाजी माहौल सुनिश्चित करते हैं। भारत में सुप्रीम कोर्ट ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ कानून होने की जरूरत को महसूस करते हुए 1997 में विशाखा दिशा-निर्देश तय किए थे। सोलह साल बाद संसद ने कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (बचाव, रोकथाम और समाधान ) कानून-2013 पारित किया।
 कानून के तहत शारीरिक सम्पर्क समेत कोई अप्रिय कार्य या बर्ताव और इस प्रकार के प्रयास करने, यौन संबंध बनाने को कहने या इस बाबत मांग करने, कामुकता दर्शाते रंगीन चिह्न बनाने, अश्लील चित्र दिखाने; या कामुक प्रवृत्ति का कोई अप्रिय शारीरिक, वाचिक या गैर-वाचिक व्यवहार करने के खिलाफ कार्रवाई किए जाने के प्रावधान उल्लिखित हैं।
शिकायत समिति कानून में व्यवस्था की गई है कि नियोक्ताओं को ‘लिखित आदेश जारी करते हुए’
क आंतरिक शिकायत समिति का गठन करना चाहिए। इसका अध्यक्ष किसी वरिष्ठ महिला कर्मी को बनाया जाना चाहिए। समिति में कम से कम दो ऐसे कर्मचारी शामिल किए जाने चाहिए जो ‘महिलाओं के मुद्दों को लेकर प्रतिबद्ध रहे हों’ या जिन्हें कानूनी जानकारी और सामाजिक कार्य का अनुभव हो। समिति में एक सदस्य किसी गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) या महिलाओं संबंधी कार्यकलाप में सक्रिय किसी संगठन से संबद्ध या ‘यौन उत्पीड़न से संबंधित मुद्दों की जानकारी रखने वाला व्यक्ति’ होना चाहिए। कमेटी में एक तिहाई सदस्य महिलाएं होनी चाहिए। इस कानून की धारा 6 के मुताबिक, जिलों में स्थानीय शिकायत समितियां गठित की जानी चाहिए। उन्हें उन प्रतिष्ठानों से शिकायत प्राप्त करने का दायित्व सौंपा जाना चाहिए; जहां दस से कम कामगार कार्यरत हैं और महिला कामगार भी नियोजित हैं। यह व्यवस्था इसलिए की गई है क्योंकि ऐसे प्रतिष्ठान अपने स्तर पर आंतरिक समिति का गठन नहीं कर सकते। जिला स्तरीय समिति को ऐसी शिकायत प्राप्त करने का दायित्व भी सौंपा गया जिनमें खुद नियोक्ता के खिलाफ कुछ बात कही गई हो या आरोप लगाया गया हो। इस प्रकार, संगठित और असंगठित क्षेत्र, दोनों जगहों पर महिला कामगार अब सुरक्षित हैं।
कम से कम कागजों पर तो सुरक्षित हैं ही। तो फिर जज द्वारा उत्पीड़ित किए जाने पर लॉ इंटर्न शिकायत दर्ज कराने का साहस क्यों नहीं बटोर पाई? आखिर उसकी तरह ही तमाम महिलाएं चुपचाप अपने साथ होने वाले गलत बर्ताव को क्यों झेलती हैं? इनमें से अधिकतर तो हमेशा ही उत्पीड़न का शिकार होती रहती हैं। पक्की बात है कि एक मामला प्रकाश में आता है तो उसके साथ ही सैकड़ों मामले ऐसे होते हैं जिनकी कोई शिकायत नहीं मिलती। कहा जाता है कि सबूत का अभाव कतई भी अभाव का सबूत नहीं होता। समाज का नजरिया महिलाएं शिकायत करने से क्यों बचती है ? इसका जवाब पाने के लिए जरूरी है यह जानना कि एक कामकाजी महिला को समाज किस नजरिए से देखता है। असंगठित क्षेत्र में नियोजित या एक-अकेली महिला आर्थिक रूप से समस्या से घिरी रहती है। ऐसी ज्यादातर महिला कामगारों को कानूनों की जानकारी नहीं होती। उनके नियोक्ता और पुरुष सहकर्मी जानते हैं कि वे बेरोजगार होने का जोखिम नहीं उठा सकतीं। दुकानों, सुपर मार्केट्स, निजी स्कूलों, अस्पतालों और सेल्स गर्ल के तौर पर काम करने वाली महिलाओं की हालत भी कोई खास अलग नहीं है। यदि वह हालत सहन करने योग्य नहीं रहती या कहें कि पानी सिर से ऊपर चढ़ने लगे तो वे जॉब छोड़ देती हैं। जो नहीं छोड़ पातीं वे अपने स्थानांतरण का प्रयास करती हैं या फिर उत्पीड़न के साथ ही रहना सीख जाती हैं। कटु सत्य यह है कि जरूरत उनकी सहन शक्ति को बढ़ा देती है। अनेक महिलाएं खुद को समझा लेती हैं कि दुनिया ऐसे ही चलती है। दुनिया की यही रीत है और उनके पास कोई चारा नहीं है। किन्हीं दुर्लभ हालात में महिलाएं शिकायत करती भी हैं तो उन्हें अपने सहकर्मियों से समर्थन नहीं मिल पाता। नियोक्ता कभी भी ‘दिक्कत’ वाली महिला कामगार को लेकर सहज नहीं होते। वे कहीं गहरे पैठी इस धारणा के बल पर उसे नौकरी छोड़ने को प्रेरित करते हैं कि पुरुष को नौकरी की कहीं ज्यादा जरूरत होती है। समाज की धारणा यह धारणा समाज में चहुंओर फैली है कि पुरुष अपनी आजीविका अर्जित करता है जबकि महिला ऐसा अपने परिवार की आय में बढ़ोतरी करने के लिए करती है। चूंकि ज्यादातर कॉरपोरेट कार्यालयों में अधिकतर कर्मचारी पुरुष होते हैं, इसलिए वे अपने वर्चस्व को ईष्र्या की हद तक बचाए रखने में जुटे रहते हैं। यहां तक कि यह जानते हुए भी कि उनके पुरुष सहकर्मी का अपनी महिला सहकर्मी के साथ व्यवहार उचित नहीं है, वे खुलकर सामने आने में हिचकते हैं। इस प्रकार उत्पीड़न का शिकार महिला अकेले पड़ जाती है। एक ऐसे समाज में जहां महिला की सुरक्षा उसकी खुद की जिम्मेदारी है-उसे ‘सिखाया’ जाता है कि कपड़े इस प्रकार पहने कि पुरुष ‘उकसा’ न पाएं और लम्पट फब्तियों को ‘अनदेखा’ करे-कामुक चिह्नों या कही गई कामुक बातों को शायद ही उत्पीड़न जैसा काम माना जाता है।
कोई महिला इन बातों की शिकायत करती भी है तो उस पर तिल का पहाड़ बनाने का आरोप जड़ दिया जाता है। इसलिए ताज्जुब नहीं कि तेजपाल ने कहा है कि नशे में ‘हल्की-फुल्की मस्ती’ को उनकी सहयोगी समझ नहीं पाई-जैसे कि नशे में किसी व्यक्ति द्वारा कुछ भी गलत-सलत किया जाना सिरे से ठीक है। नहीं बदली स्थिति जाहिर है कि 1988 के बाद से कुछ भी नहीं बदला है जब एक आईएएस अधिकारी खुद से र्दुव्‍यवहार किए जाने पर पुलिस अधिकारी केपीएस गिल को अदालत तक खींच ले गई थीं। गिल को आईपीसी की धारा 354 (किसी महिला के साथ छेड़छाड़) और धारा 509 (बोलकर, भाव-भंगिमा या कार्यकलाप से किसी महिला का अपमान करना) के तहत दोषी माना गया। उन्हें मामूली सजा-प्रोबेशन (ऐहतियाती बर्ताव रखने) और आर्थिक दंड-दी गई। दूसरी तरफ, उस महिला अधिकारी की मीडिया ने यह कहते हुए खासी आलोचना की कि उन्होंने ‘बात का बतंगड़’ बना दिया। जब कोई महिला यौन उत्पीड़न की शिकायत लेकर आती है तो ज्यादातर नियोक्ता मामले को बातचीत से सुलझाने की कोशिश करते हैं, आरोपित का स्थानांतरण कर देते हैं या उसे माफी मांगने को कहते हैं। आईएफएफआई के दौरान घटी घटना में यही सब हुआ। आरोपित अधिकारी को ‘बिना शर्त माफी मांगने’ के बाद दिल्ली भेज दिया गया। अधिकतर मामलों में पीड़ित महिलाओं के लिए आरोपों को साबित करना आसान नहीं होता। यही बड़ा कारण है कि ज्यादातर महिलाएं पुलिस से शिकायत नहीं करतीं और आंतरिक समिति के फैसले से ‘संतुष्ट’ हो जाती हैं।

दिल्ली में रेप मामले एक साल में दोगुने बीते साल दिसम्बर माह में 23 वर्षीय फीजियोथेरेपी की छात्रा के साथ लोकल बस में हुए बलात्कार और हत्या के बाद से भारत की राजधानी दिल्ली में महिलाओं के साथ बलात्कार के मामले करीब-करीब दोगुने हो गए हैं छात्रा के रेप और हत्या के बाद देश भर में फैले आक्रोश के बावजूद लगता है कि राजधानी दिल्ली में अपराधियों के मन में डर नहीं समाया सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, बीते दस माह में जनवरी के बाद से दिल्ली में रेप के 1,330 मामले प्रकाश में आए बीते वर्ष 2012 की इसी अवधि के दौरान इनकी संख्या 706 दर्ज की गई थी यौन हमलों की संख्या में भी खासा इजाफा दर्ज किया गया। जनवरी, 2012 के बाद की दस माह की अवधि के दौरान यौन हमलों के 727 मामले दर्ज किए गए थे, जो इस वर्ष इसी अवधि के दौरान तीन गुना बढ़कर 2844 हो गए सरकार की ओर से ये आंकड़े सुप्रीम कोर्ट में पेश किए जाने पर शीर्ष अदालत ने महिलाओं के प्रति बढ़ती हिंसा के मामलों पर गहरी चिंता जताई थी महिला अधिकारों की अग्रणी कार्यकर्ता रंजना कुमारी के मुताबिक, ये आंकड़े महिलाओं की सुरक्षा की लचर स्थिति को उजागर करते हैं उनके मुताबिक, सामाजिक और पुरुषवादी मानसिकता में बदलाव आने में अभी समय लगेगा। तब तक इस प्रकार के अपराध करने वालों को कड़ा दंड देने की जरूरत है महिला हिंसा के दोषियों को सख्त दंड दिए जाने से उन तक यह संदेश जाएगा कि महिलाओं के खिलाफ हिंसा बर्दाश्त नहीं होगी।

मैथिली सुंदर , वरिष्ठ पत्रकार 

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