Tuesday 17 December 2013

सवाल आधी आबादी की सुरक्षा का....

कुछ समय पहले की ही बात है. एक महिला किसी से मेरा पता पूछते पूछते मेरे घर पहुँचीं. एक लम्बी यात्रा के बाद मैं उसी दिन लौटी थी. मुझे लगा कि संस्था से किसी प्रकार की मदद की ज़रूरत होगी. लेकिन जहाँ उन महिला ने अपने जीवन के पन्ने उलटे पलटने शुरू किये, उनकी आपबीती ने  मेरे अन्दर सिहरन पैदा कर दी. 25 सालों से अपने पति द्वारा सताई जा रही ये महिला अब मदद इसलिए ढूंढ  रही थी क्योंकि उसके बर्दाश्त करने की सीमा खत्म हो चुकी थी.  खुद शारीरिक हिंसा की शिकार इस महिला ने बताया कि इसका पति अपनी ही दोनों बेटियों का यौन उत्पीडन कर चुका है. इसमें से छोटी बेटी तो उस वक़्त कुछ महीनो की ही थी. दहशत में आई बेटी एक बार चीखी और बिस्तर से गिर गयी जिससे आज भी वो मानसिक रूप से असामान्य है. बड़ी बेटी के मन में डर इस क़दर बैठा कि आज भी वो उससे जूझ रही है. पति माँ और दोनों बेटियों को छोड़कर कहीं और रहता है और उन्हें खर्च भी नहीं देता है. कहीं से पता चलने पर एक संस्था की मदद से कोर्ट तक पहुंची तो लेकिन एक लम्बे अरसे के बाद भी अभी तक कुछ हाथ नहीं लगा. अब यहाँ ये बताना ज़रूरी हो जाता है कि ये किसी गरीब, ग्रामीण घर की कहानी नहीं है. पति एक बैंक में ऊंचे पद पर कार्यरत है और वो महिला खुद जादवपुर यूनिवर्सिटी की मनोविज्ञान में ऑनर्स है. अब एक दूसरी संस्था की मदद से उनकी छोटी बेटी को ख़ास बच्चों के स्कूल में निः शुल्क दाखिला मिल गया है और दबाव बनाने पर  केस की सुनवाई में भी तेज़ी आई है. यह सच है कि यह घटना बहुत आम घटना नहीं है लेकिन ऐसी घटनाएं होती हैं. और ये उस मुद्दे की बस बानगी है जिस पर  आगे इस लेख में बात होगी.
  
पिछले कुछ समय में सोया हुआ पूरा मुल्क अचानक जाग उठा. बड़ी तादाद में लोग सड़कों पर उतर आये. हर तरह का मीडिया सक्रिय हो गया और काफी लम्बे से सोया हुआ प्रशासन, राजनीतिक दल, पुलिसिया तंत्र और और कुछ हद तक हमारी न्यायप्रणाली भी इस रोष के चलते जाग उठी. मुद्दा कोई नया नहीं और न ही इसके लिए किसी भी समाज या संस्था की उदासीनता नयी है. महिला सुरक्षा, महिलाओं के प्रति बढती हिंसा, सामाजिक गैरबराबरी, हमारे समाज के हर स्तर पर जमी हुई पित्रसत्ता और इन मुद्दों पर चल रहे आन्दोलन भी कोई नए नहीं हैं.  लेकिन हाँ इन सबको जिस घटना ने हवा दी वो बेहद क्रूर, बर्बर, अमानवीय और जघन्य अपराध थी. इस देश की राजधानी व यहाँ के दिल कहे जाने वाले शहर दिल्ली के सभ्रांत इलाके में चलती बस में एक युवती के साथ सामूहिक दुष्कर्म ने इस देश में महिलाओं की स्थिति की पोल पट्टी खोल दी. राजधानी दिल्ली में महिला सुरक्षा को लेकर हो रहे सारे दावे हवा हो गए. युवा, नारीवादी संगठन, बुज़ुर्ग सड़कों पर उतर आये, ज़ाहिर बात है ये स्थिति  उनके लिए स्वीकार्य नहीं थी. सरकार ने भरोसा दिलाया कि दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा लेकिन साथ ही शांतिपूर्ण ढंग से प्रदर्शन कर रहे प्रदर्शनकारियों पर पानी की तेज़ बौछारें हुई, आंसू गैस के गोले छोड़े गए, लाठीचार्ज किया गया और प्रदर्शन रोकने के लिए धारा 144 लगाने के अलावा 9 मेट्रो स्टशन बंद कर दिए गए.  अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर इससे बड़ा सवाल और क्या हो सकता था. लेकिन मुद्दा इससे कहीं ज्यादा बड़ा और उसकी जडें कहीं ज्यादा गहरी हैं. 

शायद कुछ सवाल खुद से पूछें जाएँ तो थोडा आसानी हो. क्या बलात्कार की ये एकमात्र घटना है या देश की राजधानी में यह पहली बार हुआ है ?? क्या महिलाओं के प्रति हो रही हिंसा, छेड़छाड़ से लेकर यौन शोषण या दहेज़ हत्या कोई नयी बात है ?? क्या महिलाएं इस देश के किसी भी हिस्से में, किसी भी संस्था में, घर से लेकर सड़क, दफ्तर तक, कहीं भी खुद को पूरी तरह सुरक्षित महसूस करती हैं ?? क्या महिलाओं को अपने जीवन से जुड़े फैसले खुद लेने का अधिकार है ?? क्या महिलाएं पुलिस प्रशासन या न्यायपालिका पर पूरा भरोसा कर सकती हैं?? क्या इस देश में बच्चियां सुरक्षित हैं ?? क्या हमारे राजनीतिक दल, हमारे नेता, हमारे जनप्रतिनिधि, हमारी सरकार  या हमारा राज्य महिलाओं से जुडी समस्याओं और मुद्दों को लेकर संवेदनशील है ??  क्या यह सब मिलकर अपनी ज़िम्मेदारी निभा रहे हैं ?? और क्या हमारे देश में कानूनों की कोई कमी है ?? 


कुछ आंकड़े शायद स्थिति को थोडा स्पष्ट करें. 2010 में जागोरी संस्था द्वारा आई रिपोर्ट ने बताया कि अकेले दिल्ली शहर में 44% महिलाएं मौखिक उत्पीडन का शिकार हुई हैं जिसमें छीटाकशी और सीटी बजाकर छेड़ना शामिल है. 13% महिलाओं ने शारीरिक उत्पीडन का सामना किया है. राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की 2011 की रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं के खिलाफ हुए अपराधों में 2010 की तुलना में 2011 में 7.1% की बढ़ोत्तरी हुई है और 2007 से 2011 तक इनमें 23.4% की वृद्धि हुई है. भारतीय दंड संहिता के तहत आने वाले महिलाओं के खिलाफ हुए अपराध पिछले 5 सालों में 8.8% से बढ़कर 2011 में 9.4% तक पहुँच गए हैं. 2011 में महिलाओं के खिलाफ हुए अपराधों की संख्या 228650 थी जिसमे 24206 बलात्कार, 8618 दहेज़ हत्याएं, 35565 अपहरण , 42968 छेडछाड, 8570 यौनिक हिंसा, 99135 पति या अन्य रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता, 80 लड़कियों के व्यापार की घटनाएं शामिल हैं. इन अपराधों के आधार पर सबसे अधिक घटनाएं पश्चिम बंगाल में हुई हैं व उत्तर प्रदेश इस सूची में 22639 घटनाओं (जिसमें 2042 बलात्कार शामिल हैं) के साथ तीसरे स्थान पर है. अपहरण व दहेज़ हत्या की घटनाओं के मामले में उत्तर प्रदेश इस सूची में 7525 अपहरणों और 2322 दहेज़ हत्याओं के साथ सबसे ऊपर है. यहाँ पर ये कहना बेहद ज़रूरी है कि यह सिर्फ वो संख्या है जो कि दर्ज होती है. अधिकांशत: तो तो कई कारण पीड़ित महिलाओं की हिम्मत तोड़ने का काम करते हैं जैसे पारिवारिक दबाव, किसी भी प्रकार का सहारा न होना, कभी डर तो कभी शर्म, सामाजिक दबाव, पुलिस का असंवेदनशील रवैया या न्यायपालिका की कमरतोड़ लम्बी प्रक्रिया. आज भी हमारे समाज में दोयम दर्जे पर जी रही औरत आमतौर पर पुलिस या कोर्ट का दरवाज़ा तब खटखटाती है जब उसके बाकी सारे विकल्प बंद हो चुके होते हैं क्योंकि इन जगहों पर पहुँचने  को भी परिवार की इज्ज़त से जोड़कर देखा जाता है जिसकी ज़िम्मेदारी उसी औरत के कन्धों पर होती है. इज्ज़त और शान के नाम पर होने वाली हत्याएं हम रोज़ ही अखबारों में पढ़ते हैं. दिल्ली बलात्कार कांड के बाद न्यूज़ चैनलों पर चल रही चर्चाओं से पता चला कि बलात्कार के लगभग 1 लाख मुक़दमे हमारी न्यायपालिका में लंबित पड़े हैं, उसी के कुछ दिन बाद हिंदुस्तान अखबार के माध्यम से पता चला कि कुछ पीड़ित 36, 37 सालों से उत्तर प्रदेश में न्याय की बाट जोत रहे हैं. राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की 2011 की रिपोर्ट के अनुसार ही बलात्कार की घटनाओं में सजा की दर मात्र 26.4 है.       

तो यह तो साफ़ है कि देशभर में जो रोष फैला वो एक बलात्कार की वजह से नहीं है. यह हर उस बच्ची, युवती या महिला की बात है जो हर 22वे मिनट देश के किसी कोने में बलात्कार का शिकार होती है. यह सिर्फ राजधानी दिल्ली की नहीं बल्कि बुंदेलखंड, झारखंड, गुवाहाटी और इस मुल्क के दूर दराज़ में ऐसी हिंसा का शिकार हो रही हर महिला के बारे में है. यह दिल्ली के सिर्फ उन शोहदों के बारे में न होकर अपने रुतबे, कद, पैसे, जाति, पदवी के नशे में चूर नेताओं, रईसजादों, पुलिसवालों, नौकरशाहों या सेना के जवानों के बारे में भी है.  लेकिन यहाँ यह कहना भी ज़रूरी है कि बात बलात्कार के अलावा होने वाली घटनाओं की भी है. बात उस अजन्मी अबोध बच्ची की भी है जिसे सिर्फ इसलिए मार दिया जाता है या कूड़े के ढेर में फेंक दिया जाता है क्योंकि वो एक लड़की है. बात पैदा होने के बाद हर दिन बढती उस लड़की की भी है जो हर रोज़ भेदभाव को एक नए रूप में देखती और महसूस करती है और ऐसा करते करते वो कब इस दोयम दर्जे को खुद में आत्मसात कर लेती है उसे पता ही नहीं चलता. उसके खेल, खिलौने, कपडे, काम, अगर कर सकी तो पढाई और थोडा और आगे बढ़ सकी तो उसका करियर वरना शादी  कुछ भी तय करने की आजादी या हक आज भी उसके पास नहीं है. बड़े होने की प्रक्रिया में कब उसे बचपन के खेल छोड़कर खुद को अपने ही परिवार के सदस्यों की नज़रों से बचाकर रखना होता है, जिसमें ज़्यादातर वो सफल नहीं हो पाती है, यह भी ज़िम्मेदारी उसी की होती है. 

अगर स्कूल जा पाती  है तो वहां एक ओर पढने की ललक या लालच वहीँ दूसरी ओर अपने ही सहपाठियों, अध्यापकों से खतरा, काम के लिए बाहर निकले तो सड़क पर चलते लोगों, यातायात के साधनों पर सवार लोगों की बेचैन कर देने वाली नज़रों और फब्तियों को झेले, कार्यस्थल में यौन शोषण से खुद को बचाए, शादी करे तो उस घर में कभी शारीरिक तो कभी मानसिक हिंसा का शिकार हो.यह  सच है कि शायद हर लड़की के साथ ये स्थिति न आई हो लेकिन इनमे से कोई भी न आई हों ये संभव नहीं.  तस्वीर बदली है लेकिन ये भी सच है कि अगर एक बड़े फलक पर देखें  तो तस्वीर अब भी बड़ी कुरूप है.  एक लड़की के जीवन में उसे बचपन से ये बता देना कि शर्म ही उसका गहना है, उसे धीरे बोलना चाहिए, धीरे हँसना चाहिए, कैसे चलना चाहिए और उसके लिए उसका शरीर ही उसकी और न सिर्फ उसकी बल्कि पूरे घर भर की इज्ज़त है, ऐसा करके उसकी अस्मिता को महज़ उसके शरीर के दायरे में समेट देना कहाँ तक सही है यह बड़ा सवाल है.

रास्ते चलते छेड़खानी करते, सीटी बजाते लड़कों के खिलाफ जब लड़की खुलकर आवाज़ उठाती है, उसी जगह उसका सामना करती है तो अच्छा लगता है लेकिन ऐसा करने की हिम्मत कम ही लड़कियां जुटा पाती हैं और अगर बात बढ़ जाती है तो अक्सर उन्हें ही चुप हो जाने की हिदायत या सलाह दी जाती है. ऐसी कुछ हिम्मती लड़कियों को आगे अलग किस्म की मुश्किलें भी झेलनी पड़ जाती हैं. जैसे राह चलते उनके चेहरे पर तेजाब फेंक देना, अपहरण करके बलात्कार करना. लखनऊ की ही एक सामाजिक संस्था, साझी दुनिया के सार्वजनिक यातायात के साधनों का इस्तेमाल कर रही महिलाओं के साथ किये गए एक ताज़ा सर्वेक्षण के नतीजे कहते हैं कि 93.72% महिलाओं के साथ छेड़खानी होती है. 62.99% महिलाओं का मानना है की ड्राइवर और उसके साथी भी छेड़खानी करते हैं. और 68.40% महिलाओं का कहना था कि ऐसी स्थिति में आस पास के लोग कोई मदद नहीं करते. तो असल में समस्या कहाँ है, दोषी कौन है और इस स्थिति में क्या किया जा सकता है. 

शायद ज़्यादातर लोगों के लिए यह बात पुरानी हो चुकी हो लेकिन हमारा सामाजिक ढांचा जिसका कई रुढ़िवादी लोग दंभ भरते हैं इसका मुख्य कारण है.  जो हमारे समाज की हर संस्था, वो चाहे परिवार हो, शिक्षा हो, विवाह हो या और भी कोई ; हर जगह एक गहरी पैठ बना चुका है. साथ ही ज़िम्मेदार है हमारी कथित रूप से महान संस्कृति जो कभी भी महिलाओं को बराबरी का दर्जा नहीं दे पाई. एक लड़की के जीवन में उसको व उसकी पहचान को एक पुरुष पर ही आश्रित दिखाया गया है, पहले पिता, फिर पति और फिर बेटा. कई लोग इस बात से कतई सहमत नहीं होंगे और मुझे कई वेद पुराणों, धार्मिक ग्रंथों  व मनुस्मृति का हवाला भी देंगे. लेकिन मैं फिर भी यह बात जोर देकर कहूँगी कि ये सभी धार्मिक ग्रन्थ कहीं न कहीं औरत को दोयम दर्जे में धकेलने का काम ही करते हैं. संस्कृति को यह कहकर महान बताने कि आवश्यकता नहीं कि यहाँ औरत देवी होती है क्योंकि आये दिन ऐसी देवियाँ इस देश में या तो कोख में मार दी जाती हैं, राह चलते सड़क से उठाकर किसी आदमी की हैवानियत का शिकार होती है, दहेज़ के लिए जला दी जाती है या ज़ुल्म न सहने की सूरत में घर से निकाल दी जाती है. देवियों की ऐसी कल्पना करना मेरे लिए तो मुश्किल है. मैं और मेरे जैसी तमाम लड़कियां एक आम इंसान की ज़िन्दगी जीना चाहती हैं और अपने हक का इस्तेमाल करना चाहती हैं. 

यह हमारे समाज के हर हिस्से में घर कर चुकी पित्र्सत्ता का ही परिणाम है कि लड़की के साथ कुछ गलत होने की सूरत में हम उसे चुप रहना सिखाते हैं. यह बताने कि ज़रुरत नहीं कि किस प्रकार हमारे समाज में बलात्कार पीडिता और उसके परिवार को सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता है जबकि दोषी शान के साथ घूमता है. और ऐसी स्थितियां होने पर हर तरह की सलाह लड़की को ही दी जाती है कि वो कैसे खुद को बचाए. मैंने आजतक ऐसी चर्चाएं कहीं भी होते नहीं देखी जहाँ लड़कों को ये बताया जाये कि उन्हें महिलाओं के साथ कैसे पेश आना चाहिए या उन्हें हिंसा नहीं करनी चाहिए. यह सोच किसी एक वर्ग विशेष तक सीमित नहीं है. पिछले कुछ समय में पश्चिम बंगाल, गुजरात, मध्य प्रदेश, दिल्ली में बैठे प्रबुद्धजनों की लड़कियों के लिए हिदायत भरी टिप्पणियां हमे शायद याद होंगी. साथ ही शायद यह भी याद होगा कि महान संस्कृति की मशाल लेकर चलने वाले बड़े धार्मिक संगठनों के ठेकेदारों से लेकर आध्यात्मिक गुरुओं तक के इस विषय पर क्या विचार थे. 

यहाँ एक बार फिर मैं सरकारी आंकड़ों का ही हवाला दूंगी और यह खासतौर पर उनके लिए है जिन्हें लगता है कि परिवार में ऐसी घटनाएं होती नहीं हैं और ऐसी घटनाओं के लिए लड़कियां छोटे कपडे पहन कर खुद ही घटना को निमंत्रण देती हैं. राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की 2011 की रिपोर्ट के अनुसार इन्सेस्ट रेप  की कुल 267 घटनाएं दर्ज हुई हैं जिनमें 20 घटनाओं में पीडिता की उम्र 10 वर्ष तक और 48 घटनाओं में 10-14 वर्ष थी. साथ ही बलात्कार की अन्य घटनाओं में 855 पीड़ितों की उम्र 10 वर्ष तक व 1659 पीड़ितों की उम्र 10-14 वर्ष के बीच थी.  एक अन्य रिपोर्ट का उल्लेख भी यहाँ करना चाहूंगी. वात्सल्य संस्था द्वारा उत्तर प्रदेश में एक छोटे स्तर पर किये गए एक ताज़ा अध्ययन में ये पाया गया कि 5-10 वर्ष की उम्र की 33.2% बच्चियां किसी न किसी प्रकार की यौनिक हिंसा का शिकार हुई हैं. इस उम्र में एक बच्ची क्या निमंत्रण दे सकती है इसका विचार ज़रा खुद करें. 

कुछ लोगों का यह भी कहना है की लड़कियां देर रात घर से बाहर न निकलें, दिल्ली के स्कूलों में तो नसीहत भी होर्डिंगों में लगा दी गयी की लडकियां स्कूल के बाद सीधे घर जाएँ. ऐसे में बस कुछ  सवाल यह कि राज्य की क्या ज़िम्मेदारी है?? क्या एक लड़की या किसी अन्य  व्यक्ति को भी सुरक्षित माहौल देना राज्य की ज़िम्मेदारी नहीं?? यह कौन सुनिश्चित  करेगा कि मैं अपने घर से किसी भी वक़्त बेख़ौफ़ होकर निकल सकूँ और सुरक्षित वापस भी पहुँच सकूँ. 

ऐसी विषम परिस्थिति में जन आन्दोलन एक हद तक बदलाव तो ला सकता है लेकिन ज़रूरत और बहुत ज्यादा होने की है. ज़रूरत बदलाव को खुद से शुरू करने की है. इस समाज के हर स्तर पर, हर संस्था को संवेदनशील होने की ज़रूरत है. हमारे व्यवहार से पाठ्यपुस्तकों तक, हमारी भाषा से कार्यशैली तक, नेताओं के वादों से नियम बनाने तक, हर जगह बैठी गैरबराबरी को बाहर करना बहुत ज़रूरी है. और इस सबके लिए ज़रूरी है एक मज़बूत इच्छाशक्ति का होना. पित्र्सत्ता या मौजूदा ढांचा ऐसा कभी नहीं चाहेगा लेकिन अब राज्य, न्यायपालिका, प्रशासन तंत्र के साथ सरकार को भी सिर्फ कहने के लिए नहीं बल्कि वास्तविकता में संवेदनशील होना ही होगा. इस तंत्र को अब ये सुनिश्चित करना होगा कि ऐसी घटनाएं बर्दाश्त नहीं की जाएँगी. उन्हें ये भी सुनिश्चित करना होगा कि महिलाएं अपनी बात उन तक बेख़ौफ़ होकर पहुंचा सकें और उनकी शिकायतों का निस्तारण भी जल्दी हो. जिस पूर्ण असहिष्णुता (zero tolerance) की बात को सिर्फ कागजों तक या अपने भाषणों तक सीमित करके रखा गया है उस पर समाज के हर दर्जे में अमल किया जाए.  राजनीतिक  पार्टियों की इसपर मज़बूत इच्छाशक्ति हो और सबसे ज़रूरी बात, इसे महज़ महिलाओं का मुद्दा न समझकर मानवता का मुद्दा समझा जाए. पिछले 7 वर्षों से अगर महिलाओं के प्रति यौन हिंसा से संरक्षण पर बने बिल को मंजूरी नहीं मिली है तो यह हमारी सरकार और इस गंभीर मुद्दे पर अन्य दलों की उदासीनता को ही दिखाता है. आज यह बेहद ज़रूरी हो गया है कि हम अपनी बेटियों को सहना नहीं बल्कि कहना सिखाएं. हम उन्हें वो माहौल दें जिसमें वे खुलकर अपनी परेशानी हमसे साझा कर सकें बिना इस डर के कि इस घटना का ज़िम्मेदार उन्हें ही ठहराया जायेगा या उन पर तमाम तरह की पाबंदियां लगा दी जायेंगी. आज यह ज़रूरत निश्चित तौर पर है कि हमारे देश में सख्त कानून हों लेकिंग उससे भी बड़ी ज़रूरत है कि उनका क्रियान्वयन सुनिश्चित हो क्योंकि कानूनों की कमी देश में आज भी नहीं है.   
और इन सब के साथ एक बड़ी ज़रूरत है दायरे तय करने की खासतौर पर हमारे मीडिया को, हमारी फिल्मों, टीवी सीरियलों को और हम सबको भी. कहा जाता है कि अब स्थितियां बदलीं हैं, हाँ बदली तो निश्चित तौर पर हैं लेकिन इसमें भी कोई दो राय नहीं कि पित्रसत्ता अब और ज्यादा भयावह रूप से गुप चुप तरीके से काम कर रही है और इससे मजबूती देने का काम बाज़ार ने बखूबी किया है. शीला, मुन्नी, फेविकोल जैसे गानों की भूमिका  औरत को सिर्फ एक  उपभोग की वस्तु दिखाने भर की रह गयी है. साथ ही टीवी सीरियलों से लेकर विज्ञापनों ने जहाँ अपने उत्पादों के लिए खरीदार खड़े कर लिए हैं वहीँ इन्होने भी औरत को उपभोग की वस्तु बनाकर ही प्रस्तुत किया है. सीरियलों ने करवाचौथ, छठ, तीज, अक्षय तृतीया जैसे त्योहारों को क्षेत्र के दायरे से बाहर निकाल दिया है, और हर त्यौहार का अपना मज़बूत बाज़ार है. साथ ही इन कार्यक्रमों ने 'अच्छी' और 'बुरी' औरतों की जो अवास्तविक छवि बनायीं हैं वो कहीं न कहीं पित्रसत्ता और रूढ़ीवाद को ही मज़बूत करती हैं. आज की नायिकाओं और फिल्मकारों  को यह समझने की ज़रूरत है कि समाज में अपने स्तर पर ज़िम्मेदारी वे भी निभा सकते हैं. एक बड़ी तादाद में लोग उनका काम देखते, सुनते और काफी हद तक उससे प्रभावित होते हैं ऐसे में इन आइटम गानों की प्रासंगिकता समझ से परे है. शायद मुनाफा कमाने के अलावा थोडा कुछ और भी सोचा जा सकता है. हमारे पास अश्लील और घटिया गानों से प्रसिद्धि बटोर रहे हनी सिंह  के क्या और कोई विकल्प नहीं हैं. उसको पसंद करने वाले लोग हमारे बीच से ही आते हैं और क्यों ऐसे घटिया गाने लिखने और गानेवाले व्यक्ति के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती. हमारी फिल्म और म्युज़िक इंडस्ट्री को कहीं ज्यादा समझदार होने की ज़रूरत है .

ये सच है ये बदलाव एक दिन में नहीं  आएगा लेकिन अगर इच्छाशक्ति हो तो तस्वीर बहुत जल्द बदल ज़रूर सकती है. मैंने अपने जीवन में पहली बार महिला मुद्दों पर इतनी बड़ी तादाद में पुरुषों, लड़कों और युवाओं को सड़क पर उतरते देखा है. इनकी तरफ से यह पहल स्वागतयोग्य है व इसे सहेज कर रखना ज़रूरी है.  लेकिन हाँ यहाँ पर ये ज़रूर कहना चाहूंगी कि जनता का ये रवैया महज़ चार दिन के मौन जुलूस, मोमबत्ती प्रदर्शन तक सीमित नहीं होना चाहिए. आज अपनी इंसानियत के जज्बे को जिंदा रखने की ज़रूरत है. ये समाज  हम सबसे ही मिलके बना है इसलिए इसमें बदलाव लाने की शुरुआत खुद से ही करनी होगी. ज़रूरत ये हैं कि हमारे आस पास जब भी कोई घटना हो तो हम उस वक़्त मूकदर्शक न बनें और अपनी चुप्पी तोडें क्योंकि हमारी और आपकी ख़ामोशी ही ऐसे अपराधियों के हौसले बढाती है. अगर ये नहीं कर सके तो 4 दिन के प्रदर्शन मात्र का कोई मतलब नहीं रह जाता. इस दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए इससे ज्यादा शर्मनाक बात और कुछ नहीं हो सकती कि उसकी आधी आबादी असुरक्षित है और आज भी हर एक पल गैरबराबरी और अमानवीयता का सामना कर रही है. एक नसीहत सालों पहले मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी दे गए थे....आज उसका ज़िक्र प्रासंगिक हो चला है: 

कद्र अब तक तिरी तारीख ने जानी ही नहीं 
तुझमें शोले भी हैं बस अश्कफिशानी ही नहीं 
तू हकीकत भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं 
तेरी हस्ती भी है एक चीज़ जवानी ही नहीं 
अपनी तारीख़ का उनवान बदलना है तुझे 
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे 

साभार :- प्रस्तुतकर्ता Rमेरा पन्ना ब्लॉग से  )

No comments:

Post a Comment