Tuesday 17 December 2013

आधी बात पूरी बात ..





ई बार परिवार में जब लड़के-लड़कियों के झगड़े होते हैं, तो लड़का शेखी बघारता है कि वह अधिक बलशाली है और लड़की छुईमुई है। कहता है, लड़कियां हर बात पर आंसू बहाती हैं, कमजोर होती हैं। कभी कहता है, वह साइंस पढ़ेगा और लड़की आर्ट्स के क्षेत्र में जाएगी, क्योंकि दिमाग तो लड़कों के पास होता है। इतना ही नहीं, लड़कियां गाड़ी चलाना नहीं जानतीं और उनको खेल-कूद में भी आसानी से हराया जा सकता है। अधिकतर माता-पिता इस बहस को भाई-बहन के बीच नोक-झोंक कह कर टाल देते हैं, क्योंकि उनके मन में भी ऐसी ही बातें भरी होती हैं और वे अपनी बेटियों के जीवन की जद्दोजहद को समझ ही नहीं पाते। किशोरावस्था में लड़कियां अपने परिवार के लड़कों से दूरी बना लेती हैं और उनकी दुनिया अलग हो जाती है। भाई का बहन से औपचारिक-सा रिश्ता रह जाता है, जो रक्षक-सा होता है। पिता के बाद उसकी इज्जत का रखवाला। तब तक, जब तक उसका विवाह न हो जाए और पति उसका नया रक्षक न बन जाए। शायद यही कारण है कि 21वीं सदी में भी स्कूल-कॉलेज में को-एजुके शन (सहशिक्षा) को लेकर इतना विवाद रहा है। अभिभावकों के खास हिस्से का कहना है कि लड़के-लड़कियों के मेलजोल से लड़कों की पढ़ाई पर नकारात्मक असर पड़ेगा और लड़कियां बिगड़ जाएंगी तो उनकी शादी नहीं होगी। माना जाता है कि प्राकृतिक दबाव को कोई रोक नहीं सकता और समय से पूर्व बच्चों की यौनिकता जागृत हो जाएगी। सहशिक्षा को कई अन्य कारणों से भी पसंद नहीं किया जाता, मसलन को-एड संस्थानों में लड़कियां अधिक खुलकर नहीं रह पातीं और उनका विकास अवरुद्ध होता है। दूसरी ओर, सहशिक्षा के पक्ष में मजबूत तर्क यह है कि समाज और परिवार में जब लड़के-लड़कियों को अलग नहीं किया जाता और वे आपस में मर्यादित दूरी या नजदीकी बरकरार रखते हैं तो सहशिक्षा संस्थानों में क्यों नहीं? उन्हें कृत्रिम रूप से विभाजित करने की क्या आवश्यकता है? मनोवैज्ञानिक तो कहते हैं कि लड़कियों के साथ पढ़ने से लड़कों में गंभीरता और सौम्य आचरण का सृजन होता है। उनके हुड़दंग कम होते हैं और वे लड़कियों में प्रतियोगी मानसिकता पैदा करने और पुरुषों के समकक्ष खड़ा होने में मदद करते हैं। जब एक ही पाठ्यक्रम, एक ही शैक्षिक वातावरण और एक ही क्षमता वाले अध्यापक छात्राओं को भी मिलते हैं तो वे बराबर शैक्षिक मापदंडों को हासिल कर पाने की स्थिति में पहुंचती हैं। एकल जेंडर वाले संस्थानों में छात्राओं के लिए हल्के पाठ्यक्रम होते हैं और शिक्षा की जेंडर स्टीरियोटाइपिंग हो जाती है। इसके कारण महिलाओं को कुछ खास किस्म के रोजगार ही चुनने पड़ते हैं यानी जॉब स्टीरियोटाइपिंग का खतरा बढ़ जाता है तो सहशिक्षा क्यों नहीं? परंतु विश्व इतिहास में लड़कियों की शिक्षा को घरों से बाहर निकालने में काफी संघर्ष का सामना करना पड़ा था क्योंकि उन्हें घरेलू काम सिखाने पर अधिक जोर दिया जाता था- जैसे सिलाई-कढ़ाई, चित्रकला, संगीत, बच्चे संभालना, खाना पकाना और साफ-सफाई रखना आदि। उन्हें धार्मिक ग्रंथ पढ़ाए जाते थे ताकि वे स्वयं नैतिकता का पालन करें और अपने बच्चों को भी सिखाएं। यह भी संभ्रांत परिवार की युवतियां ही कर पाती थीं। बाकी महिलाओं को शिक्षित करने की बात ही नहीं होती। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद महिलाओं को औपचारिक शिक्षा दी जाने लगी और उद्योगों में काम करने के लिए उन्हें कुछ वृत्तिक कौशल प्राप्त करवाने पर बल दिया गया। 1833 में अमेरिका के ओहायो राज्य का ओबर्लिन कॉलेज, जो निजी संस्थान था, सबसे पहले महिलाओं और अश्वेतों को प्रवेश देने लगा। सरकारी संस्थानों में आयोवा स्टेट विश्वविद्यालय ने 1855 में महिलाओं को प्रवेश दिया पर कैथोलिक र्चच हमेशा महिला शिक्षा का प्रबल विरोधी रहा। विकसित देशों में जापान महिला सहशिक्षा में सबसे पीछे था, जबकि रूस, स्कैन्डिनेवियाई क्षेत्र, क्यूबा और चीन में महिलाओं को पुरुषों के साथ शिक्षा के बराबर अवसर दिये गए। अफ्रीका और अरब देशों में अब तक भी महिला शिक्षा में काफी भेदभावपूर्ण नजरिया देखने को मिलता है और सहशिक्षा वर्जित रही है। इस्लामिक देशों में मध्ययुग में महिलाओं को अनौपचारिक और धार्मिक शिक्षा दी जाती थी। भारत में भी शिक्षा की गुरुकुल पद्धति में लड़कियों को बहुत कम संख्या में लिया जाता था क्योंकि शिक्षा धर्म और युद्ध-कला से अधिक सरोकार रखता था और निम्न जाति के लोगों को शिक्षा नहीं दी जाती थी। बाद में, बौद्ध धर्म में महिलाओं की शिक्षा के लिए बहुत सख्त नियम-कानून बनाए गए ताकि भिक्षुणियों को हमेशा भिक्षुओं से दूर रखा जा सके, क्योंकि महिलाओं को बुरे प्रभाव डालने वालों के रूप में देखा जाता था।
कहा जाता है कि गौतम बुद्ध स्वयं महिला शिक्षा के विरोधी थे और उनके शिष्य आनंद के प्रयासों से सर्वप्रथम 500 महिलाओं को संस्था में दाखिला दिया गया। 1852 में सावित्रीबाई फुले भारत की सबसे पहली महिला शिक्षिका बनीं और उन्होंने अपने पति ज्योतिबा फुले के सहयोग से पहला महिला विद्यालय खोला। पर इसके लिये उन्हें काफी विरोध और पथराव जैसे हमले का सामना करना पड़ा। 1878 में पहली बार कलकत्ता विश्वविद्यालय ने महिलाओं को डिग्री कोर्स के लिए प्रवेश की अनुमति दी थी, जबकि उसी समय ब्रिटेन के विश्वविद्यालयों में महिलाओं को पुरुषों के साथ उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रवेश नहीं मिल रहा था। 1947 तक महिला साक्षरता 6 प्रतिशत थी पर इसके बाद विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग ने अपनी रिपोर्ट में महिला शिक्षा के विरोध में लिखा और कहा कि यह उनके जीवन से कोई सरोकार नहीं रखता। काफी समय बीतने के बाद 1958 में महिला शिक्षा के लिए राष्ट्रीय आयोग का गठन हुआ। पर हमें यकीन नहीं होगा कि वर्जीनिया जैसे विश्वविद्यालय में 1920 में भी महिलाओं की कक्षा में प्रवेश करते ही पुरुष सहपाठियों से पैर पटककर विरोध का सामना करना पड़ता और नार्थ कैरोलिना विश्वविद्यालय में छात्राओं को पर्दे के पीछे बैठना पड़ता था ताकि पुरुष विद्यार्थी पढ़ाई पर ध्यान दे सकें। आज विश्व में बहुत सारे को-एड विद्यालय हैं, क्योंकि वे आर्थिक तौर पर अधिक व्यावहारिक साबित हो रहे हैं और कामकाज के क्षेत्र में भेदभाव काफी हद तक कम हुआ है। फिर भी नैतिकता और सामाजिक कारणों से सहशिक्षा पर बहस जारी है। शायद यह समझने की जरूरत है कि बचपन से लैंगिक भेदभाव को खत्म करने के प्रयास होने चाहिए, वरना यह कभी समाप्त नहीं होगा। लड़कों को लड़कियों से भद्रता और करुणा सीखनी चाहिये और लड़कियों को लड़कों से दावेदारी और शारीरिक क्षमता का विकास। दोनों को एक-दूसरे को सम्मान और बराबरी का दर्जा देने का अभ्यास शिक्षण संस्थानों में सीखना चाहिये ताकि बाद में भी उनके आपसी संबंध सामान्य और दोस्ताना हो सकें। यह समाज को अधिक समतावादी बनाने में मदद करेगा।


साभार  :- डॉ. कुमुदिनी पति

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