Sunday 1 December 2013

छिछोरेपन से त्रस्त कामकाजी महिला


पुरुषों को यह बात साफ हो जानी चाहिए कि यौन उत्पीड़न कोई मौज-मस्ती की क्रिया नहीं है। ऐसी भी नहीं हैं कि जिनसे किसी को नुकसान न होता हो बल्कि यह एक आपराधिक कृत्य है। महिलाएं इस प्रकार के विरोध से यह बात स्पष्ट कर रहीं हैं कि वे महिला-पुरुष के बीच रचनात्मक सहकार की हामी हैं। महिलाएं यह नहीं कह रहीं कि महिला-पुरुष के बीच संवाद ही न रहे। लेकिन कार्यस्थल में स्वस्थ माहौल न हो तो ऐसी स्थिति से भी उन्हें कोई गुरेज नहीं। वे चाहती हैं कि कार्यस्थल बेहद पेशेवराना अंदाज का परिचायक बनें। कार्यस्थल चंचलमना लोगों के अधकचरे व्यवहार का मंच तो कतई नहीं हों

सुनिये। क्या आप सुन रही हैं? हवाओं में तैर रही यह धीमी बुदबुदाहट, तेजी से पास आते में ऊंची हुए जाती है। और यह सिलसिला अपनी सारी हदें पार कर देता है। महिलाओं की चुप्पी के चलते यह सिलसिला सुखद नहीं बल्कि शरारती अट्टहास प्रतीत होता है, जिसे हद दज्रे की लम्पटता कहा जा सकता है। महिलाओं के सामान्य बने रहने की कोशिशों के चलते उनके साथ हिंसक व्यवहार तक देखने को मिलता है। द्विअर्थी यौनिक वार्तालाप पर दांत फाड़ना, नारी-विरोधी परिहास और कंधों व हाथों को मोड़े जाने वाली सर्वविदित भंगिमा। इतना ही नहीं स्पष्ट इनकार के बावजूद बार-बार रोमांटिक या यौनिक रुचियों का बेताबी से इजहार किया जाना। शारीरिक छेड़छाड़, अवांछित चूमा-चाटी, शहर से बाहर कार्य संबंधी दौरे जिनका हश्र शारीरिक या यौन उत्पीड़न के रूप में सामने आता है। और देखने के मिलती है निहित स्वार्थो वाली लल्लो-चप्पो। इन सबसे रौब-रुतबों का घालमेल उजागर होता है। किसकी-किसकी सुनाएं हम वाह! आप क्या खूब लग रहे हैं सर। रिटायरमेंट तो आपको रास आ गई है। यह बातें एक युवा महिला सहयोगी ने अपने उस पूर्व प्रोफेसर से कही जो सेवानिवृत्ति के बाद अपने पुराने संस्थान में डोलने-फिरने पहुंचे थे। सुनकर, प्रोफेसर ने खींसें निपोरते हुए कहा-वाकई। दो और लोगों ने मुझे यह बात कही है। वे दोनों महिलाएं हैं। बताइए कि इन सबसे क्या समझूं? वह युवा महिला सहयोगी फीकी-सी मुस्कान के साथ परेशान हालत में वहां से निकल ली। उस मौके पर संस्थान के पुरुष मुखिया भी मौजूद थे। एक साठोत्तरी प्रोफेसर अपनी एक शिष्या को रोमांटिक कविताएं लिखता है। एक के बाद दूसरी। उस समय तक लिख भेजता रहा जब तक शिष्या संस्थान को छोड़ नहीं गई। एक अधेड़ महिला शिक्षाविद् का एक बैठक में पूर्व पुरुष शिक्षक ने इस अंदाज में स्वागत किया कि देखने वाले दंग थे। महिला के बढ़े हाथ को अनदेखा करते हुए उस पुरुष शिक्षक ने महिला शिक्षाविद् को बाहों में भरते हुए उसका माथा चूम लिया। महिला शिक्षाविद् कभी उस पुरुष के करीबी नहीं रही थी, सो बेमन से मुस्करा भर सकी। बैठक में मौजूद लोग मूकदर्शक बने थे। एक हाई प्रोफाइल आयोजन में आमंत्रित करने की गरज से एक युवा महिला पत्रकार को उसकी महिला बॉस किसी प्रभावशाली व्यक्ति पर ‘डोरे डालने’ को कहती है। जब महिला पत्रकार इस प्रकार के शब्दों पर विरोध जताती है तो महिला बॉस उसे ज्यादा मासूम न बनने की ताकीद करती है। कहती है कि ज्यादा सीरियस होने की जरूरत नहीं। कुछ सेंस ऑफ ह्यूमर तो होना ही चाहिए। एक शिष्या देर से क्लास में पहुंचती है तो पुरुष शिक्षक कहता है, समय से आने की मेहरबानी किया करो। तुम्हारे देर से आने से मेरा ध्यान बंटता है। तुम्हें इतना सुंदर नहीं होना चाहिए था। एक महिला आईएएस अधिकारी के पुट्ठे पर एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी चिकौटी काट लेता है। बरसों मामला अदालत में चलता है। फैसला इतना देर से आता है कि वरिष्ठ पुलिस अधिकारी की सेवानिवृत्ति की बेला आ पहुंचती है। घटना को अंजाम दे चुकने के बाद के तमाम सालों में वह बड़े सुकून से अपना पदभार संभाले रहता है। और फिर बड़ी शान से रिटायर भी हो जाता है। हर जगह है महिला का उत्पीड़न कार्यस्थल-क्लासरूम से लेकर न्यूजरूम तक-कहें कि हर जगह बुरी तरह से यौन उत्पीड़न से आक्रांत है। और यह यौन उत्पीड़न पुरुषवादी और नारी-विरोधी है। कार्यस्थल का माहौल यौन उत्पीड़न भरा हो गया है। महिला को यौन वस्तु मान लिया गया है। महिलाएं ऐसे माहौल में कुछ नहीं कर सकतीं। सिवाय इसके कि एक फीकी सी मुस्कान के साथ इस सब को सहें। ऐसे माहौल से मेल बिठाएं जिससे कि किसी लफड़े में न फंसने पाएं या फिर विरोध करें। बखूबी जानते हुए कि इस प्रकार के विरोध की उन्हें कीमत चुकानी होगी। बेशक, कुछ सहमति वाले मामले भी होते हैं। लेकिन इनमें टकराव जैसी हालत कभी नहीं दिखाई देती। बॉस अपनी कर्मचारियों के साथ सोता है, प्रोफेसर अपनी शिष्याओं या नौकरी या प्रोमशन के लिए अपने पर निर्भर किसी मातहत कर्मचारी के साथ सोता है, तो इनकी कभी खुले में र्चचा नहीं होती। ये तौरत रीके दबे-छिपे जारी रहते हैं, इनसे कार्यस्थल खासा पेशेवराना क्षति होती है, जिससे निजात पाना कठिन है। ऐसा करने वाले पुरुष मान बैठते हैं कि हर महिला थोड़ा-सा दबाव पड़ने पर ही हां कह देगी। यह पासा फेंकने जैसा काम है। कुछ महिलाएं हामी भरती हैं तो इसलिए कि उन्हें इसका खासा फायदा मिलता है। लेकिन जो नकार देती हैं उन्हें दूसरी तरह से कीमत अदा करनी पड़ती है। बहरहाल, ये उच्च पेशेवराना माहौल के तौर-तरीके हैं। निर्माण स्थलों या मध्यम वर्गीय घरों में घरेलू नौकरानियों के साथ छेड़छाड़ या उत्पीड़न आम है। बेशक, अन्य तरह के कार्यस्थलों पर भी यौन हिंसा कम नहीं होती। पर टूट रहा है सिलसिला लेकिन यौन हिंसा पर पुरुषों को भाने वाली महिलाओं की चुप्पी अब महिलाओं के कड़े विरोध के कारण तेजी से टूट रही है। और ऐसा हर कहीं हो रहा है। तहलका की दिलेर युवा महिला पत्रकार ने जिस प्रकार से तरुण तेजपाल के यौन हमले का मुकाबला किया और संकट से उभरने के लिए इस संपादक के ‘तमाम प्रयासों’ के बावजूद जिस तरह पीड़िता के सहयोगियों ने आगे बढ़कर समर्थन दिया है, वैसा हाल तक कभी देखा-सुना नहीं गया। कानून की एक छात्रा ने सुप्रीम कोर्ट के रिटार्यड जज द्वारा उसके साथ की गई छेड़छाड़ को ब्लॉग पर उजागर किया तो अन्य युवा महिला वकील भी यौन उत्पीड़न की घटनाओं को लेकर मुखर हो गई। दिल्ली में एक विश्वविद्यालय में एक छात्रा के विरोध का नतीजा रहा कि उत्पीड़न करने वाले उसके सुपरवाइजर को सार्वजनिक रूप से अपने समूचे विभाग के समक्ष लिखित और मौखिक क्षमा याचना करनी पड़ी। हरियाणा में दलित वर्ग की स्कूली छात्राओं ने बलात्कार करने वाले ऊंची जात के लोगों के नाम से बाकायदा शिकायत दर्ज कराई। और बेझिझक अपने स्कूल जाना भी जारी रखा। ये सब महिलाओं के यौन अपराधों के खिलाफ मुखर होने के उदाहरण हैं। पुरुषवादी दंभ या कहें कि अहंकार को इन सबसे झटका लगा है। अंग्रेजी के एक अखबार की एक रिपोर्ट के अनुसार सीनियर वकील ‘जूनियर महिला वकीलों को रखने से परहेज करने लगे हैं।
वे भविष्य में किसी संकट में पड़ने केजोखिम से बचे रहना चाहते हैं’। यह महिलाओं के लिए एक अच्छा संकेत है। खासकर उन महिलाओं तक इसे पहुंचाया जाना चाहिए जो किसी जॉब की तलाश में हैं। न्याय क्षेत्र में तो महिलाओं का यौन अपराधों के खिलाफ एकजुटता से आगे आना खासा असरकारक हो सकता है। विशाखा दिशानिर्दे शों को अब से पहले कभी शिद्दत से लागू किए जाने की इतनी जरूरत महसूस नहीं हुई। कार्यस्थलों पर पुरुषों को यह बात साफ हो जानी चाहिए कि यौन उत्पीड़न कोई मौज- मस्ती की क्रिया नहीं है। ऐसी भी नहीं हैं कि जिनसे किसी को नुकसान न होता हो बल्कि यह एक आपराधिक कृत्य है। महिलाएं इस प्रकार के विरोध से यह बात स्पष्ट कर रहीं हैं कि वे महिला-पुरुष के बीच रचनात्मक सहकार की हामी हैं। महिलाएं यह नहीं कह रहीं कि महिला-पुरुष के बीच संवाद ही न रहे। लेकिन कार्यस्थल में स्वस्थ माहौल न हो तो ऐसी स्थिति से भी उन्हें कोई गुरेज नहीं। वे चाहती हैं कि कार्यस्थल बेहद पेशेवराना अंदाज का परिचायक बनें। वे चंचलमना लोगों के अधकचरे व्यवहार का मंच तो कतई नहीं हों। कार्यस्थल पर पुरुष महिलाओं को दबोचने या मसलने को आमादा दिखें या फिर महिलाओं के वक्ष या ओरल सेक्स संबंधी जोक्स सुने-सुनाएं, यह बात महिलाओं को कतई गवारा नहीं। और आखिर में कहना यह है कि पीड़िता जिन हालात से गुजरी हो उन पर संजीदगी दिखाई जानी चाहिए। यह मसला पीड़िता पर ही छोड़ा जाना चाहिए कि क्या वह कानूनी कार्रवाई चाहती है, पुलिस में शिकायत करना चाहती है, विशाखा दिशा-निर्देशों का सहारा लेना चाहती है या फिर सार्वजनिक रूप से आरोपी से माफी मंगवाना चाहती है। हमें हर तरह से उसका समर्थन-सहयोग करना है ताकि वह पीड़िता ही न रह जाए बल्कि अन्याय से लड़ने की वाहक बन सके और सम्मान के साथ अपना जीवन जी सके। हमारे लिए ऐसा करने का समय आ चुका है।

प्रो. निवेदिता मेनन राजनीति विज्ञान संकाय, जेएनयू

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