Saturday 27 August 2011

इनके अंदर छुपा होता है शैतान


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बिहेवियर
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घर के लिए संस्कार अलग हैं और बाहर के लिए अलग। जहां हम घर के अंदर बहुत संस्कारी दिखना चाहते हैं, अपने घर की बेटी-स्त्रियों को संस्कारों के घेरे में बांध देते हैं, वहीं जब बाहर जाते हैं तो छोटी स्कर्ट पहनी लड़कियों को ललचाई नजरों से देखते हैं
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                                                                              राष्ट्रीय सहारा के उमंग मे प्रकासीत अगस्त माह २०११
कत्तीस जुलाई जंतर-मंतर पर कुल मिलाकर 50 लड़कियां और सौ-डेढ़ सौ से भी अधिक मीडिया वाले एक अनोखे मोच्रे के लिए एकत्रित हुए। इसे ‘बेशर्मी मोर्चा’ नाम दिया गया। इस मोचर्े में लड़कियों ने कम कपड़े पहन कर यह संदेश देने की कोशिश की कि पहनावे का उनकी सुरक्षा से कोई वास्ता नहीं है या इससे उनकी जान या इज्जत खतरे में नहीं है। हालांकि इस मोच्रे के बारे में यह उम्मीद थी कि इसे व्यापक प्रसिद्धि मिलेगी लेकिन ऐसा हुआ नहीं, फिर भी यह एक शुरुआत है। इस मोच्रे ने महिला शक्ति को नये आयाम दिये हैं। जहां एक ओर यह नारी शक्ति के हित में है, वहीं अगर दार्शनिक नजरिये से देखा जाए तो क्या भारतीय नारी को कनाडा के टोरंटो शहर में जन्म लेने वाले स्लट वॉक से प्रेरणा लेने की आवश्यकता है? हर देश का अपना विशिष्ट पहनावा होता है। किसी भी देश की भौगोलिक परिस्थिति के आधार पर वहां की वेशभूषा का जन्म होता है। इसके सिवा कोई भी और कारण इसे प्रभावित नहीं करता- जैसे रूस में पहनी जाने वाली फर कैप या फिर मलयेशिया का केन, जापान का किमोनो, मैक्सिको का समरेरो और रेबोजो या फिर भारतीय साड़ी। गल्फ कंट्रीज में पहने जाने वाले बुरके को लेकर काफी बवाल हो चुका है। कुछ साल कुवैत में रहने के बाद मैं यह बात पूरे विास से कह सकती हूं कि बुरका और अबाया पहनना वहां के माहौल की जरूरत है। जैसा औरतों के लिए काले रंग का बुरका और अबाया होता है और सिर पर रखने के लिए हिजाब या घत्रा होता है, बिल्कुल वैसा ही आदमियों के लिए सफेद रंग का गलदिंया होता है। वहां के आदमी भी सिर पर कपड़ा बांध कर रखते हैं। वजह मामूली है, वहां का वातावरण इतना गर्म है कि चोंगा पहनने से शरीर को हवा लगती रहती है और शरीर का तापमान कम रहता है। अगर ऐसा पहनावा न होता तो वहां की आधी आबादी डिहाइड्रेशन की चपेट में होती। हजारों साल से चलने वाली इन वेशभूषाओं में ग्लोबलाइजेशन की वजह से थोड़ी तब्दीली आ गई है जिसे हम ‘फैशन’ नाम दे रहे हैं। या तो वह फैशन से संबंधित है या आज वेशभूषा का महत्व वातावरण से उतना संबंधित नहीं है क्योंकि लोगों के पास वातावरण का सामना करने वाले उपकरण मौजूद हैं। अब हमें प्राकृतिक तौरत रीकों से खुद को वातावरण का सामना कराने की जरूरत नहीं रही। यही कारण है कि कुवैत, ओमान और दुबई के मूल निवासी भी अपना पारंपरिक पहनावा नहीं पहनते। अगर पहनते भी हैं तो धार्मिक कारणों से। अगर अपने यहां 1970 तक की बनी फिल्में देखें तो उसमें कॉलेज जाने वाली हीरोइनें भी अधिकतर साड़ी में नजर आती थीं। जैसे-जैसे मीडिया का जोर बढ़ता रहा, फैशन दुनिया के कोनों तक पहुंचने लगा और ग्लोब्लाइजेशन के बाद रीजनल फैशन ग्लोबल फैशन बन गया। पहले पंजाब में एक चलन चलता था, कोई फुलकारी का सूट निकलता था, तो सारी औरतें उस कढ़ाई का सूट सिलवाती थीं। कुछ बरसों बाद किसी भी फिल्म में कोई सूट दिखता या फैशन स्ट्रीट हॉलीवुड से प्रभावित होकर फैशन भारत के कोने -कोने तक पहुंचने लगा। सीधे फ्रांस या अमेरिका से प्रभावित होकर न केवल भारत, बल्कि पूरी दुनिया में अब एक जैसे कपड़े पहने जाते हैं। अब वातावरण से पहनावे का रिश्ता बिल्कुल कट चुका है। ग्लोब्लाइजेशन का मतलब है कि जो स्टोर अमेरिका में है, वही ब्रिटेन और भारत में भी है और इनके कपड़ों को डिजाइन करने का सेंटर एक है। यहीं से सभी स्टोर में कपड़े पहुंचाए जा रहे हैं। चाहे अमेरिका के युवा हों या पेरिस या भारत के, एक ही कपड़े और जूते पहन रहे हैं। जो बड़े स्टोर से न खरीद सकें, उनके लिए स्ट्रीट मार्केट में उसका सस्ता विकल्प भी होता है। भारत में या तो बहुत सर्दी होती है या फिर बहुत गर्मी है। तपिश में भी स्ट्रैपलेस ड्रेस, नूडल्स स्ट्रैप्स की कमीज या बिल्कुल छोटी शॉट्स या फिर बिल्कुल ऊपर खिंची शॉट्स पहन कर चाहे धूप से झुलस जाएं या सन बर्न की परवाह न करते हुए लड़कियां केवल मौजूदा फैशन की होड़ में ही कपड़े पहन रही हैं। यहां तक कि फुटवियर भी फैशन से प्रभावित हैं। आजकल मिलने वाली चप्पल के सोल इतने पतलेहैं कि गर्मी में सड़क पर चलने से हीट स्ट्रोक तक हो सकता है। फिर भी, लड़कियां तकलीफ झेलकर भी अप-टू-डेट दिखना चाहती हैं। ‘बेशर्मी मोर्चा’ के संदेश पर नजर डालें तो उसके अनुसार, लड़कियों का पहनावा पु रुषों की गंदी नजर या छेड़खानी का निमंतण्रनहीं है। प्रश्न है कि क्या लड़कियों का पहनावा लड़कों के लिए आमं तण्रहोता है? हां भी और नहीं भी। यदि छोटे कपड़े ही छेड़खानी का एक कारण होते तो इंग्लैंड और यूरोप में तो छोटे कपड़े उनका स्वाभाविक पहनावा है। हालांकि ऐसा इसलिए क्योंकि छह-आठ महीने धूप ना मिलने के कारण वे सनबाथ करना चाहती हैं लेकिन उनके छोटे कपड़े पुरुषों को आमंतण्रनहीं होते। हमारे समाज में दोगली नीति का प्रचलन है। घर के लिए अलग तरह का संस्कार और बाहर के लिए अलग। जहां हम घर के अंदर बहुत संस्कारी दिखना चाहते हैं, घर की बेटियों और महिलाओं को संस्कारों के घेरे में बांध देते हैं, वहीं जब बाहर जाते हैं तो छोटी स्कर्ट पहनी लड़कियों को ललचाई नजरों से देखते हैं। इन्हें ‘संस्कारी’ नहीं कह सकते। इनके अंदर शैतान छुपा होता है और वे कहीं न कहीं से फैशनेबल या फॉर्वड लड़कियों से जुड़ना चाहते हैं। वह उन्हें इज्जत की नजर से न देखकर सीटी बजा या छेड़छाड़ करके लुभाना चाहते हैं। जहां ‘बेशर्मी मोच्रे’ ने इस बात के जरिये नारी शक्ति को नये आयाम देने की कोशिश की, वहीं यदि कुछ कोशिशें कॉलेजों में आने वाले इस तबके या लड़कों या फिर समाज के ऐसे पुरुषों की मानसिकता में असर डालने के लिए की जातीं तो यही मौलिक रूप से समाज में बदलाव का कारण बनतीं। एक दशक पहले तक स्कूल या कॉलेज की फेयरवेल पार्टी में लड़कियां अपनी मां की साड़ियां खोजती थीं कि कौन सी साड़ी उन पर फबेगी, उसी को वे पहनें। उस उम्र की लड़की जब साड़ी पहनकर आती थी, तो पैरेंट्स और टीचर्स को अचानक महसूस होता था कि यह सचमुच बड़ी हो गई है और वह अपनी देखभाल करने लायक है। हाल ही में, कपड़ों के स्टोर में मेरी मुलाकात एक मां-बेटी से हुई, जहां बेटी अपने फेयरवेल के लिए कपड़े ट्राई कर रही थी। अगर बेटी लंबी ड्रेस पहनकर आती तो मां कहती, ‘इतनी लंबी ड्रेस भद्दी लग रही है, कुछ छोटा और ट्रेंडी क्यों नहीं ले लेती!’ मुझे तो लगा कि भारत भी तरक्की की राह पर है लेकिन जब अपने आसपास और अखबारों की सुर्खियों में बच्चों की डांस पार्टी में हुई छेड़खानी या रेप की खबरें पढ़ती हूं तो मन में यही बात आती है कि क्या वेशभूषा इसका मु ख्य कारण है या फिर हम ऐसे परिवर्तन के दौर से गुजर रहे हैं, जहां हमारी संस्कृति ने तो हमें छोड़ा नहीं लेकिन हम जिस मॉडर्न दुनिया की बात करते हैं, वहां तक अभी हमारा कदम पहुंचा नहीं है। उम्मीद है, यदि अगला बेशर्मी मोर्चा ऐसे व्यक्तियों को शामिल करके शर्मसार करने के लिए हो, जिनकी मानसिकता समाज के लिए परेशानी है तो यह कहीं अधिक सफल होगा।
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यदि भारत में भी 1970 तक की फिल्में देखें तो उसमें कॉलेज जाने वाली हीरोइनें भी अधिकतर साड़ी में नजर आती थीं। जैसे-जैसे मीडिया का जोर बढ़ता रहा फैशन दुनिया के कोनों तक पहुंचने लगा, ग्लोब्लाइजेशन के बाद रीजनल फैशन ग्लोबल फैशन में तब्दील हो गया
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सीमा भाटिया :- (लेखिका नई दिल्ली स्थित मूलचंद अस्पताल में क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट हैं)

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