Saturday 27 August 2011

वॉक नहीं रन बेबी




देशभर में हर घंटे एक नववधू जिन्दा जलाकर मारी जा रही है, क्यों किसी का दिल नहीं दहलता? क्यों कोई आन्दोलन नहीं फूट पड़ा? जितनी औरतों को सार्वजनिक वाहनों में रोजाना छेड़ा जाता है, उनमें से कितनी ने कम कपड़े पहने होते हैं? अपनी घिनौनी मानसिकता बदलिए। यह मानसिकता बदलने की चेतावनी है। सामूहिक चेतावनी। यह सावधान होने और बदलाव स्वीकारने का दबाव बना रही है

नई लड़की ने वह कर दिखाया, जिसकी कल्पना भी नहीं करते हुए थके हुए लोग घबराहट महसूस कर रहे थे। यह वॉक नहीं था, यह था रन। तेज। सुर्र से निकलता। आत्मविास से भरा। लड़कियों का जोश और ताजगी बता रही थी, अब वे संकोच में लिपटी बींदनी नहीं रहीं। उनके होश फाख्ता हैं, जो नग्नता को गरियाने की आस लिये बैठे रह गये। उनको लग रहा था कि उन्मुक्तता की बात करने वाली लड़कियां अकेली पड़ जाएंगी पर उनके साथ जवान लड़के भी थे और अधेड़ भी। स्त्रीत्व को कोसने वालों के मुंह पर यह करारा थप्पड़ है। किसी को इसका नाम गले उतारने में दिक्कत हो रही थी तो कुछ के लिए यह उघड़े बदन जीने की आजादी का आन्दोलन भर था। मानना होगा कि यह अपनी तरह का पहला स्त्री-मुक्ति आन्दोलन है। बिना किसी बैनर और समर्थन के। कपड़ों में अटके लोगों को यह समझा पाना सचमुच कठिन है कि यह मुक्ति की आवाज है। उस नई लड़की की आकांक्षा है, जो आपके बनाये इस तथाकथित सभ्य समाज में घुटन महसूसती है। इसको आयातित मुद्दा मानने वालों को दिमाग में बिठा लेना होगा कि पुरुषवादी नियमावली बीते जमाने की बात होने जा रही है। अब से पहले तक भारतीय औरतों द्वारा जो भी आन्दोलन किये जाते रहे हैं, वे पुरुषों के भरोसे थे। भयभीत। कृपा मांगते। सोशल साइट के जरिए, उस मुक्ति की आकांक्षाएं चल निकली हैं, जिनको कागजों से कभी निकाला ही नहीं जा सकता। ये कोरी लफ्फाजियां नहीं रहीं। ये समृद्ध घरों की सजी-संवरी, गहनों के बोझ से लदी औरतों का टाइम-पास भी नहीं हैं। हमारी आजादी, हमारी निजता से भयभीत है, परंपराओं के डूबने का बहाना करके वे हमें घुटन में कैद रखना चाहते हैं। वे यह हकीकत गले नहीं उतार पा रहे कि औरत अपनी नजर से भी देखे। उसके जीवन के निर्णय केवल उसके अपने हों। उनके रचे चक्रव्यूह का तोड़ औरतें सीख रही हैं। यह उनके अहंकार को चुटहिल ही नहीं कर रहा, उनको चेतावनी भी दे रहा है। उनमें यह बर्दाश्त करने का साहस भी नहीं जुट रहा कि यह केवल कपड़े चुनने की बात नहीं है। यह विचारों की आजादी, जीने का ढंग और उत्पीड़न के खिलाफ उठी आवाज है। सिर्फ हमको ड्रेस-कोड में बांधे रखने वाली मानसिकता से नहीं निकलना है । हम जो सोचते हैं, जैसा सोचना चाहते हैं, उस पर किसी तरह का कोई मर्दाना अंकुश ना रहे। हम क्षण-क्षण यह सोच कर सिहर ना जाएं..तो क्या होगा। वे क्या कहेंगे..हम जिएंगे कैसे..। ‘बुरी औरत’ का टैग किसी पुरुष की जुबान से निकलना ही मामूली नहीं है। वे गर्भ से निकाल फेंकने से लेकर दहेज के लिए जिन्दा फूंकने तक में कोई अंकुश लगाते नहीं दिख रहे। देशभर में हर घंटे एक नववधू जिन्दा जलाकर मारी जा रही है, क्यों किसी का दिल नहीं दहलता? क्यों कोई आन्दोलन नहीं फूट पड़ा? जितनी औरतों को सार्वजनिक वाहनों में रोजाना छेड़ा जाता है, उनमें से कितनी ने कम कपड़े पहने होते हैं? अपनी घिनौनी मानसिकता बदलिए। यह मानसिकता बदलने की चेतावनी है। सामूहिक चेतावनी। सावधान होने और बदलाव स्वीकारने का दबाव बना रही है। स्वाभाविकता के साथ ‘जिओ और जीने दो’ की मांग कर रही है। ऐसे लोग जो अभी इसके हो-हल्ले पर मुंह बिचका रहे हैं, वही जब अपनी बेटियों की घुटन के बारे में सोच सके, उसकी कराह सुनने को मजबूर हुए तो खुद-ब-खुद घुटने टेक देंगे। परंपराओं के नाम पर या दकियानूसी की आड़ में औरतों की स्वाभाविकता को कुचलने का यह मर्दाना दस्तूर इतनी आसानी से काबू नहीं हो सकता, यह स्त्री को समझ आ रहा है। यहां बात सिर्फ लिबास का नहीं है, घर से बाहर निकलते हुए जिस भय को जीना होता है, वह सलवार-कमीज या साड़ी लपेटने पर कम नहीं हो जाता। चार या पांच साल की नन्ही बिटिया हो या अस्सी साल की बूढ़ी माताजी, दोनों की ही निर्वस्त्र देह किसी भी तरह की कामुकता नहीं जगा सकती। बावजूद इसके पुरुषों द्वारा से निशाना बनायी जाती हैं और जबर्दस्त ढंग से बनायी जाती हैं। यह आन्दोलन घिनौनी विचारधारा के खिलाफ है। उस सोच के खिलाफ है जो शुद्ध मर्दाना रही है, जिसको मदरे ने अपने लोभ और लाभ के लिए पोसा है। यह उन सब अपशब्दों और गाली-गलौच के खिलाफ उठी चिंगारी है, जो स्त्री को निशाने पर रखती आई है। दो पुरुष जब भी लड़ते हैं, उनका शिकार एक-दूसरे की मांएं-बहनें क्यों होती हैं? क्योंकि पुरुषों ने ‘जर- जोरू’ को एक ही तराजू पर रखने की साजिश की है। जमीन के टुकड़े और घर की औरत में फर्क नहीं रखा। निर्जीव के समकक्ष, जिसका अपना कोई वजूद नहीं। पुरुष डरता रहा है, स्त्री की चुनौतियों से। उसको पता है, वह कोमल है पर कमजोर नहीं। शारीरिक बल भले ही कम हो पर मानसिक बल में पुरुष उसके करीब भी नहीं खड़ा हो सकता। इतने खतरनाक समाज में जी कर, उसने यह दिखाया है कि हम फिर भी संघर्ष कर रहे हैं। पदरे या बेड़ियों के बाद भी वह आज उस मुकाम पर है, जहां से अपनी आवाज बुलन्द कर सकती है। बातों से फुसलाने से अब बात नहीं बननी, आप आरक्षण दो या ना दो, उसको पता है, उसे क्या करना है। वह अपने बूते लेगी, सब। वह बिना कुछ खोये, सबकुछ पा लेने की तैयारी में है। जो यह कहते हैं कि बहुत सारी औरतें भी इसके पक्ष में नहीं, उनकी आंखें खोलने के लिए बता दूं, ये वही औरतें हैं, जिनके मन का पौरुषीकरण करने में यह व्यवस्था सफल है। जिनके कोमल दिमागों को प्रदूषित करने में सफलता मिल चुकी है कि वे पुरुष के बिना एक भी कदम आगे नहीं बढ़ा सकतीं या यह कि वे कमजोर हैं और इस समाज की रीढ़ बस पुरुष ही हैं। यह सोच बीमार है। नतमस्तक है। छाया भर है। यह डरी हुई स्त्री की सोच है। दासत्व का विचार। पुरुषों द्वारा बोया गया विचार। गुलामी का बीज। पीढ़ियों से सोते-जागते, खाते-पीते, कहा गया ‘तुम यह नहीं कर सकती, वह नहीं हो सकती। यहां नहीं जा सकती, वहां नहीं खा सकती।’ इस डर को पुरुष पीढ़ियों से उसके भीतर इतने सलीके से ठूंसता चला आ रहा है कि औरतों को वह जीवन का अंग लगने लगा। उसके आत्मसम्मान का गला घोंटकर, अपना काम बनाये वाला उद्दंडी उसके इस साहस को कैसे बर्दाश्त कर सकता है? इसको केवल स्त्रीत्व का उत्सव कह कर खुश होने से भी काम नहीं चलने वाला, यह पुरुषों की उस उग्रता और एेंठ को चेतावनी देने वाला अस्त्र बन चुका है, जिसकी नोंक पर नाचते नजर आएंगे वे। यह मर्दाना ऐंठ और ठसक का अंतिम दौर है, मानसिक रूप से लड़कियों में जबर्दस्त आत्मविास आ रहा है। चेतना का जो चस्का नई लड़की को लग रहा है, वह केवल उनको परीक्षाओं में ही अव्वल नहीं ला रहा, उसका असर उनके संपूर्ण व्यक्तित्व पर दिखेगा। वही आगे बढ़ कर दहेज मांगने वालों के मुंह पर करारा थप्पड़ जड़ेंगी और दहेज के भूखे भेड़ियों के बेटों को दुत्कार लगाएंगी। बेटियों को जनने का जश्न मनाएंगी और गर्भ की ताक-झांक पर फटकारों की झड़ी जमाएंगी। वॉक पर निकली ये लड़की टॉपलेस घूमने को उतावली नहीं थी, पर चटखारे मारने वालों ने तमाशबीन बनने का लोभ कहां छोड़ा! हालांकि उनको मायूसी ही हाथ लगी। वे भूल गये कि दूसरे देशों में टू-पीस में स्वतंत्र घूमने वाली लड़की नहीं है यह। जिन्होंने सीने पर लिखवाये थे स्लोगन, हमारी लड़कियों ने टी शर्ट पर विचारों को परोसा। बिना किसी हाय-तौबा के। वे ना ही सड़क पर उस तरह का कोई उपद्रव करती फिरने को बेताब हैं, जो अब तक आप करते रहे हैं ना किसी को आहत कर रही हैं। दर्द देने का तो सवाल ही नहीं उठता। दकियानूस परेशान हैं, उनकी बच्चियां/बीवी को यह भनक ना लग जाए। वे भूल रहे हैं, ज्वालामुखी को तो दबाया नहीं जा सकता। परंतु कचरे को भी घर के भीतर कब तक छुपा कर रखोगे। कुकर्मो के फल रसीले नहीं होते, उनकी संड़ाध तो निकल ही पड़ेंगी। ना तो कोई अराजकता होने जा रही है, ना ही नंगई। बहुत शालीन और सौम्य तरीके से बस चेताया जा रहा है कि अब हद हो गई, अब बस करिए। मुक्ति के नाम पर यहां कोई अभद्रता नहीं हुई, यह तो सबने अपनी आंखों से देख ही लिया। मुक्ति या आजादी का मतलब उद्दंडता नहीं, अराजकता नहीं, असामाजिकता नहीं। सिर्फ अपने हिस्से का ‘स्पेस’ मांगने की जिद है। सकारात्मक जिद, जिससे किसी का कोई नुकसान नहीं। आत्मसम्मान से जीने की जिद। मां के गर्भ में रहने की जिद। पार्क में खेल सकने और झूले झूलने की जिद। सड़क पर सुरक्षित चलने की जिद। घर में चैन की सांस ले सकने की जिद। हर क्षण मौत के भय, असम्मानित हो जाने के भय, लुट जाने और तबाह कर दिये जाने के भय से मुक्ति की चाहना है यह। जिसकी जरूरत है जीने के लिए, जीते रहने के लिए। जिसके बिना अब जीना मुश्किल हो चुका था। दर्द जब हद से गुजर जाए..बल्कि हद की हद से भी गुजर चुका था यह दर्द।


वॉक पर निकली ये लड़की टॉपलेस घूमने को उतावली नहीं थी, पर चटखारे मारने वालों ने तमाशबीन बनने का लोभ कहां छोड़ा। हालांकि उनको मायूसी ही हाथ लगी। वे भूल गये कि दूसरे देशों में टू-पीस में स्वतंत्र घूमने वाली लड़की नहीं है यह। जिन्होंने सीने पर लिखवाये थे स्लोगन, हमारी लड़कियों ने टी शर्ट पर विचारों को परोसा।

                                                                                                                                      मनीषा
        खरी-खरी


...........राष्ट्रीयसहारा समय लाइव ' आधी दुनिया '  के साभार से 

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