वैज्ञानिक लंबे अरसे से चिल्लाते आ रहे हैं कि बुद्धि की प्रखरता, तीक्ष्णता, शार्पनेस और तेजी पर किसी तरह का कोई लैंगिक आरक्षण नहीं है। सनसनाती बुद्धि पर किसी मर्द का एकाधिकार नहीं होता। मानव विज्ञान मानता है कि विद्वता पर पुरुष जबरन अधिकार नहीं जता सकता, यह सामाजिक तानाबाना है, जो औरतों की बौद्धिकता को क्रियाशील नहीं रहने देता पुरुषों को यह कहते सुनकर औरतें असहज नहीं होतीं कि उनको समझ कम है या वे नहीं समझ सकतीं बल्कि वे उनको खुश करने के लिए यह दर्शाने में कोई संकोच नहीं करती कि वे बेवकूफ हैं। स्त्री की बौद्धिकता पुरुषों को डराती ही नहीं है, उनके पौरुष को चुनौती भी देती है जिसको बर्दा श्त करने की ना तो उनमें क्षमता होती है, ना ही आदत। पीढ़ियों से औरतों के साथ ‘दासों’ जैसा बर्ताव करते रहते के कारण, उनका अहंकार घायल होता है। वे अपने इसी झूठे दंभ के कारण इस भ्रम में जीते हैं कि वे स्त्री से अव्वल हैं। दुखद तो यह है कि औरतों ने कभी उनके इस भ्रम को तोड़ने के प्रयास नहीं किये। उनको चुनौतियां नहीं दीं। उनको यह नहीं बताया कि तुम्हारे दादा-नाना, अहंकार के जो बीज तुम्हारे भीतर बो गये हैं, वे कांटेदार हैं और तुमको भीतर ही भीतर चोटिल करते हैं जिनके चलते, आधी आबादी को बिला-वजह ही तुम दोयम मानते रहे हो। और, जिसका खामियाजा समूचे सामाजिक विकास पर पड़ा है। नयी अर्थव्यवस्था और विकास के आंकड़ों के धुरंधर खिलाड़ी भी मानते हैं कि वे अपनी जनाना फोर्स के श्रम को इस्तेमाल कर रहे हो ते तो कहीं आगे होते। लड़कियों ने पढ़ाई के मार्फत इनको कितनी ही दफे करारा झटका देकर यह अहसास कराने की भी कोशिश की है, पर इनका झूठा अहंकार यह स्वीकारने में कचोटता है। यह दशा सारी दुनिया में है। ‘फोर्ब्स’ ने लगातार कहा है कि दुनियाभर के सीईओ पदों पर औरतों की संख्या ना के बराबर है, वह यह भी खुलासा करती है कि बड़ी कंपनियां अपने बोडरे में महिलाओं की उचित हिस्सेदारी दिलाने में असफल हैं। सच तो यही है कि पुरुषों से ज्यादा जिम्मेदारियां निभाने के बावजूद उनके काम और क्षमताओं की जानबूझ कर अनदेखी होती है। एक तो उनके अधिकारी पुरुष हैं, दूसरे पुरुषों को उनके काम से मतलब नहीं होता। वे औरतों से बौद्धिकता की ना तो उम्मीद करते हैं, ना ही गले उतार पाते हैं। जहां औरत उनसे ज्यादा बुद्धिमान प्रतीक होती है, वे कुंठित हो जाते हैं और अनर्गल बातें करने लगते हैं। औरतों के लिपे-पुते चेहरों औ र कामुक अदाओं में उलझे रह कर वे अपने अहंकार को संतुष्ट कर लेते हैं। उनकी मोहक मुस्कान और गुदगुदी करने वाली बातें पुरुषों को बरगलाती भले ही हैं पर इनकी आड़ में वे उनको प्रतियोगिता से बाहर धकेलने का अधिकार झटक लेते हैं। समान शिक्षा और बौद्धिकता के बावजूद पौरुषेय दंभ औरतों की तौहीन करने पर आमादा रहता है। उसकी खुन्नस बातों, उलाहनों, शिकायतों और बर्ताव में स्पष्ट झलकती हैं। दुनियाभर में लगातार हो रहे अध्ययन भी बता रहे हैं कि पुरुषों को औरतों की लीडरशिप में काम करने में दिक्कत होती है। वे लेडी बॉस से खार ही नहीं खाते, यह भी मानते हैं कि उनको औरतों के आदेश मानने में अटपटा लगता है। दरअसल, औरतों को फॉलो करने में उनका दंभ आड़े आता है। जिनको अपनी उंगलियों पर नचाने का फख्र हो, उनके इशारों पर काम करना उनके लिए मुश्किल हो जाता है। पुरुष बॉस की झिड़की खाने वाली उनकी मानसिकता स्त्री का आदेश भी गले नहीं उतार सकती। खासकर, जब वह घर में औरत को दुत्कार कर, ताने मार कर, गाली-गलौच कर आ रहा हो तो ऊंची कुर्सी पर बैठी औरत की जुबान से निकला एक भी शब्द उसके जिगर को भेदने के लिए काफी है। औरतों से गुलामों की तरह पेश आने का यह ‘घमं ड’ उसको तार-तार कर देता है, जिसका असर उसकी क्षमताओं पर भी पड़ सकता है। हालांकि यह कहने में मुझे जरा भी संकोच नहीं है कि कम ही औरतें अभी इस ‘दासत्व’ भाव से निकल पायी हैं या निकलने को चेष्टारत हैं। यह दासत्व भाव परिवार और समाज में ही रचा-बसा नहीं है, यही हमको ‘आइडियल’ भी बनाता है। यही हमको महानता का अहसास कराता है, हम पर दया भाव दिलाने की गुहार लगाता है। पुरुषों की दया की आदी हमारी जीवन शैली, उनको चुनौती देते अटकती है। उसको क्षण-क्षण लगता है, यह अमानवीय तो नहीं हो रहा? वह पलट कर सोचती है। अपनी दादियों-नानियों की दुर्दशा को याद करती है। जिन संस्कारों की नींव पर उसको पाला-पोसा गया, उनको भुलाना/दुत्कारना उसके लिए थोड़ा कठिन हो जाता है। वह शोषित रही है, पीड़ित और सताई जाती रही है, जिसकी अभ्यस्त है वह। सिर उठा कर चलते हुए, कभी-कभी संकोच हो जाता है। पुरानी बातें/ पीढ़ियां याद आ जाती हैं। पुरुषों के सूखे मुंह और चेहरों के उड़े रंग उसके आत्मबल को झकझोरने के लिए काफी हैं। जिन कड़ाइयों और रूखेपन को वह बनावटी तौर पर इस्तेमाल करती है, उनकी टीस भी होती है उसको। परंतु कोमलता और भावनात्मकता के भरोसे निष्ठुर/चतुर/मतलबी पुरुषों को चुनौती नहीं दी जा सकती। उनके झूठे दंभ को चोटिल करने के लिए ही हमको यह रूप ओढ़ना है। हम ना तो अपने प्राकृतिक भावनात्मक स्वभाव को छोड़ रहे हैं, ना ही कोमलता को ठस करने का प्रयास कर रहे हैं पर प्रतिस्पर्धा में बिना बराबरी के तुलना नहीं हो सकती। हमको अब दया नहीं चाहिए। आपकी फेंकी रिश्तेदारियां, भावनाएं या संकीर्णताएं हमारी खुराक नहीं बन सकती। हम मदरे की गलतियां नहीं दोहराएं, बल्कि उनकी गुस्ताखियों से सीख लें और उनको पछाड़ने के सुख में ऐंठने की बजाए यह जता सकें कि चुनौती देना तो हमको भी आता है पर हम गुस्ताख नहीं। कुतर्की यह कह सकते हैं कि स्त्रियां तो राष्ट्राध्यक्ष भी हैं, क्योंकि वे यह सचाई नहीं जान सकते कि मल्टीनेशनल बैंक या कंपनी की सीईओ औरतें हैं, तो किस अनुपात में? उसमें जनसाधारण का कोई सहयोग नहीं है। अमूमन तो परिवारों का भी नहीं होता। कड़ी प्रतिस्पर्धा और विपरीत स्थितियों के बावजूद वह जहां पहुंची है, वह तो झलक भर है। अभी तो वह समय आना है, जब स्त्री ही असल शासक होगी, वही असल दाता और मार्गदर्शक होगी। जाहिर है, वह समय अद्भुत होगा, प्रेममय, अपनत्व भरा, सहिष्णुता और लयबद्धता लिये। जहां ना तो उपद्रव होंगे, ना शुष्कता और ना ही बेरहमी ही। औरतों को गुलाम बना कर रखने की पुश्तैनी आदत ने पुरुषों को भीतर से कमजोर किया है। वे अहंकार के चोटिल होते ही, और भी खूंखार हो जाते हैं। बदले की भावना से वे औरतों पर चारित्रिक दोष मढ़ने लगते हैं। उन पर अनर्गल आरोप- प्रत्यारोप पर उतारू हो जाते हैं। औरत की बौद्धिकता, उसकी तार्किकता उनको भयावह लगती है। उनके काम में मीन-मेख निकालने लगते हैं। उन पर जरूरत से ज्यादा बोझ डालने की साजिश में शामिल हो जाते हैं । पीढ़ियों से औरतों ने पुरुष के मन को दासी बनाकर जो सहलाया है, वह उसके ममतीलेपन से नहीं निकल पा रहा है । वह मान बैठा है कि औरत की क्षमता ही यही है। उसको इतना भी शऊर नहीं कि प्राकृतिक रूप से औरत कोमल है, संवेदनशील है, प्रेममय है। ‘देने’ की उसमें जबर्दस्त क्षमता है। वह भाव-विह्वल होकर कुछ भी देने की भूमिका में कभी भी आ सकती है। वह देह-बल में भले ही कुछ कमजोर हो, पर उसका आत्म-बल और चेतना पुरुषों की तुलना में असीम है, जिसको भोथरा करने की कोशिशें करने में पुरुष कहीं मात नहीं खाता। भाषा से, तानों से, गाली-गलौच से वह औरत को हमेशा पीछे धकेलने का काम करते नजर आता है। उसको भीतर ही भीतर डर बैठा है कि औरतों की चुनौती को ना तो स्वीकार ही सकता है, ना उसके सामने ही टिक सकता है। भीतर से कमजोर पुरुष इसीलिए अत्याचारी है। वह घर बैठी स्त्री को सताता है, दफ्तर में काम में जुटी औरत हो या सड़क पर चलती, अपनी कुंठाओं के कारण वह अनजाने ही औरतों पर मानसिक/व्यावहारिक प्रहार करने से बाज नहीं आता। अपनी कमजोरियों को ढांकने का सुख, उसके संपूर्ण मर्द होने के भ्रम को सहलाता रहता है। अपनी कमजोरियों को छुपाने का यह तरीका अनजाने ही उस पर हावी हो जाता है। देखा-देखी, परंपरा से, अनुभवों और व्यवहार से वह इनका इतना आसक्त हो जाता है कि इनसे छुटकारा पाने की कल्पना से भी दिल दहल जाता है। कमजोरियों के मारे पुरुषों के आतंक से दहली औरतों का प्राकृतिक विकास तो ठहरता ही है, वे पुरुषों पर आश्रित भी होती चली जाती हैं, जो सामाजिक नियम बनता गया है। यही कारण होता है कि औरतें बेहद चतुराई से दफ्तर में अपने बॉस की या घर पर पति की चिरौरी कर अपने काम निकलवा लेती हैं। वे जानती हैं कि ठस्स सोच वाला पुरुष चुनौती देने से मानेगा नहीं, इसलिए वे देसी टाइप के हथकंडे अपनाती हैं और उसके अहंकार को बिना ठेस लगाये अपना काम बना लेती हैं। वे कहती हैं, ‘आपसे बुद्धिमान तो कोई हो ही नहीं सकता’ या ‘यू आर जीनियस’। हालांकि इस तरह के जुमले सुनने के आदी हो चुके भोथरी बुद्धि वाले मर्द, किसी भी कीमत पर औरतों को अपनी बराबरी का ज्ञानी नहीं मान सकते। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि उनको स्त्री का दासत्व रूप इतना सूट करता है कि जहां औरत ने गर्दन उठाई, उनकी संपूर्ण मर्दानगी फना हो जाती है। अपने भीतर के केंचुए को वे स्पष्ट देखना लग जाते हैं। उनकी सारी ऐंठ हवा हो जाती है। यहां से शुरू होता है, विपरीत भय। डरा हुआ पुरुष, रीढ़हीन, मिमियाता, रेंगता। दया मांगता। पंगु। बेचारा। वैज्ञानिक लंबे अरसे से चिल्लाते आ रहे हैं कि बुद्धि की प्रखरता, तीक्ष्णता, शार्पनेस और तेजी पर किसी तरह का कोई लैंगिक आरक्षण नहीं है। सनसनाती बुद्धि पर किसी मर्द का एकाधिकार नहीं होता। मानव विज्ञान मानता है कि विद्वता या समझ पर पुरुष जबरन अधिकार नहीं जता सकता, यह सामाजिक तानाबाना है, जो औरतों की बौद्धिकता को क्रियाशील नहीं रहने देता। अपने यहां तो अभी तक ठीक से लड़कियों को पढ़ाया तक नहीं जाता। आधुनिकता के हितैषियों की बातों के बावजूद आधी औरतें अपढ़ ही हैं, शिक्षित तो दूर की बात है। जीवन अनुभवों का जखीरा है उनके पास पर वे दबाव में होती हैं। घुटन जीती। मुक्ति के अभाव में छटपटाती। दया की भीख मांगती। पौरुषेय दंभ से दबी। पुरुषवादी संस्कारों और नियमों के बोझ से लदी। मुक्ति की यह भूख, आजादी की झटपटाहट उनको चुनौती देने के लिए प्रोत्साहित करेगी। वे सामने होंगी। उनके भीतर का दासत्व- उनका गुलामीपन उनको मजबूती देगा। |
Sunday, 28 August 2011
चुनौती दंभी पुरुषों को
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