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यह मार्च सादा था, बिना शोर-शराबे और दिखावे का था। स्त्रीवादी मुहिम ना होने के बावजूद सड़क पर स्लोगनों और पोस्टरों के साथ निकली लड़कियों के साथ ढेरों लड़कों ने आकर पहली बार जता दिया कि वे उनकी पीड़ा बांट रहे हैं। सोच बदलने और अपने भीतर की गंदगी को निकाल फेंकने के जोशीले वॉक पर स्पर्धा
‘दिस इज नॉट एन इंविटेशन टू रेप मी‘ जैसे स्लोगन लिखे कपड़ों को पहने लड़कियां जंतर-मंतर पर इकट्ठा हुई। लोगों की सोच के विपरीत इस स्लटवॉक अर्थात बेशर्मी मोर्चा का आयोजन केवल कपड़े पहनने की स्वतंत्रता के लिए नहीं किया गया था। इस मोच्रे का आयोजन विचारों में खुलेपन लाने के लिए किया गया था। कपड़े चाहे छोटे हों या बड़े, खाने का मन चाहे पिज्जा का हो या रोटी का, वकील बनने का मन हो या घर संभालने का, मनमर्जी शादी करने का, जब बात किसी व्यक्ति की हो रही है तो यह उसकी निजी स्वतंत्रता है कि उसकी क्या ख्वाहिश है और वह क्या पाना चाहता है। यही वजह रही कि इस स्लटवॉक को समझने में कुछ लोग चूक गए। इसे महज कपड़ों के मामले में उलझा समझ लिया गया, जबकि यहां बात हर मामले में स्वतंत्रता और अपने हक की लड़ाई की है। यह लड़ाई सिर्फ पुरुषों से नहीं बल्कि समाज के हर उस व्यक्ति, संस्था, रीति-रिवाज और परिपाटी से है, जो मुक्ति को बांधे बैठी है। यह वॉक उन महिलाओं द्वारा की गई शुरुआत नहीं है, जो खादी की साड़ी में लिपटी, बड़ी बिंदी लगाए और चप्पल पहने औरतों के हक की लड़ाई लड़ती हैं। यह वॉक उन लड़कियों द्वारा शुरू की गई है, जो जमीनी स्तर पर काम नहीं कर रहीं लेकिन इन्हें पता है कि किस तरह की दिक्कतों का सामना ये करती हैं। सरे राह छेड़छाड़ हो या कपड़ों पर फब्ती, सिर्फ पुरुष ही नहीं, पुरुष मानसिकता वाले लोग लड़कियों के साथ होने वाली छेड़छाड़ और बलात्कार का ठीकरा उनके कपड़ों पर ही फोड़ते हैं।
हां, यह जरूर है कि स्लटवॉक मुहिम की शुरुआत टीनएजर द्वारा शुरू की गई है, जो सही तरह से महिलाओं की परेशानियों और मुद्दों को अभी गहराई से समझती नहीं है। तभी तो जब इसे आयोजित करने वाली उमंग सभरवाल आगे के कदम पर निरुत्तर हो जाती है। बस केवल यही कहती है कि मैं इसे बढ़ाना चाहती हूं लेकिन आगे के कदम के बारे में कुछ सोचा नहीं है। यह उमंग की कम उम्र का ही असर है कि उसे इस वॉक का भविष्य नजर नहीं आ रहा। यही वजह है कि मुंबई में सितम्बर में होने वाले स्लटवॉक के बारे में उमंग को कुछ पता नहीं। वह बस यही कहती है कि यदि उन्हें मेरी कोई मदद चाहिए, तो मैं यहां मौजूद हूं। दरअसल, अपने यहां यही तो दिक्कत है। औरतों के हक की लड़ाई सामूहिक तौर पर नहीं लड़ी जाती। सबने अपने-अपने मोच्रे खोल लिए हैं। सभी अपनी तरह से लड़ रहे हैं। यह बात उन्हें समझ ही नहीं आती कि जब तक सामूहिक तौर पर इस समाज से लड़ा नहीं जाएगा, तब तक कुछ हासिल नहीं होने वाला, कोई हवा नहीं बदलने वाली। शायद जब मामला और बड़ा होगा, इससे न केवल मेट्रो बल्कि कस्बों और गांवों की युवतियां भी जुड़ेंगी तो औरतवादी हक के पक्ष में लड़ने के लिए मसले भी कई होंगे। तब केवल पहनावा या अपनी स्वतंत्रता के लड़ने के मुद्दे के अलावा भ्रूण हत्या, दहेज, घरेलू हिंसा, प्रेमी प्रताड़ना जैसे मुद्दे भी शामिल होंगे और लड़े जाएंगे। हां, 19 साल की उमंग के दिमाग में यह जरूर साफ है कि वह फेमिनिस्ट नहीं, उसकी लड़ाई इंसानियत के हक की है। दरअसल, हमें समझने की जरूरत है कि उमंग सभरवाल समाज के उस तबके से आती है, जो अपर मिडिल क्लास है, जिसकी अलग समस्याएं है, जो गांव-कस्बों की लड़कियों की समस्याएं को नहीं समझ पाते।
स्लटवॉक न केवल पुरुषों के खिलाफ हो, बल्कि यह ’रन‘ उस समाज के खिलाफ हो, जहां लड़कियों पर कानून कसने वालों का शिंकजा बुरी तरह से हावी रहता है। यह न पहनो, ऐसे न करो, यहां न जाओ, यह मत खाओ, जैसे कहने वालों के मुंह पर तमाचा जड़ने के लिए हो स्लटरन। मॉडर्न ड्रेस पहन लिए और किसी ने फब्ती कस दी तो साथ वाली कहती है, यार! तुझे ऐसे कपड़े नहीं पहनने चाहिए थे। भला कोई दूसरा यह कैसे तय कर सकता है कि किसी को क्या पहनना चाहिए और क्या नहीं? हमें किस तरह से चलना चाहिए, किस तरह से ऑफिस जाना चाहिए, यह दूसरा तय नहीं कर सकता। इसे तय करेगा खुद वही, जिसे चलना है। औरतों पर पाबंदी लगाने को भला हम टीवी चैनलों को कैसे भूल सकते हैं? भारी-भरकम साड़ी और लदे- फदे गहनों में टीवी की ये औरतें इस स्लटवॉक का उपहास उड़ाती दिखती हैं। इन दिनों टीवी पर एक धारावाहिक आ रहा है, जिसमें बहू को डॉक्टरी की पढ़ाई की इजाजत तो मिल गई लेकिन वह मेडिकल कॉलेज भी गहनों में लदी- फंदी जाती है। अब भला यह तो वही बता सकती है कि भारी साड़ी और गहनों में वह किस तरह पढ़ाई करती होगी और किस तरह लैब में चीर- फाड़ करती होगी। फेसबुक पर शुरू की गई इस मुहिम को कइयों ने पसंद किया तो कइयों की सोच थोड़ी अलग सी दिखी। लोगों ने इसे गलत तरीके से सोचा भी और समझा भी। कुछ ने तो इसे सिर्फ लड़कियों के पहनावे से जोड़कर देख लिया। कुछ ने फेसबुक के इस पन्ने पर निगेटिव कमेंट्स भी दे मारे। ऐसे लोगों के बारे में उमंग कुछ कहना नहीं चाहती। वह बस यही कहती है कि इनकी मानसिकता ठीक नहीं।
हमारा मुद्दा सिर्फ यही है कि किसी के व्यक्तित्व पर कोई दूसरा हक नहीं जमा सकता। फेसबुक के इसी पन्ने पर ऋचा शर्मा कहती हैं कि मुझे इस बारे में कुछ भी पता नहीं। मैंने अखबारों में स्लटवॉक के बारे में पढ़ा है। मैं उन लड़कियों में हूं, जिनके माता-पिता यह सोचते हैं कि लड़कियों के पहनावे की वजह से ही उनके साथ गलत है। मैं चाहती हूं कि उनकी भी मानसिकता बदले। अपनी आजादी को लेकर लड़कियों द्वारा निकाली गई इस रैली को कैश करने की कोशिश में कई लोग गए हैं। इनमें मुख्य नाम पूनम पांडे का है। इन्हें पहचान की तो दरकार नहीं, फिर भी लाइमलाइट में बने रहने के लिए कुछ तो करना चाहिए। सो, दिल्ली के स्लटवॉक की नकल करते हुए मुंबई में होने वाले स्लटवॉक की अगुवाई का जिम्मा इन्होंने उठाया है। कहती हैं कि काश! मैं दिल्ली स्लटवॉक का हिस्सा बनती। पूनम को क्या किसी ने मना किया था कि दिल्ली आने के लिए उन्हें किसी बात का डर था? अब यह तो पूनम ही जानें लेकिन यह जरूर तय है कि उमंग द्वारा शुरू किए गए बेशर्मी मोच्रे की शुरुआत हो चुकी है। इसे बड़े मोच्रे पर ले जाने की जरूरत है ताकि यह मसला लड़कियों की आजादी का बन जाए ताकि यह मसला स्त्रियों के हर उस हक का बन जाए, जिसकी वे हकदार हैं। इसे केवल ’वॉक‘ नहीं बल्कि ’रन‘ बनाने की जरूरत है। (फेसबुक कमेंट्स पेज 2 पर भी)
हां, यह जरूर है कि स्लटवॉक मुहिम की शुरुआत टीनएजर द्वारा शुरू की गई है, जो सही तरह से महिलाओं की परेशानियों और मुद्दों को अभी गहराई से समझती नहीं है। तभी तो जब इसे आयोजित करने वाली उमंग सभरवाल आगे के कदम पर निरुत्तर हो जाती है। बस केवल यही कहती है कि मैं इसे बढ़ाना चाहती हूं लेकिन आगे के कदम के बारे में कुछ सोचा नहीं है। यह उमंग की कम उम्र का ही असर है कि उसे इस वॉक का भविष्य नजर नहीं आ रहा। यही वजह है कि मुंबई में सितम्बर में होने वाले स्लटवॉक के बारे में उमंग को कुछ पता नहीं। वह बस यही कहती है कि यदि उन्हें मेरी कोई मदद चाहिए, तो मैं यहां मौजूद हूं। दरअसल, अपने यहां यही तो दिक्कत है। औरतों के हक की लड़ाई सामूहिक तौर पर नहीं लड़ी जाती। सबने अपने-अपने मोच्रे खोल लिए हैं। सभी अपनी तरह से लड़ रहे हैं। यह बात उन्हें समझ ही नहीं आती कि जब तक सामूहिक तौर पर इस समाज से लड़ा नहीं जाएगा, तब तक कुछ हासिल नहीं होने वाला, कोई हवा नहीं बदलने वाली। शायद जब मामला और बड़ा होगा, इससे न केवल मेट्रो बल्कि कस्बों और गांवों की युवतियां भी जुड़ेंगी तो औरतवादी हक के पक्ष में लड़ने के लिए मसले भी कई होंगे। तब केवल पहनावा या अपनी स्वतंत्रता के लड़ने के मुद्दे के अलावा भ्रूण हत्या, दहेज, घरेलू हिंसा, प्रेमी प्रताड़ना जैसे मुद्दे भी शामिल होंगे और लड़े जाएंगे। हां, 19 साल की उमंग के दिमाग में यह जरूर साफ है कि वह फेमिनिस्ट नहीं, उसकी लड़ाई इंसानियत के हक की है। दरअसल, हमें समझने की जरूरत है कि उमंग सभरवाल समाज के उस तबके से आती है, जो अपर मिडिल क्लास है, जिसकी अलग समस्याएं है, जो गांव-कस्बों की लड़कियों की समस्याएं को नहीं समझ पाते।
स्लटवॉक न केवल पुरुषों के खिलाफ हो, बल्कि यह ’रन‘ उस समाज के खिलाफ हो, जहां लड़कियों पर कानून कसने वालों का शिंकजा बुरी तरह से हावी रहता है। यह न पहनो, ऐसे न करो, यहां न जाओ, यह मत खाओ, जैसे कहने वालों के मुंह पर तमाचा जड़ने के लिए हो स्लटरन। मॉडर्न ड्रेस पहन लिए और किसी ने फब्ती कस दी तो साथ वाली कहती है, यार! तुझे ऐसे कपड़े नहीं पहनने चाहिए थे। भला कोई दूसरा यह कैसे तय कर सकता है कि किसी को क्या पहनना चाहिए और क्या नहीं? हमें किस तरह से चलना चाहिए, किस तरह से ऑफिस जाना चाहिए, यह दूसरा तय नहीं कर सकता। इसे तय करेगा खुद वही, जिसे चलना है। औरतों पर पाबंदी लगाने को भला हम टीवी चैनलों को कैसे भूल सकते हैं? भारी-भरकम साड़ी और लदे- फदे गहनों में टीवी की ये औरतें इस स्लटवॉक का उपहास उड़ाती दिखती हैं। इन दिनों टीवी पर एक धारावाहिक आ रहा है, जिसमें बहू को डॉक्टरी की पढ़ाई की इजाजत तो मिल गई लेकिन वह मेडिकल कॉलेज भी गहनों में लदी- फंदी जाती है। अब भला यह तो वही बता सकती है कि भारी साड़ी और गहनों में वह किस तरह पढ़ाई करती होगी और किस तरह लैब में चीर- फाड़ करती होगी। फेसबुक पर शुरू की गई इस मुहिम को कइयों ने पसंद किया तो कइयों की सोच थोड़ी अलग सी दिखी। लोगों ने इसे गलत तरीके से सोचा भी और समझा भी। कुछ ने तो इसे सिर्फ लड़कियों के पहनावे से जोड़कर देख लिया। कुछ ने फेसबुक के इस पन्ने पर निगेटिव कमेंट्स भी दे मारे। ऐसे लोगों के बारे में उमंग कुछ कहना नहीं चाहती। वह बस यही कहती है कि इनकी मानसिकता ठीक नहीं।
हमारा मुद्दा सिर्फ यही है कि किसी के व्यक्तित्व पर कोई दूसरा हक नहीं जमा सकता। फेसबुक के इसी पन्ने पर ऋचा शर्मा कहती हैं कि मुझे इस बारे में कुछ भी पता नहीं। मैंने अखबारों में स्लटवॉक के बारे में पढ़ा है। मैं उन लड़कियों में हूं, जिनके माता-पिता यह सोचते हैं कि लड़कियों के पहनावे की वजह से ही उनके साथ गलत है। मैं चाहती हूं कि उनकी भी मानसिकता बदले। अपनी आजादी को लेकर लड़कियों द्वारा निकाली गई इस रैली को कैश करने की कोशिश में कई लोग गए हैं। इनमें मुख्य नाम पूनम पांडे का है। इन्हें पहचान की तो दरकार नहीं, फिर भी लाइमलाइट में बने रहने के लिए कुछ तो करना चाहिए। सो, दिल्ली के स्लटवॉक की नकल करते हुए मुंबई में होने वाले स्लटवॉक की अगुवाई का जिम्मा इन्होंने उठाया है। कहती हैं कि काश! मैं दिल्ली स्लटवॉक का हिस्सा बनती। पूनम को क्या किसी ने मना किया था कि दिल्ली आने के लिए उन्हें किसी बात का डर था? अब यह तो पूनम ही जानें लेकिन यह जरूर तय है कि उमंग द्वारा शुरू किए गए बेशर्मी मोच्रे की शुरुआत हो चुकी है। इसे बड़े मोच्रे पर ले जाने की जरूरत है ताकि यह मसला लड़कियों की आजादी का बन जाए ताकि यह मसला स्त्रियों के हर उस हक का बन जाए, जिसकी वे हकदार हैं। इसे केवल ’वॉक‘ नहीं बल्कि ’रन‘ बनाने की जरूरत है। (फेसबुक कमेंट्स पेज 2 पर भी)
यह प्रेरणा देने वाला है कि समाज में व्याप्त बुराइयों से लड़ने के लिए हम आगे बढ़े हैं..लेट्स गो पीपल
हम लड़कियां हैं..और हमेशा रहेंगी.हम भी निर्णय ले सकती हैं कि हमारे लिए क्या सही है और क्या गलत..!!
मुझे लगता है कि अब की लड़कियां समझदार हैं..वे जानती हैं कि उन्होंने क्या पहना है और उन कपड़ों को कैसे कैरी करना है..ये तो कुछ मूर्ख लो ग हैं, जिनकी मानसिकता छोटी है..जिनके लिए आप कुछ नहीं कर सकते..
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........................................................राष्ट्रीयसहारा समय लाइव ' आधी दुनिया ' के साभार से
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