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दी कहा करती थीं अम्मा से, ‘सिर पर कील ठोंकनी पड़ेगी, तब ठहरेगा सिर पर पल्ला..।’अम्मा बताती हैं, ‘दादी पिछौरा ओढ़ा करती थीं। साड़ी का घूंघट और उस पर बड़ी चादर-सा पिछौरा’। अम्मा को भी कड़ी हिदायत थी, ‘घर से बाहर बिना पिछौरा ओढ़े कदम नहीं रखा जाए।’ अम्मा को यूं सिर से पांव तक ढंका-मुंदा होना अखरता। दोपहर की भजन-मंडली में सास-बहू का फेरा अकसर लगता। दादी गहरी सांस लेकर अम्मा को बताया करतीं कि तुम्हारे ससुर के रहते देहरी लांघना नसीब में नहीं रहा, किसी बाहर वाले के सामने नहीं पड़े हम। बाहर जाने की मोहलत के बावजूद अम्मा को पिछौरा अखरता। अकसर बाहर निकलने से पहले वे दादी का पिछौरा छिपा देतीं। दादी परेशान होती रहतीं, भजन- मंडली का आकषर्ण उन्हें बिना पिछौरे के देहरी लांघने देता और अम्मा का रास्ता साफ हो जाता। अम्मा जब-जब यह किस्सा सुनातीं, मुझे यह सवाल परेशान करता-घूंघट से कोई परेशानी क्यों नहीं थी अम्मा को? मेरी बारी आई तो पाया कि सास उन इलाकों में जाते हुए जहां उनके परिचित अधिक रहते थे, वह अपने सिर का पल्ला कुछ और आगे खींच लेतीं, मुझे देखते हुए। संकोच, संस्कार और उनका मान रखते हुए मेरा पल्ला सिर पर आ ही जाता। ऐसा करते हुए अकसर सोचा करती, अपनी अगली पीढ़ी के साथ ऐसा कुछ नहीं होने दूंगी। जब देवर की शादी हुई, अनायास ही देवरानी से कह बैठी, ‘तुम तो सलवार-कुर्ती ही पहनो।’ देवरानी मुस्कुराती रही आंखों में। ‘भाभी जी!
जीन्स...’ बाकी बातें उसकी आंखों की शरारत कह गई। तब कहीं झटका-सा लगा अंदर। मैंने यह तय करने का जिम्मा क्यों और कैसे ले लिया कि वह क्या पहने/क्या न पहने। बहू आई तो सहर्ष कहा- ‘बेटी, जो अच्छा लगे, पहनो।’ बहू ने शालीनता से कहा- ‘ममा! मुझे मालूम है कि आपके सामने शॉ र्ट्स कभी नहीं पहन पाऊंगी। कैप्री में कम्फर्टेबल हूं।’
मैं घर से संसद तक यात्रा कर जाती हूं। प्रिया दत्त की वेशभूषा पर पुरानी सांसदों ने रोक लगाई थी। साड़ी शालीन और गरिमामय वेशभूषा है, संसदीय कार्यवाही में अपनी उपस्थिति.., साड़ी में ही की जानी चाहिए। प्रिया दत्त प्रश्नाकुल थीं, ‘जो सहजता से रोज पहनती हूं, जिन कपड़ों में काम पर जाती हूं, वे कपड़े यहां क्यों नहीं?’ प्रिया अपना प्रतिरोध दर्ज कर पाई पर भारत के हृदय प्रदेश की राजधानी के एक चर्चित महाविद्यालय की प्राध्यापक कोई प्रतिरोध नहीं कर पाई, जब कहा गया, ‘जनभागीदारी समिति का निर्णय है, महिला प्राध्यापक साड़ी में आएं महाविद्यालय।’ साथ ही जोड़ा गया, ‘सलवार-सूट पहनने से आप में और छात्राओं में फर्क करना मुश्किल हो जाता है, वे आपका सम्मान नहीं करतीं और फिर अगर रोका नहीं गया तो कल आप जींस पहनकर आने लगेंगी। छूट की कोई सीमा तो होनी ही चाहिए। महाविद्यालय की भी कोई गरिमा होती है।’ छूट.. गरिमा..सम्मान.. शब्द देर तक खटकते रहे। हुक्म उदूली करती कुछ प्राध्यापक आंखों में खटकती रहीं। खलनायिका घोषित की जाती रहीं। शेष भारतीय संस्कृति को साड़ी में समेट अपने लो-बैक ब्लाउज में लुका-छिपी करती रहीं। कॉलेज की छात्राएं अपने चेहरे की त्वचा की मासूमियत बचाने कपड़ा बांध-बांध कर कॉलेज, बाजार, सिनेमा हॉल और दूर-दूर तक जाती रहीं। अभिभावक परेशान होते रहे, लड़कों के साथ मोटरसाइकिल पर सवार या अपनी सवारी पर तेज रफ्तार बाजू से निकली गुल खिलाती लड़की कहीं हमारी ही बेटी तो नहीं। जरा दूर तक नजर घुमाएं। बुर्के की वापसी के तालिबानी आदेश हैं, क्रूर, निरंकुश, तानाशाही आदेश’.. आदेशों के पालन/इनकार पर आंख गड़ाए दरिंदे। शरीर का कोई अंग दिखा और भरे बाजार, बीच चौराहे पत्थरों से लहूलुहान किया जाता आपका शरीर..। यही सजा मुकर्रर है। और उस पर तुर्रा यह कि आप अपनी ही चीखें अपने टेलीविजन सेट पर री- प्ले में बार-बार देख सकती हैं, सिहर सकती हैं, यह सिर्फ नसीहत नहीं तमाशा है, बार- बार दिखाया जाता है। स्वतंत्रता के हिमायती, दुनिया के आका देश अमेरिका के रंग-ढंग अलग हैं। ट्विन टावर के ध्वंस के बाद उनके देश में सलवार-कुर्ती पहनी औरत संदिग्ध है, वह डराती है, चौकस निगाहों के केंद्र में वह वहां भी है। औरत के कपड़ों से तय होता है मजहब, जात पहचानी जाती है। एक और इलाके में नया अध्यादेश है, ‘स्त्री अपना चेहरा छिपा नहीं सकती/हिजाब/बुर्का/मुखौटा नहीं चाहिए।’ सुरक्षा बड़ा प्रश्न है, आपके खिलाफ कार्रवाई हो सकती है, ‘पर्दा/बेपर्दा-स्त्री की मर्जी कहीं नहीं। कहीं विक्टोरियन आदर्श हैं, टेबलों की और स्त्रियों की तीन-चौथाई टांगें ढंकी होनी चाहिए। टांगें नहीं दिखाई जानी चाहिए, बाकी कोई हर्ज नहीं। सुदूर जंगलों में स्वच्छं द, एक वस्त्रा आदिवासी स्त्रियां.. मनमर्जी का जीता देख खुश हों, इसके पहले ही पर्यटकों की लोलुप निगाहें उन्हें शर्मिन्दा होना सिखा देती हैं। कहीं चेहरा घूंघट में छिपाए रहने के परम्परागत आदेश हैं- ‘चेहरा अलग-अलग है, उसे छिपाया जाए’। बाकी शरीर की शर्म कैसी? शर्म तो तब भी कैसी जब बदला लेने का आसान अस्त्र..सरेआम नंगा किया जाता है औरत को.. मजमा लगता है तब चौराहों पर। द्रौपदी की नियति आज भी दु:शासनों के हाथ है। आपसी बदला इस दा लिबास की ‘
नंगई से लिया जाता रहा है, लिया जा रहा है, सभ्य समाज में!
औरत क्या पहने, क्या न पहने, कहां तक पहने, कहां तक न पहने, कब पहने, कब न पहने.. औरत के हाथ में कुछ नहीं। उसकी गरिमा, लिहाज, शर्म का पैमाना उसके वस्त्रों से तय होता है जिन्हें तय करने का अधिकार उसके पास नहीं। वस्त्रों में व्यक्त होता स्त्री संसार, उसकी हैसियत, उसकी भूमिका। .. और उसका मनमाफिक कुछ भी नहीं। वस्त्रों से पहचानी जाती है औरत। वस्त्रों का बाजार है, अन्त:वस्त्रों का बाजार है, अल्पवस्त्रों का बाजार है, निर्वस्त्रों का बाजार है। वस्त्रों का बाजार सिर्फ विज्ञापनों में कैद नहीं, वह भव्य आकषर्ण के साथ आपके ड्राइंग रूम में आ चुका है। घर से निकले तो आपके साथ-साथ चलता है, आप साथ नहीं चलते तो निगाहों के निशाने पर होते हैं। हिकारत से देखे जाते हैं। कम से कम प्रेजेंटेबल तो देखिए। निर्वस्त्रों का बाजार और है। पोर्न पत्र/पत्रिकाएं अब पुराना फैशन हैं। इंटरनेट अपनी ऑक्टोपसी बांहें हजार-हजार गुना फैलाए खड़ा है, आमंत्रित कर रहा है। यह बाजार घर में रहने वाली ‘अपनी स्त्रियों’ के लिए नहीं। यह आनंद बाजार बनता है, घर से बाहर की स्त्री से। इस बाजार से पैसा बनता है। यहां निर्वस्त्र स्त्री उपकरण- सी साधी जाती है। नंगी स्त्री देह बिकाऊ है, सदियों से, तरीके बदलते रहे हैं। अल्प वस्त्रों की दुनिया अलग हैं। ब्रrांड सुंदरी, वि सुंदरी प्रतियोगिताएं हैं। फिगर का भूगोल है, स्विम सूट की परेड है। बिकनी में नाप-जोख है और है निर्णायक मंडलों की जमात में गिद्ध ही गिद्ध। गिद्ध दर्शक हैं। गिद्ध वे भी हैं जो बाजार भाव तय करते हैं। इस बाजार के लिए बेटियों को तैयार करते और लेकर आते पिताओं की कतार लम्बी है.. मंडी में गहमागहमी है। कई जोड़ी आंखें हैं, जो घूंघट और बुर्के के पीछे से आंखें फाड़-फाड़ कर यह दृश्य देख रही हैं, अपने टेलीविजन सेट पर। उधर, फ्लड लाइट में नहाई चकाचौंध... और इधर अपनी देह पर काले स्याह आघात और दंश। सात पदरे में छिपी स्त्री देह के पार चीरती, घंसती निकट रिश्तेदारों की लेजर- सी आंखें हैं। पोर्न संसार में भटकता, खोजता किशोर है, जो वही प्रयोग साथ पढ़ती किशोरी के साथ करने उतावला है। वस्त्रों, गहनों का विज्ञापन बनी परिवार की समृद्धि का ऐलान करती अपने-अपने परमेर के साथ गृहलक्ष्मियां हैं। रोशनी की बाढ़ में डूबती-उतराती कुछ और स्त्रियां.. जिनके देह के भूगोल बाजार रचते हैं बाजार बचाए रखने का दावा करते हैं। स्त्रियां अब भी खांचों-खांचों में हैं। घर में बुर्का, बाहर बिकनी है, पर स्त्री हर जगह बिकनी है, बाजार चाहे जहां हो, जैसा हो। कहीं दूर ‘मजाज’ की पंक्तियां गूंजती रहती हैं- ‘तेरे माथे का ये आंचल बहुत ही खूब है लेकिन तू इस आंचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था।’
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औरत क्या पहने, क्या न पहने, कहां तक पहने, कहां तक न पहने, कब पहने, कब न पहने.. औरत के हाथ में कुछ नहीं। उसकी गरिमा, लिहाज, शर्म का पैमाना उसके वस्त्रों से तय होता है जिन्हें तय करने का अधिकार उसके पास नहीं। वस्त्रों में व्यक्त होता स्त्री संसार, उसकी हैसियत, उसकी भूमिका। .. और उसका मनमाफिक कुछ भी नहीं.
सभार :- डॉ. रेखा कस्तवार
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