दोस्त अनुराग के पिताजी नहीं रहे. यह अनुभूति अपने में भयानक है. एक विचित्र सा वाक्य है- धीरज धरो! दूसरा और बेबस सा वाक्य है- जो कर सकते थे किया, अब कर ही क्या सकते थे. पर ऐसे दुःख में ये दोनों वाक्य बेहद खोखले लगते हैं, अपनी सारी सामर्थ्य खो बैठते हैं. फिर भी अनुराग हम तुम्हारे साथ हैं.
वीरेन डंगवाल की ये कवितायेँ अनुराग के लिए-
रुग्ण पिताजी
रात नहीं कटती? लम्बी यह बेहद लम्बी लगती है?
इसी रात में दस-दस बारी मरना है जीना है
इसी रात में खोना-पाना-सोना-सीना है.
ज़ख्म इसी में फिर-फिर कितने खुलते जाने हैं
कभी मिले थे औचक जो सुख वे भी तो पाने हैं
पिता डरें मत, डरें नहीं, वरना मैं भी डर जाऊंगा
तीन दवाईयां, दो इंजेक्शन अभी मुझे लाने हैं.
शव पिताजी
चार दिन की दाढी बड़ी हुई है
उस निष्प्राण चेहरे पर
कुछ देर में वह भी जल जायेगी.
पता नहीं क्यों और किसने लगा दिए हैं
नथुनों पर रुई के फाहे
मेरा दम घुट रहा है.
बर्फ की सिल्ली से बहते पानी से लतपथ है दरी
फर्श लतफथ है
मगर कमरा भी ठंढा हो गया है.
कर्मठ बन्धु-बांधव तो बाहर लू में ही
आगे के सरंजाम में लगे हैं
मैं बैठा हूँ या खड़ा हूँ या सोच रहा हूँ
या सोच नहीं रहा हूँ
य र ल व श
श व ल र य
ऐसी कठिन उलटबांसी जीवन और शव की.
ख़त्म पिताजी
पिता आग थे कभी, धुवां थे कभी, कभी जल थे
कभी अँधेरे में रोती पछताती एक बिलारी
कभी नृसिंह कभी थे खाली शीशी एक दवा की
और कभी हंसते हंसते बेदम हो जाता पागल
शीश पटकता पेड़ों पर, सुनसान पहाड़ी वन में.
अभी आग हैं
अभी धुवां हैं
अभी ख़ाक हैं
स्मृति-पिता
एक शून्य की परछाईं के भीतर
घूमता है एक और शून्य
पहिये की तरह
मगर कहीं न जाता हुआ.
फिरकी के भीतर घूमती
एक और फिरकी
शैशव के किसी मेले की.
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वीरेन डंगवाल की ये कवितायेँ अनुराग के लिए-
रुग्ण पिताजी
रात नहीं कटती? लम्बी यह बेहद लम्बी लगती है?
इसी रात में दस-दस बारी मरना है जीना है
इसी रात में खोना-पाना-सोना-सीना है.
ज़ख्म इसी में फिर-फिर कितने खुलते जाने हैं
कभी मिले थे औचक जो सुख वे भी तो पाने हैं
पिता डरें मत, डरें नहीं, वरना मैं भी डर जाऊंगा
तीन दवाईयां, दो इंजेक्शन अभी मुझे लाने हैं.
शव पिताजी
चार दिन की दाढी बड़ी हुई है
उस निष्प्राण चेहरे पर
कुछ देर में वह भी जल जायेगी.
पता नहीं क्यों और किसने लगा दिए हैं
नथुनों पर रुई के फाहे
मेरा दम घुट रहा है.
बर्फ की सिल्ली से बहते पानी से लतपथ है दरी
फर्श लतफथ है
मगर कमरा भी ठंढा हो गया है.
कर्मठ बन्धु-बांधव तो बाहर लू में ही
आगे के सरंजाम में लगे हैं
मैं बैठा हूँ या खड़ा हूँ या सोच रहा हूँ
या सोच नहीं रहा हूँ
य र ल व श
श व ल र य
ऐसी कठिन उलटबांसी जीवन और शव की.
ख़त्म पिताजी
पिता आग थे कभी, धुवां थे कभी, कभी जल थे
कभी अँधेरे में रोती पछताती एक बिलारी
कभी नृसिंह कभी थे खाली शीशी एक दवा की
और कभी हंसते हंसते बेदम हो जाता पागल
शीश पटकता पेड़ों पर, सुनसान पहाड़ी वन में.
अभी आग हैं
अभी धुवां हैं
अभी ख़ाक हैं
स्मृति-पिता
एक शून्य की परछाईं के भीतर
घूमता है एक और शून्य
पहिये की तरह
मगर कहीं न जाता हुआ.
फिरकी के भीतर घूमती
एक और फिरकी
शैशव के किसी मेले की.
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