Saturday 24 September 2011

समान शिक्षा के पाठ पर सामंती पंजा :- जगमोहन सिंह राजपूत, पूर्व निदेशक, एनसीईआरटी






सामान्य जन जानता है कि सत्तासीन तथा साधन सम्पन्न और अधिकतम प्राप्त परिवारों के लिए शिक्षा की उत्तम व्यवस्था है- देश में भी और विदेश में भी। लगभग 20-25 प्रतिशत बच्चे इस श्रेणी में आ जाते हैं। इस वर्ग के लिए शिक्षा के मूल अधिकार अधिनियम जैसे प्रावधानों से कुछ लेना-देना नहीं है। बाकी लगभग 75 प्रतिशत बच्चों की निर्भरता केवल सरकारी स्कूलों पर है। मेरे गांव में एक अनपढ़ किंतु अनुभवी व्यक्ति ने बड़े पते की बात कही, सरकारी स्कूल वे हैं जहां सरकार के बच्चे नहीं पढ़ते हैं। आज पब्लिक स्कूल चिंतित हैं कि उन्हें 25 प्रतिशत स्थान उन बच्चों को देने को कहा जा रहा है जो ‘कमजोर वर्ग’ से हैं। उनके प्रबंधक अपने अधिकारों के हनन के खिलाफ अदालत पहुंच गए हैं। शिक्षा में समानता का प्रश्न जो कई दशक पहले प्रमुखता से उभरना चाहिए था, शायद उचित अवसर की तलाश में रहा है। क्या शिक्षा के नीति निर्धारकों ने व्यवस्था द्वारा शिक्षा के दो हिस्सों में लगातार बंटने तथा बीच की खाई के बढ़ने को देखा नहीं या देखकर भी नजरअंदाज कर दिया? क्या इस विश्लेषण में सार्थकता नहीं है कि जानबूझ कर इस खाई को बढ़ाया गया है। लगभग बीस वर्ष पहले मध्य प्रदेश के कुछ गांवों में जाने पर पता चला कि ऊंचे लोग बाकी लोगों के बच्चों को स्कूल नहीं जाने देते हैं। आखिर उनके खेतों-खलिहानों में कौन काम करेगा? आज दिल्ली जैसे शहरों में सरकार की पूरी सहमति तथा प्रोत्साहन से ‘पब्लिक स्कूल’
खुलते जा रहे हैं।
जो जम चुके हैं, वे वातानुकूलित पांच सितारा संस्कृति में पदार्पण कर चुके हैं। ऐसे में यह वर्ग भला यह कैसे बर्दाश्त करेगा कि झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले उसके ‘सेवकों’ के बच्चे उनके बच्चों के साथ बैठें? सामंती प्रवृत्ति मिटती नहीं है, केवल उनका स्वरूप बदल जाता है। सरकार तथा विशेषकर मानव संसाधन विकास मंत्रालय तथा उसके फॉरेन-एजुकेटेड मंत्री महोदय ने मई 2009 के बाद सुधारों की घोषणाओं की झड़ी लगा दी थी। कितना प्रचार-प्रसार किया गया था, शिक्षा के मूल अधिकार विधेयक को एक अप्रैल 2010 से लागू करने की ‘क्रांतिकारी’ सफलता को लेकर। आज देश में कहीं पर भी ऐसा उदाहरण नहीं मिलेगा कि इस अधिनियम के लागू करने में कोई व्यावहारिक सफलता मिली हो या लोगों के अंदर विश्वास
पैदा हुआ हो। सरकारी तंत्र अवश्य कुछ आंकड़े प्रस्तुत कर देगा। सरकारी तंत्र में आंकड़ों में असफलता को छिपाना अच्छी तरह सीख लिया जाता है। बड़े शहर में हर ‘पॉश’ इलाकों में झुग्गी-झोपड़ी में रहने वालों, फल-सब्जी बेचने वालों, घरों में काम कर परिवार का पोषण करने वालों के बच्चे भी होते हैं। क्या इन्हें यह अधिकार नहीं है कि वे ऐसे स्कूलों में पढ़ें जहां आवश्यक संसाधन तथा पूरे अध्यापक हो? यह बच्चे तथा उनके परिवार
के लोग, प्रतिदिन देखते हैं कि कुछ उन्हीं की उम्र के बच्चे कितने ‘बड़े’ स्कूलों में चमकती बसों में सुंदर पोशाक पहन कर जाते हैं। यह बच्चे घर पर भले न पूछें अपने से तो अवश्य पूछते होंगे कि मेरा स्कूल ऐसा क्यों नहीं है? यह प्रश्न जीवन भर उनके मन में बना रहेगा तथा उसके मनोवैज्ञानिक प्रभाव किसी के लिए भी हितकर नहीं होंगे। ठेठ दिल्ली में साठ स्कूल तम्बुओं में चलते हैं। कई राज्य जब यह घोषणा करते हैं कि वे अस्सी हजार-एक लाख अध्यापक स्कूलों में नियुक्त करने जा रहे हैं तब उन्हें सराहना मिलती है। होना इसका उल्टा चाहिए। आपने अनेक वर्ष अध्यापकों के पद खाली क्यों रखे? हजारों लाखों बच्चे उनकी इस अकर्मण्यता के कारण शिक्षा में अरुचि के शिकार बने होंगें क्योंकि अध्यापक ही नहीं थे, या कहीं कोई एक शिक्षा कर्मी 150-200 बच्चों का स्कूल अकेले चला रहा था। शिक्षा के अधिकार अधिनियम में मूल तत्व तो यही था कि 6 से 14 वषर् तक के सभी बच्चों को अच्छी गुणवत्ता तथा उचित कौशलयुक्त शिक्षा दी जाएगी।
मुश्किल यह है कि क्रियान्वयन जिन्हें करना है वह तो निश्चित
हैं- उनके बच्चे या तो पब्लिक स्कूलों में हैं या विशिष्टों के लिए बनी सरकारी व्यवस्था जैसे केंद्रीय विद्यालय, सैनिक स्कूल इत्यादि का लाभ उठा रहे हैं। यह कड़वा सच है मगर अब सामान्य जन इसे अन्याय मान रहा है। अभी तो वह स्थानीय स्तर पर विकल्प ढूंढ़ता है। हर औसत गांव में आज प्राइवेट स्कूल खुल रहे हैं। अनेक राज्यों में सरकारी स्कूल बंद हो रहे हैं। नेता और बाबू प्रसन्न हैं कि बचत हो रही है। यह प्रक्रिया क्या-क्या गुल खिला सकती है, उसे वह जानना ही नहीं चाहते हैं। शिक्षा द्वारा असमानता को बनाए रखने तथा उसे बढ़ाने वाले विष वृक्ष की शाखाएं कैंसर की तरह हर तरफ फैल गई हैं। अध्यापक प्रशिक्षण इसका एक बड़ा उदाहरण है। राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद-एनसीटीई- भ्रष्टाचार के दलदल में ऐसी फंसी कि उसके द्वारा स्वीकृत शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं का सैलाब आ गया। राज्य सरकारें फीस निर्धारित करती है। कॉलेज मनमानी करते हैं। ठेठ गांव से आया विद्यार्थी अध्यापक बनने के लिए इस दलदल से गुजरता है कि उसका सारा व्यक्तित्व ही परिवर्तित हो जाता है। घोर असंतोष तथा शोषण की पीड़ा से गुजर कर जब वह अध्यापक बनेगा तब वह कैसा होगा और हालात क्या होंगे? देश को सात लाख डॉक्टर चाहिए लेकिन प्रतिवषर् केवल पैंतीस हजार ही तैयार होते हैं। यहां जो डोनेशन इत्यादि देना पड़ता है; वह कम से कम 80 प्रतिशत लोगों की कल्पना से भी परे है। भारत के विकास को खरबपतियों की बढ़ती संख्या से प्रसन्न होने वाले यह भूल जाते हैं कि ऐसे कितने लाखों के अधिकार छीनकर तथा प्रकृति का निर्लज्ज दोहन करके होता है। पर लोग उनके इस गोरखधंधे को समझ रहे हैं। वे अधिक दिन चुप नहीं रहेंगे। वे शिक्षा का महत्त्व जानते हैं तथा उससे उन्हें वंचित करने वालों को पहचानते हैं। जिस देश में शिक्षा अधिकार अधिनियम के बाद समान स्कूल व्यवस्था, पड़ोस का स्कूल जैसी व्यवस्था हर तरफ उत्साह पैदा कर सकती थी, वहां शिक्षा माफिया, नियामक संस्थाओं में भ्रष्टाचार पर ही चर्चा सीमित हो जाती है। केंद्र सरकार नौकरशाहों के वरिष्ठ वर्ग के लिए संस्कृति स्कूलों के खुलने को अनुदान देती है, उसे बढ़ावा देती है। संवेदनहीनता कहां तक फैली है; इसका परिदृश्य अब पूरी तरह उजागर हो रहा है। यह देश हित में होगा कि शिक्षा में बराबरी हर बच्चे को मिले। हर परिवार का मौलिक अधिकार है कि उसके बच्चे वैसी ही शिक्षा व्यवस्था का लाभ उठा सके, जो किसी धनकुबेर या सत्ताशाह के बच्चों को उपलब्ध होती है। समय भले ही लगे मगर यह होगा अवश्य। तब केवल आंदोलन ही नहीं क्रांति अपना वांछित साकार रूप लेगी।

असमानता बढ़ाने वाली खामियां

आरटीई की सबसे बड़ी कमी यह है कि इसमें 0 से 6 और 14 से 18 वषर् की अवस्था के बीच के बच्चों की कोई बात नहीं की गई है। हालांकि संविधान के अनुच्छेद 45 में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि संविधान के लागू होने के 10 साल के भीतर सरकार 0 से 14 वषर् आयु वर्ग के बच्चों को अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा देनी होगी। यद्यपि ऐसा संविधान लागू होने के छह दशक बाद भी नहीं हो पाया। फिर भी 14 से 18 वषर् आयु वर्ग के बच्चों की बात आरटीई में न होना आश्चर्यजनक है। देश के शहरों में बड़ी तादाद में खुले प्रीपेटरी और नर्सरी स्कूलों की प्राथमिक कक्षा में प्रवेश के लिए प्राय: 3 से 5 वर्ष की आयु का प्रावधान है। इसके मद्देनजर आरटीई समाज में शैक्षणिक स्तर पर भेदभावपूर्ण शिक्षा को बढ़ावा देता लगता है।




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