Saturday, 10 September 2011

गोरख पाण्डेय की याद में-


ग़ज़ल 1

कैसे अपने दिल को मनाऊं मैं कैसे कह दूं तुझसे कि प्यार है
तू सितम की अपनी मिसाल है तेरी जीत में मेरी हार है

तू तो बांध रखने का आदी है मेरी सांस-सांस आजादी है
मैं जमीं से उठता वो नगमा हूं जो हवाओं में अब शुमार है

मेरे कस्बे पर, मेरी उम्र पर, मेरे शीशे पर, मेरे ख्वाब पर
यूं जो पर्त-पर्त है जम गया किन्हीं फाइलों का गुबार है

इस गहरे होते अंधेरे में मुझे दूर से जो बुला रही
वो हंसीं सितारों के जादू से भरी झिलमिलाती कतार है

ये रगों में दौड़ के थम गया अब उमड़ने वाला है आंख से
ये लहू है जुल्म के मारों का या फिर इन्कलाब का ज्वार है

वो जगह जहां पे दिमाग से दिलों तक है खंजर उतर गया
वो है बस्ती यारों खुदाओं की वहां इंसां हरदम शिकार है

कहीं स्याहियां, कहीं रौशनी, कहीं दोजखें, कहीं जन्नतें
तेरे दोहरे आलम के लिए मेरे पास सिर्फ नकार है

ग़ज़ल -2

सुनना मेरी दास्तां अब तो जिगर के पास हो
तेरे लिए मैं क्या करूं तुम भी तो इतने उदास हो

कहते हैं रहिए खमोश ही, चैन से जीना सीखिये 
चाहे शहर हो जल रहा चाहे बगल में लाश हो

नगमों से खतरा है बढ़ रहा लागू करों पाबंदियां
इससे भी काम न बन सके तो इंतजाम और ख़ास हो

खूं का पसीना हम करें वो फिर जमाएं महफ़िलें 
उनके लिए तो जाम हो हमको तड़पती आस हो

जंग के सामां बढ़ाइए खूब कबूतर उड़ाइये
पंखों से मौत बरसेगी लहरों की जलती घास हो

धरती, समंदर, आस्मां, राहें जिधर चलें खुली
गम भी मिटाने की राह है सचमुच अगर तलाश हो

हाथों से जितना जुदा रहें उतने खयाल ही ठीक हैं
वर्ना बदलना चाहोगे मंजर-ए-बद हवास हो

 है कम नहीं खराबियां फिर भी सनम दुआ करो
मरने की तुमपे ही चाह हो जीने की सबको आस हो


आशा का गीत

आएंगे, अच्छे दिन आएंगे,
गर्दिश के दिन ये कट जाएंगे,
सूरज झोपडि़यों में चमकेगा,
बच्चे सब दूध में नहाएंगे।

जालिम के पुर्जे उड़ जाएंगे,
मिल-जुल के प्यार सभी गाएंगे,
मेहनत के फूल उगाने वाले,    
दुनिया के मालिक बन जाएंगे।

दुख की रेखाएं मिट जाएंगी,
खुशियों के होंठ मुस्कुराएंगे,
सपनों की सतरंगी डोरी पर,
मुक्ति के फरहरे लहराएंगे।


अमीरों का कोरस

जो हैं गरीब उनकी जरूरतें कम हैं
कम हैं जरूरतें तो मुसीबतें कम हैं
हम मिल-जुल के गाते गरीबों की महिमा 
हम महज अमीरों के तो गम ही गम हैं।

वे नंगे रहते हैं बड़े मजे में 
वे भूखों रह लेते हैं बड़े मजे में 
हमको कपड़ों पर और चाहिए कपड़े
खाते-खाते अपनी नाकों में दम है।

वे कभी कभी कानून भंग करते हैं
पर भले लोग हैं, ईश्वर से डरते हैं
जिसमें श्रद्धा या निष्ठा नहीं बची है
वह पशुओं से भी नीचा और अधम है।

 अपनी श्रद्धा भी धर्म चलाने में है
अपनी निष्ठा तो लाभ कमाने में है
ईश्वर है तो शांति, व्यवस्था भी है
ईश्वर से कम कुछ भी विध्वंस परम है।

करते हैं त्याग गरीब स्वर्ग जाएंगे
मिट्टी के तन से मुक्ति वहीं पाएंगे
हम जो अमीर है सुविधा के बंदी हैं
लालच से अपने बंधे हरेक कदम हैं।

इतने दुख में हम जीते जैसे-तैसे
हम नहीं चाहते गरीब हों हम जैसे
लालच न करें, हिंसा पर कभी न उतरें
हिंसा करनी हो तो दंगे क्या कम हैं।

जो गरीब हैं उनकी जरूरतें कम हैं
कम हैं मुसीबतें, अमन चैन हरदम है
हम मिल-जुल के गाते गरीबों की महिमा 
हम महज अमीरों के तो गम ही गम हैं।





 गोरख पाण्डेय (1945 -1989) प्रतिबद्ध कवि और दर्शन, संस्कृति व कला के प्रश्नों से जूझने वाले हिन्दी के आर्गेनिक इंटलेक्चुअल (जन बुद्धिजीवी). जन संस्कृति मंच के संस्थापक महासचिव.
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...द्वारा मृत्युंजय ... 12:27 AM

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