Sunday, 28 August 2011

किक मारू भद्र मर्द



कुल मिलाकर यह कहना गलत नहीं है कि पति वह है, जिसको सलाह दो तो जताएगा, आप चढ़ाई करती हो। ना दो तो कुछ बोलती नहीं-दिमाग नहीं चलता। उनकी हर ‘हां’ में ‘हां’ मिलाओ तो तुम प्यारी हो, नहीं तो तुमको कोई समझ ही नहीं- बेवकूफ हो। वे बार-बार फोन करें तो केयर कर रहे हैं, तुम करो तो डिस्टर्ब बहुत करती हो। वे तुम्हारे कपड़ों पर टांग अड़ाएं तो ड्रेसिं ग सेंस सिखाते है- तुम बोलो तो मीन-मेख सीख लिया। वे सवाल दागें तो उनका अधिकार, तुमने कुछ पूछताछ की तो बीच में घुस गई- हस्तक्षेप करती हो। उनकी केयर अपनापन, आपकी केयर पजेसिवनेस। वे आपकी बचत में तांक-झांक करें तो अधिकार, आपने पूछ दिया तो सेल्फिशनेस

नये दौर में कंपनियों ने मुनाफा कमाने के जो शोशे अपनाये हैं, उनमें कुछ काफी हास्यास्पद होने के बावजूद अहितकर तो कतई नहीं हैं। एसएमएस की बात करूं तो युवाओं को इसका चस्का है, नकारात्मकता भरे इस समाज में जोक्स तो हैं ही, बेशकीमती विचार और पॉजिटिव थिंकिंग को लेकर बहुत उम्दा बातें भी बांटी जा रही हैं। ऐसे ही एसएमएसबाज मित्र ने पुरुषों की सोच पर बेहतरीन हकीकत भेजीं। लिखा- 16 से 25 की लड़की- फुटबॉल होती है (एक के पीछे 22 लगे होते हैं), 26-35 क्रिकेट बॉल- (एक के हाथ आती है, बाकी ताली बजाते हैं), 36-45 टेबल-टेनिस की बॉल, (एक कहता है तू रख-दूसरा बोलता है तू ही रख ले), इसके बाद तो फिर वह गोल्फ की बॉल रह जाती है (जितनी दूर जाए, उतनी अच्छी लगे)। गेंद का स्त्रीकरण इससे रचनात्मक तो नहीं हो सकता। यह बड़ी बेबाकी से पुरुषों की वह मनोवृत्ति बता रहा है, जिसके बारे में वे बेचारे खुद कुछ नहीं जानते।

 हालांकि हमेशा से उनका दावा रहा है कि वही औरतों को ढंग से जानते हैं। दिलखुश करने को यह ख्याल अच्छा तो है पर हकीकत से कोसों दूर भी। पुरुषों को बरगलाने में औरतें तब भी पीछे नहीं हैं, जबकि वे उनको हर क्षण सताते, धकियाते हैं और यह बताने से नहीं चूकते कि वे औरतों की तुलना में महान टाइप के हैं। स्त्रीत्व की बातें तो खूब होती हैं पर पुरुषत्व पर कोई चर्चा नहीं होती। एक तो उनमें ऐंठ के सिवाय कुछ होता नहीं। दूसरे संवेदनाओं के मामले में लगभग शुष्क ही होते हैं। उनका कोई भी संबंध लोभ और लाभ के दायरे में ही बंधा रहता है। लोलुपता उनको प्रकृति ने तोहफे में दी है। जब वे लड़कियों के पीछे भाग रहे होते हैं तो भी यह जताने से नहीं चूकते कि उनके पास कई च्वाइसें हैं। 

हालांकि लड़की यह जानती है कि उसके सपनों के राजकुमार और हकीकत में इतना फर्क तो होना ही था। जब वह किसी एक की हो चुकती है (क्रि केट बॉल) तो भी ताली मारने वालों की औकात समझते हुए ही कदम उठाती है। उसको अपनी बाउंड्रीज बहुत अच्छे से पता होती हैं। वह कितनी ही तुनकमिजाज या साधारण क्यों ना हो, अपने पति की कमजोरियां बेहतर जानती है। उसका बड़प्पन यह है कि वह उन पर कभी खुल कर बोलती नहीं। लड़ाई-झगड़ों में थो ड़ा छेड़ने के बाद भी हकीकत को सामने नहीं लाती। यही खूबी उसको जन्म-जन्मान्तर का साथी बनाये रखने में मददगार होती है । निखट्टू से निखट्टू आदमी को भी सरताज बताने की उसकी अदा लाजवाब होती है।

 जब वह पुरुष की नजर में टेबिल-टेनिस की बॉल हो जाती है तो भी अपनी स्थिति बरकरार रखने में वह कोई हथकंडा अपनाना नहीं भूलती। उसको अपनी तमाम लिमिट्स हमेशा पता होती हैं। यह सब उसने पीढ़ियों में सीखा है। मिनटों में किसी स्मार्ट-बुक से टिप्स नहीं मारे हैं। सादगी और कोमलता के भरोसे ही उसने किक किये जाने के चकल्लस से खु द को बचा कर रखा है। वह बेहद बेतकुल्लफी से उन खतरनाक हथियारों का इस्तेमाल कर डालती है, जिनके बारे में सोचना भी पुरुष के वश का नहीं है। जब पुरुष नयी-नवेली लड़की के ख्वाबों में फिर रहा होता है, तब भी स्त्री के बनाये पारिवारिक झंझटों से मुक्त नहीं होता। वह जानती है, बेवकूफों को कैसे उलझा कर रखना है। ये वही हैं, जो खुद को बड़ा तीसमार खां समझते हैं। आपके लिए जब वह गोल्फ की बॉल हो जाती है, तब भी उसकी मुट्ठी में घर की चाबी होती है। उसके पास वे टोटके सुरक्षित हैं, जिनकी भनक भी विद्वान नहीं लगा पाये। फुसलाने, बरगलाने और बेवकूफ बनाने के बेहतरीन नुस्खों को चाशनी में लपेट कर परोसना उसकी अदा में आता है। लड़के खुदा की बनायी बेहतरीन कृति कभी नहीं कहलाये, जबकि समाज ने उनको हमेशा पलकों पर ही बिठाये रखा। खुद को औरतों की बनिस्पत ‘स्पेशल’ समझने का उनका भ्रम बेहद बचकाना और दोयम दज्रे का है क्योंकि अपने परिवारों में बचपन में ही जाने-अनजाने उनको यह घुट्टी पिलाई जाती है कि वे जो भी करते हैं, वह उचित है। कुल मिला कर, यह कहना गलत नहीं है कि पति वह है, जिसको सलाह दो तो जताएगा, आप चढ़ाई करती हो। ना दो, तो कुछ बोलती नहीं- दिमाग नहीं चलता। उनकी हर ‘हां में हां’ मिलाओ तो तुम प्यारी हो, नहीं तो तुमको कोई समझ ही नहीं- बेवकूफ हो। वे बार- बार फोन करें तो केयर कर रहे हैं, तुम करो तो डिस्टर्ब बहुत करती हो। वे तुम्हारे कपड़ों पर टांग अड़ाएं तो ड्रेसिंग सेंस सिखाते हैं- तुम बोलो तो मीन-मेख सीख लिये। वे सवाल दागें तो उनका अधिकार, तुमने कुछ पूछताछ की तो बीच में घुस गई-हस्तक्षेप करती हो। उनकी केयर अपनापन, आपकी केयर पजेसिवनेस। वे आपकी बचत में तांक- झांक करें तो अधिकार, आपने पूछ दिया तो सेल्फिशनेस। वे कैटरीना को देखकर आहें भरें तो सौन्दर्यप्रियता, आप सलमान के डोलों की तारीफ कर दें तो तमीज नहीं है। उनको किसी गंभीर विषय की कोई जानकारी ना हो तो इन्ट्रेस्ट नहीं, आपको ना मालूम हो तो फूहड़ता। वह बच्चों से प्रेम जतायें तो लाड़, आप करें तो बिगाड़। वे चिड़चिड़ायें-झगड़ें और झल्लायें तो काम का बोझ, आपने ऐसा ही कर दिया तो आप झगड़ालू और सिरफिरी। ..बड़ी लंबी है यह परिभाषा। तमाम दिक्कतों और उलाहनों को समेट कर पतियों ने बीवियों के खिलाफ फेहरिस्त बना रखी है। उनका दावा होता है कि यह तो वही हैं, जो उसके साथ निभा ले रहे हैं, कोई और होता कब का छोड़ कर भाग गया होता। उनसे कोई पूछे, जहां भागने की संभावनाएं होती हैं, वहां से भाग नहीं पाये कभी! जो साहस कहीं नहीं दिखा पाते, उस सबके लिए घर वाली तो है ही।

 बातें बनाने से लेकर, हांकने और फैंटेसी तक में उनकी एकमात्र श्रोता (शिकार कहें तो बेहतर) बीवी ही होती है। जो यह अदाकारी करते कभी नहीं थकती कि जो कुछ तुम फेंक रहे हो, वह सब हकीकत से कोसों दूर है। उसको बहुत अच्छी तरह पता होता है कि रणक्षेत्र बस इन चारदीवारों के भीतर ही है । व्यावसायिक तौर पर करारे झटके खाने वाले मेरे एक मित्र काफी भावनात्मक होकर कहते हैं कि मेरी बीवी ने बुरे से बुरे वक्त में भी मेरा साथ नहीं छोड़ा। वह हर क्षण साथ थी। वे भूल जाते हैं कि वह जाती भी तो कहां? जो दीवालिया हो जाते हैं, पागल हो जाते हैं, खतरनाक बीमारी की चपेट में आ जाते हैं, उनको भी बीवियां नहीं छोड़तीं। छोड़कर भागना तो पुरुषवादी प्रवृत्ति है। छोड़ने वाली औरत तो मर्दाना है। भागना, छिपना, घबराना, छल करना, झूठ बोलना, धोखा देना सब पुरुषाना काम हैं। साहस का ढोंग करके वह बहादुर नहीं बन सकता। ना ही सीमा पर दुनाली लिये गश्त करने वाले को साहसी माना जा सकता है। वह तो मात्र जिम्मेदारी है, फर्ज निभाने की प्रक्रिया। फौज में हैं, तो यह तो करना ही होगा। पुलिस में हैं तो जनता-जनार्दन को धमकाना ही है। इतने से वे बहादुर नहीं हो जाते। ‘साहस’ अपने आपमें पूरी जीवन-शैली है। पुरुषों ने जानबूझकर इस पर अतिक्रमण किये रखा। भीतर से खोखले पुरुषों की यह घटिया सी चाल रही है, जिसके भ्रम ने औरत को और भी कमजोर करके रख दिया। झूठी शेखी बघार-बघार कर वे औरतों पर दबाव बनाते रहे और अपने प्रपंचों के बल पर जताते रहे कि सारा साहस सिर्फ पुरुषों की बपौती है। मासूमियत में औरतों ने इसको स्वीकार भी लिया जबकि असल दुस्साहस का काम वही करती हैं। चुपचाप, मौन, गुमसुम सी बनी रह कर। किक करो, फिर लौट आती है। अपना वजूद मिटा देती है। परिवार की बेदी पर सबकुछ कुर्बान कर देती है। अपनी हस्ती ही मिटा देती है। असल में, तो भगोड़ा पुरुष ही होता है। रीढ़हीन, कमजोर मन वाला, सहनशक्तिहीन और आत्मप्रशंसक हमेशा से पुरुष ही रहा है, औरतें तो मासूमियत से उनका मुंह ही ताकती रही हैं। जीवन हो या प्रेम, भागते तो पुरुष ही हैं कहीं से कर तो कहीं से धोखा मार कर। बीवी की गलती उनके गले नहीं उतरती, जबकि बीवियां उनकी कमियां ढांकते ही जीवन काट देती हैं। अस्पतालों से मिले आंकड़े बताते हैं कि गुर्दे दान कर पति को जीवन देने वाली स्त्रियां ही होती हैं। बीवी की जान बचाने को कोई पति अपना गुर्दा नहीं निकलवाता। अस्पतालों में पति की सेवा में जुटी स्त्री और पुरुष का अनुपात ही कभी देख लीजिए। घरों में विक्षिप्त पति को संभालने की जिम्मेदारी हो या दीवालिया पति के साथ जीवन काटने की, पुरुष यह सब नहीं करते। पत्नी पगला जाए तो मायके धकेल आएंगे या सुधारगृह भेज कर संतुष्ट हो लेंगे। यह कह कर झेंप भी मिटा लेंगे कि घर देखें या काम। चतुर पुरुष कुछ भी बात बना सकता है। भावनाओं का ढोंग करना हो या मतलब साधना, पुरुष अपनी किसी भी गुस्ताखी को न्यायोचित ठहराने से बाज नहीं आते ।

 वे दांपत्य के रसहीन-शुष्क-प्रेमहीन होने के बहाने ठोंक लेते हैं। काम का दबाव या बिला-वजह की सिरफिरी बातों के ढोंग करने में माहिर होते हैं। घर पर बीवी-बच्चों से बनाये जाने वाले उकताऊ बहाने दफ्तर में तोड़-मरोड़ कर दूसरे ढंग में परोस दिये जाते हैं। अपनी ज्यादातर ऊर्जा वे इन्हीं उकताऊ चीजों में तबाह करके ही सीना फुलाते हैं। जो मौके-बे-मौके यह हांकते नहीं थकते कि वे दरअसल जोरू के गुलाम हैं, हकीकत यह है कि वे थकेले हैं, अपनी नकारात्मकता और असफलताओं का इससे आसान कोई बहाना नहीं खोज सकते। बीवी के पल्लू को वे निराशा से बचने वाली छतरी मान बैठते हैं। उन्होंने जो कुछ र्ढे बना लिये हैं, उनको पुरुषपने से इस कदर जोड़ चुके हैं कि अब उनके बिना, सहजता से जीना भी उनके लिए मुश्किल है। पीढ़ियों से औरतों को छल-छद्म और भ्रम से बरगलाने में माहिर पुरुषजात के लिए अब अचानक सहज/सामान्य हो जाना मुश्किल है। यह झमेला काफी तकनीकी हो चुका है। स्वाभाविक और भावनात्मक जीवन से वे बहुत भटक चुके हैं। उनको भ्रम है कि यह दुनिया उनकी मर्दानगी ने बनायी है और इसको चलाने का बोझ उसी के कंधों पर है। इसीलिए पुरुषों का यह दावा हास्यास्पद होने के बावजूद कि उनके बिना परिवार नहीं टिक सकते, अपने कमाऊपन के गुरूर में यह भूला चुका है कि पैसों से घर चलता है, परिवार नहीं।

16 से 25 की लड़की फुटबॉ ल होती है (एक के पीछे 22 लगे होते हैं) 26-35 क्रिकेट बॉल- (एक के हाथ आती है, बाकी ताली बजाते हैं) 36-45 टेबल-टेनिस की बॉल, (एक कहता है तू रख-दूसरा बोलता है- तू ही रख ले)

बीवी की जान बचाने को कोई पति अपना गुर्दा नहीं निकलवाता। अस्पतालों में पति की सेवा में जुटी स्त्री और पुरुष का अनुपात ही कभी देख लीजिए। घरों में विक्षिप्त पति को संभालने का मुद्दा हो या दीवालिया पति के साथ जीवन काटने का, पुरुष यह सब नहीं करते। पत्नी पगला जाए तो मायके धकेल आएंगे या सुधारगृह भेज कर संतुष्ट हो लेंगे। यह कह कर झेंप भी मिटा लेंगे कि घर देखें या काम


साभार :- 

मनीषा
खरी-खरी

अपवित्र स्त्री जीवन


भी कुछ समय पहले खबर थी कि मलेशिया में स्थापित किया गया है। जिस वक्त यह खबर पढ़ी, तभी से मन में ख्याल आया कि हमारे धर्म और इस्लाम में कितनी समानताएं हैं। हमारे यहां भी लड़कियों को शुरू से समझाया जाता है कि पति परमेर होता है। हर पतिव्रता नारी का कर्तव्य है कि वह अपने पति परमेर के हर आदेश को ईर का आदेश समझ कर उसका पालन करे। यही बात इस्लाम में भी कही गयी है। इसके बाद स्वाभाविक रूप से मेरे मन में उत्सुकता जगी कि हमारा तीसरा प्राचीन और लोकप्रिय धर्म यानी ईसाई धर्म स्त्रियों के लिए क्या निर्देश देता है या फिर ईसाई धर्म में स्त्रियों की क्या स्थिति है, तो वहां भी स्त्रियों के लिए कमोबेश वही निर्देश थे जो हिन्दू और इस्लाम में हैं। अब मैंने नेट पर बौद्ध, जैन और दूसरे धर्मों में स्त्रियों की स्थिति के बारे में उपलब्ध जानकारी को कुछ दूसरी साइट्स को देखा। वहां से पता चला कि लगभग हर धर्म इंसान के रूप में स्त्री और पुरुष में भेदभाव करता है। इससे पहले मैंने कभी भी इस विषय में गहराई से विचार नहीं किया था। अभी तक तो नारीवादियों द्वारा नारी को दोयम दर्जा दिए जाने की बात मुझे हमेशा मजाक ही लगाती थी क्योंकि समाज में मैंने बहुत से पुरु षों को अपनी घरवालियों के दिशा-निर्देशों के अंतर्गत कार्य करते देखा था। मैंने ऐसे घर भी देखे हैं, जहां गृहस्वामिनी की अनुमति के बिना घर में पत्ता भी नहीं खड़कता। ऐसे में महिलाओं पर अत्याचार और उनके साथ भेदभाव की बात मुझे अतिशयोक्ति ही लगती थी। स्त्री स्वतंत्रता के समर्थक समाज में जिन बातों का विरोध करते नजर आते हैं, उन सब बातों के पीछे मुझे कहीं न कहीं महिलाओं की भलाई ही नजर आती थी पर इस बार मुझे हमारे धर्मो में वर्णित एक तर्क बिल्कुल भी समझ नहीं आया। मैंने देखा कि सभी धर्मों में माना जाता है कि स्त्री अपवित्र है। जैनियों की मान्यता है कि स्त्री पुरुष योनि में जन्म लिए बिना मुक्ति नहीं पा सकती। हमारे धर्मों का तर्क देखिए- स्त्री अपवित्र है क्योंकि उसे मासिक स्रव होता है। इस दौरान स्त्री को आराम मिलना चाहिए पर इस वजह से स्त्री के पूरे अस्तित्व को अपवित्र मान लेने की बात मुझे बिल्कुल भी हजम नहीं हुई। अजीब सा विरोधाभास है। जो भी धर्म यह बात कहता है की स्त्री अपवित्र है या फिर ईर के समक्ष वह पुरु ष से कहीं भी कम है, वह सच्चा धर्म नहीं हो सकता।

  साभार :- सहारा हिंदी पेपर , आधी दुनिया 

ऑनर किलिंग शादी की आजादी ?





गैर जाति में प्रेम करने वाले बच्चों को गुनहगार मान कर उनकी जान लेने वाले परिजनों के खिलाफ न्यायपालिका लगातार तल्ख टिप्पणियां और कड़े आदेश देती रही हैं बावजूद इसके समाज में जातिगत रूढ़ियां मिट नहीं रही हैं

अगर न्याय के पहरेदारों और कानून के बीच टकराहट होती रहेगी, तो जाति और धर्म के सांकल में जकड़ी शादियां आजाद कैसे हो पाएंगी? अराजक निजी कानूनों और न्यायिक व्याख्याओं में बदलावों के बिना अंतर्जातीय/अंतर्धार्मिक शादियों से जुड़े सामाजिक-आर्थिक-राजनीति का गतिविज्ञान तेजी से नहीं बदलेगा। सुप्रीम कोर्ट के माननीय न्यायमूर्ति मार्कडेय काटजू और न्यायमूर्ति ज्ञान सुधा मिश्रा ने 19 अप्रैल, 2011 को सभी राज्यों सरकारों को निर्देश दिया कि वे ऑनर किलिंग्स को सख्ती से दबा दें। कोर्ट ने अधिकारियों को आगाह किया कि इस प्रथा को रोक पाने में नाकाम अधिकारियों को दंडित किया जाएगा। पिछले साल गृह मंत्री पी. चिदम्बरम ने भी भरोसा जताया था कि ऐसी हत्याओं को रोकने के लिए वह संसद में विधेयक पेश कर उसमें विशिष्ट तौर पर सख्त दंड की व्यवस्था करेंगे। सुप्रीम कोर्ट के माननीय न्यायमूर्ति मार्कडेय काटजू और न्यायमूर्ति अशोक भान ने 2006 में व्यवस्था दी कि ‘ किसी देश के लिए जाति व्यवस्था अभिशाप है और बेहतरी के लिए शीघ्रता से इसे खत्म करना होगा। वास्तव में, यह ऐसे समय में देश को बांट रहा है कि जब देश एकजुट होकर कई तरह की चुनौतियों का सामना कर रहा है। राष्ट्रीय हित में अंतर्जातीय शादियां हकीकत बन चुकी हैं, क्योंकि ये जाति व्यवस्था को नष्ट करने का नतीजा है। हालांकि, देश के विभिन्न हिस्सों से दुखदायी खबरें आती रहती हैं कि अंतर्जातीय शादियां करने के बाद युवा पुरुष और महिलाओं को धमकियां, यातनाएं या फिर हिंसक हो उठने जैसी घटनाएं हो रही हैं।’ मेरे विचार से, हिंसा, यातना और धमकी संबंधी ऐसा कृत्य पूरी तरह गैरकानूनी है और जो भी इसमें लिप्त हैं, उन्हें कड़ी सजा दी जानी चाहिए। भारत स्वतंत्र और लोकतांत्रिक देश है, और कोई लड़का या लड़की अपने पसंद से शादी कर सकता है। यदि उनके अभिभावक अंतर्जातीय या अंतर्धार्मिक शादी को मंजूरी नहीं देते, तो ज्यादा से ज्यादा यह मुमकिन है कि उनसे सामाजिक रिश्ता तोड़ लिया जाता है, लेकिन उनके खिलाफ हिंसा या उसे धमकाया नहीं किया जा सकता। इसीलिए, हम निर्देश देते हैं कि समूचे देश के प्रशासन/पुलिस को देखना होगा कि अंतर्धार्मिक या अंतर्जातीय शादियां किये हुए लड़के या लड़की के खिलाफ कोई यातना, धमकी, हिंसा या इसके लिए उकसाने जैसी कार्रवाई न होने पाये। अगर कोई ऐसा करता पाया जाए तो पुलिस ऐसे लोगों के खिलाफ आपराधिक कार्रवाई करे और कानून के तहत आगे कड़ी कार्रवाई संबंधी कदम उठाये। कभी- कभी, हम अंतर्धार्मिक या अंतर्जातीय शादियों को लेकर ऑनर किलिंग संबंधी घटनाओं के बारे सुनते हैं। ये शादियां अपनी मर्जी से की जाती हैं। ऐसे में, किसी तरह के मौत देने का कोई अच्छा मामला नहीं होता और वास्तव में, ऐसा कृत्य करने वाले बर्बर और शर्मनाक कृत्य कर बैठते हैं। यह बर्बर, सामंती मानसिकता के लोग हैं, जिन्हें कड़ा दंड दिये जाने की जरूरत है। सिर्फ ऐसा करके ही हम ऐसे बर्बरता संबंधी व्यवहार को खत्म कर सकते हैं। मां का नहीं पिता का नाम यह स्पष्ट नहीं है कि जाति व्यवस्था अभिशाप है, इसलिए जितनी जल्दी इसे खत्म कर दिया जाएगा, उतना ही बे हतर होगा क्योंकि इससे ऐसे समय में देश बंटता है, जब भारत को एक रखने के रास्ते में कई चुनौतियां हैं। इसलिए अंतर्जातीय शादियां राष्ट्रीय हित में हकीकत है। ऐसी शादियों के होते रहने से जाति व्यवस्था टूटेगी। दूसरी ओर, सर्वोच्च अदालत ने कहा कि भारत में जाति व्यवस्था भारतीयों के दिमाग में रचा-बसा है। किसी कानूनी प्रावधान के न होने की सूरत में अंतर्जातीय शादियों होने पर कोई भी व्यक्ति अपने पिता की जाति का सहारा विरासत में लेता है, न कि मां का। (एआईआर सु. को. 2003, 5149 पैरा 27) सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति एच. के. सीमा और डॉ. ए आर लक्ष्मणन ने अर्जन कुमार मामले में स्पष्ट कहा कि ‘यह मामला आदिवासी महिला की एक गैर आदिवासी पति से शादी करने का है। पति कायस्थ है, इसलिए वह अनुसूचित जनजाति के होने का दावा नहीं कर सकता।’ (एआईआर सु. को. 2006, 1177) एक भारतीय बच्चे की जाति उसके पिता से विरासत में मिलती है, न कि मां से। अगर वह बिन ब्याही है और बच्चे के पिता का नाम नहीं जानती, तो वह क्या करे? महिला अपने पिता की जाति से होगी और शादी के बाद पति की जाति की। आपकी जाति और धर्म आपके पिता के धर्म/ जाति से जुड़ी होती है। कोई अपना धर्म बदल सकता है लेकिन जाति नहीं। अगर न्यायिक व्याख्याएं लिंग न्याय को स्वीकार नहीं करतीं, तो वक्त बीतने के साथ सामाजिक न्याय के बीज कैसे अंकुरित होंगे?

मेरे विचार से हिंसा, यातना और धमकी संबंधी ऐसा कृत्य पूरी तरह गैरकानूनी है और जो भी इनमें लिप्त हैं, उन्हें कड़ी सजा दी जानी चाहिए। भारत स्वतंत्र और लोकतांत्रिक देश है और लड़का या लड़की अपनी पसंद से शादी कर सकते हैं ?

साभार :-

अरविंद जैन
वरिष्ठ अधिवक्ता, सुप्रीम कोर्ट

चुनौती दंभी पुरुषों को






खरी-खरी
वैज्ञानिक लंबे अरसे से चिल्लाते आ रहे हैं कि बुद्धि की प्रखरता, तीक्ष्णता, शार्पनेस और तेजी पर किसी तरह का कोई लैंगिक आरक्षण नहीं है। सनसनाती बुद्धि पर किसी मर्द का एकाधिकार नहीं होता। मानव विज्ञान मानता है कि विद्वता पर पुरुष जबरन अधिकार नहीं जता सकता, यह सामाजिक तानाबाना है, जो औरतों की बौद्धिकता को क्रियाशील नहीं रहने देता

पुरुषों को यह कहते सुनकर औरतें असहज नहीं होतीं कि उनको समझ कम है या वे नहीं समझ सकतीं बल्कि वे उनको खुश करने के लिए यह दर्शाने में कोई संकोच नहीं करती कि वे बेवकूफ हैं। स्त्री की बौद्धिकता पुरुषों को डराती ही नहीं है, उनके पौरुष को चुनौती भी देती है जिसको बर्दा श्त करने की ना तो उनमें क्षमता होती है, ना ही आदत। पीढ़ियों से औरतों के साथ ‘दासों’ जैसा बर्ताव करते रहते के कारण, उनका अहंकार घायल होता है। वे अपने इसी झूठे दंभ के कारण इस भ्रम में जीते हैं कि वे स्त्री से अव्वल हैं। दुखद तो यह है कि औरतों ने कभी उनके इस भ्रम को तोड़ने के प्रयास नहीं किये। उनको चुनौतियां नहीं दीं। उनको यह नहीं बताया कि तुम्हारे दादा-नाना, अहंकार के जो बीज तुम्हारे भीतर बो गये हैं, वे कांटेदार हैं और तुमको भीतर ही भीतर चोटिल करते हैं जिनके चलते, आधी आबादी को बिला-वजह ही तुम दोयम मानते रहे हो। और, जिसका खामियाजा समूचे सामाजिक विकास पर पड़ा है। नयी अर्थव्यवस्था और विकास के आंकड़ों के धुरंधर खिलाड़ी भी मानते हैं कि वे अपनी जनाना फोर्स के श्रम को इस्तेमाल कर रहे हो ते तो कहीं आगे होते। लड़कियों ने पढ़ाई के मार्फत इनको कितनी ही दफे करारा झटका देकर यह अहसास कराने की भी कोशिश की है, पर इनका झूठा अहंकार यह स्वीकारने में कचोटता है। यह दशा सारी दुनिया में है। ‘फोर्ब्स’ ने लगातार कहा है कि दुनियाभर के सीईओ पदों पर औरतों की संख्या ना के बराबर है, वह यह भी खुलासा करती है कि बड़ी कंपनियां अपने बोडरे में महिलाओं की उचित हिस्सेदारी दिलाने में असफल हैं। सच तो यही है कि पुरुषों से ज्यादा जिम्मेदारियां निभाने के बावजूद उनके काम और क्षमताओं की जानबूझ कर अनदेखी होती है। एक तो उनके अधिकारी पुरुष हैं, दूसरे पुरुषों को उनके काम से मतलब नहीं होता। वे औरतों से बौद्धिकता की ना तो उम्मीद करते हैं, ना ही गले उतार पाते हैं। जहां औरत उनसे ज्यादा बुद्धिमान प्रतीक होती है, वे कुंठित हो जाते हैं और अनर्गल बातें करने लगते हैं। औरतों के लिपे-पुते चेहरों औ र कामुक अदाओं में उलझे रह कर वे अपने अहंकार को संतुष्ट कर लेते हैं। उनकी मोहक मुस्कान और गुदगुदी करने वाली बातें पुरुषों को बरगलाती भले ही हैं पर इनकी आड़ में वे उनको प्रतियोगिता से बाहर धकेलने का अधिकार झटक लेते हैं। समान शिक्षा और बौद्धिकता के बावजूद पौरुषेय दंभ औरतों की तौहीन करने पर आमादा रहता है। उसकी खुन्नस बातों, उलाहनों, शिकायतों और बर्ताव में स्पष्ट झलकती हैं। दुनियाभर में लगातार हो रहे अध्ययन भी बता रहे हैं कि पुरुषों को औरतों की लीडरशिप में काम करने में दिक्कत होती है। वे लेडी बॉस से खार ही नहीं खाते, यह भी मानते हैं कि उनको औरतों के आदेश मानने में अटपटा लगता है। दरअसल, औरतों को फॉलो करने में उनका दंभ आड़े आता है। जिनको अपनी उंगलियों पर नचाने का फख्र हो, उनके इशारों पर काम करना उनके लिए मुश्किल हो जाता है। पुरुष बॉस की झिड़की खाने वाली उनकी मानसिकता स्त्री का आदेश भी गले नहीं उतार सकती। खासकर, जब वह घर में औरत को दुत्कार कर, ताने मार कर, गाली-गलौच कर आ रहा हो तो ऊंची कुर्सी पर बैठी औरत की जुबान से निकला एक भी शब्द उसके जिगर को भेदने के लिए काफी है। औरतों से गुलामों की तरह पेश आने का यह ‘घमं ड’ उसको तार-तार कर देता है, जिसका असर उसकी क्षमताओं पर भी पड़ सकता है। हालांकि यह कहने में मुझे जरा भी संकोच नहीं है कि कम ही औरतें अभी इस ‘दासत्व’ भाव से निकल पायी हैं या निकलने को चेष्टारत हैं। यह दासत्व भाव परिवार और समाज में ही रचा-बसा नहीं है, यही हमको ‘आइडियल’ भी बनाता है। यही हमको महानता का अहसास कराता है, हम पर दया भाव दिलाने की गुहार लगाता है। पुरुषों की दया की आदी हमारी जीवन शैली, उनको चुनौती देते अटकती है। उसको क्षण-क्षण लगता है, यह अमानवीय तो नहीं हो रहा? वह पलट कर सोचती है। अपनी दादियों-नानियों की दुर्दशा को याद करती है। जिन संस्कारों की नींव पर उसको पाला-पोसा गया, उनको भुलाना/दुत्कारना उसके लिए थोड़ा कठिन हो जाता है। वह शोषित रही है, पीड़ित और सताई जाती रही है, जिसकी अभ्यस्त है वह। सिर उठा कर चलते हुए, कभी-कभी संकोच हो जाता है। पुरानी बातें/ पीढ़ियां याद आ जाती हैं। पुरुषों के सूखे मुंह और चेहरों के उड़े रंग उसके आत्मबल को झकझोरने के लिए काफी हैं। जिन कड़ाइयों और रूखेपन को वह बनावटी तौर पर इस्तेमाल करती है, उनकी टीस भी होती है उसको। परंतु कोमलता और भावनात्मकता के भरोसे निष्ठुर/चतुर/मतलबी पुरुषों को चुनौती नहीं दी जा सकती। उनके झूठे दंभ को चोटिल करने के लिए ही हमको यह रूप ओढ़ना है। हम ना तो अपने प्राकृतिक भावनात्मक स्वभाव को छोड़ रहे हैं, ना ही कोमलता को ठस करने का प्रयास कर रहे हैं पर प्रतिस्पर्धा में बिना बराबरी के तुलना नहीं हो सकती। हमको अब दया नहीं चाहिए। आपकी फेंकी रिश्तेदारियां, भावनाएं या संकीर्णताएं हमारी खुराक नहीं बन सकती। हम मदरे की गलतियां नहीं दोहराएं, बल्कि उनकी गुस्ताखियों से सीख लें और उनको पछाड़ने के सुख में ऐंठने की बजाए यह जता सकें कि चुनौती देना तो हमको भी आता है पर हम गुस्ताख नहीं। कुतर्की यह कह सकते हैं कि स्त्रियां तो राष्ट्राध्यक्ष भी हैं, क्योंकि वे यह सचाई नहीं जान सकते कि मल्टीनेशनल बैंक या कंपनी की सीईओ औरतें हैं, तो किस अनुपात में? उसमें जनसाधारण का कोई सहयोग नहीं है। अमूमन तो परिवारों का भी नहीं होता। कड़ी प्रतिस्पर्धा और विपरीत स्थितियों के बावजूद वह जहां पहुंची है, वह तो झलक भर है। अभी तो वह समय आना है, जब स्त्री ही असल शासक होगी, वही असल दाता और मार्गदर्शक होगी। जाहिर है, वह समय अद्भुत होगा, प्रेममय, अपनत्व भरा, सहिष्णुता और लयबद्धता लिये। जहां ना तो उपद्रव होंगे, ना शुष्कता और ना ही बेरहमी ही। औरतों को गुलाम बना कर रखने की पुश्तैनी आदत ने पुरुषों को भीतर से कमजोर किया है। वे अहंकार के चोटिल होते ही, और भी खूंखार हो जाते हैं। बदले की भावना से वे औरतों पर चारित्रिक दोष मढ़ने लगते हैं। उन पर अनर्गल आरोप- प्रत्यारोप पर उतारू हो जाते हैं। औरत की बौद्धिकता, उसकी तार्किकता उनको भयावह लगती है। उनके काम में मीन-मेख निकालने लगते हैं। उन पर जरूरत से ज्यादा बोझ डालने की साजिश में शामिल हो जाते हैं । पीढ़ियों से औरतों ने पुरुष के मन को दासी बनाकर जो सहलाया है, वह उसके ममतीलेपन से नहीं निकल पा रहा है । वह मान बैठा है कि औरत की क्षमता ही यही है। उसको इतना भी शऊर नहीं कि प्राकृतिक रूप से औरत कोमल है, संवेदनशील है, प्रेममय है। ‘देने’ की उसमें जबर्दस्त क्षमता है। वह भाव-विह्वल होकर कुछ भी देने की भूमिका में कभी भी आ सकती है। वह देह-बल में भले ही कुछ कमजोर हो, पर उसका आत्म-बल और चेतना पुरुषों की तुलना में असीम है, जिसको भोथरा करने की कोशिशें करने में पुरुष कहीं मात नहीं खाता। भाषा से, तानों से, गाली-गलौच से वह औरत को हमेशा पीछे धकेलने का काम करते नजर आता है। उसको भीतर ही भीतर डर बैठा है कि औरतों की चुनौती को ना तो स्वीकार ही सकता है, ना उसके सामने ही टिक सकता है। भीतर से कमजोर पुरुष इसीलिए अत्याचारी है। वह घर बैठी स्त्री को सताता है, दफ्तर में काम में जुटी औरत हो या सड़क पर चलती, अपनी कुंठाओं के कारण वह अनजाने ही औरतों पर मानसिक/व्यावहारिक प्रहार करने से बाज नहीं आता। अपनी कमजोरियों को ढांकने का सुख, उसके संपूर्ण मर्द होने के भ्रम को सहलाता रहता है। अपनी कमजोरियों को छुपाने का यह तरीका अनजाने ही उस पर हावी हो जाता है। देखा-देखी, परंपरा से, अनुभवों और व्यवहार से वह इनका इतना आसक्त हो जाता है कि इनसे छुटकारा पाने की कल्पना से भी दिल दहल जाता है। कमजोरियों के मारे पुरुषों के आतंक से दहली औरतों का प्राकृतिक विकास तो ठहरता ही है, वे पुरुषों पर आश्रित भी होती चली जाती हैं, जो सामाजिक नियम बनता गया है। यही कारण होता है कि औरतें बेहद चतुराई से दफ्तर में अपने बॉस की या घर पर पति की चिरौरी कर अपने काम निकलवा लेती हैं। वे जानती हैं कि ठस्स सोच वाला पुरुष चुनौती देने से मानेगा नहीं, इसलिए वे देसी टाइप के हथकंडे अपनाती हैं और उसके अहंकार को बिना ठेस लगाये अपना काम बना लेती हैं। वे कहती हैं, ‘आपसे बुद्धिमान तो कोई हो ही नहीं सकता’ या ‘यू आर जीनियस’। हालांकि इस तरह के जुमले सुनने के आदी हो चुके भोथरी बुद्धि वाले मर्द, किसी भी कीमत पर औरतों को अपनी बराबरी का ज्ञानी नहीं मान सकते। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि उनको स्त्री का दासत्व रूप इतना सूट करता है कि जहां औरत ने गर्दन उठाई, उनकी संपूर्ण मर्दानगी फना हो जाती है। अपने भीतर के केंचुए को वे स्पष्ट देखना लग जाते हैं। उनकी सारी ऐंठ हवा हो जाती है। यहां से शुरू होता है, विपरीत भय। डरा हुआ पुरुष, रीढ़हीन, मिमियाता, रेंगता। दया मांगता। पंगु। बेचारा। वैज्ञानिक लंबे अरसे से चिल्लाते आ रहे हैं कि बुद्धि की प्रखरता, तीक्ष्णता, शार्पनेस और तेजी पर किसी तरह का कोई लैंगिक आरक्षण नहीं है। सनसनाती बुद्धि पर किसी मर्द का एकाधिकार नहीं होता। मानव विज्ञान मानता है कि विद्वता या समझ पर पुरुष जबरन अधिकार नहीं जता सकता, यह सामाजिक तानाबाना है, जो औरतों की बौद्धिकता को क्रियाशील नहीं रहने देता। अपने यहां तो अभी तक ठीक से लड़कियों को पढ़ाया तक नहीं जाता। आधुनिकता के हितैषियों की बातों के बावजूद आधी औरतें अपढ़ ही हैं, शिक्षित तो दूर की बात है। जीवन अनुभवों का जखीरा है उनके पास पर वे दबाव में होती हैं। घुटन जीती। मुक्ति के अभाव में छटपटाती। दया की भीख मांगती। पौरुषेय दंभ से दबी। पुरुषवादी संस्कारों और नियमों के बोझ से लदी। मुक्ति की यह भूख, आजादी की झटपटाहट उनको चुनौती देने के लिए प्रोत्साहित करेगी। वे सामने होंगी। उनके भीतर का दासत्व- उनका गुलामीपन उनको मजबूती देगा।

साभार :- मनीषा

Saturday, 27 August 2011

महिला सशक्तीकरण – वाकई उद्धार या महज ड्रामा

अपनी प्रतिक्रिया जरूर लिखें 
“Jagran Junction Forum” के साभार से ,


भारत में महिलाओं की स्थिति में गत कुछ अरसे से बदलाव आया है. आधुनिक उदारीकृत अर्थव्यवस्था व बदली सामाजिक स्थितियों ने निश्चित रूप से महिलाओं को सशक्त होने का शानदार अवसर मुहैया कराया है. वे अब केवल गृहणी या घरेलू कामों के दायरे में सीमित नहीं हैं बल्कि व्यापार-उद्योग जगत, राजनीति व समाज में अपनी मुखर उपस्थिति दर्ज करा रही हैं. समाज के ताने-बाने में उनकी स्थिति अब अबला से सबला की ओर रूपांतरित हो रही है और वे अब निर्णय में बराबर की भागीदारी निभा रही हैं.

महिलाओं के राजनीतिक, आर्थिक सशक्तीकरण ने उनके सामाजिक सशक्तीकरण में खासा योगदान दिया है. भारतीय संविधान की अपेक्षाओं के अनुरूप महिलाएं मुख्यधारा में मौजूद हैं और देश को विकास की नई ऊंचाइयों पर ले जाने के लिए कृतसंकल्पित भी हैं.

किंतु समाजवेत्ताओं और राजनीतिक दर्शन के अध्येताओं की राय, महिला सशक्तीकरण की दिशा और दशा को लेकर, नकारात्मक ज्यादा है और सकारात्मक कम. उनका मानना है कि भारत में महिला सशक्तीकरण दिशाविहीन है. वे कहते हैं, महिलाओं की बेहतरी के लिए सरकारी प्रयासों की स्थिति संतोषजनक नहीं है और विकास का वास्तविक लाभ केवल कुछ विशेष वर्गों तक सीमित है. गैर-सरकारी संगठनों समेत नारी हित में संलग्न सभी संस्थाओं के अपने निहित स्वार्थ महिला सशक्तीकरण की राह को भटकाकर भ्रम पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं और यही कारण है कि महिलाएं विकास और उन्नति के सही अर्थ को समझने की बजाय उसमें उलझी हुई ज्यादा प्रतीत हो रही है.

समाज शास्त्रियों और अन्य जानकारों ने इस ओर ध्यान दिलाते हुए चिंता व्यक्त की है और कहा है कि वर्तमान में महिला सशक्तीकरण का मामला केवल आर्थिक सशक्तीकरण और राजनीतिक अधिकारों की प्राप्ति तक सीमित रह गया है जबकि इसका क्षेत्र कहीं अधिक व्यापक और सुचिंतित होना चाहिए था.

भारत में महिला सशक्तीकरण की खोखली वाहवाही के बीच स्त्री हितचिंतकों के नकारात्मक विचार बहस की बड़ी गुंजाइश को जन्म देते हैं. ऐसे में हमारे सामने कुछ महत्वपूर्ण सवाल उठ खड़े हुए हैं जिनका उत्तर तलाशा जाना समय की मांग है, यथा:

1. भारत में महिला सशक्तीकरण की वर्तमान दिशा और दशा कैसी है?
2. क्या भारत में महिला सशक्तीकरण के नाम पर दिखावा ज्यादा है?
3. क्या महिलाओं के विकास और सशक्तीकरण के नाम पर उसके शोषण की नई पृष्ठभूमि तैयार की जा रही है?
4. क्या महिलाओं के आर्थिक-राजनीतिक सशक्तीकरण के दावों के बीच महिलाओं के पूर्ण सशक्तीकरण की जमीन तैयार हो सकेगी?

what comes to the lips can’t remain unsaid.


Title:     Na Raihndi Ay - نہ رہندی اے - Cannot Remain

Language:  Punjabi
Poetry:  Bulleh Shah (1680-c.1758)
viedo देख सकते है इस लिंक पर :- http://youtu.be/XxH5wQtWZqQ
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منہ آئی بات نہ رہندی اے
moonh aai baat na raihndi ai 
what comes to the lips can’t remain unsaid

جھوٹ آکھاں کچھ بچدا اے
jhoot aakhaan kuchh bachda ai 
I speak a lie and little remains

سچ آکھاں بهانبڑ مچدا اے
sach aakhaan bhaambar machda ai

I speak the truth and a fiery uproar is caused

دوہاں گلاں توں جی جچدا اے
donhaan gallaan taun ji jachda ai 
from both these things, the heart shrinks

جچ جچ کے جبھاں کہندی اے
jach jach ke jibbhaan kaihndi ai 
tremblingly, the tongue says

مونہہ آئی بات نہ رہندی اے
moonh aai baat na raihndi ai 

مونہہ آئی بات نہ رہندی اے
moonh aai baat na raihndi ai 
what comes to the lips can’t remain unsaid

جس پايا بھيت قلندر دا
jis paaya bhait qalandar da
whoever understood the Qalandar’s secret
raah khojya apne andar da 
traced the path into his own soul

اوہ واسی ہے سکھ مندر دا
oah waasi hai sukh mandar da 
he is a dweller of the temple of happiness

جتھے چڑھدی اے نہ لہندی اے
jithe charhdi ai na laihndi ai 
where nothing rises nor declines

مونہہ آئی بات نہ رہندی اے
moonh aai baat na raihndi ai
what comes to the lips can't remain unsaid
ik laazim baat adab di ai 
there’s one vital matter of due respect

سانوں بات معلومی سب دی اے
saanoon baat maloomi sabh di ai 
known to us is the truth about everyone

ہر ہر وچ صورت رب دی اے 
har har wich soorat rabb di ai 
every single thing contains the form of God

ے
kitte zaahir kitte chupaindi ai 
somewhere it is apparent, elsewhere it hides

مونہہ آئی بات نہ رہندی اے
moonh aai baat na raihndi ai 
what comes to the lips can’t remain unsaid

ايہہ تلکن بازی ويہڑا اے
eih tilkan baazi wehrha ai 

دوہاں گلاں توں جی جچدا اے
donhaan gallaan taun ji jachda ai 
from both these things, the heart shrinks

جچ جچ کے جبھاں کہندی اے
jach jach ke jibbhaan kaihndi ai 
tremblingly, the tongue says

مونہہ آئی بات نہ رہندی اے
moonh aai baat na raihndi ai 
what comes to the lips can’t remain unsaid

جس پايا بھيت قلندر دا
jis paaya bhait qalandar da
whoever understood the Qalandar’s secret


traced the path into his own soul

اوہ واسی ہے سکھ مندر دا
oah waasi hai sukh mandar da 
he is a dweller of the temple of happiness

جتھے چڑھدی اے نہ لہندی اے
jithe charhdi ai na laihndi ai 
where nothing rises nor declines

مونہہ آئی بات نہ رہندی اے
moonh aai baat na raihndi ai
what comes to the lips can't remain unsaid

اک لازم بات ادب دی اے
ik laazim baat adab di ai 
there’s one vital matter of due respect

سانوں بات معلومی سب دی اے
saanoon baat maloomi sabh di ai 
known to us is the truth about everyone

ہر ہر وچ صورت رب دی اے 
har har wich soorat rabb di ai 
every single thing contains the form of God

کتے ظاہر کتے چھپیندی اے
kitte zaahir kitte chupaindi ai 
somewhere it is apparent, elsewhere it hides

مونہہ آئی بات نہ رہندی اے
moonh aai baat na raihndi ai 
what comes to the lips can’t remain unsaid

ايہہ تلکن بازی ويہڑا اے
eih tilkan baazi wehrha ai 
this courtyard is a slippery one

تھم تھم کے ٹُرو اندھيرا اے
tham tham ke turo andhera ai 
tread cautiously because it’s dark

وڑ اندر ويکھو کيہڑا اے
warh andar waikho kehrha ai 
go on inside to see who’s there

کيوں خلقت باہر ڈھونڈيندی اے
kyoon khalqat baahar dhoondaindi ai 
why do people keep searching outside
grabbing hold of swords with your hand, you’ve dubbed yourself a victorious (holy) warrior

مکّے مدینے گھوم آیا توں نام رکھہ لیا حاجی
makke madeene ghoom aaya tu naam rakh liya haaji 
having toured Mecca and Medina, you’ve dubbed yourself a noble pilgrim
بلّھا توں کی حاصل کیتا جے یار نہ رکھیا راضی
O Bulleh Shah, what did you gain when you couldn’t keep the Beloved pleased

एक बेवकूफ़ औरत का ख़त..(एक आदमी के लिए)


एक बेवकूफ़ औरत का ख़त

(एक आदमी के लिए)


निज़ार क़ब्बानी की कविताओं की सीरीज़ एक और कविता -

1)

प्रिय स्वामी,
यह ख़त एक बेवकूफ़ औरत लिख रही है
क्या मुझ से पहले किसी बेवकूफ़ औरत ने आप को ख़त लिखा है?
मेरा नाम? अलग धरिये नामों को
रानिया, या ज़ैनब
या हिन्द या हाइफ़ा
मेरे स्वामी, नाम होते हैं सबसे अहमकाना चीज़ें
जिन्हें हम अपने साथ लिए चलती हैं 


(2)

मेरे स्वामी, 
अपने ख़्यालात आपको बताने में मुझे ख़ौफ़ लग रहा है
मैं ख़ौफ़ज़दा हूं - अगर मैंने आपको बता दिए -
तो दहक उठेगा स्वर्ग
अपने पूरब के लिए मेरे स्वामी, 
नीले ख़तों को ज़ब्त कर लीजिए
औरतों के ख़ज़ानों से सपनों को ज़ब्त कर लीजिए
औरतों की संवेदनाओं का दमन कीजिए
इस के वास्ते चाकुओं की दरकार होती है ...
और बड़े छुरों की ...
औरतों से बात करने को
इसके वास्ते वसन्त और जुनूनों
और काली चुन्नटों का वध करना होता है
और मेरे स्वामी, आपका पूरब
पूरब के वास्ते निर्माण करता है एक नाज़ुक ताज का
औरतों की खोपड़ियों से.

(3)

मेरी बुराई मत कीजिए स्वामी
कि मेरा हस्तलेख ख़राब है
क्योंकि मैं लिख रही हूं और मेरे दरवाज़े के पीछे तलवार है
और कमरे से परे हवा की आवाज़ और कुत्तों का भौंकना
मेरे स्वामी!
अन्तर अल अबिस मेरे दरवाज़े के पीछे है!
वह मेरा कत्ल कर देगा
अगर उसने देख लिया मेरा ख़त
अगर मैं अपनी यातना के बाबत बोलूंगी
तो वह मेरा सर कलम कर देगा
अगर उसने मेरी पोशाक का झीनापन देख लिया
तो वह मेरा सर कलम कर देगा
और आपके पूरब के वास्ते, मेरे स्वामी
औरतों को घेरा जाता है भालों से
और आपका पूरब, मेरे प्रिय स्वामी
पुरुषों को चुनता है पैग़म्बरों की तरह 
और धूल में दफ़ना देता है औरतों को.

(4)

खीझिए मत!
मेरे प्रिय स्वामी, इन पंक्तियों से
खीझिए मत!
अगर मैंने चकनाचूर कर दीं सदियों से बाधित शिकायतें
अगर मैंने अपनी चेतना पर ठुकी मोहर उखाड़ ली
अगर मैं भाग गई ...
महलों के हरम के गुम्बदों से
अगर मैंने बग़ावत कर दी, अपनी मौत के खिलाफ़
अपनी कब्र, अपनी जड़ों के ख़िलाफ़ ...
और विशाल कसाईबाड़े के ख़िलाफ़ ...

खीझिए मत! मेरे प्रिय स्वामी,
अगर मैंने आपके सामने खोल कर रख दीं अपनी भावनाएं
क्योंकि पूरब का पुरुष
कविता या भावनाओं से मतलब नहीं रखता
पूरब का पुरुष - मेरी गुस्ताख़ी माफ़ कीजिएगा - औरतों को नहीं समझता
सिवाय चादरों के ऊपर.

(5)

मैं माफ़ी चाहती हूं मेरे स्वामी - अगर मैंने पुरुषों की सल्तनत पर गुस्ताख़ हमला बोला हो
क्योंकि महान साहित्य निस्संदेह
पुरुषों का साहित्य होता है
और प्रेम हमेशा से रहा है
पुरुषों का हिस्सा
और सैक्स हमेशा से
पुरुषों को बेची गई दवा रहा हैI
हमारे मुल्कों में औरतों की आज़ादी, एक सठियाई हुई परीकथा
क्योंकि कोई आज़ादी नहीं है
सिवा, पुरुषों की आज़ादी के ...

मेरे स्वामी
बता दीजिए आप मुझे क्या कहना चाहते हैं. अब मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता -
खोखली ... बेवकूफ़ ... पागल ... साधारण
अब मुझे इस सबसे कोई वास्ता नहीं
क्योंकि जो भी स्त्री लिखती है अपनी चिन्ताओं के बारे में
पुरुषों के तर्क के मुताबिक
बेवकूफ़ औरत होती है
आउर क्या मैंने आपको शुरू में ही नहीं बता दिया था
कि मैं एक बेवकूफ़ औरत हूं?
....................................................................................
" कबाड़खाना " के  सोजन्य  से