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Thursday, 15 December 2011
30 साल में देश भर में 1.20 करोड़ बच्चियों की घूण हत्या
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Wednesday, 14 December 2011
जेंडर इनइक्वैलिटी - डोंट हाइड विहाइंड साइंस
ab inconvenienti ने विज्ञान की लाठी से स्त्रीवाद के कई अहम सवालों को एकसाथ भांज कर रख दिया है !सुजाता ने चोखेर बाली में इन मान्याताओं का खंडन करते हुए मजबूत तर्क दिया है ! जिन भिन्नाताओं को वे जेंडर आधारित साबित कर रहे हैं वे शुद्धत: विज्ञान आधारित हैं और नारीवाद का कोई भला नहीं करतीं ! कई वैज्ञानिक तथ्यों की दलील उन्होंने दी है ! इन तथ्यों से निकलने वाले नतीजे स्त्री की मौजूदा हालत को स्बाभाविक सिद्ध करते हैं !स्त्री के स्त्रीत्व और पुरुष के पुरुषत्व को जस्टीफाइड और नैचुरल मानते हुए ab inconviventi लिखते हैं -
"तो भी या सीधा सा सच सामने है: पुरूष होना और स्त्री होना यानि मानव संरचना का अलग पुर्जा होना है, अदला बदली कम से कम मानव द्वारा तो मुश्किल है.'
दरअसल ab inconvenienti की दलीलें स्त्रीवाद के सामाजिक संघर्ष को वैज्ञानिक प्रमाणों से निरुत्तर करने का प्रयास हैं पर उनकी इस मान्याता से कई भ्रम पैदा होते हैं और कई सामाजिक शोषण की परंपराओं के पैटर्न सही सिद्ध हो जाते हैं -----
जॆंडर की अवधारणा सामाजिक है ! आप वैज्ञानिक प्रमाणों के आधार पर इस सामाजिक अवधारणा के साथ घपला नहीं कर सकते !
नारीवाद सेक्सुऎलिटी की अदला बदली या संक्रमण की कामना नहीं है ! जैसा कि आप मान रहे हैं ! नारीवाद अवसरों और अधिकारों की समान रूप से ऎक्सेसिबिलिटी का संघर्ष है !
स्त्रीवाद स्त्री पुरुष की जड भूमिकाओं में फ्लेक्सिबिलिटी की बात करता है ! आप विज्ञान द्वारा इन भूमिकाओं को और अधिक जड सिद्ध कर रहे हैं !
ममता वर्सेस आक्रामकता , शक्ति वर्सेस कोमलता जैसे समाजीकरण के फंदों से स्त्री पुरुष दोनों की मुक्ति ज़रुरी है न कि विज्ञान के सहारे इन्हें और मजबूत नहीं किया जाना चाहिए !
लिंग आधारित भूमिकाओं को समाज का आधार बानाना लिंग आधारित शोषण को जस्टीफाई करना ही है ! स्त्री की शारीरिक क्षमता को पुरुष से कम आंकने के पीछे विज्ञान का आश्रय लेना यौन हिंसा और घरेलू हिंसा के आधारों को स्वाभाविक मानना है !
दरअसल स्त्रीवादी आंदोलन को सिर्फ और सिर्फ सामाजिक आधारों पर ही समझा जा सकता है ! आप जेंडर जस्टिस के लिए विज्ञान की गोद में जाकर स्त्री का ही नहीं पुरुष का भी अहित करेंगे ! विज्ञान मनुष्य को शरीर मात्र मानता है उसके लिए तो खेल कोशिकाओं और रसायनों का है ! लेकिन सामाजिक शोषण और विभेदों की कोई व्याख्या विज्ञान नहीं कर सकता ! समाज की अलग अलग सीढियों पर खडे स्त्री और पुरुष को अलग मकसदों से बनाए गए कलपुर्जे मानना सामाजिक असमानता को स्वाभाविक मानना नहीं तो और क्या है ?
.....और.अंत में ... स्त्री और पुरुष में सिर्फ गर्भाशय का अंतर है और कोई अंतर नहीं है !
Monday, 12 December 2011
चरखवा चालू रहै !
लोक अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम अपने आसपास और अपनी भाषा - शैली में ही खोजता है.ऐसा नहीं है कि देश - दुनिया के मामलात और मसले उसे प्रभावित नहीं करते लेकिन जब उन पर प्रतिक्रिया और प्रसंगानुकूल प्रकटीकरण की बात आती है तब वह सबसे पहले अपने तरीके से अपनी बात कहने की कोशिश करता हैं, यही उसकी खूबी ,खासियत व खरापन है. भारतीय स्वाधीनता के समर में जनजागरण के एक सशक्त औजार के रूप में लोकगीतों के वर्ण्य विषय कितने समकालिक, कितने सजग हो चले थे, यह 'चरखवा चालू रहै' गीत में बखूबी देखा जा सकता है. गौर करने की बात यह है इतना सब होते हुए भी न केवल इसकी सहजता बरकरार है बल्कि मौज, मस्ती और मारक व्यंगात्मकता जस की तस है. इतिहास के खाने में दर्ज इस गीत के रचयिता पता नहीं चल पाया है. वैसे भी लोक की सामूहिकता में यह संभव भी नहीं लगता है कि किसी एक व्यक्ति ने इसे इसे रचा होगा . यह एक सामूहिक - सामयिक इंप्रोवाइजेशन का प्रतिफल ही रहा होगा शायद. आज गांधी जयंती अवसर पर प्रस्तुत है गीत - 'चरखवा चालू रहै' आप इसे पढ़िए , आधुनिक भारत के इतिहास - चरित्रों से मुखतिब होइए और गांधी बाबा की बारात का हिस्सा बन जाइए ....
चरखवा चालू रहै !
गांधी बाबा दुलहा बने हैं
दुलहिन बनी सरकार
चरखवा चालू रहै !
गांधी बाबा दुलहा बने हैं
दुलहिन बनी सरकार
चरखवा चालू रहै !
वीर जवाहर बने सहबाला
अर्विन बने नेवतार
चरखवा चालू रहै !
वालंटियर सब बने बराती
जेलर बने वाजंदार
चरखवा चालू रहै !
दुलहा गांधी जेवन बैठे
देजै में मांगें स्वराज
चरखवा चालू रहै !
लार्ड विलिंगटन दौरत आए
जीजा , गौने में दीबो स्वराज
चरखवा चालू रहै !
( 'चरखवा चालू रहै' गीत नरेशचंद्र चतुर्वेदी द्वारा संपादित पुस्तक 'आजादी के तराने' से संकलित किया गया है और गांधी जी का स्केच इन पंक्तियों के लेखक की बिटिया हिमानी ने अपने स्कूल के वाल मैगजीन के लिए बनाया था, मुझे अच्छा लगा सो उसका फोटोग्राफ़ यहां चिपका दिया )
वीर जवाहर बने सहबाला
अर्विन बने नेवतार
चरखवा चालू रहै !
वालंटियर सब बने बराती
जेलर बने वाजंदार
चरखवा चालू रहै !
दुलहा गांधी जेवन बैठे
देजै में मांगें स्वराज
चरखवा चालू रहै !
लार्ड विलिंगटन दौरत आए
जीजा , गौने में दीबो स्वराज
चरखवा चालू रहै !
( 'चरखवा चालू रहै' गीत नरेशचंद्र चतुर्वेदी द्वारा संपादित पुस्तक 'आजादी के तराने' से संकलित किया गया है और गांधी जी का स्केच इन पंक्तियों के लेखक की बिटिया हिमानी ने अपने स्कूल के वाल मैगजीन के लिए बनाया था, मुझे अच्छा लगा सो उसका फोटोग्राफ़ यहां चिपका दिया )
Sunday, 16 October 2011
अन्न स्वराज
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Tuesday, 11 October 2011
नाम में बहुत कुछ रखा है !
हाल के वर्षों में राज्यों, सार्वजनिक जगहों के नामों के प्रति हमारी सचेतनता व संवेदनशीलता में वृद्धि हुई है. परिणामस्वरुप बॉम्बे मुंबई, मद्रास चेन्नई, कलकत्ता कोलकाता उड़ीसा ओडिशा व कनॉट प्लेस अब राजीव चौक हो गया है. तथा और कई राज्यों जैसे भोपाल व असम में भी नाम परिवर्तन की मांग जोर पकड़ रही है.
इस प्रक्रिया के पीछे का मुखर तर्क यह है की ये ‘नाम’ औपनिवेशिक दासता के प्रतीक हैं तथा इन्हें अपनाना मानसिक गुलामी की निशानी है. अपने प्राचीन गौरव बोध व आत्मसम्मान के लिए इन गलतियों को सुधारना आवश्यक है. कुल मिला कर यह निष्कर्ष निकालता है कि ‘नाम’ महत्वपूर्ण है और इसका व्यक्ति, समूह और राष्ट्र की पहचान व आत्मसम्मान के साथ गहरा रिश्ता होता है.
प्रति वर्ष की भांति इस वर्ष के खेल व द्रोणाचार्य पुरस्कार कि घोषणा खेल मंत्रालय द्वारा की गयी. इस वर्ष का उत्कृष्ट खेल शिक्षक पुरस्कार पांच शिक्षकों को महामहिम राष्ट्रपति द्वारा गत २९ अगस्त को प्रदान किया गया.
उपरोक्त दोनों बातों में क्या सम्बन्ध है और मैं ये बातें यहाँ क्यों कह रही हूँ? हालांकि ऊपरी तौर पर इनमे कोई सम्बन्ध नहीं दिखता परन्तु यदि थोड़ा ध्यान से व गहराई देखें व सोचें तो यह सवाल स्वाभाविक रूप से उठता है कि क्या आज़ाद, प्रजातांत्रिक भारत में उत्कृष्ट खेल शिक्षक पुरस्कार का नाम द्रोणाचार्य पुरस्कार होना चाहिए ?
महाभारत में वर्णित द्रोणाचार्य व एकलव्य की कथा हम सबने सुनी है. इस कथा के अनुसार द्रोणाचार्य, कौरवों व पांडवों के राजगुरु ने एक जनजातीय बालक एकलव्य को धनुष चलाने की शिक्षा न देने के बावजूद गुरुदक्षिणा में उसका दाहिने हाथ का अँगूठा माँग लिया था ताकि वह कभी धनुष न चला पाए व अर्जुन की श्रेष्ठता को चुनौती न दे सके.
इस कहानी में जहाँ एकलव्य का अँगूठा काट कर दे देना एक शिष्य का गुरु के प्रति सम्पूर्ण समर्पण का प्रतीक है वहीं द्रोणाचार्य का कृत्य एक शिक्षक के सर्वोच्च आदर्श के विपरीत है.
निसंदेह द्रोणाचार्य का एक उत्कृष्ट शिक्षक रहे होंगे परन्तु क्या वह जनजातीय बालक एकलव्य के साथ हुए घोर अन्याय के भी प्रतीक नहीं हैं ?
क्या अब समय नहीं आ गया है कि हम केवल औपनिवेशिक काल के ‘नामों’ (अंग्रेजों द्वारा की गयी) की गलतियों को ही न सुधारें बल्कि और पीछे जाएँ तथा अतीत में हुई गलतियों के प्रतीक इन ‘नामों’ को बदलने का प्रयास करें.
क्या आज भारत के सर्वश्रेष्ठ खेल शिक्षक पुरस्कार के नाम पर पुनर्विचार की आवश्यकता नहीं है?
डॉ. मधु कुशवाहा
एसोशिएट प्रोफेसर
शिक्षा संकाय
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
वाराणसी, उत्तर प्रदेश
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Thursday, 6 October 2011
पुरुषों से ज्यादा काम करती महिलाएं
हिमालय क्षेत्र में प्रति हेक्टेअर प्रतिवर्ष एक पुरुष औसतन 1212 घंटे और एक महिला औसतन 3485 घंटे काम करती दिखती है .
हल चलाना शुरू कर दें, 100 फीसद श्रम की हकदार होंगी महिलाएं
फूड एंड एग्रीकल्चर ऑग्रेनाइजेशन (एफएओ-संयुक्त राष्ट्र) के हालिया अध्ययन से पता चला है कि हिमालयी क्षेत्र में प्रति हेक्टेअर प्रतिवर्ष एक पुरुष औसतन 1212 घंटे काम करता है, जबकि एक महिला औसतन 3,485 घंटे काम करती है यानी महिला व पुरुष के काम का अनुपात 294 : 101 है।
कृषि में महिलाओं का योगदान 60 से 80 फीसद व अन्य गतिविधियों में 70 से 80 फीसद तक है।
अध्ययन में महिलाओं को मिलने वाले मानदेय पर भी चिंता व्यक्त की गयी है। महिलाओं के श्रम को बराबरी की अहमियत नहीं मिल रहा है। अध्ययन कहता है कि महिलाओं की मौजूदगी पलायन रोकने के साथ सामाजिक ताने-बाने को बिखरने से बचाने के भी काम आती है क्योंकि महिलाएं ही बुजुगरे व बच्चों की देखभाल करती हैं।
कृषि में सबसे अधिक भागीदारी हिमाचल की, उसके बाद उत्तराखंड का नंबर आता है। बांस आधारित उद्योगों के आधार पर उत्तर-पूर्वी राज्यों- नगालैंड व मिजोरम आदि की महिलाओं को सर्वाधिक प्रगतिशील माना गया है। इस काम से कम श्रम देकर अधिक आय हासिल की जा सकती है।
अध्ययन में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद व नेशनल सैंपल सव्रे ऑफिस (एनएसएसओ) के आंकड़ों का भी हवाला दिया गया है। इसके मुताबिक, 23 राज्यों में कृषि, वानिकी और मछली पालन में कुल श्रम- शक्ति का 50 फीसद भाग महिलाओं का है। छत्तीसगढ़, बिहार और मध्य प्रदेश की महिलाएं श्रम में बढ़े हिस्से की साझीदार हैं। पंजाब, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु व केरल में यह अनुपात 50 से कम है। बुवाई-रोपाई-कटाई तक का दारोमदार महिलाओं पर है।
सामान्यत: अस्थायी रोजगार के वास्ते प्रवास पर गए पुरुष जुताई के समय गांव आते हैं लेकिन बाकी समय महिलाएं ही खेती का काम करती हैं। वे हल चलाना भी शुरू कर दें तो उनकी भागीदारी सौ प्रतिशत हो जाएगी।
पर्वतीय क्षेत्रों में जंगली सूअर, बंदर और लंगूरों का आतंक है इसीलिए फसलों की रक्षा के रूप में भी महिलाओं का योगदान है। अध्ययन यह भी सुझाव देता है कि यदि महिलाओं को आधुनिक उपकरण व वैज्ञानिक सलाह दी जाए तो न सिर्फ श्रम व समय की बचत होगी बल्कि उत्पादन भी बढ़ाया जा सकता है। खासकर, दुधारू पशुओं के बारे में कहा गया है कि महिलाओं की दिनचर्या का ज्यादातर समय चारा खिलाने, चारा लाने, दूध निकालने व पशुधन की साफ-सफाई में लग जाता है, लेकिन उस मात्रा में दूध का उत्पादन नहीं होता। अत्यधिक श्रम के कारण महिलाओं की सेहत ठीक नहीं रहती। अधिकतर महिलाओं में एनीमिया की शिकायत है।
साभार :- सुनीता भास्कर
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Friday, 30 September 2011
जी हाँ बेटा है आपका
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Thursday, 29 September 2011
सहती है क्यों औरत?
तुम पूछते हो
सहती है क्यों औरत?
जवाब क्यों नहीं देती?
…
‘‘पिता-पति-पुत्र ही हैं स्त्री के रक्षक
बाप-शौहर-बेटा है निगहबान इसका
खानदान का नाम चलाता है बेटा
बोझ की खान है बेटियाँ
मर्द कमाता है, खिलाता है, पैसा लाता है
लाठी है बुढ़ापे की
इसीलिए दर्जा भी ऊँचा है उसका
.. और फिर औरत
भोग की वस्तु है
कहाँ मर्द- कहाँ औरत’’
…
तुमने रचे शास्त्र, गढ़े नियम,
बनाई मर्यादाओं की घेराबंदी
जवाब तुम्हारे ही पास है
कैसा क्रूर मजक
फिर भी करते हो सवाल
सहती है क्यों औरत
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ISLAM AND CAPITALISM
Capitalism did not originate in the Islamic world as it came into being only after the invention of the machine which took place by chance in Europe.
Capitalism was imported into the Islamic world at a time when it was under European domination. Together with the wave of development, it spread into the Islamic world which suffered from poverty, ignorance, illness and backwardness. This made some people think that Islam approves of capitalism, with both its evils and merits. They also claim that there are no provisions in the Islamic law or regulations such as might be in conflict with capitalism. They argue that as Islam permitted individual ownership it must likewise permit capitalism.
In answer to this accusation it might suffice to point out that capitalism cannot prosper or grow without usury and monopoly both of which were prohibited by Islam about one thousand years before the existence of capitalism.
But let us tackle the question at some greater length. If the invention of the machine had taken place in the Islamic world, how would Islam have faced the economic development resulting from such invention? How would Islamic legislations and laws have organized work and production?
There is consensus of opinion among economists-including those who are opposed to capitalism (e.g., Karl Marx-that capital ism at the start brought about great progress and rendered con siderable services to humanity. production was increased, means of communication were improved and national resources were exploited on a larger scale. The standard of living among the work ing classes became higher than when they were mostly or completely dependent on agriculture.
But such a glorious picture did not last long because the natural development of capitalism, as they say, led to the amassing of wealth in the hand. If capitalist owners and to a relative diminu tion of the properties owned by the working classes. This enabled the capitalist owners to use workmen-the real producers in communist eyes-in considerably stepping up the production of various commodities but the wages paid to workmen were too low to ensure decent lire because the employers took all the profits and spent them leading a life of luxury and corruption.
Besides this the scanty wages paid to workmen did not enable them to consume all the production or capitalist countries. This led to the accumulation or surplus production. As a result of this the capitalist countries began to look for new markets for their surplus production, which in turn gave rise to colonialism with all its incessant conflicts among different nations over markets and raw material resources. Destructive wars were the inevitable outcome or all this.
Moreover, the capitalist system is always exposed to periodic crises resulting from depression caused by low wages and the scantiness of world consumption in relation to increasing production.
Some propagandists of materialism refer all the problems of the capitalist system to the nature of capital itself rather than to any ill-will or desire for exploitation on the part of the capitalists. Such naive and strange reasoning means that man with all his emotions and thoughts is but a helpless creature in the face or the power of economy.
There is no doubt that Islam would have encouraged the good and progressive achievements that were brought about by capital ism in its early stage. But Islam would not have left capitalism without legislation to organize it and to preclude any exploitation which might result from ill-will on the part of the employers or from the very nature of capital. The Islamic principle which was laid in this respect entitles the workmen to share the profit with their employers. Some Maliki jurisprudents went so far as to give to the employee an equal share in the profit. The employer provides all capital and the workman does the work; the two efforts are equal and accordingly they are entitled to an equal share in the profit.
The above-mentioned principle illustrates Islam's great concern with the establishment of justice. Such concern for the establish ment of justice was voluntarily introduced by Islam. It was not forced thereon by any economic exigency nor was it the result of the struggle among classes which is regarded by the propagandists of certain economic doctrines as the sole effective factor in the develop ment of economic relations.
In the beginning, industry consisted of simple manual work involving a small number of workmen who worked in simple workshop" The above-mentioned principle would have organized the relation between work and capital on an equitable basis such as Europe had never had.
Economists say that the development of capitalism from its early benevolent phase to its present morbidly evil phase was accompanied by its increasing dependence on national loan. This led to the creation of banks which carried on financial operations, and advanced loans in return for some interest. Without that such loans as well as the majority of banking operations are based on usury which is expressly prohibited by Islam.
On the other hand, tough competition, which is another feature of capitalism, leads to the destruction of minor companies or to their merger into major ones. This encourages monopoly which is also prohibited by Islam, as is borne out by some sayings of the Prophet. He said: “He that monopolizes is a wrong-doer" Because Islam prohibited usury and monopoly it would have been impossible for capitalism to develop under Islam into its present evil stage which involves exploitation, colonialism and war.
What would have been the fate of industry if it had originated under Islamic rule ?
Surely Islam would not have restricted industry to minor workshops whose profit is shared by the employer and the workman. Production would have rather grown but the relationship between the employer arid workmen would have developed on different lines from those outlining the development of the employer-employee relations in Europe in the nineteenth and twentieth centuries. It would have developed in accordance with the basic principles of Islam such as the above-mentioned principle which provides for an equal division of profit between the workmen and their employer.
By so doing Islam would have avoided resorting to usury or monopoly and would have precluded the injustice to which workmen are subjected under capitalism where they are exploited and left to suffer poverty and humiliation.
It would be foolish to suggest that Islam could not have esta blished such justice without first passing through hard ordeals, class conflicts and economic pressures which would ultimately lead to the amendment of its legislations. It is proved beyond all doubt that Islam had been ahead of all nations in dealing with the questions of slavery, feudalism and early capitalism. In so doing Islam was not acting under any outside pressure whatsoever. It was rather acting voluntarily and in accordance with its own conception of eternal equity and justice scoffed at by communist writers. On the other hand, it is a fact that Russia, a model communist state, itself passed directly from feudalism to communism without passing through the intermediary stage of capitalism. In this way Russia which adopted the doctrine of Karl Marx-practically gives the lie to Marx's theory regarding the phases of development which, he says, every state has to experience.
As to colonialism, wars and exploitation of peoples, it should be pointed out that Islam is firmly opposed to all these as well as to all the other universal evils engendered by capitalism. It is not one of the principles of Islam to colonize other peoples or to wage any war against others for the purposes of exploitation. The only war approved by Islam is that which is waged against aggression or is meant to spread the Word of God where its peaceful dissemination is rendered impossible.
The communists and their like allege that colonialism is an inevitable phase in human development. They add that colonialism could not have been averted by any doctrine or moral principle since it was essentially an economic phenomenon resulting from a surplus is the production of industrialized countries and the need for foreign outlets for marketing such surplus.
Needless to say, Islam does not recognize such nonsense about the inevitability of colonialism. Besides, the communists themselves say or profess that Russia will solve the problem of surplus pro duction by reducing both working hours and workmen's role in production. The solution which communism professes to have found may be used by other systems as well.
History bears witness that colonialism has been an ancient human propensity. It did not originate with capitalism although capitalism with its modern weapons of destruction rendered it more ferocious. As to the exploitation of the vanquished, Roman colonialists were more ruthless and monstrous than their modern counterparts.
History furnishes us with the best evidence to the effect that Islam has been the cleanest of all systems as far as war is concerned. Islamic wars have always been free from exploitation as well as subjection of others. Therefore, if the industrial revolution had taken place in Islamic countries, Islam would have solved the pro blem of surplus production without resorting to war or colonization. Besides, it may be said that the problem of surplus production is an outcome of the capitalist system in its present form only. In other words, if the basic principles of capitalism are changed, the problem would not exist.
As against this, the ruler in the Islamic state shall not remain helplessly indifferent towards the problem of the accumulation of wealth in the hands of a few people while the majority are suffering from poverty and deprivation. Such amassing of wealth is contrary to the principles of Islam which expressly prescribed that wealth should- be fairly distributed among all the people lest it should be confined to the rich only. The ruler in Islam is charged with the enforcement ofSharia (Islamic law) by all means at his command without any injustice or harm to anyone. In this respect, the ruler is invested with full and unlimited powers within the bounds set by God's law-the law that precludes the accumulation of wealth. We might refer in this respect to the law of inheritance which ensures that wealth left by each generation is properly distributed. Reference should also be made to Az-Zakat which prescribes that 2 1/2% of the capital and profit should be annually earmarked for the poor. In addition, Islam explicitly prohibits the hoarding of wealth. It likewise prohibits usury which is the basic factor in the accumu lation of capital. Moreover, the relationships among the members of Islamic society are based on reciprocal responsibility rather than exploitation.
It should also be added that the Holy Prophet (peace be on him) ensured for officials of the state certain rights including the basic necessities of life: "If a person who if charged with work for us (i.e. the state) has no wife, he shall have one; if he has no dwelling place, he shall have one; if he has no servant, he shall have one; if he has no animal, he shall have one".
Such guarantees are not to be confined to officials of the state only. They are the basic necessities required by every person. They can be obtained in return for work done in the service of the state or through any profession or occupation from which society may benefit. If the state ensures the basic necessities for its officials it must also ensure the same for every working individual in the state.
This is evident from the fact that the Public Treasury is responsible for supporting those who are unable to work owing to old age, illness, or childhood. The Public Treasury is also responsible for providing basic necessities to persons who cannot obtain them owing to the insufficiency of means.
All the above-mentioned facts emphasize the responsibility of the state to ensure by all means the basic necessities for workers. It is of no great importance as to by what means should such necessities be provided to the workers; what really matters is the principle which guarantees that profit and loss shall be equally shared by all members of the nation. By providing such necessities for workers Islam protects them against exploitation, besides ensuring a decent life for all.
Islam would not have allowed capitalism to grow into the monstrous forms which are presently prevalent in the “civilized" West. The Islamic legislations-whether originally prescribed by Sharia or newly adopted to face new developments within the frame work of Sharia-would not have allowed the capitalists to exploit the working people or suck their blood. Islam would have pre cluded all the evils of capitalism including colonization, war and the enslaving of people.
Islam, as usual, is not content with the mere enactment of economic rules and laws, In addition to law, Islam also makes use of moral and spiritual incentives which are satirized by the com munists because they see that such values have no practical signi ficance in Europe, But in Islam moral and spiritual values are not separated from practical considerations, Islam has a unique manner of combining and harmonizing both the purification of the spirit and the organization of the community. The individual is never left to wonder how to reconcile the ideal with the practical, Islam for mulates its legislations on a moral basis so that the moral values are always in harmony with the legislations, In this way, each side supplements the other without any fear of conflict or divorcement, Islamic morality prohibits and discourages all forms of luxury and sensuality which are the inevitable results of the amassing of wealth in the hands of a few people, Along with this, Islam also prohibits being unjust to employees or underpaying them. As the amassing of wealth is an outcome of in justice to employees, it invariably means that it must also be discouraged. Islam calls on the people to spend their money in the way of God-even if that should lead to disposing of all ones property. It is because the rich people spend their money on themselves rather than in the way of God that the majority of the people live in poverty and deprivation.
The spiritual elevation of men brought about by Islam brings them closer to God and makes them renounce all worldly pleasures and profits in striving to attain God's pleasure and in expectation of His recompense in the other world. There is no doubt that a man who keeps his peace with God and has faith in the other world, in heaven and hell, will not rush madly for the amassing of wealth or resort to exploitation or injustice for the realization of his selfish ends.
In this way the moral and spiritual edification will pave the way for economic legislations which aim at curbing the evils of capitalism. Consequently, when such legislations are made they are sure to be complied with not because of fear of punishment but rather because people would be acting according to the dictates of their conscience.
In conclusion, it should be made clear that the monstrous capitalism which is currently prevalent in the Islamic world is not a pan of Islam and consequently Islam cannot be held responsible for its evils
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यह लेख मुझे Inshah Malik ने भेजा है . उनसे मुलाकात नयी डेल्ही मे ' इंसाफ ' ऑफिस मे हुई . औरत . इस्लाम , बाज़ार , धर्म, राजनिती और कश्मीर मुद्दे पर खूब चर्चा हुई . विश्वास है की आगे भी होगी .
Wednesday, 28 September 2011
मौसम बदलने लगा है :- दुष्यन्त कुमार
फिर धीरे-धीरे यहाँ का मौसम बदलने लगा है ,
वातावरण सो रहा था अब आँख मलने लगा है ।
पिछले सफ़र की न पूछो , टूटा हुआ एक रथ है ,
जो रुक गया था कहीं पर , फिर साथ चलने लगा है ।
हमको पता भी नहीं था , वो आग ठंडी पड़ी थी ,
जिस आग पर आज पानी सहसा उबलने लगा है ।
जो आदमी मर चुके थे , मौजूद हैं इस सभा में ,
हर एक सच कल्पना से आगे निकलने लगा है ।
ये घोषणा हो चुकी है , मेला लगेगा यहाँ पर ,
हर आदमी घर पहुँचकर , कपड़े बदलने लगा है ।
बातें बहुत हो रही हैं,मेरे-तुम्हारे विषय में ,
जो रास्ते में खड़ा था पर्वत पिघलने लगा है ।
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