हाल के वर्षों में राज्यों, सार्वजनिक जगहों के नामों के प्रति हमारी सचेतनता व संवेदनशीलता में वृद्धि हुई है. परिणामस्वरुप बॉम्बे मुंबई, मद्रास चेन्नई, कलकत्ता कोलकाता उड़ीसा ओडिशा व कनॉट प्लेस अब राजीव चौक हो गया है. तथा और कई राज्यों जैसे भोपाल व असम में भी नाम परिवर्तन की मांग जोर पकड़ रही है.
इस प्रक्रिया के पीछे का मुखर तर्क यह है की ये ‘नाम’ औपनिवेशिक दासता के प्रतीक हैं तथा इन्हें अपनाना मानसिक गुलामी की निशानी है. अपने प्राचीन गौरव बोध व आत्मसम्मान के लिए इन गलतियों को सुधारना आवश्यक है. कुल मिला कर यह निष्कर्ष निकालता है कि ‘नाम’ महत्वपूर्ण है और इसका व्यक्ति, समूह और राष्ट्र की पहचान व आत्मसम्मान के साथ गहरा रिश्ता होता है.
प्रति वर्ष की भांति इस वर्ष के खेल व द्रोणाचार्य पुरस्कार कि घोषणा खेल मंत्रालय द्वारा की गयी. इस वर्ष का उत्कृष्ट खेल शिक्षक पुरस्कार पांच शिक्षकों को महामहिम राष्ट्रपति द्वारा गत २९ अगस्त को प्रदान किया गया.
उपरोक्त दोनों बातों में क्या सम्बन्ध है और मैं ये बातें यहाँ क्यों कह रही हूँ? हालांकि ऊपरी तौर पर इनमे कोई सम्बन्ध नहीं दिखता परन्तु यदि थोड़ा ध्यान से व गहराई देखें व सोचें तो यह सवाल स्वाभाविक रूप से उठता है कि क्या आज़ाद, प्रजातांत्रिक भारत में उत्कृष्ट खेल शिक्षक पुरस्कार का नाम द्रोणाचार्य पुरस्कार होना चाहिए ?
महाभारत में वर्णित द्रोणाचार्य व एकलव्य की कथा हम सबने सुनी है. इस कथा के अनुसार द्रोणाचार्य, कौरवों व पांडवों के राजगुरु ने एक जनजातीय बालक एकलव्य को धनुष चलाने की शिक्षा न देने के बावजूद गुरुदक्षिणा में उसका दाहिने हाथ का अँगूठा माँग लिया था ताकि वह कभी धनुष न चला पाए व अर्जुन की श्रेष्ठता को चुनौती न दे सके.
इस कहानी में जहाँ एकलव्य का अँगूठा काट कर दे देना एक शिष्य का गुरु के प्रति सम्पूर्ण समर्पण का प्रतीक है वहीं द्रोणाचार्य का कृत्य एक शिक्षक के सर्वोच्च आदर्श के विपरीत है.
निसंदेह द्रोणाचार्य का एक उत्कृष्ट शिक्षक रहे होंगे परन्तु क्या वह जनजातीय बालक एकलव्य के साथ हुए घोर अन्याय के भी प्रतीक नहीं हैं ?
क्या अब समय नहीं आ गया है कि हम केवल औपनिवेशिक काल के ‘नामों’ (अंग्रेजों द्वारा की गयी) की गलतियों को ही न सुधारें बल्कि और पीछे जाएँ तथा अतीत में हुई गलतियों के प्रतीक इन ‘नामों’ को बदलने का प्रयास करें.
क्या आज भारत के सर्वश्रेष्ठ खेल शिक्षक पुरस्कार के नाम पर पुनर्विचार की आवश्यकता नहीं है?
डॉ. मधु कुशवाहा
एसोशिएट प्रोफेसर
शिक्षा संकाय
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
वाराणसी, उत्तर प्रदेश
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