Sunday, 13 December 2015

यह वीडियो विद्रोही को श्रद्धांजलि है

हाल ही में दिवंगत हुए जनकवि रमा शंकर यादव ‘विद्रोही’ को उनके कुछ प्रशंसकों ने अनूठे अंदाज में श्रद्धांजलि दी है.
विद्रोही जेएनयू में रहते थे और जेएनयू उनमें रहता था. उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर में जन्मे रमा शंकर यादव पढ़ाई के लिए दिल्ली के इस विश्वविद्यालय में आए तो फिर यहीं के होकर रह गए. यहीं उन्हें विद्रोही उपनाम मिला और यहीं से उनकी कविताएं निकलीं. साहित्यिक हलकों में अनजान लेकिन छात्रों और कविता प्रेमियों के बीच मशहूर इस फक्कड़ कवि का आठ दिसंबर को 58 साल की उम्र में निधन हो गया.
सवाल उठाने वाली परंपरा की जो धारा जेएनयू की पहचान रही है विद्रोही उसके जीवंत प्रतीक थे. जेनएनयू में हर साल आने वाले एक चौथाई नए छात्रों के लिए वे पुराने संघर्षों की जीती-जागती मिसाल रहे. उनका जाना भी इस परंपरा के मोर्चे पर ही हुआ. वे वैसे ही गए जैसे जनकवि जाते हैं. मुट्ठियां ताने हुए.
उस दिन विद्रोही दिल्ली में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के दफ्तर के सामने सरकार की शिक्षा नीतियों के विरोध में हो रहे धरना-प्रदर्शन में शामिल होने पहुंचे थे. दोपहर बाद अचानक उनकी तबीयत बिगड़ने लगी. वहां पर मौजूद लोगों ने उन्हें फौरन अस्पताल पहुंचाया जहां डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया.
साहित्यिक हलकों में विद्रोही भले ही वे अनजान थे, लेकिन छात्रों और कविता प्रेमियों के बीच खासे मशहूर. वे कबीर और अदम गोंडवी की परंपरा के अनुयायी थे.
विद्रोही वाचक परंपरा के कवि थे. खुद को नाजिम हिकमत, पाब्लो नेरूदा और कबीर की परंपरा से जोड़ने वााले इस कवि को अपना रचनाकर्म जुबानी याद था. उन्होंने कभी अपनी कविताओं को लिखा नहीं. यह काम उनके मुरीदों ने किया. विद्रोही के ऐसे ही कुछ प्रशंसकों ने उन्हें एक अनूठे वीडियो के जरिये श्रद्धांजलि दी है. उनकी चार चर्चित कविताएं इस वीडियो का हिस्सा हैं.
इस वीडियो के सूत्रधार और दिल्ली आर्ट फाउंडेशन के संस्थापक प्रत्युष पुष्कर कहते हैं, ‘मैं भी जेएनयू में ही पढ़ा हूं. विद्रोही जी से बहुत करीब का नाता था. तीन साल पहले पढ़ाई पूरी करके वहां से निकल गया था. फिर अपने काम में व्यस्त हो गया. इस बीच कई बार सोचा, लेकिन उनसे मिलना नहीं हो पाया. फिर अचानक उनके जाने की खबर सुनी बहुत धक्का लगा. वे जितने सक्रिय रहते थे उसे देखते हुए सोचा नहीं था कि वे अचानक यूं चल देंगे.’ वे आगे कहते हैं, ‘मन में बहुत बेचैनी थी.
सभार - सत्याग्रह 

Wednesday, 2 December 2015

'अपाहिज' कहें या 'विकलांग' ?

सी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय | औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय ||
Speak in words so sweet, that fill the heart with joy
Like a cool breeze in summer, for others and self to enjoy

कबीर  का कहा मानते तो अपनी  बोली से किसी को कस्ट नहीं होता। शब्दों के सामाजिक , जातीय विश्लेषण से उनके अर्थ और घातक हो गये  हैं . 
कुछ शब्द किस हद तक आप को तकलीफ़ पंहुचा सकते हैं यह उनसे पूछे जिसके लिए यह बोला जाता हैं।  बाँझ , डायन , लुल्ला , लंगड़ा , अँधा , काली - कलुठी , विधवा , कुलटा । यह सभी शब्द " कलंक " की तरह होता हैं जिसका असर ताउम्र हैं।  BBC हिंदी का यह लेख इस मायने में अतिमहत्वपूर्ण हैं। 



जो व्यक्ति शारीरिक या मानसिक तौर पर विकलांग हैं उन्हें अपंग कहना सही है या अक्षम या निशक्त?
भारत सरकार ने 1995 में विकलांग जनों के अधिकार सुनिश्चित करने के लिए जब क़ानून बनाया तो उसे नाम दिया, ‘निशक्तजन अधिनियम 1995’.
पर समय के साथ विकलांग जनों ने इसपर आपत्ति जताई और अब नए क़ानून में वो ‘निशक्त’ नहीं ‘विकलांग जन’ कहलाना चाहते हैं.
पर आम बोलचाल की भाषा में विकलांग व्यक्तियों को उनकी विकलांगता से जुड़े कई अभद्र शब्दों से संबोधित किया जाता है, जबकि इनके बेहतर और सम्मानजनक विकल्प मौजूद हैं.



‘निशक्तजन अधिनियम 1995’ के तहत, केंद्र सरकार की तरफ़ से एक ‘मुख्य आयुक्त, निशक्त जन’ और राज्य सरकारों की तरफ़ से ‘आयुक्त, निशक्त जन’ की नियुक्ति की गई.
फिर भारत सरकार ने साल 2007 में संयुक्त राष्ट्र के ‘कनवेनशन ऑन द राइट्स ऑफ़ परसन्स विद डिसएबिलिटीज़’ पर हस्ताक्षर किए और इसमें ‘परसन्स विद डिसएबिलिटीज़’ यानि ‘विकलांग जन’ संबोधन के इस्तेमाल पर सहमति बनी.
जिसके बाद अब सरकार ने इन पदों के नाम बदलकर ‘मुख्य आयुक्त, विकलांग जन’ और ‘आयुक्त, विकलांग जन’ कर दिए हैं.
कनवेनशन में शब्दावली पर सहमति इसलिए बनाई गई क्योंकि दुनिया के अलग-अलग देशों में विकलांगता से जोड़कर अभद्र और रूढ़ीवादी संबोधन इस्तेमाल किए जाते हैं.



भारत के मौजूदा सरकारी क़ानून में उन लोगों को तो विकलांग माना जाता है जिन्हें सुनने में तकलीफ़ हो पर उन्हें नहीं जो बोल नहीं सकते.
समय के साथ बेहतर हुई समझ के मुताबिक़ अब नए क़ानून में ना बोल पाने की विकलांगता को अलग श्रेणी देने की मांग की गई है.
सुनने और बोलने से जुड़ी विकलांगता को अब ‘मूक-बधिर’ कहकर संबोधित किया जाना सही माना जाता है.



‘अंधा’ की जगह ‘नेत्रहीन’ शब्द का इस्तेमाल अब प्रचलन में है. इसके बावजूद कई स्कूल जिन्हें सरकार या निजी स्तर पर लोग चला रहे हैं, अब भी ‘अंध विद्यालय’ नाम रखते हैं.
टांगों या बाज़ू से जुड़ी किसी भी विकलांगता वाले व्यक्ति को ‘शारीरिक रूप से विकलांग’ और दिमाग़ से जुड़ी किसी प्रकार की विकलांगता वाले इंसान को ‘मानसिक रूप से विकलांग’ कहा जाने लगा है.
आम बोलचाल में ‘कोढ़ी’ शब्द भी अपमानजनक है और इसकी जगह ‘कुष्ठ रोगी’ को अब सही माना जा रहा है.



नए क़ानून पर काम कर रही संसद की स्थाई समिति ने ‘अलग क्षमता वाले लोग’ या ‘ख़ास क्षमता वाले लोग’ जैसे संबोधन के इस्तेमाल की बात कही है.
पर विकलांग जन इसे सही नहीं मानते और कहते हैं कि ये अहसान जताने जैसा है. उनके मुताबिक़ ‘विकलांग जन’ सम्मानजनक भी है और उनकी शारीरिक स्थिति को स्पष्ट भी करता है.
भारत में 2011 में हुई जनगणना के मुताबिक़ देश में ढाई करोड़ से ज़्यादा विकलांग जन हैं. इस जनगणना में देखने, सुनने, बोलने, चलने-फिरने, मानसिक बीमारी समेत आठ श्रेणियों की विकलांगता को शामिल किया गया है.
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