Wednesday, 17 June 2015

अरे , ओ पाखंडी मर्द !


दिन में सर्दिओं के जब नहाकर  सुखाती हूँ  बाल छत पर मैं , तो चली जाती है इज्जत तुम्हारी ,
नहाते हो सड़क किनारे चापाकल पर पहनकर अंडरपैंट तुम , तब क्या नहीं जाती इज्जत हमारी ?

गर्मिओं में  ठंडी हवा की तलाश में बिना दुपट्टा  दरवाजे तक जाती हूँ मैं , तो चली जाती है इज्जत तुम्हारी ,
सुस्ताते हो नीम के पेड़ की ठंडी छाँह में  खटिया पर  लपेट कर अंगोछा तुम , तब क्या नहीं जाती इज्जत हमारी ?

हंसती हूँ , खिलखिलाती हूँ सहेलिओं  के साथ  रख कर  कंधे पर हाथ मैं , तो चली जाती है इज्जत तुम्हारी ,
घूरते हो , देखते हो और देखते ही रहते हो दूर तक लड़किओं की छाती ,तब नहीं जाती क्या इज़्ज़त हमारी ?

सुखाती हूँ तार पर खुले में अपने अंडरगार्मेंट तब कहते हो बेशरम और चली जाती है इज़्ज़त तुम्हारी ,
मगर धोती हूँ पसारती हूँ तुम्हारे अंडरगार्मेंट्स उसी तार पर उसी तरह, तब  क्या नहीं जाती इज़्ज़त हमारी ?

क्या फर्क है तुम्हारे बनियान और हमारी ब्रा में , सिर्फ नाम का ? और शब्दों के इस फर्क में चली जाती है इज़्ज़त तुम्हारी ,
छूने की ताक में रहते हो तुम शरीर हमारा अँधेरे -उजाले,घर-बाहर, ऑटो में -बस में ,तब क्या नहीं जाती इज़्ज़त हमारी ?

पैदा होने से लेकर मरने तक , मायके से लेकर ससुराल तक बस इज़्ज़त तुम्हारी !! इज़्ज़त तुम्हारी !!
अरे , ओ पाखंडी मर्द ! सारी शर्म लिहाज सब हमारे पाले में , कही तो रखी  होती तूने भी इज़्ज़त हमारी !!!

मनीष


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