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Sunday, 16 October 2011
अन्न स्वराज
Tuesday, 11 October 2011
नाम में बहुत कुछ रखा है !
हाल के वर्षों में राज्यों, सार्वजनिक जगहों के नामों के प्रति हमारी सचेतनता व संवेदनशीलता में वृद्धि हुई है. परिणामस्वरुप बॉम्बे मुंबई, मद्रास चेन्नई, कलकत्ता कोलकाता उड़ीसा ओडिशा व कनॉट प्लेस अब राजीव चौक हो गया है. तथा और कई राज्यों जैसे भोपाल व असम में भी नाम परिवर्तन की मांग जोर पकड़ रही है.
इस प्रक्रिया के पीछे का मुखर तर्क यह है की ये ‘नाम’ औपनिवेशिक दासता के प्रतीक हैं तथा इन्हें अपनाना मानसिक गुलामी की निशानी है. अपने प्राचीन गौरव बोध व आत्मसम्मान के लिए इन गलतियों को सुधारना आवश्यक है. कुल मिला कर यह निष्कर्ष निकालता है कि ‘नाम’ महत्वपूर्ण है और इसका व्यक्ति, समूह और राष्ट्र की पहचान व आत्मसम्मान के साथ गहरा रिश्ता होता है.
प्रति वर्ष की भांति इस वर्ष के खेल व द्रोणाचार्य पुरस्कार कि घोषणा खेल मंत्रालय द्वारा की गयी. इस वर्ष का उत्कृष्ट खेल शिक्षक पुरस्कार पांच शिक्षकों को महामहिम राष्ट्रपति द्वारा गत २९ अगस्त को प्रदान किया गया.
उपरोक्त दोनों बातों में क्या सम्बन्ध है और मैं ये बातें यहाँ क्यों कह रही हूँ? हालांकि ऊपरी तौर पर इनमे कोई सम्बन्ध नहीं दिखता परन्तु यदि थोड़ा ध्यान से व गहराई देखें व सोचें तो यह सवाल स्वाभाविक रूप से उठता है कि क्या आज़ाद, प्रजातांत्रिक भारत में उत्कृष्ट खेल शिक्षक पुरस्कार का नाम द्रोणाचार्य पुरस्कार होना चाहिए ?
महाभारत में वर्णित द्रोणाचार्य व एकलव्य की कथा हम सबने सुनी है. इस कथा के अनुसार द्रोणाचार्य, कौरवों व पांडवों के राजगुरु ने एक जनजातीय बालक एकलव्य को धनुष चलाने की शिक्षा न देने के बावजूद गुरुदक्षिणा में उसका दाहिने हाथ का अँगूठा माँग लिया था ताकि वह कभी धनुष न चला पाए व अर्जुन की श्रेष्ठता को चुनौती न दे सके.
इस कहानी में जहाँ एकलव्य का अँगूठा काट कर दे देना एक शिष्य का गुरु के प्रति सम्पूर्ण समर्पण का प्रतीक है वहीं द्रोणाचार्य का कृत्य एक शिक्षक के सर्वोच्च आदर्श के विपरीत है.
निसंदेह द्रोणाचार्य का एक उत्कृष्ट शिक्षक रहे होंगे परन्तु क्या वह जनजातीय बालक एकलव्य के साथ हुए घोर अन्याय के भी प्रतीक नहीं हैं ?
क्या अब समय नहीं आ गया है कि हम केवल औपनिवेशिक काल के ‘नामों’ (अंग्रेजों द्वारा की गयी) की गलतियों को ही न सुधारें बल्कि और पीछे जाएँ तथा अतीत में हुई गलतियों के प्रतीक इन ‘नामों’ को बदलने का प्रयास करें.
क्या आज भारत के सर्वश्रेष्ठ खेल शिक्षक पुरस्कार के नाम पर पुनर्विचार की आवश्यकता नहीं है?
डॉ. मधु कुशवाहा
एसोशिएट प्रोफेसर
शिक्षा संकाय
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
वाराणसी, उत्तर प्रदेश
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Thursday, 6 October 2011
पुरुषों से ज्यादा काम करती महिलाएं
हिमालय क्षेत्र में प्रति हेक्टेअर प्रतिवर्ष एक पुरुष औसतन 1212 घंटे और एक महिला औसतन 3485 घंटे काम करती दिखती है .
हल चलाना शुरू कर दें, 100 फीसद श्रम की हकदार होंगी महिलाएं
फूड एंड एग्रीकल्चर ऑग्रेनाइजेशन (एफएओ-संयुक्त राष्ट्र) के हालिया अध्ययन से पता चला है कि हिमालयी क्षेत्र में प्रति हेक्टेअर प्रतिवर्ष एक पुरुष औसतन 1212 घंटे काम करता है, जबकि एक महिला औसतन 3,485 घंटे काम करती है यानी महिला व पुरुष के काम का अनुपात 294 : 101 है।
कृषि में महिलाओं का योगदान 60 से 80 फीसद व अन्य गतिविधियों में 70 से 80 फीसद तक है।
अध्ययन में महिलाओं को मिलने वाले मानदेय पर भी चिंता व्यक्त की गयी है। महिलाओं के श्रम को बराबरी की अहमियत नहीं मिल रहा है। अध्ययन कहता है कि महिलाओं की मौजूदगी पलायन रोकने के साथ सामाजिक ताने-बाने को बिखरने से बचाने के भी काम आती है क्योंकि महिलाएं ही बुजुगरे व बच्चों की देखभाल करती हैं।
कृषि में सबसे अधिक भागीदारी हिमाचल की, उसके बाद उत्तराखंड का नंबर आता है। बांस आधारित उद्योगों के आधार पर उत्तर-पूर्वी राज्यों- नगालैंड व मिजोरम आदि की महिलाओं को सर्वाधिक प्रगतिशील माना गया है। इस काम से कम श्रम देकर अधिक आय हासिल की जा सकती है।
अध्ययन में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद व नेशनल सैंपल सव्रे ऑफिस (एनएसएसओ) के आंकड़ों का भी हवाला दिया गया है। इसके मुताबिक, 23 राज्यों में कृषि, वानिकी और मछली पालन में कुल श्रम- शक्ति का 50 फीसद भाग महिलाओं का है। छत्तीसगढ़, बिहार और मध्य प्रदेश की महिलाएं श्रम में बढ़े हिस्से की साझीदार हैं। पंजाब, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु व केरल में यह अनुपात 50 से कम है। बुवाई-रोपाई-कटाई तक का दारोमदार महिलाओं पर है।
सामान्यत: अस्थायी रोजगार के वास्ते प्रवास पर गए पुरुष जुताई के समय गांव आते हैं लेकिन बाकी समय महिलाएं ही खेती का काम करती हैं। वे हल चलाना भी शुरू कर दें तो उनकी भागीदारी सौ प्रतिशत हो जाएगी।
पर्वतीय क्षेत्रों में जंगली सूअर, बंदर और लंगूरों का आतंक है इसीलिए फसलों की रक्षा के रूप में भी महिलाओं का योगदान है। अध्ययन यह भी सुझाव देता है कि यदि महिलाओं को आधुनिक उपकरण व वैज्ञानिक सलाह दी जाए तो न सिर्फ श्रम व समय की बचत होगी बल्कि उत्पादन भी बढ़ाया जा सकता है। खासकर, दुधारू पशुओं के बारे में कहा गया है कि महिलाओं की दिनचर्या का ज्यादातर समय चारा खिलाने, चारा लाने, दूध निकालने व पशुधन की साफ-सफाई में लग जाता है, लेकिन उस मात्रा में दूध का उत्पादन नहीं होता। अत्यधिक श्रम के कारण महिलाओं की सेहत ठीक नहीं रहती। अधिकतर महिलाओं में एनीमिया की शिकायत है।
साभार :- सुनीता भास्कर
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