Sunday, 16 October 2011

अन्न स्वराज


वंदना शिवा
Story Update : Tuesday, July 19, 2011    8:29 PM
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भोजन का अधिकार जीने के अधिकार से जुड़ा हुआ है और संविधान का अनुच्छेद 21 सभी नागरिकों को जीने का अधिकार प्रदान करता है। इस लिहाज से प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक स्वागतयोग्य है। पिछले दो दशकों में भारत में भूख एक बड़ी समस्या के रूप में उभरी है। 1991 में जब आर्थिक सुधार कार्यक्रम शुरू किए गए थे, तब प्रति व्यक्ति भोजन की खपत 178 किलोग्राम थी, जो 2003 में 155 किलोग्राम रह गई। आबादी में सबसे निचले क्रम के 25 फीसदी लोगों की वर्ष 1987-88 में रोजाना खपत 1,683 किलो कैलोरी थी, जो 2004-05 में 1,624 किलो कैलोरी रह गई। जबकि शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के मानक क्रमशः 2,400 और 2,011 किलो कैलोरी रोजाना हैं। ये आंकड़े खाद्य सुरक्षा के मोरचे पर आपात उपाय की जरूरत को रेखांकित करते हैं।

हालांकि खाद्य सुरक्षा से संबंधित विधेयक के मसौदे में बड़े खाद्य संकट को नजरंदाज कर दिया गया है और इसमें सारा ध्यान पहले से सीमित लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर केंद्रित किया गया है। खाद्य सुरक्षा के तीन प्रमुख अंग हैं, पारिस्थितिकीय सुरक्षा, खाद्य संप्रभुता और खाद्य सुरक्षा। खाद्य उत्पादन के लिए भूमि, जल और जैव विविधता तीन प्राकृतिक पूंजी मानी जाती हैं, लेकिन इनमें से प्रत्येक गंभीर संकट में है। कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण किसानों के साथ अन्याय तो है ही, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा के लिए खतरा भी है। यदि उर्वर भूमि नहीं रहेगी, तो फसलों का उत्पादन भी प्रभावित होगा। बीजों की हमारी संपदा को वैश्विक निगमों को सौंपा जा रहा है, जिससे जैव विविधता प्रभावित हो रही है और किसानों के अधिकारों का हनन हो रहा है। बीज संप्रभुता के बिना खाद्य संप्रभुता संभव नहीं है।

मौसम चक्र में परिवर्तन की वजह से हम तेजी से पारिस्थितिकीय सुरक्षा के मामले में असुरक्षित होते जा रहे हैं। इसी कारण पारिस्थितिकी सुरक्षा और लचीलापन प्रदान करने वाली पारिस्थितिकी खेती खाद्य सुरक्षा के लिए आवश्यक हो गई है। खाद्य और कृषि पर ग्लोबल एग्रीबिजनेस के कब्जे और विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के पक्षपाती नियमों की वजहों से हम अपनी खाद्य संप्रभुता खोते जा रहे हैं। इसलिए खाद्य सुरक्षा में निष्पक्ष व्यापार और डब्ल्यूटीओ में सुधार आवश्यक है।

जीएमओ और रासायनिक तरीके से संवर्द्धित भोजन को बढ़ावा देने से हमारा भोजन असुरक्षित होता जा रहा है। खाद्य सुरक्षा समिति में बहुराष्ट्रीय निगमों के बढ़ते प्रभावों से नागरिक खाद्य सुरक्षा के अधिकार से वंचित होते जा रहे हैं। सुरक्षित भोजन के बिना खाद्य सुरक्षा संभव नहीं है। आप तब तक लोगों को भोजन मुहैया नहीं करा सकते, जब तक कि आप सबसे पहले पर्याप्त मात्रा में खाद्य उत्पादन सुनिश्चित न कर लें। और खाद्यान्न उत्पादन सुनिश्चित करने के लिए खाद्यान्न उत्पादकों यानी कृषकों के जीवन यापन के संसाधनों को सुरक्षित रखना होगा। असल में खाद्यान्न पैदा करने का किसानों का अधिकार खाद्य सुरक्षा की दिशा में पहला कदम है। इसी से खाद्य संप्रभुता की अवधारणा ने जन्म लिया है, जिसे हम अन्न स्वराज कह सकते हैं।

खाद्य संप्रभुता सामाजिक-आर्थिक मानवाधिकार से उत्पन्न हुई है, जिसमें भोजन का अधिकार और ग्रामीण आबादी के लिए खाद्यान्न उत्पादन का अधिकार शामिल है। यदि किसी देश की आबादी को अपने अगले समय के भोजन के लिए अनिश्चितताओं और वैश्विक अर्थव्यवस्था में हो रहे उतार-चढ़ाव, भोजन को हथियार के बतौर इस्तेमाल न करने की किसी महाशक्ति की सद्भावना या महंगे परिवहन की वजह से बढ़ती कीमत पर निर्भर रहना पड़े, तब तो वह देश न तो राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से और न ही खाद्य सुरक्षा के लिहाज से सुरक्षित होगा। इसलिए खाद्य संप्रभुता का मतलब खाद्य सुरक्षा से भी कहीं आगे है। इसके लिए जरूरी है कि गांव में लोगों के पास उर्वर जमीन हो और उन्हें फसलों का उचित दाम मिले, ताकि वे लोगों का पेट भरते हुए खुद भी सम्मानजनक तरीके से जीवन यापन कर सकें।

हमारी दो तिहाई आबादी खेती और खाद्यान्न उत्पादन से जुड़ी हुई है। हमारे छोटे किसान देश के लिए खाद्यान्न पैदा करते हैं और 1.21 अरब लोगों को खाद्य सुरक्षा मुहैया कराते हैं। पर पिछले एक दशक के दौरान दो लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या कर ली। जब हमारे खाद्यान्न उत्पादक ही नहीं बचेंगे, तो राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा का क्या होगा? खाद्य उत्पादकों की उपेक्षा भारत इसलिए भी बर्दाश्त नहीं कर सकता, क्योंकि हमारा ग्रामीण समुदाय भुखमरी के गहरे संकट से जूझ रहा है। दुनिया भर में भूख का शिकार आधे लोग खाद्य उत्पादन से ही जुड़े हैं। इसका संबंध बढ़ती लागत, बढ़ते रासायनिक उपयोग और हरित क्रांति के रूप में पेश की गई खाद्यान्न उत्पादन की महंगी प्रणाली से है। लिहाजा, किसान कर्ज में डूब जाते हैं और फिर वे जो कुछ भी पैदा करते हैं, उसे कर्ज चुकाने के लिए बेच डालते हैं।

कृषि उत्पादन से जुड़े समुदाय की भूख की समस्या का समाधान एग्रो इकोलॉजी के सिद्धांत पर आधारित कम लागत वाली टिकाऊ कृषि उत्पादन के रूप में हो सकता है। पारिस्थितिकीय (ऑर्गेनिक) खेती महंगी नहीं है, बल्कि यह खाद्य सुरक्षा की अनिवार्यता है। हमारी ‘हेल्थ पर एकड़’ रिपोर्ट दिखाती है कि पारिस्थितिकी खेती के जरिये हम दो भारत का पेट भर सकते हैं।
वंदना शिवा :-  (लेखिका चर्चित कृषि वैज्ञानिक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं .  )



Tuesday, 11 October 2011

नाम में बहुत कुछ रखा है !




हाल के वर्षों में राज्यों, सार्वजनिक जगहों के नामों के प्रति हमारी सचेतनता व संवेदनशीलता में वृद्धि हुई है. परिणामस्वरुप बॉम्बे मुंबई, मद्रास चेन्नई, कलकत्ता कोलकाता उड़ीसा ओडिशा व कनॉट प्लेस  अब राजीव चौक हो गया है. तथा और कई राज्यों जैसे भोपाल व असम में भी नाम परिवर्तन की मांग जोर पकड़ रही है.

इस प्रक्रिया के पीछे का मुखर तर्क यह है की ये नाम औपनिवेशिक दासता के प्रतीक हैं तथा इन्हें अपनाना मानसिक गुलामी की निशानी है. अपने प्राचीन गौरव बोध व आत्मसम्मान के लिए इन गलतियों को सुधारना आवश्यक है. कुल मिला कर यह निष्कर्ष निकालता है कि ‘नाम’ महत्वपूर्ण है और इसका व्यक्ति, समूह और राष्ट्र की पहचान व आत्मसम्मान के साथ गहरा रिश्ता होता है.       
प्रति वर्ष की भांति इस वर्ष के खेल व द्रोणाचार्य पुरस्कार कि घोषणा खेल मंत्रालय द्वारा की गयी. इस वर्ष का उत्कृष्ट खेल शिक्षक पुरस्कार पांच शिक्षकों को महामहिम राष्ट्रपति द्वारा गत २९ अगस्त को प्रदान किया गया.

उपरोक्त दोनों बातों में क्या सम्बन्ध है और मैं ये बातें यहाँ क्यों कह रही हूँ? हालांकि ऊपरी तौर पर इनमे कोई सम्बन्ध नहीं दिखता परन्तु यदि थोड़ा ध्यान से व गहराई देखें व सोचें तो यह सवाल स्वाभाविक रूप से उठता है कि क्या आज़ाद, प्रजातांत्रिक भारत में उत्कृष्ट खेल शिक्षक पुरस्कार का नाम द्रोणाचार्य पुरस्कार होना चाहिए ?

महाभारत में वर्णित द्रोणाचार्य व एकलव्य की कथा हम सबने सुनी है. इस कथा के अनुसार द्रोणाचार्य, कौरवों व पांडवों के राजगुरु ने एक जनजातीय बालक एकलव्य को धनुष चलाने की शिक्षा न देने के बावजूद गुरुदक्षिणा में उसका दाहिने हाथ का अँगूठा माँग लिया था ताकि वह कभी धनुष न चला पाए व अर्जुन की श्रेष्ठता को चुनौती न दे सके.

इस कहानी में जहाँ एकलव्य का अँगूठा काट कर दे देना एक शिष्य का गुरु के प्रति सम्पूर्ण समर्पण का प्रतीक है वहीं द्रोणाचार्य का कृत्य एक शिक्षक के सर्वोच्च आदर्श के विपरीत है.

निसंदेह द्रोणाचार्य का एक उत्कृष्ट शिक्षक रहे होंगे परन्तु क्या वह जनजातीय बालक एकलव्य के साथ हुए घोर अन्याय के भी प्रतीक नहीं हैं ?

क्या अब समय नहीं आ गया है कि हम केवल औपनिवेशिक काल के ‘नामों’ (अंग्रेजों द्वारा की गयी) की गलतियों को ही न सुधारें बल्कि और पीछे जाएँ तथा अतीत में हुई  गलतियों के प्रतीक इन ‘नामों’ को बदलने का प्रयास करें.

क्या आज भारत के सर्वश्रेष्ठ खेल शिक्षक पुरस्कार के नाम पर पुनर्विचार की आवश्यकता नहीं है?

डॉ.  मधु कुशवाहा
एसोशिएट प्रोफेसर
शिक्षा संकाय
काशी  हिन्दू विश्वविद्यालय
वाराणसी, उत्तर प्रदेश
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 साथी लोग ,लेख को पढ़ कर अपनी प्रतिक्रिया मधु जी तक जरूर पंहुचाए , ई-मेल का पता है:- mts.kushwaha@gmail.com
          

Thursday, 6 October 2011

पुरुषों से ज्यादा काम करती महिलाएं


हिमालय क्षेत्र में प्रति हेक्टेअर प्रतिवर्ष एक पुरुष औसतन 1212 घंटे और एक महिला औसतन 3485 घंटे काम करती दिखती है .
हल चलाना शुरू कर दें, 100 फीसद श्रम की हकदार होंगी महिलाएं

फूड एंड एग्रीकल्चर ऑग्रेनाइजेशन (एफएओ-संयुक्त राष्ट्र) के हालिया अध्ययन से पता चला है कि हिमालयी क्षेत्र में प्रति हेक्टेअर प्रतिवर्ष एक पुरुष औसतन 1212 घंटे काम करता है, जबकि एक महिला औसतन 3,485 घंटे काम करती है यानी महिला व पुरुष के काम का अनुपात 294 : 101 है। 
कृषि में महिलाओं का योगदान 60 से 80 फीसद व अन्य गतिविधियों में 70 से 80 फीसद तक है।

 अध्ययन में महिलाओं को मिलने वाले मानदेय पर भी चिंता व्यक्त की गयी है। महिलाओं के श्रम को बराबरी की अहमियत नहीं मिल रहा है। अध्ययन कहता है कि महिलाओं की मौजूदगी पलायन रोकने के साथ सामाजिक ताने-बाने को बिखरने से बचाने के भी काम आती है क्योंकि महिलाएं ही बुजुगरे व बच्चों की देखभाल करती हैं।

 कृषि में सबसे अधिक भागीदारी हिमाचल की, उसके बाद उत्तराखंड का नंबर आता है। बांस आधारित उद्योगों के आधार पर उत्तर-पूर्वी राज्यों- नगालैंड व मिजोरम आदि की महिलाओं को सर्वाधिक प्रगतिशील माना गया है। इस काम से कम श्रम देकर अधिक आय हासिल की जा सकती है।

 अध्ययन में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद व नेशनल सैंपल सव्रे ऑफिस (एनएसएसओ) के आंकड़ों का भी हवाला दिया गया है। इसके मुताबिक, 23 राज्यों में कृषि, वानिकी और मछली पालन में कुल श्रम- शक्ति का 50 फीसद भाग महिलाओं का है। छत्तीसगढ़, बिहार और मध्य प्रदेश की महिलाएं श्रम में बढ़े हिस्से की साझीदार हैं। पंजाब, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु व केरल में यह अनुपात 50 से कम है। बुवाई-रोपाई-कटाई तक का दारोमदार महिलाओं पर है।

 सामान्यत: अस्थायी रोजगार के वास्ते प्रवास पर गए पुरुष जुताई के समय गांव आते हैं लेकिन बाकी समय महिलाएं ही खेती का काम करती हैं। वे हल चलाना भी शुरू कर दें तो उनकी भागीदारी सौ प्रतिशत हो जाएगी। 

पर्वतीय क्षेत्रों में जंगली सूअर, बंदर और लंगूरों का आतंक है इसीलिए फसलों की रक्षा के रूप में भी महिलाओं का योगदान है। अध्ययन यह भी सुझाव देता है कि यदि महिलाओं को आधुनिक उपकरण व वैज्ञानिक सलाह दी जाए तो न सिर्फ श्रम व समय की बचत होगी बल्कि उत्पादन भी बढ़ाया जा सकता है। खासकर, दुधारू पशुओं के बारे में कहा गया है कि महिलाओं की दिनचर्या का ज्यादातर समय चारा खिलाने, चारा लाने, दूध निकालने व पशुधन की साफ-सफाई में लग जाता है, लेकिन उस मात्रा में दूध का उत्पादन नहीं होता। अत्यधिक श्रम के कारण महिलाओं की सेहत ठीक नहीं रहती। अधिकतर महिलाओं में एनीमिया की शिकायत है। 

साभार :- सुनीता भास्कर