मर्दों के लिए तो पूरी दुनिया हीं शौचालय है, मूत्रालय है ! जब लगा - जहाँ लगा मूत लिए हग लिए वो लोग। दिक्कत तो हम लड़किओं और औरतो के लिए हैं जिन्हे सूरज डूबने का इंतज़ार करना पड़ता है।
अंधेरा हो तो समूह में हम लड़किआं जा कर हल्का हो लेते हैं। जगह भी कहाँ - सड़क पर , सड़क के नीचे पगडण्डी पर , खेत में !! वहां भी आदमी लोग अपने गाड़ी , मोटरसाइकिल का लाइट नीचे कर देते हैं और हम लोगों को शौच के बीच में अचानक हीं उठ जाना पड़ता है। बहुत तकलीफ होता है और गुस्सा आता है. पर मर्दों की दुनिया !! हमे बेज्जत करने का मौका कभी नहीं छोड़ते। ऐसा नहीं है कि हम लोग दिन के उजाले में शौच नहीं कर सकते हैं !! कर सकते हैं पर लोग घूरते हैं, घूरते ही रहते हैं ! वो बुरे नहीं होते तब !! पर हमे बेशरम , बुरा और बच्चलन बना दिए जाता है दिन में शौच करने के कारण। भैया आप बोल रहे हो कि पेशाब और टट्टी को शरीर से निकाल कर इंसान स्वस्थ रह सकता है पर लड़कियां और औरतों को लोग इंसान कहाँ समझते !! हमारे घर में शौचालय प्राथमिकता में है हीं नहीं , इस लिए बना नहीं । दिन में घर से बाहर जा नहीं सकते पेसाब करने को - लोक -लाज के कारण। अभी गेहूँ कट गया है , खेत पूरा यहाँ से वहां दिख रहा है कोई घेरा हुआ जगह नहीं है। इस गर्मी में चाह कर भी मन भर पानी नहीं पीते कि कही पेशाब लग गया तो कहाँ करने जायँगे ? पेशाब लग गया अगर तो रखे रहो पेशाब को शरीर में अँधेरा होने तक ! होगी हीं हमे बीमारी ,पेशाब वाली बीमारी। हद तो बरसात के दिनों में होती है जब पूरे खेत पानी से भरे होते हैं ,बचता है गावों की पगडण्डी और रास्ते। वहां भी भीड़ और पहले से गन्दगी। ऊपर से हम लोग कभी -कभी पानी का बोतल या पानी से भरा लोटा नहीं ले जाते ,क्यों कि लोग हम सब पर हँसते हैं ताने मारते हैं और मजाक उड़ाते हैं। कौन चाहता है कि उस का मज़ाक उड़े !? बदनामी हो !! इस लिए बिना पानी लिए हम शौच को जाते हैं और घर आ कर सफाई करते हैं अपनी। पता है भैया अधिकतर लड़किओं के घर पर नहाने -धोने की जगह घेरी हुई नहीं है तो शरीर की सफाई अधूरी हीं कर पाती हैं वो सब । तो बीमारी भी तो हमे हीं होगी ना ! लोग मिल कर धर्म ,आस्था ,पुण्य कमाने के लिए क्या क्या नहीं बनाते हम तो बोल रहे हैं कि मिल कर शौचालय बनाने की भी सोचनी चाहिए !! सरकार जो मदद दे रही है शौचालय के लिए उसे भी देखिए , इतना छोटा और सकरा होता है की उठने -बैठने में दिवाल से टकड़ा जाते हैं लोग ,यह जगह हवादार नहीं होता कुल मिला कर उस में जाने का मन नहीं करता है । साफ़- सफाई के लिए और टट्टी इकट्ठा करने के लिए जमीन के अंदर बनी टंकी हफ्ते भर में भर जाती है। यही सब कारण है कि शौचालय बने भी है तो भी लोग प्रयोग में नहीं ला रहे। उपले , भूसा और चारा रखने के काम आता है वो जगह। और हमेसा की तरह भुगतना लड़किओं और औरतों को पड़ता है। पर हम स्वस्थ्य रहना चाहते है। घर में हमे हीं शौचालय को प्राथमिक जरूरतों में शामिल करना होगा या दवाब दे कर करवाना होगा। आदमी लोग पेशाब रोके रहने के मानसिक तनाव से गुजरते नहीं तो वो क्या आवाज़ उठायेंगे। चंदा मांग कर चंदा दे कर पूजा का पंडाल बना लेंगे वो लोग पर हमारे शौचालय के लिए फूटी कौड़ी नहीं।
महज़ शौचालय जाना एक लड़की के लिए कितना घातक हो सकता है, यह तब सामने आया जब यह सुनने और पढ़ने में आता है कि रात को खेत गईं दो लड़कियों का कथित छेड़छाड़ , सामूहिक बलात्कार और हत्या कर दी जाती है। अब बाहर शौचालय जाने से हमारी सुरक्षा भी खतरे में आ गयी है। घर में भी अशुरक्षित और बाहर तो और भी।
लेकिन भारत के गांवों में शौच के लिए खेत जाना आम है.
शर्म और संकोच के चलते, वहां लड़कियां और महिलाएं तड़के सुबह और देर शाम ही खेत जाती हैं.
चाहे अनचाहे मानो यह समय उनके लिए आरक्षित हो. किसी भी शहर से गावों जाने के रास्ते में तड़के सुबह यह नज़ारा आम है।
शौच के लिए सुबह-रात का नियम इस में भी आदमिओं और लड़कों का डर 16 साल की लड़की चर्चा के दौरान बताया कि इस दौरान भी लड़के छेड़खानी के लिए आ जाते हैं, इसलिए हम सब का एक साथ जाना ज़रूरी है.
चर्चा में आयीं समूह की औरत बोली, “हम इधर-उधर कहीं नहीं जाते, सीधा खेत और फिर वापस, और वह भी किसी के साथ ही जाते हैं.” बेटी बहु सब साथ जाती हैं जब तक ये लोग मैदान कर के घर नहीं पहुंच जाती जान अटकी रहती है। जमाना इतना ख़राब जो हो गया है।
सोंच कर देखो भैया ! महसूस तो कर नहीं पाओगे आप !! दिन के 14-15 घंटे टट्टी - पेसाब करने की सुविधा का न होना बहुत तकलीफ़देह होता है।
हम सब में से किसी का अगर पेट ख़राब हो और दस्त लग जाय तो सुबह-रात का नियम तोड़ दिन में खेत जाना पड़ता है या अंधेरा होने का इंतज़ार करना पड़ता है। बरसात और जाड़े के दिनों में तो मिट्टी के बड़े घड़े या तसले में टट्टी करनी पड़ जाती है। ताकि लड़कियों को दिन में खेत न जाना पड़े.
बार-बार इस्तेमाल से तसला गंदा हो जाता है तो उसे जल्द फेंक दिया जाता है।
मेरे पूछने पर कि जब सबको इतनी तकलीफ़ है तो घर में शौचालय क्यों नहीं बनवाते? तो लड़किओं ने बताया कि तकलीफ़ दरअसल ‘सबको’ नहीं है. "सबको" में लड़के और आदमी के अलावा कुछ परिवार जिसमे उनके कुछ सदस्य कमाने बाहर गये और गावों में आने पर उन्होने शौचालय बनवा लिया। पर इस तरह का परिवार गावों में 10 - 15 हीं होंगे।
लड़किओं के मुताबिक़ पुरुष तो शौच के लिए कहीं भी जा सकते हैं, दिक़्क़त सिर्फ़ महिलाओं की है.
मुद्दा ग़रीबी है या पैसे ख़र्च करनेवाले की प्राथमिकता का ?
पुरुष प्रधान समाज में एक मुश्किल यह भी है कि
लड़किओं और महिलाओं की इस दिक़्क़त को समझने वाले कम हैं.
चर्चा में निकला कि शौचालय और सोख्ता बनाने में कम से कम 10,000 रुपए का ख़र्च आता है. दिहाड़ी मजदूर और जिस का परिवार बड़ा हो तो उनके पास इतने पैसे एक बार तो होते नहीं तो कहाँ से वो शौचालय के बारे में सोंचे ? ऊपर से घर में कहाँ शौचालय और सोख्ता होना चाहिए इस पर पड़ोसी से झगड़ा होने का खतरा होता है। मानसिकता भी यह है की दरवाजा पर शौचालय नहीं होना चाहिए। इन्ही सब कारणों से घर की प्राथमिकता में शौचालय नहीं हो पाता है जिस का खामियाजा हमे जीवन भर भुगतना पड़ता है या तो बीमार रह कर या तो इज्जत गवां कर।
अजीब सा तर्क मुझे नहीं भाता ! गावों में जिन घरों मे शौचालय नहीं है उन्ही घरों में टेलीविज़न, डिश की छतरियां और जगह-जगह मोटरबाइक और गाड़ियां खड़ी दिखती हैं. ऊपर से भारत सरकार शौचालय बनाने के लिए पंचायती राज्य में गावों को वित्तीय सहायता देती है पर इस सहायता की व्यवहारिकता को जाँचने पर यह लगा कि पंचायत यह पूछता नहीं कि शौचालय जरूरी है कि नहीं ? लाभार्थी से शौचालय को किस प्रकार उपयोग में लाना है , प्रयोग के तरीका पर कोई बात नहीं होती । निर्मल भारत अभियान और सम्पूर्ण स्वक्षता अभियान से शौचालय की संख्या में फर्क तो पड़ रहा है पर इसके इस्तमाल की प्रक्रिया , लोगों की शौचालय के प्रति मानसिकता पर अभी खूब काम करने की जरुरत है। बात उस नजरिए की भी है कि शौचालय को साफ़ कौन करेगा ? टट्टी बाहर कर आए तो जगह सफाई की जिम्मेदारी नहीं होती पर घर के शौचालय को साफ़ भी रखना है ताकि बीमारी ना हो। और फिर सफाई की जिम्मेदारी महिलाओं पर आन पड़ेगी क्यों की पुरुष तो घर की सफाई करता नहीं। एक महिला साथी से चर्चा में यह आया कि अधिकतर लोग यह सोचते हैं कि सफाई कोई बाहर का आ कर करे , सच्चाई यह भी है कि लोग बने शौचालय का उपयोग भी नहीं कर रहे तो सफाई की बात तो उसके बाद हीं आएगी ना !!
अब बेटी वाले हीं दें ससुराल में शौचालय बनाने का खर्चा - हद है !!
लड़कों के साथ चर्चा करने पर वह खुद बताते हैं कि सुख-सुविधा के ये साधन ज़्यादातर दहेज में आते हैं तो बेटी के इस घर के लिए यह खर्च भी मायके वालों को उठा लेना चाहिए।
आगे लड़के बोलते हैं की अफसोश ! दहेज में कोई बेटी के लिए शौचालय बनवाने का ख़र्च नहीं देता.
घरों में आराम के साधन ख़रीदे जाते हैं, बेटी -बहु के लिए सोना - चांदी झुमके खरीदे जाते हैं पर शौचालय पर ख़र्च नहीं किया जाता.
लड़कियां कहती हैं, “ घर के आदमी कहते हैं कि इतने पैसे नहीं बचते कि साफ़ - सुथरा शौचालय बनाया जाय. और हम यदि ज़िद करें, तो चुप करा दिया जाता है.”
यही चुप्पी तो अब तक हम लड़किओं को बीमार कर रही है पर अब नहीं ! हमे शिक्षा और शौचालय दोनों चाहिए।
नोट - जेंडरगत भेदभाव और महिला स्वास्थ्य विषय पर चर्चा के दौरान निकले बातों का संकलन है।