Monday, 30 July 2012

सीटी बजी खलबली मची

जी से मेरी मुलाक़ात निरंतर , Delhi द्वारा आयोजित एक प्रशिक्षण मे हुई  थी . उनकी हिंदी भाषा पर  समझ का मै  कायल हूँ . उन के ब्लॉग  मनमाफ़िक  से हीं मै  ने यह कविता लिया है . घरेलू और सामाजिक   भेदभॎव  और  हिंसा के बिरोध मे और पारिवारिक और सामाजिक सभी मूल्ल्यों के खिलाफ़ जो किसी को हूनर सिखने से रोके .

 


क थी चंचल राजकुमारी
     महलों की रौनक सब की दुलारी l
        शौक था उसका सीटी बजाना
               मीठी धुन में गाना गाना ll

         राजा रानी को चिंता सताती 
           सीटी की धुन कभी न भाती l
        लड़की की जाति है उसने पाई 
          फिर भी लाज कभी ना आई ll 

               ब्याह इससे कौन रचाए 
         आखिर इसको कौन समझाए l
       तभी दिमाग में सूझी एक चाल 
        मुकाबला करवाएं हम तत्काल ll

        इससे बढ़िया जो सीटी बजाए 
               ब्याह वह उसी से रचाए l
              आधा राज इनाम में पाए 
         शान से अपना जीवन बिताए ll

          दूर-दूर से राजकुमार थे आए
              सीटी पर धुन खूब सुनाए l
        सीटी बजा कर मुंह भी फुलाए
फिर भी राजकुमारी को हरा न पाए ll

       चमक उठे राजकुमारी के नयन
              मुस्कुराई वह मन ही मन l
             होंठ दबाती हंसी छिपाती
      झुक कर राजकुमारों को सुनाती ll

             गाल फुला कर पेट फुलाया
         सीटी पर इतना जोर लगाया l
            शादी पर यूँ दिल ललचाया
      फिर भी कोई मुझे हरा न पाया ll

           राजकुमार थे हार से परेशान
           मिट गई थी अब उनकी शान l
लगता है,राजकुमारी को जादू है आता
               वरना हमको कौन हराता ?

    तभी बढ़ कर बोला एक राजकुमार
                    मान गया मैं तुमसे हार l
            कितनी बढ़िया सीटी बजाती
             धुन में मुझको तुम उलझाती ll

         सच्चाई सुन सब रह गए हैरान
   खुशी से राजकुमारी ने किया ऐलान l
            हार मानने से यह न कतराए
                 सच्ची बात से न घबराए ll

                      अहंकार नहीं है इसमें
                    शादी करूँगी मैं इसी से ll



रचनाकार - सुनीति नामजोशी
मूल         -  फेमिनिस्ट फेबल्स 
किताब    -   बोलती है भाषा
काव्य रूपांतरण - आरती श्रीवास्तव 
प्रकाशक - निरंतर, दिल्ली, 2002

नारीवादी सिद्धांतों की बात कथा से कविता में और अपनी ज़िन्दगी में लानेवाली आरती को याद करते हुए जिसने छंद और लय से ज़्यादा भावना की परवाह की है...




Monday, 9 April 2012

एक लड़का मिलने आता है


                                                                     एक लड़का मिलने आता है


क लड़का मिलने आता है
उस लड़की से कुछ शाम ढले
कुछ ऐसी कशिश इस शाम में है
इस फितरत के इनआम में है
ये हल्का अँधेरा, हल्की ख़लिश
जिसमें जज़्बों का राज़ पले
एक लड़का मिलने आता है
उस लड़की से कुछ शाम ढले

वो बन्द कमरे में होते हैं
वो हँसते हैं या रोते हैं
उनकी बातों की शाहिद है
जो एक लरज़ती शम्अ जले
एक लड़का मिलने आता है
उस लड़की से कुछ शाम ढले

बातें करते खो जाता है
लड़का ग़मगीं हो जाता है
लड़की डरती है मुस्तक़बिल
शायद गहरी इक चाल चले
एक लड़का मिलने आता है
उस लड़की से कुछ शाम ढले

क़स्बे के शरीफ़ इन हल्क़ों में 
ग़ुस्सा है मगर इन लोगों में
इनके भी घर में लड़की है
क्यूँ इश्क़ का ये व्योपार चले
एक लड़का मिलने आता है
उस लड़की से कुछ शाम ढले

अब कैसे कहूँ इन दोनों से
एक प्यार में डूबे पगलों से
बस्ती से बाहर इश्क़ करें
बस्ती के दिल में खोट पले
एक लड़का मिलने आता है
उस लड़की से कुछ शाम ढले

जो कुछ भी है दुनिया का है 
फिर दिल का क्यूँ ये धंधा है
क्यूँ सदियों से मिलते हैं दिल
दुनिया में जब-जब शाम ढले
क्यूँ लड़का मिलने आता है
उस लड़की से कुछ शाम ढले


1.आकर्षण, 2.प्रकृति, 3.पुरस्कार, 4.गवाह, 5.काँपती, 6.भविष्य।

आशुतोष भाई के पोस्ट से :-संजय कुंदन की एक कविता