Wednesday, 1 May 2024

 

आज 1 मई 2024 है..! एक मई, यानी मजदूर दिवस।

  रोजा लक्जमबर्ग ने कहा था, ‘ जिस दिन औरतों के श्रम का हिसाब होगा, इतिहास की सबसे बड़ी धोखाधड़ी पकड़ी जाएगी। हजारों वर्षों का वह अवैतनिक श्रम, जिसका न कोई क्रेडिट मिला, न मूल्य।’ 

हम जब भी श्रम , मेहनत   की बात करते हैं तो मर्द - आदमी का ख्याल आता है। आप सब ने सड़क किनारे , काम की जगहों  पर वह बोर्ड लगा देखा होगा, ‘मेन एट वर्क’," MEN AT WORK "  कहीं नहीं लिखा होता, ‘ वुमेन एट वर्क ’ या "  LGBTQIA+ एट वर्क "   । चाहे साइट पर काम कर रही मजदूर और इंजीनियर, दोनों औरतें ही क्यों न हों। मजदुर दिवस पर महिलाओं और अलग - अलग पहचान के लोगों ( LGBTQIA+: Abbreviation for Lesbian, Gay, Bisexual, Transgender, Queer, Intersex, and Asexual. The additional “+” stands for all of the other identities not encompassed in the short acronym. An umbrella term that is often used to refer to the community as a whole.)  की मेहनत सामने नही आती ! 

 काम यानी मर्दानगी की बात।

पूरी दुनिया की सारी औरतों का समूचा मुफ्त घरेलू श्रम, जिसकी उन्‍हें कोई तंख्‍वाह नहीं मिलती, वह दुनिया के 50 सबसे ताकतवर मुल्कों की समूची जीडीपी के बराबर ठहरता है.

 तो आप एक नौकरीपेशा व्‍यक्ति हैं. आप सप्‍ताह में छह दिन रोज ऑफिस जाते हैं, काम करते हैं. इस काम के बदले में आपको क्‍या मिलता है? 
आप कहेंगे- “सैलरी.”                                                                                                                  लेकिन आपको सिर्फ सैलरी भर नहीं मिल रही. बस इतना ही नहीं है आपके श्रम का प्रतिदान. आपको और भी बहुत कुछ मिल रहा है, जिसके बारे में आपने शायद कभी सोचा भी न हो.

आपको अपनी नौकरी, जो कि एक सवैतनिक श्रम है, से ये  नीचे लिखी  सारी चीजें मिल रही हैं-

  • 1- आप दफ्तर में जो श्रम कर रहे हैं, वो इस देश की जीडीपी (ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्‍ट) यानी सकल घरेलू उत्‍पाद में गिना जा रहा है.
  • 2- जीडीपी में हिस्‍सेदारी का अर्थ है, आपका श्रम देश की अर्थव्‍यवस्‍था को मापने में गिना जा रहा है.
  • 3- चूंकि आपका श्रम उत्‍पादक श्रम की श्रेणी में आता है और जीडीपी का हिस्‍सा है, इसलिए भारत सरकार के श्रम कानून उस पर लागू हो रहे हैं.
  • 4-आपके श्रम के लिए नियम-कानून और सुरक्षा के प्रावधान हैं.
  • 5- आपको बीमार पड़ने, घूमने, पिता बनने, मां बनने आदि के लिए छुट्टी मिल रही है क्‍योंकि आपका श्रम जीडीपी का हिस्‍सा है.
  • 6- आपको कई तरह के इंश्‍योरेंस, मेडिकल अलाउंस आदि मिल रहे हैं क्‍योंकि आपका श्रम जीडीपी का हिस्‍सा है.
  • 7- आपको सप्‍ताह, महीने और साल के निश्चित वैतनिक अवकाश मिल रहे हैं क्‍योंकि आपका श्रम जीडीपी का हिस्‍सा है.

हर वो श्रम, जो जीडीपी का हिस्‍सा है, उसके लिए तंख्‍वाह के अलावा नियम, कानून, छुट्टी, सुरक्षा के प्रावधान हैं.                                                                                              जो श्रम जीडीपी का हिस्‍सा नहीं, उस पर किसी संविधान और संहिता की कोई धारा, कोई कानून लागू नहीं होता.

इस देश की आधी आबादी यानी 50 करोड़ महिलाओं के अवैतनिक घरेलू श्रम पर सुविधा-सुरक्षा का कोई नियम लागू नहीं होता, क्‍योंकि वो श्रम जीडीपी का हिस्‍सा नहीं है.

ये सैलरी, जीडीपी, घरेलू श्रम, औरतें आदि का घालमेल आखिर है क्‍या ?  

अगर आप जानना चाह रही हैं / चाह रहे हैं तो आइए, इसे थोड़ा सलीके से समझते हैं.

‘फेमिनिस्‍ट इकोनॉमिक्‍स’ – क्‍या आपने कभी ये शब्‍द सुना है?

न्‍यूजीलैंड की अर्थशास्‍त्री और पॉलिटिकल एक्टिविस्‍ट मैरिलिन वैरिंग, जो ‘फेमिनिस्‍ट इकोनॉमिक्‍स’ की जनक मानी जाती हैं.

अगर आपने स्‍कूल-कॉलेज में इकोनॉमिक्‍स बतौर एक विषय पढ़ा है, तब भी इस बात की संभावना बहुत कम है कि आप इस शब्‍द से वाकिफ हों. आपने एडम स्मिथ को पढ़ा होगा, जॉन स्‍टुअर्ट मिल के सिद्धांत रटे होंगे, डेविड रिकॉर्डो और इरविंग फिशर को पढ़कर परीक्षा पास की होगी, लेकिन फेमिनिस्‍ट इकोनॉमिक्‍स और मैरिलिन वेरिंग का नाम शायद ही सुना हो.

मैरिलिन वैरिंग न्‍यूजीलैंड की अर्थशास्‍त्री और पॉलिटिकल एक्टिविस्‍ट हैं. मैरिलिन ‘फेमिनिस्‍ट इकोनॉमिक्‍स’ की जनक मानी जाती हैं. 1988 में उन्‍होंने एक किताब लिखी, ‘इफ विमेन काउंटेड’. अमेरिकन फेमिनिस्‍ट एक्टिविस्‍ट एंड राइटर ग्लोरिया स्टाइनम ने उस किताब की भूमिका लिखी थी. इस किताब को फेमिनिस्‍ट इकोनॉमिक्‍स की शुरुआत माना जा सकता है. इस किताब में उन्‍होंने पहली बार इस बात को विस्‍तार से आंकड़ों, तथ्‍यों और गणितीय विश्‍लेषण के साथ समझाने की कोशिश की कि अगर स्त्रियों का अवैतनिक श्रम जीडीपी का हिस्‍सा होता तो हमारी अर्थव्‍यवस्‍था कैसी होती. समाज में स्त्रियों की सामाजिक-आर्थिक हैसियत कैसी होती. इस किताब में मैरिलिन लिखती हैं कि कैसे पूरी दुनिया की सारी औरतों का समूचा मुफ्त घरेलू श्रम, जिसकी उन्‍हें कोई तंख्‍वाह नहीं मिलती, वह दुनिया के 50 सबसे ताकतवर मुल्कों की समूची जीडीपी के बराबर ठहरता है.

मैरिलिन वैरिंग की किताब पर 1995 में टैरी नैश ने एक डॉक्‍यूमेंट्री फिल्‍म बनाई थी, जिसे उस साल के ऑस्‍कर अवॉर्ड से नवाजा गया था. फिल्‍म का नाम था- Who’s Counting? Marilyn Waring on Sex, Lies and Global Economics. 

फिल्म लिंक   https://www.youtube.com/watch?v=WS2nkr9q0VU

यूट्यूब पर ही मैरिलिन वैरिंग का एक टेड टॉक भी है, जिसमें वो इस अनपेड घरेलू श्रम की इकोनॉमिक्‍स को तरीके से समझाती हैं. मैरिलिन घरेलू श्रम के साथ स्त्रियों के उस श्रम की बात करती हैं, जो बच्चा पैदा करने, उसे दूध पिलाने, पालने-पोसने से जुड़ा है.

इस टॉक शो का लिंक https://www.youtube.com/watch?v=BrnZMrjsf6w

वो कहती हैं, “क्या आपको पता है कि आप अपने दुधमुंहे शिशु को जो दूध पिला रही हैं, वो जीडीपी का हिस्सा नहीं है. गाय, भैंस, भेड़, बकरी सबका दूध जीडीपी में गिना जाता है, लेकिन आपका नहीं.”

टैरी नैश की डॉक्‍यूमेंट्री फिल्‍म- Who’s Counting? Marilyn Waring on Sex, Lies and Global Economics का एक दृश्‍य. ये फिल्‍म यूट्यूब पर देख सकते हैं.

ये लिंक इसी फिल्म का हैं   https://www.youtube.com/watch?v=WS2nkr9q0VU 

पिछले साल सितंबर में नेशनल स्टैटिकल ऑफिस (एनएसओ) ने अपनी साल 2019 की रिपोर्ट जारी थी. यह रिपोर्ट कह रही थी कि एक भारतीय महिला प्रतिदिन 243 मिनट यानी चार घंटे घरेलू काम करती है, जबकि भारतीय पुरुष का यह औसत समय सिर्फ 25 मिनट है. यानी उसके आधे घंटे से भी कम घरेलू कामों में खर्च होते हैं.

समझने के लिए आंकड़ों को थोड़ा भीतर जाकर इसकी पड़ताल करते हैं. प्रतिदिन 243 मिनट घरेलू कामों में खर्च करने का मतलब है कि एक औरत अपने समूचे उत्पादक समय का 19.5 फीसदी हिस्सा घर के कामों में लगा रही है, जिसके लिए उसे कोई वेतन नहीं मिलता. जबकि पुरुष का यह प्रतिशत मात्र 2.3 है.

एनएसओ के आंकड़ों के मुताबिक वेतन वाली नौकरी के साथ-साथ 81 फीसदी औरतें घर के काम करती हैं, जबकि मात्र 26 फीसदी मर्दों की घरेलू कामों में हिस्सेदारी है. ये जनवरी से लेकर दिसंबर, 2020 तक के सर्वे का आंकड़ा है. कोविड और लॉकडाउन के बाद जब अचानक घरेलू काम की जिम्‍मेदारियां कई गुना बढ़ गईं तो जाहिर है औरतों के घरेलू श्रम का प्रतिशत और बढ़ गया होगा, जिसका इन आंकड़ों में कोई ज़िक्र नहीं है.

अब आते हैं संदर्भ और भूमिका पर.


औरत अपने समूचे उत्पादक समय का 19.5 फीसदी हिस्सा घर के कामों में लगा रही है, जिसके लिए उसे कोई वेतन नहीं मिलता. जबकि पुरुष का यह प्रतिशत मात्र 2.3 है.

सैकड़ों सालों से औरतों को बुनियादी इंसानी हक भी न देकर उन्‍हें रानी-महारानी और देवी का जो मूर्खतापूर्ण झुनझुना पकड़ाया गया है, 

 

श्रम यानी मर्दों का श्रम। कितने लोग जानते हैं कि ये जो पूरी दुनिया में मनाया जा रहा श्रम दिवस है, इसका श्रेय भी दरअसल औरतों को ही जाता है। इसी दिन कामगार औरतों ने काम के घंटे 8 करने के लिए लंबी समय से चल रही लड़ाई जीती थी। आज पूरी दुनिया में नौकरी के घंटे 8 हैं। लेकिन क्या कभी सोचा है कि बाहर की नौकरी के घंटे तो 8 हो गए, तनख्वाह भी सुनिश्चित हो गई, रविवार की छुट्टी भी तय रही, बाकी कैजुअल लीव, मेडिकल लीव, प्रिवेलेज लीव भी। सबके लिए कानून भी बन गया, लेकिन आज भी एक नौकरी ऐसी है, जिसमें न कोई काम के घंटे निश्चित हैं, न कोई छुट्टी का दिन। न ही कोई सैलरी है और न कोई कानूनी अधिकार। यह श्रम है-घरेलू औरतों का अवैतनिक श्रम।


घरेलू श्रम करने वाली औरतों के बच्चे कहते हैं कि मेरी मां हाउस वाइफ है। उनके पति कहते हैं कि उनकी पत्नी कोई काम नहीं करती। ‘पापा क्या करते हैं’ के जवाब हमेशा गर्वीले और वजनदार होते हैं। पापा काम करते हैं, पापा का काम महत्वपूर्ण है। मां कुछ नहीं करती। हालांकि, वह घर में सबसे पहले सोकर उठती है और सबसे बाद में सोती है।                                                                  संडे के दिन, जब बाकी पूरा परिवार छुट्टी मना रहा होता है, मां डबल मेहनत करती है, लेकिन मां का वर्किंग स्टेटस है कि वह कुछ नहीं करती। दिन भर घर को घर बनाने, रोटी पकाने, बच्चों को पालने, उनको पढ़ाने, सिखाने, इंसान बनाने और घर के सब लोगों की देखभाल करने का स्त्री का श्रम कहीं दर्ज नहीं होता। न उसका वेतन मिलता है और न कोई आदर। कहीं ज्यादा काम की या थकान की शिकायत कर दे तो सुनने को मिलता है, ‘तुम करती क्या हो दिन भर’। आपके दिन भर की मेहनत के बाद अगर बाॅस कह दे कि आपने किया क्या है, तो आप किस कदर अपमानित महसूस करेंगे। औरतें भी करती हैं, बस कह नहीं पातीं। कानून की किताबों में उस श्रम का न कहीं जिक्र है, न उससे जुड़ा कोई कानूनी अधिकार।


कुछ साल पहले संसद में भी यह सवाल उठा था। औरतों के घरेलू श्रम को जीडीपी से जोड़ने का सवाल। उस श्रम की कीमत का सवाल। दुनिया की कोई मेहनत मुफ्त की मेहनत नहीं होनी चाहिए। उसे उसका मूल्य मिलना चाहिए। सवाल आया और चला गया। ज्यादा विचार नहीं हुआ इस पर, क्योंकि देश के लिए ये इतना जरूरी सवाल नहीं था शायद। आपके लिए भी नहीं है शायद। लेकिन अगली बार जब आप अपनी पत्नी या अपनी मां से कहें कि तुम दिन भर करती क्या हो, तो उस श्रम के बारे में जरूर सोचिएगा जिसने आपको इस लायक बनाया कि आप दुनिया में सिर उठाकर जी सकें। इज्जत पा सकें।                                                                                                   औरत के श्रम का मूल्य नहीं तो कम से कम उसे उसका श्रेय तो दीजिए। उसे इज्जत दीजिए। ये इनका अधिकार हैं . 

सभार - tv9 , bhaskar , Fii 

Tuesday, 14 March 2023

15 महिलाओं में से दक्षिणानी वेलायुद्ध जी एक थी जिन्होने भारतीय संविधान बनाने में दिया था अपना योगदान

 

2. दक्षिणानी वेलायुद्ध

दक्षिणानी वेलायुद्ध का जन्म 4 जुलाई 1912 को कोचीन में बोल्गाटी द्वीप पर हुआ था। वह शोषित वर्गों की नेता थी। साल 1945 में, दक्षिणानी को कोचीन विधान परिषद में राज्य सरकार द्वारा नामित किया गया था। वह साल 1946 में संविधान सभा के लिए चुनी गयी पहली और एकमात्र दलित महिला थीं।

15 महिलाओं ने भारतीय संविधान बनाने में दिया था अपना योगदान

 

1. अम्मू स्वामीनाथन

तस्वीर साभार – The Indian Express

अम्मू स्वामीनाथन का जन्म केरल के पालघाट जिले के अनाकारा में ऊपरी जाति के हिंदू परिवार में हुआ था। उन्होंने साल 1917 में मद्रास में एनी बेसेंट, मार्गरेट, मालथी पटवर्धन, श्रीमती दादाभाय और श्रीमती अंबुजमल के साथ महिला भारत संघ का गठन किया। वह साल 1946 में मद्रास निर्वाचन क्षेत्र से संविधान सभा का हिस्सा बन गईं। 24 नवंबर 1949 को संविधान के मसौदे को पारित करने के लिए डॉ बी आर अम्बेडकर ने एक चर्चा के दौरान भाषण में आशावादी और आत्मविश्वासी अम्मू ने कहा कि ‘बाहर के लोग कह रहे हैं कि भारत ने अपनी महिलाओं को बराबर अधिकार नहीं दिए हैं। अब हम कह सकते हैं कि जब भारतीय लोग स्वयं अपने संविधान को तैयार करते हैं तो उन्होंने देश के हर दूसरे नागरिक के बराबर महिलाओं को अधिकार दिए हैं।‘ वह साल 1952 में लोकसभा के लिए और साल 1954 में राज्यसभा के लिए चुनी गयी। उन्होंने भारत स्काउट्स एंड गाइड (1960-65) और सेंसर बोर्ड की भी अध्यक्षता की।

Saturday, 19 December 2020

FEMINISM AND IT'S IMPACT ON SOCIETY

 

Many researchers and scholars used the term “Feminism” and they tried to define and explain it differently. Some of them use it to refer to some historical political movements in USA and Europe. Whereas, others refer it to the belief that women live an injustice life with no rights and no equality Zara Huda Faris explained this idea, as: “ Women need feminism because there are women who suffer injustice 

The term " Feminism ‟ has a long history; it represents  women's  problems and suffering in addition to their dreams in equal opportunities in societies controlled by man i.e. his power, rules, wishes and orders. Lara Huda Faris added also: “ women have traditionally been dehumanized by a male dominated society, which they call patriarchy; and that has been always better to be a man

The term feminism has a history in English linked with women's activism from the late 19th century to the present, it is useful to distinguish feminist ideas or beliefs from feminist political movements, for even in periods where there has been no significant political activism around women's subordination, individuals have been concerned with and theorized about justice for women.

Despite of the painful segregation and the hard inequality, women were able to stand up each time and they were able to speak and express their problems, feelings and wishes. In addition, women were able to spread it in all over the world, make it a symbol of equality, and make all people believe that men and women deserve equality in all opportunities, treatments respect and social rights.

 The term Feminism appeared in France in the late of 1880s by Hunburtine Auclert in her Journal La Citoyenne as La Feminitè where she tried to criticize male domination and to claim for women's rights in addition to the emancipation promised by the French revolution.

By the first decade of the twentieth century, the term appeared in English first in Britain and then in 1910s in America and by 1920s in the Arab World as Niswia. Feminism originates from the Latin word femina that describes women's issues.Feminism is concerned with females not just as a biological category, but the female gender as a social category, and therefore feminists shared the view that women's oppression tied to their sexuality. This was so because women and men's biological differences reflected in the organization of society, and based on these differences, women have treated as inferior to men. Whether as a theory, a social movement or a political movement, feminism specifically focuses on  women's experiences and highlights various forms of oppression that the female gender has subjected in the society. During a long period in history, woman was not considered as equal citizens, they suffered from bad treatments, discrimination and racism under man domination and rules. In spite these problems, they could challenge them and prove themselves over the society.

Woman in the past was living unequal and unfair life. She was prevented from doing any political, social and economical activities and her only job is being a housewife who takes care of home and children. At that time, woman was under the control of man who dominates all the fields in which he represents the symbol of power.

After all those problems, suffering and misery woman in the entire world started to find ways to improve herself and to change her position in life. They tried also to join their efforts, dreams and wishes to form a universal idea that speaks about all women in any place in the world this leads to the appearance of Feminism.

By the coming of Feminism, woman was able take back her rights in addition to changing her negative image. Feminism proves that woman is capable to play important roles the same as man. Moreover, the most important goals of Feminism were giving woman her total freedom in addition to equal opportunities in the representation of the political and social events.

This modest work tries to give an over view of Feminism and how it developed from being an idea or a belief to becoming a theory with standard goals and principles.

The first chapter of this work was theoretical, in which we presented the definition of Feminism in addition to its origin and its different types. It presents also some famous waves of Feminism in which it tackled the famous leaders of each one of them and more importantly, it gives its principles and goals. This chapter speaks also about the suffering of Muslim and Black woman.

The second chapter indeed gives more importance to role of woman and her achievements in the political, social and the economical fields. It shows also the status and the role of woman in the decisions making in addition to restating the common  obstacles that can any woman face when looking for her rights. This article contains the best examples of Feminism success that are a group of woman leaders mainly in politics, society and science.

 The key message of feminism in the 21st century society should highlight choice in bringing a personal meaning to feminism is to recognize  others’ right to do the exact same thing. Women all over the world nationally, regionally and globally should be able to embrace this powerful message of feminism and be able to create a positive meaning of their own womanhood and femininity. However, despite feminism being a strong successful movement, inequality and exploitation of women still exist and sadly there are women today, who are trapped in a society which doesn’t value them and leaves them neither choice nor freedom to express their views and rights.

शिवानी  मिश्रा 

शोध अध्येता - वाणिज्य संकाय परिसर,

दीन दयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय, 

गोरखपुर उत्तर प्रदेश, 273001

Note - इस लेख के संदर्भ में कोई भी प्रश्न आप सब शिवानी  मिश्रा जी से कमेंट बॉक्स में लिख कर पूछ सकते हैं। 


Monday, 11 January 2016

यह आवाज़ को ज़रूर सुने ! इस गाने को बाँदा की सोनम ने गाया हैं।

https://soundcloud.com/manish-245647629/pl5kathr2pko

Sunday, 13 December 2015

यह वीडियो विद्रोही को श्रद्धांजलि है

हाल ही में दिवंगत हुए जनकवि रमा शंकर यादव ‘विद्रोही’ को उनके कुछ प्रशंसकों ने अनूठे अंदाज में श्रद्धांजलि दी है.
विद्रोही जेएनयू में रहते थे और जेएनयू उनमें रहता था. उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर में जन्मे रमा शंकर यादव पढ़ाई के लिए दिल्ली के इस विश्वविद्यालय में आए तो फिर यहीं के होकर रह गए. यहीं उन्हें विद्रोही उपनाम मिला और यहीं से उनकी कविताएं निकलीं. साहित्यिक हलकों में अनजान लेकिन छात्रों और कविता प्रेमियों के बीच मशहूर इस फक्कड़ कवि का आठ दिसंबर को 58 साल की उम्र में निधन हो गया.
सवाल उठाने वाली परंपरा की जो धारा जेएनयू की पहचान रही है विद्रोही उसके जीवंत प्रतीक थे. जेनएनयू में हर साल आने वाले एक चौथाई नए छात्रों के लिए वे पुराने संघर्षों की जीती-जागती मिसाल रहे. उनका जाना भी इस परंपरा के मोर्चे पर ही हुआ. वे वैसे ही गए जैसे जनकवि जाते हैं. मुट्ठियां ताने हुए.
उस दिन विद्रोही दिल्ली में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के दफ्तर के सामने सरकार की शिक्षा नीतियों के विरोध में हो रहे धरना-प्रदर्शन में शामिल होने पहुंचे थे. दोपहर बाद अचानक उनकी तबीयत बिगड़ने लगी. वहां पर मौजूद लोगों ने उन्हें फौरन अस्पताल पहुंचाया जहां डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया.
साहित्यिक हलकों में विद्रोही भले ही वे अनजान थे, लेकिन छात्रों और कविता प्रेमियों के बीच खासे मशहूर. वे कबीर और अदम गोंडवी की परंपरा के अनुयायी थे.
विद्रोही वाचक परंपरा के कवि थे. खुद को नाजिम हिकमत, पाब्लो नेरूदा और कबीर की परंपरा से जोड़ने वााले इस कवि को अपना रचनाकर्म जुबानी याद था. उन्होंने कभी अपनी कविताओं को लिखा नहीं. यह काम उनके मुरीदों ने किया. विद्रोही के ऐसे ही कुछ प्रशंसकों ने उन्हें एक अनूठे वीडियो के जरिये श्रद्धांजलि दी है. उनकी चार चर्चित कविताएं इस वीडियो का हिस्सा हैं.
इस वीडियो के सूत्रधार और दिल्ली आर्ट फाउंडेशन के संस्थापक प्रत्युष पुष्कर कहते हैं, ‘मैं भी जेएनयू में ही पढ़ा हूं. विद्रोही जी से बहुत करीब का नाता था. तीन साल पहले पढ़ाई पूरी करके वहां से निकल गया था. फिर अपने काम में व्यस्त हो गया. इस बीच कई बार सोचा, लेकिन उनसे मिलना नहीं हो पाया. फिर अचानक उनके जाने की खबर सुनी बहुत धक्का लगा. वे जितने सक्रिय रहते थे उसे देखते हुए सोचा नहीं था कि वे अचानक यूं चल देंगे.’ वे आगे कहते हैं, ‘मन में बहुत बेचैनी थी.
सभार - सत्याग्रह 

Wednesday, 2 December 2015

'अपाहिज' कहें या 'विकलांग' ?

सी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय | औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय ||
Speak in words so sweet, that fill the heart with joy
Like a cool breeze in summer, for others and self to enjoy

कबीर  का कहा मानते तो अपनी  बोली से किसी को कस्ट नहीं होता। शब्दों के सामाजिक , जातीय विश्लेषण से उनके अर्थ और घातक हो गये  हैं . 
कुछ शब्द किस हद तक आप को तकलीफ़ पंहुचा सकते हैं यह उनसे पूछे जिसके लिए यह बोला जाता हैं।  बाँझ , डायन , लुल्ला , लंगड़ा , अँधा , काली - कलुठी , विधवा , कुलटा । यह सभी शब्द " कलंक " की तरह होता हैं जिसका असर ताउम्र हैं।  BBC हिंदी का यह लेख इस मायने में अतिमहत्वपूर्ण हैं। 



जो व्यक्ति शारीरिक या मानसिक तौर पर विकलांग हैं उन्हें अपंग कहना सही है या अक्षम या निशक्त?
भारत सरकार ने 1995 में विकलांग जनों के अधिकार सुनिश्चित करने के लिए जब क़ानून बनाया तो उसे नाम दिया, ‘निशक्तजन अधिनियम 1995’.
पर समय के साथ विकलांग जनों ने इसपर आपत्ति जताई और अब नए क़ानून में वो ‘निशक्त’ नहीं ‘विकलांग जन’ कहलाना चाहते हैं.
पर आम बोलचाल की भाषा में विकलांग व्यक्तियों को उनकी विकलांगता से जुड़े कई अभद्र शब्दों से संबोधित किया जाता है, जबकि इनके बेहतर और सम्मानजनक विकल्प मौजूद हैं.



‘निशक्तजन अधिनियम 1995’ के तहत, केंद्र सरकार की तरफ़ से एक ‘मुख्य आयुक्त, निशक्त जन’ और राज्य सरकारों की तरफ़ से ‘आयुक्त, निशक्त जन’ की नियुक्ति की गई.
फिर भारत सरकार ने साल 2007 में संयुक्त राष्ट्र के ‘कनवेनशन ऑन द राइट्स ऑफ़ परसन्स विद डिसएबिलिटीज़’ पर हस्ताक्षर किए और इसमें ‘परसन्स विद डिसएबिलिटीज़’ यानि ‘विकलांग जन’ संबोधन के इस्तेमाल पर सहमति बनी.
जिसके बाद अब सरकार ने इन पदों के नाम बदलकर ‘मुख्य आयुक्त, विकलांग जन’ और ‘आयुक्त, विकलांग जन’ कर दिए हैं.
कनवेनशन में शब्दावली पर सहमति इसलिए बनाई गई क्योंकि दुनिया के अलग-अलग देशों में विकलांगता से जोड़कर अभद्र और रूढ़ीवादी संबोधन इस्तेमाल किए जाते हैं.



भारत के मौजूदा सरकारी क़ानून में उन लोगों को तो विकलांग माना जाता है जिन्हें सुनने में तकलीफ़ हो पर उन्हें नहीं जो बोल नहीं सकते.
समय के साथ बेहतर हुई समझ के मुताबिक़ अब नए क़ानून में ना बोल पाने की विकलांगता को अलग श्रेणी देने की मांग की गई है.
सुनने और बोलने से जुड़ी विकलांगता को अब ‘मूक-बधिर’ कहकर संबोधित किया जाना सही माना जाता है.



‘अंधा’ की जगह ‘नेत्रहीन’ शब्द का इस्तेमाल अब प्रचलन में है. इसके बावजूद कई स्कूल जिन्हें सरकार या निजी स्तर पर लोग चला रहे हैं, अब भी ‘अंध विद्यालय’ नाम रखते हैं.
टांगों या बाज़ू से जुड़ी किसी भी विकलांगता वाले व्यक्ति को ‘शारीरिक रूप से विकलांग’ और दिमाग़ से जुड़ी किसी प्रकार की विकलांगता वाले इंसान को ‘मानसिक रूप से विकलांग’ कहा जाने लगा है.
आम बोलचाल में ‘कोढ़ी’ शब्द भी अपमानजनक है और इसकी जगह ‘कुष्ठ रोगी’ को अब सही माना जा रहा है.



नए क़ानून पर काम कर रही संसद की स्थाई समिति ने ‘अलग क्षमता वाले लोग’ या ‘ख़ास क्षमता वाले लोग’ जैसे संबोधन के इस्तेमाल की बात कही है.
पर विकलांग जन इसे सही नहीं मानते और कहते हैं कि ये अहसान जताने जैसा है. उनके मुताबिक़ ‘विकलांग जन’ सम्मानजनक भी है और उनकी शारीरिक स्थिति को स्पष्ट भी करता है.
भारत में 2011 में हुई जनगणना के मुताबिक़ देश में ढाई करोड़ से ज़्यादा विकलांग जन हैं. इस जनगणना में देखने, सुनने, बोलने, चलने-फिरने, मानसिक बीमारी समेत आठ श्रेणियों की विकलांगता को शामिल किया गया है.
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Saturday, 24 October 2015

पितृसत्ता पुरुषों का अमानवीयकरण करती है : कमला भसीन

मला दीदी से मेरी मुलाकात सन 2001  दिल्ली मे एक जेंडर संबेदीकरण कार्यशाला के दौरान हुई थी , उस कार्यशाला में मैं अकेला पुरुष था . कार्यशाला तीन दिन खत्म हो चूका था फिर चौथे दिन कमला दीदी आईं थी . और आते हीं उन्होने कहा की " इस लड़के को तुम सब ने मिल कर परेसान तो नहीं किआ ! लड़का होना इस का दोष नहीं हैं , ये हम औरतो की जिम्मेदारी है की इस को दुनिया, दुनिआ  के नियम ,मर्दों की दुनिआ और मर्दों के दुनिया के नियम को औरतों के नज़रों से दिखायें , नारीवाद समझायं  . आओ मेरे पास आओ , यहाँ बैठो मेरे पास ! "  तब मुझे पहली बार  लगा की सभी समस्या का कारण मैं नहीं हूँ और लड़किओं और औरतो के बीच तीन दिन बाद , मैं अब अकेला भी नहीं हूँ . लैंगिक बराबरी और पुरषों मेँ  बदलाव का प्रशिक्षण इसी तरह साथ बैठा कर शुरू करना चाहिए , फिर क्या था वहीँ से जीवन मेँ बदलाव शुरू जो अब तक नहीं थमा  है ..!    शुक्रिया कमला दीदी , माधवी दीदी , यशोधरा दीदी , आशा दीदी ,चन्द्रा दीदी ,मधु कुशवाहा दीदी , संजय भाई , अभिजीत दा और सतीश भाई . 
यह लेख स्त्रीकाल से लिए गया है जो शुक्रवार, अक्तूबर 23, 2015 को छापा था .
                                                  
मला भसीन दक्षिण एशियाई देशों में जेंडर ट्रेनिंग के लिए ख्यात हैं. स्त्री -पुरुष समानता की अलख जगाती कमला भसीन के साथ स्त्रीकाल के लिए संजीव चंदन ने बातचीत की है . इत्मीनान से पढ़ें यह बातचीत , यकीनन आपके भीतर का 'मर्द' कुछ तो पिघलेगा . 

इन दिनों क्या कर रहीं हैं?
इन दिनों मैं ‘जागोरी’ में स्थित ‘संगत’ नाम की संस्था को  पिछले बारह साल से को-आर्डिनेट कर रहीहूँ. साउथ एशिया में जो स्त्री और  पुरुष स्त्रीवादी सोच के साथ काम  कर रहे हैं, उनके साथ कम करती  हूँ.उसमें दो तरह के काम हैं. एक है- क्षमता वर्धक (कपैसिटी बिल्डिंग). जो नई-नई सोच आती है, उसको उन तक पहुँचाना और दूसरा है-ट्रेनिंग. ट्रेनिंग बहुत सुन्दर माध्यम है एक संजाल बनाने का. अब जैसे अगले सप्ताह नेपाल में एक ट्रेनिंग है. ये सारे  काम हम दूसरी संस्थाओं के साथ मिलकर करते हैं. नेपाली में इसे होस्ट करने वाली नेपाली संस्था है. हम केवल सबको इक्कठा करते हैं. करीब 37-38  महिलाएं 9  देशों से आ रही हैं, जो स्त्रीवादी काम कर रही हैं- पुरुषों के साथ, गरीबों के साथ, माईनारटीज के साथ. एक महीना वे एक-दूसरे के साथ रहती हैं. इसी तरह हम हिंदी में ट्रेनिंग करते हैं, बंगला में करते हैं.

आपका कोई अकादमिक बैकग्राउंड रहा है? स्त्रीवाद के लिए ट्रेनर की शुरुआत आपने कैसे की ?
एम.ए. की डिग्री तो है पर कोई अकादमिक काम नहीं किया है.

 स्त्रीवाद के लिए कैसे कम करना शुरू किया ?
सबसे पहले मैंने गरीबों के साथ, दलितों के साथ 1972 में कम करना शुरू किया. जर्मनी में नौकरी करती थी, वहां से रिजाइन देकर हिंदुस्तान वापस आ गई.

 जर्मनी में आप कहाँ थीं ?
जर्मनी में पहले तो मैंने म्युन्स्टर में पढाई की.पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद मैंने वहां २ साल ‘सोशियोलॉजी ऑफ़ डेवलपमेंट’ पढ़ा. उसके बाद मैंने जर्मन एक्सपर्ट, जो यहाँ आकार हमें पढाया करते थे, उनकी ट्रेनिंग की.परमानेंट सरकारी नौकरी से ग्यारह महीने बाद रिजाइन करके मैं हिंदुस्तान आ गई और मैंने ‘सेवा मंदिर’ उदयपुर में कम करना शुरू किया.चार साल मैंने वहां काम  किया. मैं में पढ़ी हूँ. मेरी पूरी पढाई, दसवीं तक राजस्थान के गांवों-कस्बों में हुई है.
 फैमिली बैकग्राउंड क्या था ?
 पिताजी सरकारी डाक्टर थे. हम लोग पंजाबी हैं. मेरा जन्म वेस्ट पंजाब में हुआ, जो अब पाकिस्तान में है. 1946 में मैं पैदा हुई-तब मेरी माँ वहां एक शादी में गई थीं.

तब आप माइग्रेट हुई थीं? 
नहीं, हम लोग माइग्रेट करके नहीं आये.उसके पहले ही पिताजी की नौकरी राजस्थान में थी-कोई 1939-40 में.गांवों में मैंने दसवीं सरकारी स्कूलों से की. राजस्थान यूनिवर्सिटी मैंने एम.ए. किया. चूंकि मैं राजस्थान में पढ़ी-बढ़ी इसलिए सोचा कुछ करूँ. गाँधी के समय में पैदाइश हुई थी,  तो ये नहीं था कि मैं सिर्फ पैसा कमाऊं. इसलिए जर्मनी की नौकरी छोड़कर आ गई और ‘सेवा मंदिर’ में काम शुरू किया. ये मोहन सिन्हा मेहता का संगठन था. उन पर सबका प्रभाव था. वो अम्बेसडर रह चुके थे और राजस्थान युनिवर्सिटी के वाइस चांसलर थे. उनके बेटे जगत मेहता, विदेश मंत्रालय में सेक्रेटरी थे. उन्होंने ‘सेवा मंदिर’, ‘विद्या भवन’ आदि संस्थाएं राजस्थान में शुरू कीं. चार साल मैंने वहां काम किया इसके बाद मुझे यू.एन. ने कहा कि मैं एन.जी.ओ की ट्रेनिंग का काम शुरू करूँ. तो 27 साल तक मैंने यू.एन. के कहने पर एशिया और दक्षिण एशिया के स्तर पर ट्रेनिंग शुरू की. वह सिर्फ जेंडर की ट्रेनिंग नहीं थी, क्योंकि मैं जेंडर को अलग नहीं मानती. जेंडर कास्ट के साथ जुड़ा है, जेंडर क्लास के साथ जुड़ा है, डेमोक्रेसी के साथ जुड़ा है. तो  इन सब चीजों की ट्रेनिंग. क्योंकि डेमोक्रेसी नहीं होगी तो फिर वीमेन राइट की तो बात ही नहीं हो सकती. हम जानते हैं किदलित औरत के साथ जो होता है,  वह सिर्फ जेंडर नहीं होता, वहां कास्ट भी होती है.

लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि शुरुआती दौर में स्त्रीवादी आन्दोलनों में जाति क्वेशचन नहीं बन पायी थी?
 पता नहीं आप किसकी बात कर रहे हैं?  आप दिल्ली के आंदोलन को ही स्त्रीवादी आन्दोलन मानते हैं, जो कि मैं नहीं मानती. मैं समझती हूँ कि महाराष्ट्र में सालों पहले सावित्रीबाई फुले ने काम किया.तमिलनाडु में जो बातचीत हुई, वहां कास्ट थी. हम लोगों ने भी, जैसे मैंने भी गरीबों के साथ कम शुरू किया तो कास्ट और क्लास दोनों सवाल थे . 

 उधर थोड़ा  बाद में आयेंगे. अभी आपकी किताब आई है ‘मर्द मर्दानगी और मर्दवाद’ ये अंग्रेजी में भी है. 
कमला भसीन- हाँ, पांच-छः साल पहले ये किताब आई. ये 15-20 अन्य भाषाओँ में भी है. मेरी सभी किताबें 15-20 भाषाओँ में हैं.

यह विषय क्यों चुना आपने- ‘मर्द-मर्दानगी-मर्दवाद ?’
 पता नहीं क्यों, शायद महिला आन्दोलन की कमी रही हो या या समाज की कमी रही हो,ये समझा गया की जो जेंडर का काम है वो महिलाओं का काम है. इसलिए सारा फोकस महिलाओं पर हो गया. पुरुषों की बातें नहीं की गईं. पितृसत्ता पर महिलाएं 100-150-200 या 300 साल या जबसे पितृसत्ता शुरू हुई , पितृसत्ता पर बोलती रहीं हैं.अपने ऐक्सन्स में विरोध करती रहीं हैं. मीराबाई ने स्त्रीवाद की कोई किताब नहीं पढ़ी थी. हाँ, लेकिन जिंदगी थी. मैं समझती हूँ की जिस दिन पितृसत्ता की शुरुआत हुई, उसी दिन से स्त्रीवादी सोच शुरू हुई. मुझे लगता है महिला सशक्तिकरण या स्त्री पुरुष समानता में दो पहलू हैं- स्त्री और पुरुष. जब तक दोनों नहीं बदलेंगे, जब तक दोनों मिलकर इस पर जद्दोजहद नहीं करेंगे, तब तक समानता नहीं हो सकती है. मुझे लगता है शुरू से स्त्री-पुरुष समानता की लड़ाई स्त्री और पुरुष के बीच की लड़ाई नहीं है. ये दो मान्यताओं के बीच की लड़ाई है. एक मान्यता कहती है कि पितृसत्ता बेहतर है और दूसरी कहती है- नहीं, समानता बेहतर होगी.

इसमें कहीं यह  आइडिया तो नहीं काम कर रहा था कि स्त्री के प्रति जो हिंसा या असमानता है,  उसमें मर्द एजेंसी के तौर पर तो है ही,  लेकिन वो विक्टिमाइज्ड भी है. मतलब वो भी पितृसत्ता के द्वारा गढ़ा जाता है?
वह  तो है ही, आप देखिये मर्दों ने खुद अपने बारे में कभी नहीं सोचा,  क्योंकि उनको सत्ता मिलती है. भई हमें तो वो जूता काट रहा था. इसलिए हमने कहा कि ये पितृसत्ता का जूता हटाओ. वे इस जूते को बहुत सुपरफिसियली देखते हैं. वे  समझतें हैं कि इस जूते  में हमें मजा आ रहा है.हमार साइज बढ़ रहा है.हम देवता भी कहला रहे हैं. हमें पति परमेश्वर भी कहा जा रहा है.सिर्फ हम ही अंतिम संस्कार करते हैं, हम ही कन्यादान करते हैं. उन्होंने ये नहीं देखा की किस प्रकार से पितृसत्ता लड़कों को रोने नहीं देती है. उन्हें अपनी कमजोरियां बयान नहीं करने देती. उनको संवेदनशील नहीं बनने देती. उनको बच्चों के साथ नहीं समय बिताने देती. किस प्रकार उनको मर्दानगी के नाम पर हिंसात्मक बनाया जाता है. उनको कहा जाता है की तुम लोगों को दबा के रखोगे, नहीं तो तुम असली मर्द नहीं हो. रोओगे नहीं. तो उससे उनका अमानवीयकरण हो जाता है. मैं ये मानती हूँ कि एक बलात्कारी मानव नहीं है, जो मानव के गुण होने चाहिए वह बलात्कारी के अंदर खत्म हो गए हैं. 50-60% प्रतिशत भारतीय पति,  जो अपनी पत्नियों के ऊपर हिंसा करते हैं, उनका कहीं न कहीं अमानवीयकरण (डीह्युमनाइजेसन) हो गया है. ब्रुटलाइजेसन हो गया है. वरना आप कैसे अपने जीवनसाथी पर हाथ उठा सकते हैं ! इसके साथ मेरा यह भी मानना है कि पुरुष शारीरिक तौर पर बलात्कारी नहीं है. अगर ऐसा होता तो बुद्ध भी बलात्कार करते.गांधी भी बलात्कारी होते, जीसस भी बलात्कारी होते. हमारी जिंदगी में ६० प्रतिशत पुरुष पत्नियों पर हाथ उठाते हैं , तो ४० प्रतिशत तो नहीं उठाते हैं  न ? इसका मतलब ये है कि ये कोई शारीरिक देन नहीं है.ये प्रकृति कि देन नहीं है. ये मानसिकता पैदा की गयी है. आप महिलाओं को भी देख सकते हैं. वो भी पीट सकती हैं अपने बच्चों को, जिनके ऊपर चलती है उनकी शक्ति.

इस तरह जैसे महिला बनाई जाती है वैसे पुरुष भी बनाया जाता है?
 हाँ, पुरुष भी बनाया जाता है, मगर दुःख की बात है कि महिलाओं ने इस पर सोचा है.  पुरुष अब तक नहीं सोच पाये. और चूकि मैं एन.जी. ओ के साथ काम करती थी, वहां सारे के सारे पुरुष हेड हुआकरते थे. मुझे लगा कि उनको बदलने कि जरूरत है.उनको भी यह समझने कि जरूरत है कि ये महिलाओं का मुद्दा नहीं है. ये स्त्री-पुरुष के बीच की लड़ाई नहीं है. ये दो मानसिकताओं के बीच की लड़ाई है. मैं आपको बुद्ध के जीवन से कहानियां सुना सकती हूँ. वो मेरी किताबों में भी लिखी हुई हैं कि कैसे बुद्ध ने, जो हिन्दू धर्म में पैदा हुए और जब महिलाएं उनके पास आयीं,  एक पिटीशन लेकर कि भई आप संघ में सिर्फ पुरुषों को ले रहे हो, हमको भी लो ! तो बुद्ध ने मन कर दिया. ढाई हजार साल पहले ये डिबेट चली. बुद्ध ने मौसी से ये डिबेट किया. उनकी मौसी आनंद के पास गयीं, जो डिप्टी डायरेक्टर थे. तब आनंद फिर वापस गए बुद्ध के पास. ढाई हजार साल पहले यह हुआ  कि महिलाओं को संघ में लिया जायगा.  क्या यह जेंडर  डिबेट नहीं था ? क्या यह महिला अधिकारों का डिबेट नहीं था? कोई किताब नहीं पढ़ी थी उन्होंने. कोई 'सीडॉ' नहीं था. कोई रेप बिल नहीं था.मगर औरत को बताना नहीं पड़ता कि उनके अधिकार छिन रहे हैं. उनको लगा कि हम भी तो बुद्ध बन सकते हैं. जो लोग कहते हैं कि जेंडर वेस्टर्न कांसेप्ट है, स्त्रीवाद वेस्टर्न कांसेप्ट है वे बतायें कि क्या बुद्ध  की मौसी स्त्रीवादी नहीं थी, जो बुद्ध के पास आयीं और कहा, ऐ मिस्टर ! मैं भी आना चाहती हूँ . मुझे क्यों रोक रहे हो? इसके अलावा अगर आप प्रॉफेट मोहम्मद की बात करें, जिन्होंने 1400-1500 साल पहले कितनी चीजें औरतों के लिए बदलीं.

थोड़ी कमी इधर भी है . एन.एफ़. आई. डब्लयू. ने अपनी स्थापना का सिक्सटीज़ मनाया. वहां एक भी तस्वीर सावित्रीबाई फुले की नहीं थी. ताराबाई शिंदे की नहीं थी. हमें तो डॉ. अम्बेडकर को भी लोकेट करना होगा अपने साथ.  
 एक्जैक्टली. वही बात है कि हमारी ताकत कितनी रही है.हम क्या सोच रहे हैं. उनके लिए क्लास मेन फैक्टर रहा करता था. मेरा यह मानना है कि बुद्ध अधिकार सबको दिलाना चाहते थे. इसलिए उन्होंने दलितों  को लेकर कहा कि बुद्धिज़्म में कास्ट सिस्टम नहीं होगा. महिलाओं को उन्होंने लिया,  लेकिन आठ ऐसे कानून बनाये जिसमें भिक्खुनी हर तरह से भिक्खु के नीचे रहेगी. अब आप इसमें कहोगे कि उन्होंने अधिकार पूरे नहीं दिए. मैं  कहूँगी कि ढाई हजार साल पहले अगर वो जीरो से ६०-७० पर ले आये तो क्या वह एक क्रन्तिकारी कदम नहीं था ? मैं उसको क्रांतिकारी कदम मानती हूँ.  प्रॉफेट मोहम्मद ने 1500 साल महिलाओं को  अधिकार दिए, ये कहा कि पुरुषों को संपत्ति ज्यादा मिलेगी लेकिन ये  कब कहा ? ये तब कहा जब महिलाओं को जीरो संपत्ति मिलती थी. उन्होंने कहा कि पुरुष चार शादियां कर सकते  हैं, मगर  ये-ये-ये शर्तें होंगी. ये कब कहा ? ये तब कहा जब पुरुष ५० शादियां कर रहा था. तो भई 50 या 100 से चार पर ले आओ, उसके बाद जो आने वाले हैं, उनकी जिम्मेदारी बनती है कि चार से एक पर लाएं.पर वो तो चार पर ही आकर फंस गए. क्योंकि वो प्रॉफेट नहीं थे, वो प्रॉफेट के चमचे थे. उन्होंने अंदर से रियलाइजेसन नहीं किया.  इन सब चीजों के कारण लगा कि मर्दानगी पर, मर्दवाद पर  सोचना आवश्यक है. इसमें यह भी लिखा है कि किस प्रकार से केवल धर्मों ने, परम्पराओं ने ये चीजें नहीं फैलाईं. आज कैपिटलिस्ट पैट्रीआर्की पूरी तरह से मर्दवाद फैला रही है. पूरी तरह से महिलाओं को नीचे दिखा रही है. पोर्नोग्राफी बिलियन डॉलर इंडस्ट्री है.कॉस्मेटिक्स, जो कहती है कि महिला जब तक इस शेप की नहीं है, इस कलर की नहीं है,  वहबेकार है. बाजार में उसकी कोई कीमत नहीं है. खिलौनों की इंडस्ट्री में लड़कों के लिए बंदूकें, स्पाइडर मैन और लड़कियों के लिए बार्बी डॉल्स. हर बार वही चीज दोहराई जाती है- मर्द. आजकल एक विज्ञापन रेडियो में आता है- दिल्ली  का कड़क लौंडा. अब 'कड़क लौंडा' शब्द आप भी जानते हैं. मैं भी जानती हूँ कि वो किस चीज की बात कर रहे हैं. वो कड़क पेनिस कि बात कर रहे हैं.क्या काम है उसका रेडियो पर ? वह लोगों को बेहूदा फोन करके बेहूदा बातें  करता है. इसी प्रकार रणधीर कपूर के कितने सारे ऐड्स देख लें. पेप्सी और आई.पी.एल. के ऐड्स आते थे- ‘आई.पी.एल. शराफत से देखा जाता है न कि शराफत से खेला जाता है’. जो फिल्में हैं उनमें- बद्तमीज दिल बद्तमीज दिल माने न माने न माने न. हमेशा वही पुरुषों कि बद्तमीजी. फिर मैंने इस पुस्तक में कहा है कि हाँ पितृसत्ता में पुरुषों को अधिकार बहुत मिलते हैं, लेकिन पुरुष शांत दिमाग से जरा यह भी सोच लें कि अधिकारों के साथ- साथ, पुरुष केवल 50 प्रतिशत हैं, लेकिन 99 प्रतिशत टेररिस्ट पुरुष हैं. 99 प्रतिशत क्रिमिनल्स पुरुष हैं. 99 प्रतिशत ट्रेफिक आफेंडर पुरुष हैं. अमेरिका में हर दो महीने में 17-18-19 साल का एक लड़का एक बंदूक उठाकर एक स्कूल में 10-20 लड़कों को मारकर घर आता है. कभी औरत ने ऐसा किया ?तो ये हो रहा है. आज भी 'हिन्दू' अख़बार में है कि पुरुषों की आत्महत्याएं महिलाओं की आत्महत्याओं से कहीं अधिक हैं.

 एक राइट-अप हमने अपने यहाँ (स्त्रीकाल में ) भी लगाया था- 'किसान महिलाएं आत्महत्या नहीं करतीं हैं.' बल्कि  ज्यादा कष्ट झेलतीं  हैं. 
वही बात है की भई हमें तो कष्ट झेलने की आदत पड़ जाती है. पुरुष दो कारणों से मरता है. मैंने इस किताब में लिखा है. एक कारण है- गरीबी. दूसरा कारण है-पितृसत्ता. वह सोचता है मैं कैसा मर्द हूँ कि अपने परिवार का पालन नहीं कर  सकता. उसके अंदर अपनी एक इमेज है. इस तरह आप देखेंगे जब थाईलैंड में, कोरिया में इकोनॉमिक रिप्रेसन आया तो बहुत पुरुषों ने आत्महत्याएं कीं, स्त्रियों ने नहीं कीं. क्योंकि उनकी मर्दानगी को भी चोट पहुँच रही है की भई कैसा मर्द हूँ. गरीबी तो है ही. औरत भी गरीब है पर वह औरत को छोड़कर कहाँ जाएगी.

इधर जो बढ़ते हुए केसेज़ हैं स्त्री के खिलाफ हिंसा के, बलात्कार भी उनमें शामिल है, उसको आप कैसे देखतीं हैं? मेरा मानना है कि रिपोर्टिंग बढ़ रही है. यह एक तरह से एम्पावरमेंट भी है.
मेरा मानना है, दोनों चीजें हैं. रिपोर्टिंग तो बढ़ ही रही है. ब्रूटलिटी पूरे समाज में हर स्तर में बढ़ रही है.ये सिर्फ स्त्री-पुरुष के खिलाफ नहीं है. आप दूसरे तबकों, मायनार्टिज के खिलाफ देख लीजिये.ये काफी हद तक रिसोर्सेज़ की लड़ाई है. किसी कालोनी में जाएँ. पार्किंग के लिए लोग एक-दूसरे को मार रहे हैं. सड़क में कार से जल्दी आगे निकलने के लिए लोग एक-दूसरे को मार रहे हैं. आगे पहुंचना है, क्योंकि इनसिक्यॉरिटी इतनी बढ़ रही है इस पैराडाइम में. ये जो कार्पोरेट वाला नियोलिबरल पैराडाइम है, इसमें हिंसात्मक कम्पटीशन बढ़ रहा है,  मूल्यों का हनन हो रहा है. हमारे बड़े-बड़े एक्टर्स, जो करोड़पति है, शराब के विज्ञापन निकालते हैं, जोकि गैरकानूनी है. शराब को वो सोडा या म्यूजिक कहके बेचते हैं. टेलीविजन पर रोज आते हैं- लार्ज...लार्ज...स्मालर.. स्मालर.. बिगर दैन लाइफ. कौन हैं ये? ये करोड़पति लोग हैं,  जो गैरकानूनी तरीके से शराब बेच रहे हैं ये खाते-पीते डाक्टर भ्रूणहत्याएं कर रहे हैं. इसके कारण ३६ मिलियन औरतें कम हैं इस देश में पुरुषों से. छत्तीस मिलियन ! दो मायनार्टिज के मर जाते हैं तो हड़तालें हो जातीं हैं. २० दलित मर जाते हैं तो भी हड़तालें हो जातीं हैं. यहाँ ३६ मिलियन औरतों को मर के गिरा दिया गया, क्या कभी पार्लियामेंट बंद हुई आधे दिन के लिए कि कहाँ जा रहीं हैं ये ? सेक्स रेशियो क्यों गिरता जा रहा है ? अगर कोई आकर छाती पीटतीं हैं , तो महिला संस्थाएं आकर पीटतीं हैं. क्यों ट्रेड यूनियंस आकर इस पर बात नहीं करतीं? क्यों पॉलिटिकल पार्टी आकर इस पर बात नहीं करतीं ? क्या महिलाओं का मरना सिर्फ महिलाओं कि जिम्मेदारी है? ये जो स्त्री-पुरुष के मुद्दे हैं, ये स्त्री-पुरुष दोनों के मुद्दे हैं. इसमें मैंने ये भी समझाने की कोशिश की है कि जब तक औरत आजाद नहीं होगी, पुरुष आजाद नहीं हो सकता. अगर अपनी बेटी को आपको प्रोटेक्ट करके रखना है तो पूरी उमर आप प्रोटेक्ट करते रहोगे. पहले आप, आपके मरने के बाद आपका बेटा और उसका पति. अगर आपकी बेटी काबिल है,  बेटा नालायक निकल गया या डिसएबल पैदा हो गया या मेन्टल इलनेस हो गयी तो आपकी बेटी आपका काम संभाल लेगी. 'स्त्रीकाल' निकाल लेगी. कहेगी, पापा ! मैं हूँ न. आपके पास सारे साधन हैं. अपनी पत्नी को आपने कहीं बाहर नहीं निकलने दिया. आपका एक्सीडेंट हो जाता है और आप मरते रहते हो कि मेरी पत्नी का क्या होगा. मेरे परिवार का क्या  होगा. अगर पत्नी भी उतनी ही क़ाबिल होगी तो कहेगी- पार्टनर! डोंट वरी. मैं हूँ न ! मैं तो यही मानती हूँ, चूँकि स्त्री-पुरुष दोनों एक ही परिवार में रहते हैं, बराबरी होगी तो शांति होगी बराबरी होगी तो आगे बढ़ पाएंगे. गैरबराबरी होगी तो, घर में चार लोग हैं, जिनमें दो मुरझाये हुए हैं और दो पनप  रहे हैं. मैं हमेशा कहती हूँ कि मैंने आज तक कोई किसान नहीं देखा है, जिसके पास चार एकड़ जमीन है, वो दो एकड़ सड़ने दे और दो एकड़ में फलें-फूलें चीजें. लेकिन लड़के और लड़कियों के साथ हम यही करते हैं. चलो हमको पहले नहीं मालूम था, औरतें क्या-क्या कर सकतीं हैं. कितनी काबिल बन सकतीं हैं. पर अब तो औरतों ने पिछले 100 सालों में दिखा दिया कि दुनिया का कोई क्षेत्र नहीं, जिसमें वह काबिलियत नहीं रखतीं.

आप एन.जी.ओ. ट्रेनिंग ही करती रही हैं या ट्रेनर की मास ट्रेनिंग करती रहीं हैं ?
कमला भसीन-एन.जी.ओ(ज़) में मई उन लोगों की ट्रेनिंग करती रहीं हूँ , जो गांवों में जाकर काम करते हैं. कालेज और यूनिवर्सिटीज ने भी मुझे कई बार बुलाया है. जैसे अब अगले हफ्ते लेडी इरविन कालेज ने. गार्गी कालेज और लेडी इरविन कालेज ने हमेशा से मुझे बुलाया है. फिर मैंने एक और संस्था शुरू की थी, उसका नाम है- ‘अंकुर’, अल्टरनेटिव इन एजुकेशन. ये स्कूलों में काम कर रही है. इस प्रकार हर जगह थोड़ा- थोड़ा काम किया है.


 आप तो जेंडर समानता के गीत भी लिखती हैं? गीतों के संग्रह नहीं आये?
बिल्कुल, मेरा मुख्य  काम वही है. मेरे गीतों की किताबें हैं. सी.डी. हैं. पिछले 3 साल में तो 3 नए   सी.डी.(ज़) निकाले हैं. गीतों का मेरा खास काम है,  जिसकी वजह से मैं जानी जाती हूँ. मेरे गीत हैं, पोस्टर्स हैं, बैनर्स हैं.पिछले 15-20 साल से हम कपड़ों में बड़े-बड़े स्लोगन्स, चूँकि मेरा ये मानना है कि कुछ राज्यों में 50-60 प्रतिशत महिलाएं पढ़-लिख  नहीं सकतीं, वहां पर जो गीत का माध्यम है, बहुत सशक्त माध्यम है.

'परचम बना लेती', वो आपका ही गीत है? यह तो किसी और की  लाइन है.
 ये लाइन किसी और की है, लेकिन गीत मेरा है. शायद मख़दूम साहब हैं. मैंने उसमे लिखा है-'तू इस आँचल का परचम बना लेती तो अच्छा था, तू सहना छोड़कर कहना शुरू करती तो अच्छा था.' ये लाइनें मेरी हैं, लेकिन वहां से प्रेरित हैं.

अभी बात हो रही थी कास्ट को लेकर के, आप कास्ट क़्वेश्चन को कैसे देख रहीं हैं? महिला रिजर्वेशन के प्रसंग में अपनी बात कहेंगी कि उसमें 'रिजर्वेशन-विदइन-रिजर्वेशन' के कारण तो दिक्कत नहीं हैं? यदि ऐसा है तो क्यों नहीं उस पर ओपन हुआ जाये? 
हिंदुस्तान में अगर हम पितृसत्ता कि बात करें,  तो जिन लोगों ने पितृसत्ता पढ़ा हैं वे जानते हैं, लगभग जब पितृसत्ता चालू हुई , तो जाति-व्यवस्था भी लगभग उसी टाइम चालू हुई. ये दोनों सिस्टम सत्ता रिलेटेड हैं.एक में पुरुष सत्ता है और दूसरे में जाति सत्ता है. दोनों शोषण पर आधारित हैं. ठीक इसी प्रकार से क्लास, अगर आप कार्ल मार्क्स कि बात करें तो उन्होंने यही कहा कि जब तक प्राइवेट प्रॉपर्टी नहीं आई थी पितृसत्ता नहीं थी. मैं इस बात को मानती हूँ कि प्राइवेट प्रॉपर्टी ही कारण थी, जिसके कारण पितृसत्ता लानी पड़ी. प्राइवेट प्रॉपर्टी के बाद ही जितनी गैरबराबरियां  आईं  हैं. क्योंकि उसके पहले सब कहते थे, पीते थे, मरते थे. जैसे प्राइवेट प्रॉपर्टी डेवलप हुई, तो हुआ  कि ये अब कौन संभालेगा ? तय हुआ पुरुष, ब्राह्मण और अपर क्लास. तो ये तीनों सिस्टम लगभग इकठ्ठे आये. औरत सिर्फ औरत नहीं होती. औरत की कास्ट भी होती है. औरत की क्लास भी होती है. औरत की रेस भी होती है.

महिला रिजर्वेसन पर आपका  सैद्धांतिक स्टैंड क्या है ?
मैं यह मानती हूँ कि इन सब चीजों पर काम करना जरूरी है. कोई भी इंसान हर चीज पर काम नहीं कर सकता. ये जरूरी है कि हम नेटवर्किंग करें. कोऑर्डिनेट करें. एन.ऍफ़ .आई.डब्लू के साथ, एपवा के साथ, नारीवादियों के साथ काम करें. रिजर्वेशन पर मैं मानती हूँ कि यह  ज़रूरी है.

 ट्रेनिंग के दौरान के अपने अनुभव बताएंगी? लड़कियां कितनी जल्दी रेस्पॉन्ड करती हैं? कितनी जल्दी लड़कियां समझतीं हैं जेंडर के इश्यूज़ को और लड़के कितनी जल्दी ?
 मेरी ज्यादातर जो ट्रेनिंग्स हैं वो महिलाओं के साथ होती हैं, लड़कियों के साथ नहीं.मैं १४ साल से काम उम्र को लड़की समझती  हूँ और १४ साल से ऊपर को औरत. चूँकि मैं ज्यादातर ट्रेनिंग्स औरतों के साथ काम करने वालों के साथ करती हूँ.ट्रेनर हों, एक्टिविस्ट हों, एन.जी.ओ. हेड्ज़ हों, पार्लिआमेंटेरियन्स हों, पोलिस आफिसर्स हों- इन सबके साथ मैं ट्रेनिंग कर चुकी हूँ. जब से मेरे बाल सफ़ेद हुए हैं,  जोकि २० साल हो गए हैं, तो मैं ज्यादा शक्तिशाली पुरुषों के साथ काम करती हूँ. क्योंकि वे किसी जूनियर ट्रेनर की बात सुनने को तैयार नहीं हैं. क्योंकि मैं यू.एन. में थी. मैं फलानी थी. मैं ढिकानी थी. तो वहां पर तजुर्बे की आवश्यकता होती है. जैसे मालदीव में मैंने मिनिस्टर्स, ब्यूरोक्रेट्स के साथ ट्रेनिंग्स की है. पुरुष और महिला पार्लिआमेंटेरियन्स के साथ ट्रेनिंग की है. पाकिस्तान, बांग्लादेश के एन. जी. ओ(ज) के पूरे-पूरे स्टाफ के साथ ट्रेनिंग की है. बांग्लादेश में छोटी वर्कशॉप्स टी. वी.चैनल्स के पत्रकारों के साथ की. नेपाल में पत्रकारों के साथ ४ दिन की ट्रेनिंग की. वहां पर एक संचारिका समूह है वीमेन मीडया पर्सन्स का, उनके साथ ट्रेनिंग की. हिन्दुस्तान की पुलिस और ब्यूरोक्रेट्स के साथ काम किया. लेकिन हिंदुस्तान के पार्लिआमेंटेरियन्स  के साथ नहीं. उनके पास टाइम कहाँ है? उनको कहाँ शर्म है,  जो उनके मुंह से रोज जुमले निकलते हैं महिलाओं के खिलाफ. पहली बार बात हो रही थी.  'आप' वाले आये थे, बातचीत कर रहे थे. आप के साथ बातचीत चल रही है.वे करवाना चाहते हैं ट्रेनिंग. मगर कब किसी को टाइम मिलेगा, ये भी देखना होगा. वे पूरे एक दिन अपने तमाम लेजिस्लेचर्स के साथ बैठना चाहते हैं. कई दफा आ चुके हैं. अब जो आपका प्रश्न था कि महिलाएं जल्दी समझ जातीं हैं, तो ये लाजिमी है. अगर आप दलितों के साथ जातिवाद पर ट्रेनिंग करेंगे तो दलित जल्दी कहेंगे, हाँ ठीक है, ऐसा होता है. क्योंकि वो जूता दलित को काट रहा है. अब मैं स्त्रीवादी हूँ, आप मुझसे दलित की बात करोगे तो मैं हिचकिचाऊंगी,  क्योंकि मैं औरत के हक़ की तो बात कर रही हूँ लेकिन क्या मैं क्लास पर उसी शिद्दत से बात कर रही हूँ.? क्या मैं कास्ट पर उसी शिद्दत से बात कर रही हूँ? क्या मैं अपनी जिंदगी में उसको जी रही हूँ? नहीं जी रही हूँ. इटेलेक्चुअली समझती हूँ. दूसरी बात ये है संजीव कि सारे पुरुष एक जैसे नहीं होते हैं. जिन पुरुषों के साथ मैं काम करती हूँ, जो एन. जी.ओ. वाले हैं, वे बहुत काम कर चुके होते हैं इन चीजों पर. कुछ सेन्सिटाइज़ होते हैं. मगर फिर भी पुरषों में अधिक रेजिस्टेंस होती है. बार-बार उन सवालों के साथ आते हैं. इसलिए मैं हमेशा ये कहती हूँ उनको कि भई मेरे साथ अगर बैठना है तो समय लेकर बैठ सकते हैं. मैं २ घंटे, तीन घंटे की ट्रेनिंग्स नहीं करती. कोई मतलब नहीं है. उसमें कुछ नहीं हो सकता. मैं तीन दिन कम-से- कम उनके साथ बैठती हूँ.

अभी जागोरी के साथ आपका असोसिएशन कैसा है?
'संगत' का काम है. वो 'जागोरी' का प्रोजेक्ट है. मैं वहां बैठती हूँ. लेकिन जो हमारा नेटवर्क है उस पर काम करती हूँ.एक बहुत बड़ा कैम्पेन 'जागोरी' और 'संगत' मिलकर कर रहे हैं. ये पूरी दुनिया में चल रहा है. हिंदी में हम उसको कहते हैं 'उमड़ते सौ करोड़'. अंग्रेजी में उसका नाम है 'वन बिलियन राइज़िंग'.मैं इसकी दक्षिण एशिया की कोआर्डिनेटर हूँ.एक और संस्था है 'पीस वीमेन एक्रॉस द वर्ल्ड. मैं उसकी ग्लोबल को-चेयर हूँ.इसमें दो चेयर्स हैं. ' वन बिलियन राइजिंग' का आ इडिया ई. वेंसनर ने दिया था मगर हमने कभी उसके नाम से इसको नहीं चलाया है.क्योंकि हम लोग भी महिलाओं पर होने वाली हिंसा पर 40 साल से काम कर रहे हैं. हमें लगा कि ये सबसे अच्छा मौका है दुनिया में सबके साथ मिलकर काम करने का.250 देशों में ये पिछले 3 साल में चला.क्या मतलब है इसका ? 100 करोड़  या वन बिलियन राइज़िंग का?  पूरे विश्व में 7 बिलियन से ज्यादा लोग हैं. आधी महिलाएं हैं -साढ़े तीन बिलियन.संयुक्त राष्ट्र संघ का कहना है कि 3 में से 1 औरत मार खाती है. उसके ऊपर हिंसा होती है. तो इस तरह एक बिलियन औरतों पर मार पड़ती है. यह एक बिलियन कांसेप्ट वहां से आया.अगर एक बिलियन मार खा रही हैं तो जब तक एक बिलियन स्त्री-पुरुष और बच्चे उठकर ये नहीं कहेंगे कि ये खतम हो, तब तक बात नहीं बनेगी.  अगर एक बिलियन पर हिंसा हो रही है तो हम एक बिलियन को इस हिंसा के खिलाफ खड़ा करेंगे.ये 250 देशों में चल रहा है क्योंकि पहले से लोग इस पर काम कर रहे थे. लेकिन मैं जब अपने स्तर पर, जागोरी के स्तर पर, संगत के स्तर काम करती हूँ तो एहसास होता है कि मैं एक बूँद हूँ.  जब मैं वन बिलियन का हिस्सा बन जाती हूँ, जब मैं इंटरनेशनल वीमेंस डे का हिस्सा बन जाती हूँ तो मुझे लगता है मैं बूंद से समंदर हूँ. समंदर बनने के लिए इस तरह के अंतरराष्ट्रीय अभियानों से हम जुड़ते हैं, जुड़कर काम करते हैं लेकिन काम अपने स्तर पर होता है.

अंतिम सवाल एक . आपको नहीं लगता कि डॉ. आंबेडकर स्त्रीवाद के लिए एक आइकॉन होने चाहिए थे, उन्होंने जितना काम किया था हिंदुस्तान में महिलाओं के लिए अलग टॉयलेट्स से लेकर हिन्दू कोड बिल तक, उतना आधुनिक भारत में किसी ने नहीं किया. 
बिलकुल मैं मानती हूँ कि उन्होंने बहुत काम किया. कुछः लोगों के लिए वे हैं आइकॉन. सिर्फ स्त्रीवाद के ही नहीं वे डेमोक्रेसी के आइकॉन हैं, वे सेकुलरिज़म के आइकॉन हैं, वे बराबरी के आइकॉन हैं. इसी तरह महत्मा फुले , शाहू जी महाराज आदि बहुत लोगों ने काम किया है. हम उनके ही कन्धों पर खड़े हैं. आज अगर भारत का ये संविधान न होता तो किस बिना पर ये लड़ाइयां लड़ते हम.मैं तो कहती हूँ कि भैया मैं तो भारत के संविधान के लिए लड़ रही हूँ. आप लिख दो  भारत के संविधान में किस्त्री-पुरुष बराबर नहीं हैं, तो हम चुप होकर बैठ जायेंगे. या यह करो या फिर संविधान के अनुसार बराबरी दो. मैं कहती हूँ भारत आजाद हुआ 1947 में औरत को अभी आजाद होना है. मैं बिना डर के नहीं घूम सकती हूँ तो मेरी आजादी का मतलब क्या है?

इस मामले तो क्लास खतम हो जाता है. यदि प्रियंका गांधी चली जायें कहीं बिना गांधी के टैग के तो फिर वे औरत हो जातीं हैं.
हाँ, खतम. और असली चीज एक सांस्कृतिक क्रांति कि जरूरत है. क़ानून बहुत आ गए . दहेज़ का क़ानून  बने कितने साल हो गए. रेप का क़ानून बने कितने साल हो गए. भ्रूण हत्या के खिलाफ क़ानून बने कितने साल हो गए लेकिन क्या वे  हमारी हकीकत बने  ?नहीं बने. क्योंकि लॉ बदलना आसान है.

काउंटर अटैक भी बहुत हुआ है. पिछले २०-३० सालों में जो लॉ वाली उपलब्धियां हासिल की हैं या एक स्पेस की भी उपलब्धि है हमारी लेकिन प्रतिआक्रमण  जबरदस्त हुआ है. मुझे लगता है कि इस अनुपात में हम लोग उसके बाद तैयार नहीं हैं. 
जैसा मैंने आपसे कहा हमारे खिलाफ पूरा कार्पोरेट वर्ल्ड है. पोर्नोग्राफी की बिलियन डॉलर इंडस्ट्री है. जो रोज कहते हैं कि औरत को  इस-इस प्रकार से पीड़ित करना है. पूरा टेलीविजन, जो अपने सीरियल्स दिखाता है, क्या औरत की हालत बना रखी है इन लोगों ने !  और ये जो गाने हैं- 'मैं तंदूरी मुर्गी हूँ मुझे ह्विस्की से गटका ले, शीला की जवानी.' कमला भसीन गीत लिखतीं है, ज्यादा से ज्यादा मैं लगा लूँ तो तो एक मिलियन लोग देख लेंगे मेरे गीत. फिल्म 'दबंग', ' लौंडिया पटायेंगे मिस्ड कॉल से'- इसको हमने १०० करोड़ का बिजनेस दिया. तो मैं बनाने वालों को क्या दोष दूँ,  जब १०० करोड़ के बिजनेस वाले आप और हम लोग बैठे हैं ? जब हर पंजाबी शादी पर 4-4 साल की लड़कियां इस गाने पर नाचती हैं कि 'मैं तंदूरी मुर्गी हूँ,  मुझे ह्विस्की से गटका ले'. तो क्या इसका कोई असर नहीं पड़ता है लोगों पर? हमारे खिलाफ जो ताकते हैं, दलितों के खिलाफ जो ताकतें हैं, अगर आप समझते हैं कि कोई दलित आंदोलन या महिला आंदोलन उसको जीत पायेगा, तो आप गलत समझते हैं. इसको जीतने के लिए सबको लड़ना पड़ेगा.



लेकिन दलित आंदोलन फिर भी ऐक्टिव है. रजिस्टेंस है वहां. स्त्रीवादी 80-90 के बाद से एक्टिव नहीं हैं. उस दौर में जो स्त्रीवादियों का दबाव बना, अब नहीं है.  
मैं बिलकुल नहीं मानती. आप लोग  तो शहरों में रहकर ये सारी बातें करते हैं. कोई गांव है जहाँ पर महिलाओं का कोई समूह नहीं है? जहाँ पर लड़कियां पढ़ने के लिए लड़ नहीं रही हैं ? आप तो महिला आंदोलन उसको मानते हो जहाँ पर कोई नेता हो , मेरी जैसी. मतलब जिस तरीके से ये पहुंचा है गांव-गांव तक,  जिस तरीके से यह सब कुछ हुआ है, यह कोई आसान बात नहीं है. गांवों से भी जो लिखते हो आप लोग, फलानी दलित औरत का बलात्कार  हो गया! कहाँ से न्यूज़ आई आपके पास? उस लड़की ने क्यों रिपोर्ट किया इसको? बिना स्त्रीवाद के उसकी रिपोर्ट हो गई ?बिना महिलाओं के काम करने के उसकी रिपोर्ट हो गई ? कहीं न कहीं से ये बात उसके दिमाग में पहुंची होगी कि औरत होने के नाते उस पर शोषण नहीं हो सकता. यह कांसस्नेस उसके पास कहाँ से आई? इन्हीं चीजों से पहुंची.

ये तो मैंने पहले ही कहा कि रिपोर्टिंग बढ़ी है.
लेकिन रिपोर्टिंग क्यों बढ़ी उस पर भी तो जाइए न. रिपोर्ट तो औरत ही करती है, मीडिया तो नहीं करता. तो औरत के अंदर वो चेतना कहाँ से आई ? वो चेतना आई होगी, कहीं किसी छोटे से एन. जी.ओ. ने कहा होगा कि देख तेरे साथ ये नहीं हो सकता, ये गलत है. इसके ऊपर कानून है. तू रिपोर्ट कर सकती है. तू पुलिस थाने जा सकती है , ये पचास साल पहले उसको नहीं मालूम था. रजिस्टेंस है. हम तो यही मानते हैं.
लिप्यान्तरण : अरुण कुमार प्रियम