आज 1 मई 2024 है..! एक मई, यानी मजदूर दिवस।
रोजा लक्जमबर्ग ने कहा था, ‘ जिस दिन औरतों के श्रम का हिसाब होगा, इतिहास की सबसे बड़ी धोखाधड़ी पकड़ी जाएगी। हजारों वर्षों का वह अवैतनिक श्रम, जिसका न कोई क्रेडिट मिला, न मूल्य।’
हम जब भी श्रम , मेहनत की बात करते हैं तो मर्द - आदमी का ख्याल आता है। आप सब ने सड़क किनारे , काम की जगहों पर वह बोर्ड लगा देखा होगा, ‘मेन एट वर्क’," MEN AT WORK " कहीं नहीं लिखा होता, ‘ वुमेन एट वर्क ’ या " LGBTQIA+ एट वर्क " । चाहे साइट पर काम कर रही मजदूर और इंजीनियर, दोनों औरतें ही क्यों न हों। मजदुर दिवस पर महिलाओं और अलग - अलग पहचान के लोगों ( LGBTQIA+: Abbreviation for Lesbian, Gay, Bisexual, Transgender, Queer, Intersex, and Asexual. The additional “+” stands for all of the other identities not encompassed in the short acronym. An umbrella term that is often used to refer to the community as a whole.) की मेहनत सामने नही आती !
काम यानी मर्दानगी की बात।
पूरी दुनिया की सारी औरतों का समूचा मुफ्त घरेलू श्रम, जिसकी उन्हें कोई तंख्वाह नहीं मिलती, वह दुनिया के 50 सबसे ताकतवर मुल्कों की समूची जीडीपी के बराबर ठहरता है.
आपको अपनी नौकरी, जो कि एक सवैतनिक श्रम है, से ये नीचे लिखी सारी चीजें मिल रही हैं-
- 1- आप दफ्तर में जो श्रम कर रहे हैं, वो इस देश की जीडीपी (ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट) यानी सकल घरेलू उत्पाद में गिना जा रहा है.
- 2- जीडीपी में हिस्सेदारी का अर्थ है, आपका श्रम देश की अर्थव्यवस्था को मापने में गिना जा रहा है.
- 3- चूंकि आपका श्रम उत्पादक श्रम की श्रेणी में आता है और जीडीपी का हिस्सा है, इसलिए भारत सरकार के श्रम कानून उस पर लागू हो रहे हैं.
- 4-आपके श्रम के लिए नियम-कानून और सुरक्षा के प्रावधान हैं.
- 5- आपको बीमार पड़ने, घूमने, पिता बनने, मां बनने आदि के लिए छुट्टी मिल रही है क्योंकि आपका श्रम जीडीपी का हिस्सा है.
- 6- आपको कई तरह के इंश्योरेंस, मेडिकल अलाउंस आदि मिल रहे हैं क्योंकि आपका श्रम जीडीपी का हिस्सा है.
- 7- आपको सप्ताह, महीने और साल के निश्चित वैतनिक अवकाश मिल रहे हैं क्योंकि आपका श्रम जीडीपी का हिस्सा है.
हर वो श्रम, जो जीडीपी का हिस्सा है, उसके लिए तंख्वाह के अलावा नियम, कानून, छुट्टी, सुरक्षा के प्रावधान हैं. जो श्रम जीडीपी का हिस्सा नहीं, उस पर किसी संविधान और संहिता की कोई धारा, कोई कानून लागू नहीं होता.
इस देश की आधी आबादी यानी 50 करोड़ महिलाओं के अवैतनिक घरेलू श्रम पर सुविधा-सुरक्षा का कोई नियम लागू नहीं होता, क्योंकि वो श्रम जीडीपी का हिस्सा नहीं है.
ये सैलरी, जीडीपी, घरेलू श्रम, औरतें आदि का घालमेल आखिर है क्या ?
अगर आप जानना चाह रही हैं / चाह रहे हैं तो आइए, इसे थोड़ा सलीके से समझते हैं.
‘फेमिनिस्ट इकोनॉमिक्स’ – क्या आपने कभी ये शब्द सुना है?
अगर आपने स्कूल-कॉलेज में इकोनॉमिक्स बतौर एक विषय पढ़ा है, तब भी इस बात की संभावना बहुत कम है कि आप इस शब्द से वाकिफ हों. आपने एडम स्मिथ को पढ़ा होगा, जॉन स्टुअर्ट मिल के सिद्धांत रटे होंगे, डेविड रिकॉर्डो और इरविंग फिशर को पढ़कर परीक्षा पास की होगी, लेकिन फेमिनिस्ट इकोनॉमिक्स और मैरिलिन वेरिंग का नाम शायद ही सुना हो.
मैरिलिन वैरिंग न्यूजीलैंड की अर्थशास्त्री और पॉलिटिकल एक्टिविस्ट हैं. मैरिलिन ‘फेमिनिस्ट इकोनॉमिक्स’ की जनक मानी जाती हैं. 1988 में उन्होंने एक किताब लिखी, ‘इफ विमेन काउंटेड’. अमेरिकन फेमिनिस्ट एक्टिविस्ट एंड राइटर ग्लोरिया स्टाइनम ने उस किताब की भूमिका लिखी थी. इस किताब को फेमिनिस्ट इकोनॉमिक्स की शुरुआत माना जा सकता है. इस किताब में उन्होंने पहली बार इस बात को विस्तार से आंकड़ों, तथ्यों और गणितीय विश्लेषण के साथ समझाने की कोशिश की कि अगर स्त्रियों का अवैतनिक श्रम जीडीपी का हिस्सा होता तो हमारी अर्थव्यवस्था कैसी होती. समाज में स्त्रियों की सामाजिक-आर्थिक हैसियत कैसी होती. इस किताब में मैरिलिन लिखती हैं कि कैसे पूरी दुनिया की सारी औरतों का समूचा मुफ्त घरेलू श्रम, जिसकी उन्हें कोई तंख्वाह नहीं मिलती, वह दुनिया के 50 सबसे ताकतवर मुल्कों की समूची जीडीपी के बराबर ठहरता है.
मैरिलिन वैरिंग की किताब पर 1995 में टैरी नैश ने एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाई थी, जिसे उस साल के ऑस्कर अवॉर्ड से नवाजा गया था. फिल्म का नाम था- Who’s Counting? Marilyn Waring on Sex, Lies and Global Economics.
फिल्म लिंक https://www.youtube.com/watch?v=WS2nkr9q0VU
यूट्यूब पर ही मैरिलिन वैरिंग का एक टेड टॉक भी है, जिसमें वो इस अनपेड घरेलू श्रम की इकोनॉमिक्स को तरीके से समझाती हैं. मैरिलिन घरेलू श्रम के साथ स्त्रियों के उस श्रम की बात करती हैं, जो बच्चा पैदा करने, उसे दूध पिलाने, पालने-पोसने से जुड़ा है.
इस टॉक शो का लिंक https://www.youtube.com/watch?v=BrnZMrjsf6w
वो कहती हैं, “क्या आपको पता है कि आप अपने दुधमुंहे शिशु को जो दूध पिला रही हैं, वो जीडीपी का हिस्सा नहीं है. गाय, भैंस, भेड़, बकरी सबका दूध जीडीपी में गिना जाता है, लेकिन आपका नहीं.”
पिछले साल सितंबर में नेशनल स्टैटिकल ऑफिस (एनएसओ) ने अपनी साल 2019 की रिपोर्ट जारी थी. यह रिपोर्ट कह रही थी कि एक भारतीय महिला प्रतिदिन 243 मिनट यानी चार घंटे घरेलू काम करती है, जबकि भारतीय पुरुष का यह औसत समय सिर्फ 25 मिनट है. यानी उसके आधे घंटे से भी कम घरेलू कामों में खर्च होते हैं.
समझने के लिए आंकड़ों को थोड़ा भीतर जाकर इसकी पड़ताल करते हैं. प्रतिदिन 243 मिनट घरेलू कामों में खर्च करने का मतलब है कि एक औरत अपने समूचे उत्पादक समय का 19.5 फीसदी हिस्सा घर के कामों में लगा रही है, जिसके लिए उसे कोई वेतन नहीं मिलता. जबकि पुरुष का यह प्रतिशत मात्र 2.3 है.
एनएसओ के आंकड़ों के मुताबिक वेतन वाली नौकरी के साथ-साथ 81 फीसदी औरतें घर के काम करती हैं, जबकि मात्र 26 फीसदी मर्दों की घरेलू कामों में हिस्सेदारी है. ये जनवरी से लेकर दिसंबर, 2020 तक के सर्वे का आंकड़ा है. कोविड और लॉकडाउन के बाद जब अचानक घरेलू काम की जिम्मेदारियां कई गुना बढ़ गईं तो जाहिर है औरतों के घरेलू श्रम का प्रतिशत और बढ़ गया होगा, जिसका इन आंकड़ों में कोई ज़िक्र नहीं है.
अब आते हैं संदर्भ और भूमिका पर.
सैकड़ों सालों से औरतों को बुनियादी इंसानी हक भी न देकर उन्हें रानी-महारानी और देवी का जो मूर्खतापूर्ण झुनझुना पकड़ाया गया है,
श्रम यानी मर्दों का श्रम। कितने लोग जानते हैं कि ये जो पूरी दुनिया में मनाया जा रहा श्रम दिवस है, इसका श्रेय भी दरअसल औरतों को ही जाता है। इसी दिन कामगार औरतों ने काम के घंटे 8 करने के लिए लंबी समय से चल रही लड़ाई जीती थी। आज पूरी दुनिया में नौकरी के घंटे 8 हैं। लेकिन क्या कभी सोचा है कि बाहर की नौकरी के घंटे तो 8 हो गए, तनख्वाह भी सुनिश्चित हो गई, रविवार की छुट्टी भी तय रही, बाकी कैजुअल लीव, मेडिकल लीव, प्रिवेलेज लीव भी। सबके लिए कानून भी बन गया, लेकिन आज भी एक नौकरी ऐसी है, जिसमें न कोई काम के घंटे निश्चित हैं, न कोई छुट्टी का दिन। न ही कोई सैलरी है और न कोई कानूनी अधिकार। यह श्रम है-घरेलू औरतों का अवैतनिक श्रम।
घरेलू श्रम करने वाली औरतों के बच्चे कहते हैं कि मेरी मां हाउस वाइफ है। उनके पति कहते हैं कि उनकी पत्नी कोई काम नहीं करती। ‘पापा क्या करते हैं’ के जवाब हमेशा गर्वीले और वजनदार होते हैं। पापा काम करते हैं, पापा का काम महत्वपूर्ण है। मां कुछ नहीं करती। हालांकि, वह घर में सबसे पहले सोकर उठती है और सबसे बाद में सोती है। संडे के दिन, जब बाकी पूरा परिवार छुट्टी मना रहा होता है, मां डबल मेहनत करती है, लेकिन मां का वर्किंग स्टेटस है कि वह कुछ नहीं करती। दिन भर घर को घर बनाने, रोटी पकाने, बच्चों को पालने, उनको पढ़ाने, सिखाने, इंसान बनाने और घर के सब लोगों की देखभाल करने का स्त्री का श्रम कहीं दर्ज नहीं होता। न उसका वेतन मिलता है और न कोई आदर। कहीं ज्यादा काम की या थकान की शिकायत कर दे तो सुनने को मिलता है, ‘तुम करती क्या हो दिन भर’। आपके दिन भर की मेहनत के बाद अगर बाॅस कह दे कि आपने किया क्या है, तो आप किस कदर अपमानित महसूस करेंगे। औरतें भी करती हैं, बस कह नहीं पातीं। कानून की किताबों में उस श्रम का न कहीं जिक्र है, न उससे जुड़ा कोई कानूनी अधिकार।
कुछ साल पहले संसद में भी यह सवाल उठा था। औरतों के घरेलू श्रम को जीडीपी से जोड़ने का सवाल। उस श्रम की कीमत का सवाल। दुनिया की कोई मेहनत मुफ्त की मेहनत नहीं होनी चाहिए। उसे उसका मूल्य मिलना चाहिए। सवाल आया और चला गया। ज्यादा विचार नहीं हुआ इस पर, क्योंकि देश के लिए ये इतना जरूरी सवाल नहीं था शायद। आपके लिए भी नहीं है शायद। लेकिन अगली बार जब आप अपनी पत्नी या अपनी मां से कहें कि तुम दिन भर करती क्या हो, तो उस श्रम के बारे में जरूर सोचिएगा जिसने आपको इस लायक बनाया कि आप दुनिया में सिर उठाकर जी सकें। इज्जत पा सकें। औरत के श्रम का मूल्य नहीं तो कम से कम उसे उसका श्रेय तो दीजिए। उसे इज्जत दीजिए। ये इनका अधिकार हैं .
सभार - tv9 , bhaskar , Fii